दीपावली के पर्वों से जुड़ी कुछ मधुर स्मृतियाँ

दीपावली के पर्वों से जुड़ी कुछ मधुर स्मृतियाँ

दीपावली के पर्वों से जुड़ी कुछ मधुर स्मृतियाँ

कल सभी हिंदू महिलाएँ अपनी सन्तान तथा परिवार की मंगल कामना के लिए अहोई  अष्टमी का व्रत रखेंगी | जब भी इस प्रकार के कुछ पर्व आते हैं तो हमें अपना मायका याद आ जाता हैसभी को आता होगा, क्योंकि ससुराल और मायके के रीति रिवाज़ों में कुछ न कुछ अन्तर तो रहता ही है और ससुराल में आकर लड़की को उन्हीं के रीति रिवाज़ों का पालन करना होता है | बहरहाल, हमें याद आता है किस तरह से श्राद्ध पक्ष समाप्त होते ही सबसे पहला कार्य होता था घर की टूट फूट को ठीक करके पुताई कराना | महालया के दिन ही पुताई वाले आ जाते थे और सबसे पहले पूजा के कमरे को ठीक कर देते थे ताकि वहाँ भगवती की स्थापना की जा सके और उसके बाद शेष घर को ठीक किया जाता था | फिर शरद पूर्णिमा से ही माँ पूजा के कमरे की पूर्व की दीवार को चावल की पिट्ठी का एपन बनाकर उससे एकसार लीप कर एक बोर्ड जैसा बना लिया करती थीं और फिर अपना स्केल और लाल पेंसिल लेकर बैठ जाती थीं उस पर तस्वीर बनाने | माँ हमारी बहुत अच्छी ड्राइंग बनाया करती थीं और उनकी करवाचौथ, अहोई और दिवाली के चित्र देखने के लिए तो कलाप्रेमी आया करते थे | रंगीन चित्र बनाती थीं और ऐसे मानों कोई कैलेण्डर लाकर दीवार पर चिपका दिया हो | करवाचौथ में जहाँ तरह तरह के पकवानों के चित्रों के साथ करवे लिए महिलाएँ, पेड़ पर चढ़कर दीपक दिखाता भाई, उसके पास खड़े शेष भाई और दीपक को चन्द्रमा समझ जल देती कन्या जीवन्त हो जाती थी,  वहीं दीपावली के चित्र में श्री गणेश, हाथ के कलश से धनवर्षा करतीं कमल पुष्प पर खड़ी माँ लक्ष्मी और मयूर पर हाथ में वीणा लिये बैठी माँ वाणी वास्तविक प्रतीत होती थीं | उधर अहोई अष्टमी के चित्र में कथा के अनुसार स्याऊ सेही की जोड़ी, कुदाल से ज़मीन खोदती महिला और फिर अहोई माता की पूजा करती महिला नेत्रों के समक्ष प्रत्यक्ष उपस्थित हो जाती थीं | माँ को घर के अन्य कार्य भी देखने होते थे, तो जिस समय वे दिन का भोजन तैयार कर रही होती थीं उस समय नजीबाबाद के ही निवासी हमारे इकलौते जीजा जीजो एक बहुत अच्छे चित्रकार थे और जिनकी बनाई पेंटिंग्स कला प्रदर्शनियों में भी लगा करती थींउस पेंटिंग में हाथ लगाने आ जाते थे | और इस तरह सास दामाद मिलकर उन चित्रों को पूरा कर लिया करते थे | जितने दिन ये चित्र बनाने का कार्यक्रम चलता था उतने दिन फर्श पर रंगों की शीशियाँ, रंग घोलने की ट्रे और तरह तरह के छोटे बड़े मोटे पतले ब्रश शोभायमान रहते थे |

हम बात कर रहे थे अहोई अष्टमी की | तो उस दिन माँ प्रातः पूजा अर्चन से निबट अहोई के पकवान बनाने में लग जाती थीं | और सारे पकवानों के साथ गुड़ के मीठे पूए और आटे में गुड़ मिलाकर तरह तरह के खेल खिलौने बनाकर तला करती थी देस घी में और शाम को पूजा के समय अहोई माता के चित्र के सामने एक ओर जल से भरे दो करवे ऊपर नीचे रखे जाया करते थेजिनमें से एक करवे से पूजा के बाद तारे देखकर अर्घ्य दिया जाता था और दूसरे करवे का जल नरक चतुर्दशी के दिन नहाने के पानी में मिलाया जाता था गंगाजल की तरह | चित्र के दूसरी ओर मिट्टी की दो तीन छोटी छोटी मटकियों में पूए और शेष खेल खिलौने रखें जाया करते थे जो पूजा के बाद हम सब बच्चों को बाँट दिए जाते थे | हम लोगों को उस आयु में पूजा से सम्भव है उतना लेना देना न रहा हो, किन्तु हमें याद हैहम सब माँ के व्रत के पारायण की प्रतीक्षा किए करते थे ताकि उन छोटी मटकियों में रखे पकवान हमें मिल सकें |

इसी तरह दीपावली के अवसर परचार पाँच दिन पहले से एक दूसरे के घर मिठाई लेने देने का कार्यक्रम आरम्भ हो जाया करता था | उन दिनों आज की तरह मिठाइयों के डिब्बे या किसी प्रकार के उपहार आदि नहीं लिए दिए जाते थे, बल्कि अपने ख़ास ख़ास घरों में और पास पड़ोसियों के यहाँ जिसके साथ जैसा व्यवहार होता था उसके अनुसार प्लेट्स में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक कितनी भी मिठाइयाँ रखकर पहुँचाई जाती थीं | कुछ विशेष परिवारों में बच्चे भी बड़ों के साथ चले जाया करते थेउन्हें अपने नए जूते कपड़ों का प्रदर्शन जो करना होता था | दीपावली की पूजा के दिन माँ पापा का दिन भर का व्रत हुआ करता था और कोई ऐस पूजा भी वे लोग किया करते थे जो बच्चों को नहीं दिखाई जाती थी और जिसे वे सत्ती ऊतों की पूजा कहा करते थे | रात को पूजन के समय  चित्र के आगे हटरी लगाई जाती थी और रात्रि भर के लिए दीपक जलाया जाता था | साथ ही छोटी छोटी कुलियों यानी कसोरों में खिल बताशे खाण्ड के खिलौने और कुछ पैसे भरे जाया करते थे जिन्हें पूजा के दूसरे दिन बच्चों में बाँट दिया जाता था | बच्चों को तो जैसे न जाने कितना बड़ा ख़ज़ाना मिल जाया करता था | फिर रात को घर में दीये लगाने के बाद माँ पापा के साथ मन्दिर और शहर की रोशनी देखने जाया करते थे क्योंकि उस रोशनी को देखे बिना माँ दिन भर का व्रत नहीं खोलती थीं |

पूजा करते समय अड़ोस पड़ोस की महिलाएँ भी आ जाती थीं करवा चौथ के दिन भी और अहोई के दिन भी अपने अपने करवे और बायने की थालियाँ लेकर और सब एक साथ मिश्रानी जी से कहानी सुना करती थीं | हमारे लिए तो सारी ही कहानियाँ कौतूहल का विषय होती थीं | कैसे करवाचौथ पर मन ये मानने को न तब तैयार होता था न अब होता है कि कोई दीपक को भी चाँद समझ सकता है ? अथवा किसी की अँगुली में वास्तव में इतना अमृत हो सकता है कि उससे कोई मृत व्यक्ति जीवित हो जाए ? या फिर अहोई पर कि किसी महिला से मिट्टी खोदते समय स्याऊ सेही के बच्चे मर गए तो उसने उसकी कोख बाँध दी और उसकी सभी सन्तानें नष्ट हो गईं, बाद में जब उसने प्रायश्चित किया तब सेही ने उसकी कोख छोड़ी और उसके बच्चों को वापस दिया | इतना अवश्य था कि मिश्रानी जिस प्रकार लयबद्ध और भावपूर्ण स्वर में कहानियाँ सुनाया करती थीं उन्हें सुनकर हम बच्चे इन कहानियों को सुनकर इनके भावों में बह जाया करते थे | लेकिन अब सोचते हैं तो पाते हैं कि ये कहानियाँ वैज्ञानिक तथ्यों से पूर्ण रूप से परे होते हुए भी कुछ अच्छे सँदेश मानस पर छोड़ जाती थींजैसे करवा चौथ की कथा का सँदेश कि यों ही किसी की बात का विश्वास न करके अपनी बुद्धि का भी प्रयोग करना चाहिएभले ही वह व्यक्ति आपका अपना ही क्यों न हो | या फिर अहोई की कथा से कि बिना सोचे समझे लापरवाही से यदि कार्य किया जाएगा तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा | क्योंकि जब बाद में हम माँ बाबा से उन कहानियों के विषय में बात करते थे तो दोनों ही हमें यही सब तो समझाते थे |

अन्त में इतना ही कहेंगे कि करवाचौथ और अहोई अष्टमी दोनों ही आँचलिक पर्व हैं और अपने अपने परिवारों के रीति रिवाज़ों के अनुसार मनाए जाते हैं अतः उनकी कहानियों में हमें वैज्ञानिक तथ्य नहीं ढूँढने चाहियें, अपितु उन कथाओं में निहित भावों पर ध्यान देना चाहिए | हमारे माता पिता ने जिन नियमों का पालन किया हैआज के युग की जीवन यापन की आपा धापी में यदि उतना पालन नहीं भी कर सकें तो भी कुछ तो अवश्य करें और सोच समझकर कार्य करते रहें ताकि किसी भी प्रकार की अशुभ घटना दुर्घटना के शिकार होने से बचे रहेंसभी को अहोई अष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ