कुम्भ पर्व का माहात्म्य
अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च |
लक्षप्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत् फलम् ||
पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |
चतुःस्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले ||
विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे |
सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम् ||
कुम्भ पर्व चल रहा है – और इस वर्ष तो महाकुम्भ है | दो शाही स्नान – प्रथम स्नान पौष पूर्णिमा को और दूसरा मकर संक्रान्ति पर – हो चुके हैं | शाही स्नान की तिथियों और कुम्भ कितने प्रकार के होते हैं इस विषय में हम पूर्व में लिख चुके हैं, आज बात करते हैं कुम्भ के ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व की |
“कुभि पूरणे” धातु से निष्पन्न कुम्भ शब्द का तात्पर्य– ‘कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत् पिपासादि द्वन्द्वजालम् निर्वंतयति इति कुम्भः‘ अर्थात् जो पर्व अमृतमय जल से पूर्ण होकर हमें क्षुत् पिपासादि अनेक द्वन्द्वों से निवृत्त करता है, उसे कुम्भ कहते हैं | इसी कारण से कुम्भ का शाब्दिक अर्थ भी घट ही है – घट के जल से जीव मात्र की तृषा शान्त होती है | साथ ही घट ईशोपनिषद की “ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते | |” की भावना का भी पोषक है कि घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें अथवा घट को सागर में डालें – हर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है | यह समस्त ब्रह्माण्ड भी घट स्वरूप है और इसका कारक तथा नियन्ता सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है | यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है | इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है | यही कारण है कि भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है कि वे समस्त तीर्थों के सहित, समस्त नदियों के सहित तथा समस्त देवों के सहित आकार घट में निवास करें |
कुम्भ पर्व की यदि बात करें तो इसका पौराणिक, आध्यात्मिक और धार्मिक महत्त्व होने के साथ ही सामाजिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी है | कुम्भ के विषय में प्रचलित पौराणिक आख्यान तो सभी को विदित हैं जिनके अनुसार समुद्र मन्थन के समय जब भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो देवताओं और दानवों के मध्य अमृत पान करने के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया था | देवराज इन्द्र के पुत्र जयन्त ने जब अमृत कुम्भ को लेकर भागने की चेष्टा की और दैत्यों ने उनसे वह घट छीनने का प्रयत्न किया और उस आपा धापी में उस अमृत घट से चार स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं | यह स्थान पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक हैं | उसी घटना की स्मृति में प्रत्येक 12 वर्ष में कुम्भ का आयोजन इन चारों स्थानों में होता है | माना जाता है कि इन प्रत्येक 12 वर्ष बाद इन विशेष नदियों का जल अमृत के समान हो जाता है | कुम्भ मेले के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | यों ऋग्वेद ऋग्वेद में कुम्भ शब्द उपलब्ध होता है किन्तु वह इन्द्र के अर्थ में है – “जघानं वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पूरो अरदत्र सिन्धून् | विभेद गिरं नवमित्र कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुतस्व युग्भि: | |” (ऋग्वेद 10/89/7) इसके अतिरिक्त ऋग्वेद के ही दशम मण्डल के 75 वें सूक्त में गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम का भी उल्लेख है जो प्रयागराज के संगम की ओर इंगित करता है | किन्तु कुम्भ मेले का उल्लेख नहीं है | उसके परवर्ती वेद अथर्ववेद के चतुर्थ मण्डल के चौंतीसवें में पूर्ण कुम्भ का उल्लेख है और उसे समय का प्रतीक माना गया है | प्रयागराज का उल्लेख महाभारत तथा अन्य पुराणों में भी उपलब्ध होता है जहाँ माघ मास में संगम में स्नान को पुण्य कारक बताया गया है | साथ ही माघ मेले के विवरण प्राप्त होते हैं, किन्तु आज की भाँति सुव्यवस्थित रूप से मेला उस समय नहीं था | कुछ विद्वान गुप्तकाल से इसका संगठित स्वरूप मानते हैं तो कुछ शिलादित्य हर्षवर्धन के समय से |
किन्तु कुम्भ पर्व का महत्त्व केवल इन आख्यानों के कारण ही नहीं है, अपितु वास्तव में कुम्भ पर्व का महत्त्व देवगुरु बृहस्पति के विशेष राशियों में सूर्य और चन्द्र के साथ युति के कारण है | अमृत कलश के संरक्षण में सूर्य, चन्द्र और देवगुरु बृहस्पति का विशेष योगदान रहा और इन तीनों ग्रहों के उन्हीं विशिष्ट योगों में आने से, जिन योगों में अमृत संरक्षित हुआ था, कुम्भ पर्व का योग बनता है | मान्यता है कि,
सूर्येन्दुगुरु संयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे |
सुधा कुंभ प्लवे भूमो कुंभो भवतिनान्यथा ||
इस प्रमाण के अनुसार अमृत बिंदु पतन के समय जिन राशियों में सूर्य–चन्द्र–गुरु की स्थिति थी उन्हीं राशियों में इन तीनों ग्रहों का संयोग जब जब होता है तब तब कुम्भ पर्व का आयोजन किया जाता है | ‘कुंभोभवति नान्यथा‘ कहकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इन योगों के अभाव में कुम्भ पर्व नहीं मनाया जा सकता है | सूर्य हर महीने अपनी राशि बदलता है और चन्द्रमा लगभग सवा दो दिन एक राशि में रहता है | किन्तु देवगुरु बृहस्पति को एक राशि से दूसरी राशि पर जाने में लगभग बारह वर्षों का समय लग जाता है इसीलिए पूर्ण कुम्भ लगभग प्रत्येक बारह वर्षों के अन्तराल पर आता है |
देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यै द्वादश वत्सरे: |
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया | |
तत्राध्रुतात्तयेनूपांचत्वरों भुवि भारते |
अष्टौलोकान्तरे प्रोक्तादेवैर्गम्यानचेतरै: | |
पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |
विष्णु द्वारे तीर्थराजेवन्त्यां गोदावरी तटे,
सुधा बिंदु विनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति विश्रुत: | |
अर्थात देवताओं के 12 दिन और मनुष्यों के 12 वर्ष में कुल 12 कुम्भ पर्व आते हैं | पृथ्वी पर मनुष्यों के चार कुम्भ तथा शेष आठ कुम्भ पर्व देवताओं के होते हैं | क्योंकि ये आठ कुम्भ पृथिवी पर नहीं होते अतः इनका भान भी नहीं होता | जब गुरु और सूर्य चन्द्र सिंह राशि में होते हैं तब कुम्भ मेला नासिक में आयोजित होता है | गुरु के सिंह राशि और सूर्य के मेष राशि में होने पर कुम्भ मेला उज्जैन में आयोजित किया जाता है | गुरु के सिंह राशि में होने के कारण इन कुम्भ मेलों को सिंहस्थ भी कहा जाता है | सूर्य मेष राशि और गुरु कुम्भ राशि में होते हैं तब उत्तराखण्ड के चार धामों – बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री – के प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन होता है | माना जाता है कि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने कुम्भ मेले का आयोजन आरम्भ कराया था | वैसे तो हर 12 वर्ष में कुम्भ का मेला लगता है, किन्तु छह वर्षों की अवधि में भी कुम्भ का आयोजन किया जाता है जो प्रयागराज और हरिद्वार में दो पूर्ण कुम्भ मेलों के मध्य की अवधि में होता है |
किन्तु पूरे बारह वर्षों के बाद कुम्भ मेले का आयोजन होता है ऐसा भी नहीं है | ज्योतिषीय परिभाषाओं के अनुसार बारह मास के एक वर्ष और तीस दिन का एक मास होता है | किन्तु साथ ही दो पूर्णिमा के मध्य कभी 29, तो कभी 30 और कभी 31 दिन तक की अवधि लग जाती है | सूर्य तथा चन्द्र के इस अन्तर को पूर्ण करने के लिए क्षय तथा अधिक मास का विधान भी किया गया है उसी प्रकार जैसे अँग्रेज़ी कैलेण्डर में हर चौथे वर्ष लीप ईयर माना गया है और फरवरी को 28 के स्थान पर 29 दिन का कर दिया गया है | अतः इस क्षय तथा अधिक मास के कारण बृहस्पति कभी कभी – वैदिक गणितज्ञों के अनुसार लगभग ग्यारह वर्ष ग्यारह महीने और 27 दिनों में – बारह राशियों में भ्रमण करके पुनः उसी राशि पर आ जाता है | और यही कारण है कि लगभग हर सप्तम और अष्टम कुम्भ के मध्य बारह वर्षों के स्थान पर ग्यारह वर्षों का भी अन्तराल आ जाता है | उदाहरण के लिए प्रयागराज के 2010 के कुम्भ के ग्यारह महीनों के बाद 2021 में हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन हुआ था |
कुम्भ मेले के आधुनिक स्वरूप का प्रवर्तक जगद्गुरु आड़ शंकराचार्य को माना जाता है जिन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सौहार्द और एकता को बढ़ाने के उद्देश्य से दशनामी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की थी और कुम्भ मेले को संगठित स्वरूप प्रदान किया था | उन्होंने ही नागा साधुओं को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देकर उनके अखाड़ों की स्थापना की तथा इन नागा साधुओं को धार्मिक स्थलों, धार्मिक ग्रन्थों और आध्यात्मिक ज्ञान की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा | 1857 की क्रान्ति के समय तो क्रान्तिकारी साधु सन्तों के वेष में कुम्भ मेले में प्रयागराज पहुँचे हुए थे जिससे अँग्रेज़ भयभीत हो गाए थे और उन्होंने उस वर्ष मेले में जन साधारण के जाने पर रोक लगा दी थी | 1915 के हरिद्वार के कुम्भ में महामना मदन मोहन मालवीय जी और गाँधी जी भी पहुँचे थे ऐसे उल्लेख बहुत स्थानों पर उपलब्ध होते हैं | मदन मोहन मालवीय जी ने इसी कुम्भ में अखिल भारतीय हिन्दू सभा की नींव रखी थी | और गाँधी जी दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद दो दिनों तक स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ कैम्प में रहे थे और वहाँ उपस्थित जन साधारण को आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास किया था |
बहुत सी कथाएँ कुम्भ मेले के विषय में हैं – पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक | किन्तु वास्तव में कुम्भ का मेला एक ऐसा आयोजन होता है जो खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्म, अनुष्ठान तथा कर्मकाण्ड की परम्पराओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों और प्रथाओं को स्वयं में समाहित किए होने के कारण अत्यन्त समृद्ध होता है | इनमें सभी धर्मों के लोग आते हैं | आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग की साधना करने वाले साधु तथा नागा साधु भी इनमें सम्मिलित होते हैं, नागा साधुओं ने ही महारानी लक्ष्मीबाई की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी | सन्यासी अपना एकान्तवास छोड़कर जान साधारण के मध्य इस अवधि में पहुँच जाते हैं | साथ ही धार्मिक भावनाओं से ओत प्रोत जन साधारण तो इस अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान कर तथा इन साधु सन्तों के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करते ही हैं | इस सबके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के आयोजन इन मेलों में होते हैं जैसे – हाथी घोड़ों और रथों पर पारम्परिक अखाड़ों के जुलूस जिन्हें “पेशवाई” कहा जाता है, शाही स्नान के समय नागा साधुओं की रस्में तथा अन्य अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम सदा से इन कुम्भ मेलों का आकर्षण सदा से रहे हैं, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे | हमारे देश की महान संस्कृति और धार्मिक तथा आध्यात्मिक आस्थाओं और विचारों को देखने सुनने तथा उनसे कुछ सीखने के लिए और पवित्र नदियों में विशिष्ट ग्रह योगों में स्नान करके पुण्य लाभ के लिए लाखों करोड़ों की संख्या में लोग न केवल भारत के विभिन्न शहरों क़स्बों से इस कुम्भ मेले में आते हैं बल्कि संसार के बहुत से देशों से भी श्रद्धालु इस अमृत पर्व में उमड़े पड़ते हैं, और यही है महानता इस पर्व की…
हम सब भी यदि कुम्भ मेले में नहीं भी जा सकते हैं तो भी अपने हृदय रूपी घट में कुछ पलों के लिए पैठकर आत्मावलोकन का प्रयास अवश्य करें इसी कामना के साथ कुम्भ पर्व की शुभकामनाएँ…