गुरु की दृष्टियाँ
पिछले दिनों शनि के राशि परिवर्तन के सिलसिले में हमने देवगुरु बृहस्पति के विषय में बात की थी | आज गुरुदेव की तीन दृष्टियों के विषय में बात करते हैं | जैसा पहले भी बताया है – सभी ग्रहों की सप्तम दृष्टि होती है – यानी जिस भाव में उनकी स्थिति होती है उसके सामने वाले भाव यानी सप्तम भाव पर प्रत्येक ग्रह की दृष्टि होती है – इसे सम दृष्टि भी कहा जाता है | किन्तु गुरु, शनि और मंगल को तीन तीन दृष्टियाँ प्राप्त हैं और ये तीनों ग्रह जिस भाव में स्थित होते हैं उसके साथ साथ तीन अन्य भावों को भी प्रभावित करते हैं | शनि की दृष्टियों के विषय में हम पूर्व में लिख चुके हैं | आज गुरु की दृष्टियों के विषय में बात करते हैं | गुरु को तीन भावों पर दृष्टियाँ प्राप्त हैं – जिस भाव में गुरु की स्थिति होती है उस भाव से पञ्चम भाव पर पञ्चम दृष्टि, सप्तम भाव पर सप्तम दृष्टि और नवम भाव पर नवम दृष्टि |
गुरु की दृष्टियों के विषय में एक लोककथा भी प्रचलित है कि एक बार देवगुरु बृहस्पति ने देखा कि पृथिवी पर असंख्य लोग उचित दिशा निर्देश न मिलने के कारण दुःखी हैं | उन्होंने, सभी पृथिवीवासियों की मनोकामनाएँ पूर्ण हों और सुख शान्ति रहे इसके लिए भगवान विष्णु से निवेदन किया | तब भगवान विष्णु ने उनके दयापूर्ण हृदय को जानकर उन्हें दो अतिरिक्त दृष्टियाँ प्रदान कर दीं और उन्होंने अपने स्थान से पञ्चम, सप्तम तथा नवम भावों को देखना आरम्भ कर दिया और जिसका लाभ जान साधारण को होने लगा | बृहस्पति ने देखा कि बहुत सारे किसान उदास बैठे हैं | उन्होंने उन्हें पञ्चम दृष्टि से देखा तो उन किसानों ने अपनी बुद्धि, विवेक और ज्ञान से खेती की नवीन तकनीक विकसित कीं और नवीन फ़सलें उगानी आरम्भ कर दीं | किसानों समृद्ध हो गए | इसी प्रकार की कथाएँ शेष दोनों दृष्टियों के विषय में भी हैं | ये एक जनश्रुति अथवा कोई उत्तर पौराणिक काल की कथा हो सकती है, किन्तु गुरुदेव की इन तीनों ही दृष्टियों में तथ्य निहित है | आज इसी पर बात करेंगे |
काल पुरुष की कुण्डली में पञ्चम भाव सन्तान सुख, शिक्षा, ज्ञान, साहस, रचनात्मकता, उच्च शिक्षा तथा इनसे प्राप्त होने वाले यश, पद, प्रसिद्धि के साथ ही प्रेम और रोमांस आदि की बुद्धि के लिए देखा जाता है | व्यक्ति के ज्ञान और समझ में जब वृद्धि होगी तभी वह उचित दिशा में प्रयास करेगा | पञ्चम भाव के ग्रह की दशा अन्तर्दशा में विवाह के योग भी बनते हैं क्योंकि जातक की बुद्धि और भावना उस ओर जाती है |
सप्तम भाव प्रतिनिधित्व करता है विवाह का, जीवन साथी के स्वभाव इत्यादि का, वैवाहिक जीवन किस प्रकार का रहेगा – इस बात का, तथा किसी भी तरह की व्यावसायिक तथा सामाजिक पार्टनरशिप का | इसके अतिरिक्त राज्य सत्ता के सुख के लिए भी इस भाव को देखा जाता है |
नवम भाव भाग्य का और धर्म का भाव कहाँ जाता है | साथ ही व्यक्ति के पिता, उच्च शिक्षा, कार्य में सफलता, धार्मिक गतिविधियों, पौत्र, पूर्व जन्म के अर्जित कर्मों तथा पद प्रतिष्ठा और लम्बी यात्राओं के लिए भी नवम भाव को देखा जाता है |
अब, जिस जिस भाव पर भी गुरु की ये तीनों दृष्टियाँ पड़ेंगी – निश्चित रूप से उस भाव से सम्बन्धित शुभ फलों में वृद्धि ही होगी, क्योंकि गुरु की दृष्टियों को गंगाजल की भाँति पवित्र माना जाता है | मान लीजिए गुरुदेव जातक की कुण्डली में लग्न में विराजमान हैं, तो वहाँ से उनकी पञ्चम दृष्टि पञ्चम भाव पर पड़ेगी | इस अवस्था में व्यक्ति के ज्ञान विज्ञान में वृद्धि होगी, जिसके परिणाम स्वरूप वह अपने क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने में सक्षम रहेगा | और जब अपने प्रोफेशन में उसे सफलता प्राप्त हो जाएगी तो वह शान्त चित्त हो घर गृहस्थी के विषय में भी सोचेगा और विवाह का प्रयास करेगा | ऐसा भी सम्भव है कि वह पार्टनरशिप में कोई कार्य आरम्भ कर दे और उस कारण से उसकी आर्थिक स्थिति दृढ़ हो जाए | इन दोनों ही बातों में गुरु की सप्तम भाव पर सप्तम दृष्टि से बल मिलेगा | इसके बाद वह सन्तान के लिए प्रयास करेगा – यहाँ पुनः पञ्चम दृष्टि काम आएगी | विवाह हो गया, कार्य में सफलता भी प्राप्त हो गई, अच्छी सन्तान भी प्राप्त हो गई – तो अब वह अध्यात्म के मार्ग पर प्रवृत्त होने का प्रयास करेगा और धर्म कर्म में उसकी रुचि में वृद्धि होगी – यहाँ नवम भाव पर नवम दृष्टि की भूमिका आती है | इसी प्रकार से समस्त भावों के लिए समझना चाहिए |
एक और उदाहरण प्रस्तुत करते हैं | मान लीजिए गुरुदेव जातक की कुण्डली में तृतीय भाव में विराजमान हैं | तृतीय भाव पराक्रम का भाव है, भाई बहनों का भाव, हाथ की कारीगरी का भाव है | तो यहाँ बैठकर गुरुदेव जातक के पराक्रम में वृद्धि कर रहे हैं | यहाँ से उनकी पञ्चम दृष्टि जाती है सप्तम भाव पर, सप्तम दृष्टि नवम भाव पर तथा नवम दृष्टि लाभ स्थान पर | तो सप्तम भाव के जो भी फल हैं उनमें वृद्धि होगी और जातक पूर्ण निष्ठा के साथ अपना कार्य करते हुए सफलता प्राप्त करके आगे बढ़ेगा | नवम भाव के फल यानी धर्म कार्यों में उसकी रुचि बढ़ेगी तथा उसे पिता का सहयोग और आशीर्वाद भी प्राप्त होगा | अपने पराक्रम तथा धार्मिक स्वभाव और व्यवहार कुशलता के कारण तथा उसकी सहायक प्रवृत्ति के कारण उसे अपने छोटे बड़े भाई बहनों और अधिकारी वर्ग का सहयोग प्राप्त होगा और उसे अपने व्यवसाय में लाभ प्राप्त होगा अथवा उसकी पदोन्नति होगी – यदि वह किसी नौकरी में है तो – क्योंकि लाभ स्थान बड़े भाई बहनों, अधिकारी वर्ग, तथा कार्य में आर्थिक लाभ आदि के लिए देखा जाता है |
इसी प्रकार समस्त भावों के लिए समझना चाहिए | यहाँ एक बात और स्पष्ट करना चाहेंगे कि यद्यपि गुरु की दृष्टियाँ सदैव शुभ ही होती हैं, किन्तु गुरु यदि अपनी नीच की राशि मकर में विद्यमान है तो उसके शुभ फल नहीं प्राप्त होंगे | इसके अतिरिक्त, यदि राहु केतु के मध्य है तो व गुरु चाण्डाल योग बनाता है, अस्त है अथवा बहुत कम अंशों यानी शैशवावस्था में है अथवा वृद्ध है अर्थात् बहुत अधिक अंशों में है तो इन सभी परिस्थितियों में उसके पूर्ण फल या तो प्राप्त नहीं होंगे अथवा बहुत प्रयासों के बाद, बहुत सारी बाधाओं को पार करके शुभ फल प्राप्त होंगे | क्योंकि राहु–केतु उसे पूर्ण रूप से कार्य नहीं करने देंगे, बच्चा अथवा वृद्ध तो वैसे ही उतने अधिक शक्तिशाली नहीं होते, और अस्त होने पर तो उसमें सामर्थ्य ही नहीं रहेगी | यही कारण है कि जब गुरु अस्त होता है तो विवाह आदि माँगलिक कार्य नहीं किए जाते |
किन्तु अन्त में वही बात पुनः दोहराएँगे कि ग्रहों के प्रभाव जान जीवन पर पड़ते हैं, किन्तु केवल उन्हीं के भरोसे नहीं बैठ रहना चाहिए | जब तक प्रयास नहीं करेंगे तब तक कैसे शुभ परिणाम प्राप्त होंगे | सबसे प्रमुख तो व्यक्ति के अपने कर्म होते हैं – अन्यथा तो सामने चाय का कप रखा रहता है – लेकिन जब तक आप हाथ बढ़ाकर उसे उठाकर अपने होठों तक नहीं ले जाएँगे तब तक चाय का आनन्द नहीं ले सकेंगे | अतः भाग्यवादी न बनकर कर्मशील बनें यही कामना है…