गंगा दशहरा आपः देवता

गंगा दशहरा आपः देवता

गंगा दशहरा आपः देवता

आज दस दिन से चले आ रहे गंगा पूजन के पर्व का समापब है – गंगा  दशहरा के रूप में | बहुत से लोगों ने पुण्य प्राप्ति के लिए गंगा के पवित्र जल में स्नान किया होगा | होना भी चाहिए, क्योंकि जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता होने के साथ ही प्रगति का संवाहक भी है | वैदिक साहित्य में जितने अधिक मन्त्र और स्तुतियाँ किसी न किसी रूप में जल के लिए उपलब्ध होती हैं उतनी सम्भवतः किसी अन्य देवता के लिए नहीं उपलब्ध होतीं | जल के देवता मित्र और वरुण को भाई माना गया है तथा ये द्वादश आदित्यों (मित्रावरुणौ – देवमाता अदिति के पुत्र) में गिने जाते हैं |

व्यावहारिक दृष्टि से भी देखें तो जल का सबसे अधिक उपयोग होता है क्योंकि इसके द्वारा जीवन को ऊर्जा और गति प्राप्त होती है | यदि मनुष्य को पौष्टिक और कर्मठ बने रहना है तो उसे शुद्ध जल का अधिकाधिक सेवन करने की सलाह दी जाती है | क्योंकि जल का मुख्य गुण है नमी और शीतलता प्रदान करते हुए दोषों को समाप्त करना | जल ही विद्युत् के रूप में प्रकाश देता है तो भाप बनकर पुनः पृथिवी को सिंचित करके प्राणीमात्र के लिए भोज्य पदार्थों, वनस्पतियों तथा औषधियों आदि की उत्पत्ति का कारण बनता है | जल तत्व के ही कारण मन भावमय है, वाणी सरस है तथा नेत्रों में आर्द्रता और तेज विद्यमान है | अथर्ववेद में जल के गुणों का विस्तार से वर्णन मिलता है | यजुर्वेद में भी कहा गया है कि जल को दूषित करना तथा वनस्पतियों को हानि पहुँचाना जीवन के लिए हानिकारक है | ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में प्राथना है कि हमें शुद्ध जल तथा औषधियाँ उपलब्ध हों | वेदों में जल को “आप: देवता” कहा गया है और पूरे चार सूक्त इसी “आप: देवता” के लिए समर्पित हैं | अस्तु, गंगा दशहरा के पावन पर्व पर प्रस्तुत है इसी आपः सूक्त के कुछ अंश उनके हिन्दी पद्य भावानुवाद सहित…

अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् || पृञ्चतीर्मधुना पयः ||
अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह || ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ||
अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः || सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः ||
अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये || देवा भवत वाजिनः ||
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा ||
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः ||
आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वेSमम || ज्योक् च सूर्यं दृशे ||
इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि ||
यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम् ||
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि ||
पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा || (प्रथम मण्डल सूक्त 23/16/23)

याज्ञिकों को मातृ वत है, पुष्ट करता है यही जल |
सूर्य किरणों से समाहित जल, सदा उपलब्ध हों ||
है प्रवाहित अंतरिक्षों में, धरा पर भी प्रवाहित |
धेनु जिससे हैं पयस्विनि, जल समर्पित यज्ञ में हों ||
भेषजीय सोमयुत इस जल की, अनुशंसा करें हम |
जिनसे उत्साहित सभी वे, स्वर्ग के हर देवता हों ||
ऊर्जा से युत जलों से, तन सदा को हो निरोगी |
सूर्य के दर्शन करें सब, शरद शत, दीर्घायु हों ||
हों प्रवाहित मनुज के अज्ञान उससे दूर सारे |
द्रोह यद्वा क्रोध अथवा दुरित जो व्यवहार हों ||
पैठ कर इस मधुर जल में, हों रसाप्लावित सभी |
दें हमें वर्चस्व जल, हम नत सदा श्रद्धा से हों ||

आपो यं वः प्रथमं देवयन्त इन्द्रानमूर्मिमकृण्वतेल: |
तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतेप्रुषं मधुमन्तं वनेम ||
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोSपां नपादवत्वा शुहेमा |यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य ||
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः |ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत ||
याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।।
तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः || (सप्तम मण्डल सूक्त 47/1-4)

हे जलदेवता !
मिश्रित है मधुर प्रवाह सोमरस में आपका |
कर रहे अर्पित जिसे हम इन्द्र को इस यज्ञ में ||
हों सभी सोमप्रिय, मिल जाए तृप्ति जीव को |
और हमारे यज्ञ सब, निर्विघ्न ही सम्पन्न हों ||
रश्मियों से सूर्य की ये जल प्रवाहित हों सदा |
सुख समृद्धि धन धान्य से पूरित सकल संसार हो ||
हों प्रवाहित सतत, जल से पूर्ण आशय जल के हों |
मनुज का कल्याण हो, हे सिन्धु ये आशीष दो ||

समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः |
इन्द्रो या वज्री वृषभोरराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः |
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् |
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा या सूर्जं मदन्ति |
वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु || (सप्तम मण्डल सूक्त 49/1-4)

समुद्र जिनमें ज्येष्ठ हैं
जो दिव्य जल हमें प्राप्त होते हैं आकाश से
रूप में वर्षा के…
जो प्रवाहित होते निरन्तर
नदी तड़ाग कूप और स्रोतों में
और करते हुए पवित्र समस्त जड़ चेतन को
समा जाते हैं अपने शाश्वत धाम
उस महा समुद्र में…
इन्द्र दिखलाते हैं मार्ग जिनको
सत्यासत्य के साक्षी वरुण देवता हैं जिनके…
स्वयं वरुण-सोम-अग्नि
करते हैं निवास जिनमें
करने को व्यवस्थित समस्त विश्व को…
और जिनके द्वारा प्रदत्त अन्नादिक से
प्रसन्न होते हैं समस्त देवता ये…
वे रसपूर्ण, दीप्तिमती नदियाँ
जो करती हैं पवित्र समस्त चराचर को
रक्षा करें हमारी भी…

वैदिक ऋषि की इसी मंगलकामना के साथ सभी को आज गंगा दशहरा और कल निर्जला एकादशी की हार्दिक शुभकामनाएँ…
—–कात्यायनी