अष्ट वसु

अष्ट वसु

अष्ट वसु

हमारी एक मित्र ने हमसे वसुओं के विषय में प्रश्न किया था । व्यस्तताओं के कारण समय पर इस विषय में कुछ नहीं लिख सके । अष्ट वसुओं के विषय में कुछ लिख पाना इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि अनेकों पौराणिक सन्दर्भ और मान्यताएं इस विषय में हैं और इनके पृथक पृथक नाम पृथक पृथक पुराणों में उपलब्ध होते हैं । बहरहाल, विषय पर आगे बढ़ते हैं ।

वसु – जिनके कारण पृथिवी वसुधा, वसुन्धरा, वसुमती इत्यादि नामों से पुकारी जाती है । तो सबसे पहले हमें वसु शब्द की निष्पत्ति और उसके भाव को समझने की आवश्यकता है । सामान्यतः वसु का अर्थ धन सम्पदा आदि से किया जाता है – जो बहुत सीमा तक उचित भी है । धरती माता की कोख में अमूल्य निधियाँ भरी हैं, जिनके कारण वह वसुन्धरा कहलाती है । लाखो, करोड़ों वर्षो से अनेक प्रकार की धातुओं को, रत्नादिकों को पृथ्वी के गर्भ में पोषण मिला है । और सबसे महान तथा जीवनदायी रत्न तो वसुधा से प्राप्त अन्न, जल, वनस्पतियां ही हैं – जिनके अभाव में जीवन का कोई अस्तित्व ही नहीं । यहां जिन वसुओं के विषय में प्रश्न है वे आठ मौलिक देवता हैं जिन्हें “अष्ट-वसु” कहा जाता है और ये आठों वसु प्रकृति के आठ तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं – ब्रह्माण्डीय प्राकृतिक घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और तैंतीस देवी देवताओं में गिने जाते हैं । वसु का अर्थ है निवास करने वाला और यह शब्द वस धातु में उप प्रत्यय लगाकर बना है । इस प्रकार रत्नगर्भा के हृदय में निवास करने वाली रत्नराशि वसु कहलाई ।

ये वसु तैंतीस देवताओं में से आठ हैं । वेदों में तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के देवी देवता उनके रूप गुण धर्मादि के आधार पर बताए गए हैं, जिन्हें हमारे विद्वानों ने तैंतीस करोड़ बना दिया है । ये तैंतीस देवी देवता हैं – 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु, इन्द्र और प्रजापति । कुछ स्थानों पर प्रजापति के स्थान पर अश्विनी कुमारों का उल्लेख भी मिलता है । प्रजापति ब्रह्मा के लिए कहा गया है । 12 आदित्यों में एक विष्णु स्वयं हैं और 11 रुद्रों में एक शिव भी हैं । इन सभी को उस परम सत्ता ने ब्रह्माण्ड के सुचारू रूप से संचालन के लिए अलग अलग कार्य सौंपे हुए हैं ।

यहां हम बात कर रहे हैं अष्ट वसुओं की । आठ पदार्थों की ही भांति इन आठ वसुओं को भी समझा जाना चाहिए । इन सभी का जन्म दक्ष की पुत्री तथा धर्म की पत्नी अदिति के गर्भ से हुआ था जो भगवान शिव की पत्नी सती की बहिन थीं । जैसा कि ऊपर लिखा है, इन आठों वसुओं के अलग अलग पौराणिक ग्रन्थों में अलग अलग नाम उपलब्ध होते हैं । उदाहरण के लिए स्कन्द, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में आठ वसुओं के नाम हैं:- आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष । भागवत पुराण के अनुसार द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, द्यौ, वसु और विभावसु नाम हैं । महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है । ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं ।

इनके मानव रूप में जन्म के विषय में भी पृथक पृथक पौराणिक ग्रन्थों में पृथक पृथक कथाएँ उपलब्ध होती हैं । जिनमें प्रसिद्ध कथा है कि पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर बारह वर्षों तक घोर तपस्या की । तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया । तत्पश्चात वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । एक अन्य कथा के अनुसार वसुओं में सबसे छोटे वसु द्यौ ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था । वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया । वसुओं के क्षमा मांगने पर महर्षि ने सात वसुओं के तो श्राप की अवधि केवल एक वर्ष कर दी, किन्तु द्यौ नाम के वसु ने क्योंकि उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में निसंतान रहने के साथ ही महान विद्वान और वीर होने के साथ साथ स्त्री के भोग का त्याग करने का भी श्राप दिया । इसी श्राप के कारण इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ । सात पुत्रों को गंगा ने जल में फेंक दिया था, किन्तु आठवें भीष्म को बचा लिया गया था ।

नाम चाहे जो भी हों और मान्यताएँ तथा कथाएँ चाहे जितनी भी प्रचलित हों, इतना अवश्य माना जाता है कि इन सबका प्रकृति और पञ्च महाभूतों से सम्बन्ध है – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र । जैसे :

धर अर्थात धारण करने के गुण धर्म के कारण अर्थात पृथिवी । उनकी पत्नी द्यौ हैं जिनका सम्बन्ध आकाश से है । धरा है तब ही प्राणी मात्र का अस्तित्व और आश्रय है । जो धारण करती है । कुछ भी धारण करने की सामर्थ्य – वह कोई वस्तु भी हो सकती है और विचार भी हो सकता है ।

आप अर्थात जल की वर्षा अन्तरिक्ष से होती है जो नदियों से होता हुआ समुद्र में पहुँचता है और पुनः वाष्पीकृत होकर बरसने के लिए तत्पर हो जाता है । जीवन के लिए अमृत यह जल ही है । जल न हो तो जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसी के कारण मानव शरीर के सारे रस बनते हैं और यही समूची प्रकृति को – समूची धरा को – समस्त वसुओं की जननी बनाता है ।

अनल का अर्थ ही है अग्नि – ऊर्जा । जब हम अग्नि में आहुति देते हैं तो यह माना जाता है कि यह अग्नि के माध्यम से भगवान तक पहुंचता है और बुराई को अच्छाई में बदल देता है और उदारतापूर्वक आशीर्वाद भी देता है । जीवन का आधार यही ऊर्जा है । अग्नि तत्व थोड़ा भी बिगड़ जाए तो शरीर के अंग समुचित रूप से कार्य नहीं कर सकते ।

अनिल का अर्थ भी सर्व विदित है – वायु और अन्तरिक्ष के देव हैं । इन्हें दिशाओं का रक्षक माना जाता है । इसी से हमें जीवित रहने के लिए प्राणवायु प्राप्त होती है । क्योंकि यह तत्व हमारी चेतना को – हमारी विचार शक्ति को प्रभावित करता है इसी कारण से यह हमारी स्मरण शक्ति को भी प्रभावित करता है | यदि यह तत्व विकृत हो जाए तो भ्रम और द्विविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है व्यक्ति के लिए |

द्यौ का अर्थ भी सर्व विदित है – आकाश और इनका एक नाम प्रभाष भी है । अन्तरिक्ष की दिव्य उपस्थिति सर्वव्यापी है और वह सुनिश्चित करती है कि मन की शान्ति, आनन्द और समृद्धि बनी रहे । ये आकाश के पिता और देवी पृथ्वी की पत्नी माने गए हैं और इसीलिए इन्हें सम्मिलित रूप से द्यावापृथ्वी कहा जाता है । वह वर्षा के देवता इन्द्र के भी पिता माने जाते हैं ।

सोम अपने नाम के अनुरूप ही अपनी किरणों से अमृत की वर्षा करने वाले चन्द्र देव हैं । ये सभी प्रकार की भावनाओं अर्थात मन को नियंत्रित करते हैं तथा व्यक्तित्व निर्मित करते हैं । जिस प्रकार चन्द्र सूर्य के प्रकाश से भासित होता है उसी प्रकार मन भी चेतना के प्रकाश से ही प्रकाशित अर्थात् एकाग्र होता है ।

ध्रुव अटल होने के कारण नक्षत्रों के देव हैं । किसी भी विचार को केन्द्रित करने के लिए इसी अटल भाव की आवश्यकता होती है । किसी भी ऊर्जा के प्रवाह का केन्द्र बिन्दु ।

प्रत्यूष अथवा आदित्य सूर्य देव हैं जो प्रकाश तथा ऊर्जा और प्राण अर्थात जीवनी शक्ति के दाता हैं । यह वसु नेतृत्व के गुण प्रदान करते हैं, एक उज्ज्वल भविष्य और अचल सम्पत्ति प्रदान करने वाले माने जाते हैं ।

मान्यताएं और कथाएं चाहे जितनी भी हों, इतना सत्य है कि प्रकृति की ये शक्तियां मनुष्य के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये ऐसी ऊर्जाएं हैं जो हमारे जीवन को सुचारू और संतुलित रूप से सञ्चालन में और हमारे जीवन तथा विचारों को सकारात्मकता प्रदान करने के लिए हमारे साथ निरन्तर “वास” करती हैं ।
—– कात्यायनी