गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

आज वैशाख शुक्ल सप्तमी – यानी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज माँ गंगा का जन्मोत्सव है – गंगा सप्तमी | कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने राक्षसों के उत्पात से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हुए उनका पद प्रक्षालन किया और उस जल को अपने कमण्डल में भर लिया, जिससे बाद में गंगा जी की उत्पत्ति हुई | ऐसी भी मान्यता है कि गंगा सप्तमी के दिन माँ गंगा ने भगवान विष्णु के चरण प्रक्षालित करके उनके चरणों में स्थान प्राप्त किया था | राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्त करने के लिए गंगा जी को पृथिवी पर लाने हेतु कठोर तपस्या की जिसके परिणामस्वरूप गंगा सप्तमी के दिन ब्रह्मा जी ने गंगा जी को अपने कमण्डल से मुक्त किया और माँ गंगा नीचे की ओर तीव्र वेग से दौड़ पड़ीं | क्योंकि बहुत समय से कमण्डल के भीतर बन्द थीं और अब उन्हें कुछ स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी तो उनके भीतर बहुत अधिक उद्वेग था – बहुत अधिक आवेग था – बहुत अधिक उमंग थी – और उसी के कारण उनसे प्रमाद हो गया और वे तीव्र वेग से नीचे आने लगीं | उनका प्रवाह इतना अधिक तीव्र था कि मार्ग में आने वाली हर वस्तु को अपने साथ बहा लिए जा रही थीं | जब भगवान ने यह सब देखा तो उन्होंने गंगा को शान्त करने के लिए अपनी जटाओं में जकड़ लिया और गंगा दशहरा अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तक गंगा जी वहीं बन्द रहीं | भगीरथ अब चिन्तित हो गाए और पुनः उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की कि अब तो उन्हें अपनी जटाओं के बन्धन से मुक्त करें | गंगा जी शंकर जी की जटाओं में शनैः शनैः शान्त होने लगी थीं और शंकर भगवान ने भगीरथ की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गंगा जी को अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया |

जब वे शंकर जी की जटाओं से मुक्त हुईं तो उनमें पुनः वही आवेग आदि आ गया कि मैं तो अब मुक्त हूँ और कुछ भी कर सकती हूँ | और पुनः उसी तीव्र वेग से नीचे उतरती हुई वे अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को – हर प्राणी को अपने प्रवाह के साथ बहाती आगे बढ़ने लगीं | मार्ग में जानू ऋषि का आश्रम पड़ता था | उन्होंने उनका सारा आश्रम भी ध्वस्त कर दिया | जानू ऋषि को क्रोध आया और उन्होंने गंगा का सारा जल पीकर उन्हें सुखा दिया | अब तो सारी पृथिवी पर – सारे लोकों में हाहाकार मच गया | धरा व्याकुल हो गई कि उनकी बहन उनसे मिलने के लिए – उन्हें रसापलावित करने के लिए – नीचे आ रही थी – लेकिन उन्हें पहले तो शंकर भगवान ने उन्हें जटाओं में बाँध लिया, फिर जानू ऋषि ने उनका सारा जल सुखा दिया | अब मैं कैसी मिलूँगी अपनी भगिनी से | तब सारे देवों ने – समस्त लोकों के प्राणियों ने मिलकर जानू ऋषि से प्रार्थना की तब उन्होंने अपने एक कान से गंगा जी को छोड़ा एक पतली धारा के रूप में ताकि उनका प्रवाह नियंत्रित रहे | अब तक उन्हें शिक्षा मिल चुकी थी की मुझे उन्माद में नहीं आना है और वे पूरे शान्त भाव से नीचे उतर आईं |

ये समस्त कथाएँ या तो पौराणिक हैं अथवा लोक मान्यताओं पर आधारित हैं | किन्तु जैसा कि हम प्रायः कहते हैं कि भारतवर्ष का कोई भी पर्व अथवा त्यौहार ऐसा नहीं है जो अकारण हो अथवा जिसमें कोई सन्देश न निहित हो | यहाँ इस पूरे कथानक को देखें समझें तो ज्ञात होता है कि यह सब प्रतीकात्मक है | जल की अधोगति होती है ऊर्ध्व गति नहीं होती – सदा नीचे की ओर ही प्रवाहित होता है | नर्मदा को छोड़कर शेष सारी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं | तो पहली समस्या तो है जल की अधोगति – अधोगति होने पर किसी भी प्रकार का प्रमाद सम्भव है – अथवा ऐसे भी क़ाह सकते हैं कि जब व्यक्ति प्रमाद स्वरूप अपने कर्तव्य कर्म को भुला बैठता हाँ और आवेग अथवा अहंकार में आ जाता है तो उसकी अधोगति निश्चित है | किन्तु वही जब पुनः अपने मार्ग पर लौट आता है शान्त भाव से तो स्वयं स्थिर रहते हुए अन्य जनों को भी स्थिरता और शान्ति प्रदान करता है |

उसके बाद इस कहानी से जो तथ्य स्पष्ट होता है वह यह कि गंगा जी यदि जानू तक अर्थात् घुटने तक रहें तब तक तो ठीक है, लेकिन जितना अधिक वे तीव्र बहाव के साथ चढ़ती जाएँगी और आगे बढ़ती जाएँगी तो वे प्रलय का – बाढ़ का कारण बन जाएँगी | घुटनों तक रहने का अभिप्राय है विनम्रता का भाव रहना | अतः मनुष्य में विनम्रता का भाव सदैव विद्यमान रहना चाहिए | साथ ही एक शिक्षा भी, कि माना वो जन कल्याण के लिए नीचे आ रही थीं, अपनी भगिनी वसुधा से मिलने के लिए नीचे आ रही थीं, बहुत समय बाद उनसे मिल रही थीं तो मन में एक उत्साह था, उमंग थी, भगिनी का प्रेम था, किन्तु प्रेम में यदि उन्माद आ जाए, प्रेम में यदि प्रमाद आ जाए, प्रेम में यदि अहंकार आ जाए, आवेग आ जाए, तो वह प्रेम या तो शकुन्तला के प्रेम की भाँति ऋषि श्राप से विस्मृत कर दिया जाता है अथवा बार बार बंधनों में जकड़ जाता है या उसके रस को सुखा दिया जाता है – भस्म कर दिया जाता है | स्वतन्त्रता का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि मनुष्य अपनी मर्यादा भूल जाए | अतः हमें अपनी मर्यादा नहीं भूलनी चाहिए – अपनी सीमाओं का ध्यान सदैव रखना चाहिए – तभी हम पथ भ्रष्ट होने से बच सकते हैं तथा बहुत सी समस्याओं से मुक्त रह सकते हैं | गंगा नदी अपने तीव्र वेग के कारण इतने सारे व्यवधानों को पार करके शान्त भाव से धरा पर उतरीं तभी तो उनके अमृत तुल्य जल में स्नान करने से – उसका आचमन करने से – त्रिविध तापों से मुक्ति प्राप्त होती है, समस्त प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक पापों से मुक्ति प्राप्त होती है |

गंगा सप्तमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…