शीतला सप्तमी और अष्टमी 2024
चैत्र कृष्ण सप्तमी और अष्टमी को उत्तर भारत में – विशेष रूप से राजस्थान और उत्तर प्रदेश में – शीतला माता की पूजा की जाती है | कुछ स्थानों पर यह पूजा सप्तमी को होती है और कुछ स्थानों पर अष्टमी को | वैसे शीतला देवी की पूजा अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समय की जाती है | उदाहरण के लिए बंगाली समाज में माघ शुक्ल पँचमी को सरस्वती पूजा के बाद दूसरे दिन यानी माघ शुक्ल षष्ठी को शीतला षष्ठी मनाई जाती है | इस दिन 6 प्रकार की सब्जियों को एक साथ उबालकर खाने का नियम है | शीतला षष्ठी के नाम से सरस्वती पूजा के दिन इस खाने को पकाया जाता है और अगले दिन ठण्डा करके खाया जाता है | आप इसे बासी भोजन कह सकते हैं | अधिकतर बंगाली परिवारों में उस दिन चूल्हा नहीं जलता | यहां तक कि सिलबट्टा पर भी कोई चीज पीसी नहीं जा सकती | इस दिन प्रातःकाल विधि-विधान के साथ घरों में सील लोढ़ा (सिलबट्टे) और चूल्हे की भी पूजा की जाती है | ऐसी मान्यता है कि क्योंकि यह यह शीतल षष्ठी होती है, इसलिए गर्म भोजन नहीं, बल्कि एक दिन पहले पका हुआ शीतल भोजन ग्रहण करना चाहिए | कहीं वैशाख कृष्ण अष्टमी को तो कहीं चैत्र कृष्ण सप्तमी-अष्टमी को इस पर्व को मनाया जाता है | कुछ स्थानों पर होली के बाद प्रथम सोमवार अथवा बुधवार को शीतला माता की पूजा का विधान है | गुजरात में श्री कृष्ण जन्माष्टमी से एक दिन पूर्व “शीतला सतम” नाम से इस पर्व को मनाया जाता है | किन्तु चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को शीतला पूजा का विशेष महत्त्व है |
इस वर्ष रविवार 31 मार्च को रात्रि 9:31 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और व्यातिपत योग में सप्तमी तिथि का आगमन हो रहा है जो सोमवार पहली अप्रैल को रात्रि नौ बजकर नौ मिनट तक रहेगी और उसके बाद अष्टमी तिथि लग जाएगी जो मंगलवार रात्रि आठ बजकर आठ मिनट तक रहेगी | गुरूवार को सूर्योदय 6:20 पर तथा सूर्यास्त 6:34 पर हो रहा है | अतः इस मध्य किसी भी समय शीतला सप्तमी की पूजा की जा सकती है | जो लोग अष्टमी को शीतला देवी की पूजा करते हैं वे भी शुक्रवार को प्रातः 6:20 से 6:34 के मध्य किसी भी समय शीतला अष्टमी की पूजा कर सकते हैं | इस प्रकार उदया तिथि होने के कारण सप्तमी को शीतला माता की पूजा सोमवार पहली अप्रैल को की जाएगी और अष्टमी को जो लोग शीतला माता की पूजा करते हैं वे मंगलवार को करेंगे |
हमें स्मरण है कि हमारे श्वसुरालय ऋषिकेश और पैतृक नगर नजीबाबाद में शीतला माता के मन्दिर हैं | जब वहाँ होली के बाद आने वाली शीतलाष्टमी को शीतला माता के मन्दिर पर मेला भरा करता था तथा वहाँ मन्दिर में जो कुछ भी माता को अर्पित किया जाता था वह सफ़ाई कर्मचारी को सम्मानपूर्वक दिया जाता था तथा उनका आशीर्वाद भी लिया जाता था | ये सब एक सामाजिक समभाव की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया तो थी ही, साथ ही यह मेला बड़ों के लिए एक ओर जहाँ शीतला माता की पूजा अर्चना का स्थान होता था वहीं हम बच्चों के लिए मनोरंजन का माध्यम होता था |
शीतला माता का उल्लेख स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | इसके लिए पहले दिन सायंकाल के समय भोजन बनाकर रख दिया जाता है और अगले दिन उस बासी भोजन का ही देवी को भोग लगाया जाता है और उसी को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है | इसका कारण सम्भवतः यही रहा होगा कि इसके बाद ऐसा मौसम आ जाता है जब भोजन बासी बचने पर खराब हो जाता है और उसे फिर से उपयोग में नहीं लाया जा सकता | और इसी कारण से कुछ स्थानों पर इसे “बासडा” अथवा “बसौड़ा” भी कहा जाता है | इस दिन लोग लाल वस्त्र, कुमकुम, दही, गंगाजल, कच्चे अनाज, लाल धागे तथा बासी भोजन से माता की पूजा करते हैं | शीतला देवी की पूजा मुख्य रूप से ऐसे समय में होती है जब वसन्त के साथ साथ ग्रीष्म का आगमन हो रहा होता है | चेचक आदि के संक्रमण का भी मुख्य रूप से ऋतु परिवर्तन का यही समय होता है |
शीतला माता का वाहन गर्दभ को माना जाता है तथा इनके हाथों में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते रहते हैं | इन सबका भी सम्भवतः यही प्रतीकात्मक महत्त्व रहा होगा कि इस ऋतु में प्रायः व्यक्तियों को चेचक खसरा जैसी व्याधियाँ हो जाती थीं | रोगी तीव्र ज्वर से पीड़ित रहता था और उस समय रोगी की हवा करने के लिए सूप ही उपलब्ध रहा होगा | नीम के पत्तों के औषधीय गुण तो सभी जानते हैं – उनके कारण रोगी के छालों को शीतलता प्राप्त होती होगी तथा उनमें किसी प्रकार के इन्फेक्शन से भी बचाव हो जाता होगा | स्कन्द पुराण में शीतला माता की पूजा के लिए शीतलाष्टक भी उपलब्ध होता है | वैसे शीतला देवी की पूजा करते समय निम्न मन्त्र का जाप किया जाता है:
वन्देsहम् शीतलां देवीं रासभस्थान्दिगम्बराम् |
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम् ||
अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश और मस्तक पर सूप का मुकुट धारण करने वाली भगवती शीतला की हम वन्दना करते हैं | इस मन्त्र से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि शीतला देवी स्वच्छता की प्रतीक हैं – हाथ में झाडू तथा सफ़ाई कर्मचारियों का सम्मान और उन्हें मन्दिर के पुजारी के समान पूजा की वस्तुएँ समर्पित करना इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि एक ओर तो हम सबको स्वच्छता के प्रति जागरूक और कटिबद्ध होना चाहिए, क्योंकि चेचक, खसरा तथा अन्य भी सभी प्रकार के संक्रमणों का मुख्य कारण तो गन्दगी ही है, तो वहीं दूसरी ओर पुरुष सूक्त की इस भावना की भी पुष्टि करता है कि सभी मनुष्य ईश्वर का अंश हैं, उनकी सामर्थ्य के अनुसार वे संसार के सकुशल संचालन में अपना अपना योगदान देते हैं अतः सभी एक समान सम्मान के अधिकारी हैं | साथ ही, समुद्रमन्थन से उद्भूत हाथों में कलश लिए आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरी की ही भाँति शीतला माता के हाथों में भी कलश होता है, सम्भवतः इस सबका अभिप्राय यही रहा होगा कि स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति जन साधारण को जागरूक किया जाए, क्योंकि जहाँ स्वच्छता होगी वहाँ स्वास्थ्य उत्तम रहेगा, और स्वास्थ्य उत्तम रहेगा तो समृद्धि भी बनी रहेगी | सूप का भी यही तात्पर्य है कि परिवार धन धान्य से परिपूर्ण रहे |
देवी का नाम भी सम्भवतः इसी लोकमान्यता के कारण शीतला पड़ा होगा कि शीतला देवी की उपासना से दाहज्वर, पीतज्वर, फोड़े फुन्सी तथा चेचक और खसरा जैसे रक्त और त्वचा सम्बन्धी विकारों तथा नेत्रों के इन्फेक्शन जैसी व्याधियों में शीतलता प्राप्त होती है और ये व्याधियाँ निकट भी नहीं आने पातीं | आज के युग में भी शीतला देवी की उपासना स्वच्छता की प्रेरणा तथा उत्तम स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और सामाजिक समभाव के दृष्टिकोण से सर्वथा प्रासंगिक प्रतीत होती है… अतः हम सभी अपने चारों ओर स्वच्छता का ध्यान रखें, स्वस्थ रहें तथा सभी प्रकार के ऊँच नीच के भेद को दूर कर सबको एक समान समझें… यही कामना है…