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प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

माघ शुक्ल पञ्चमी अर्थात वसन्त पञ्चमी का वासन्ती पर्वजब माघ मास लगभग समाप्त होने को होता है तब ठण्ड की विदाई के साथ वसन्त ऋतु का आगमन होता है | फाल्गुन और चैत्र मास वसन्त ऋतु के मास माने जाते हैं | चैत्र वर्ष का प्रथम मास है और फाल्गुन अन्तिमकितना अद्भुत संयोग है कि वैदिक पञ्चांग के अनुसार वर्ष का आरम्भ और अन्त दोनों वसन्त की मादकता के साथ ही होते हैं | उस समय मानों ऋतुराज के स्वागत हेतु समस्त धरा अपने हरे घाघरे के साथ सरसों का पीला उत्तरीय और पलाश के पीत पुष्पों की चूनर ओढ़ लेती है | पलाश, जिसे टेसू भी कहा जाता है | और वृक्षों की टहनियों रूपी अपने हाथों में ढाक के श्वेत पुष्पों के चन्दन से ऋतुराज के माथे पर तिलक लगाकर लाल पुष्पों के दीपों से कामदेव के प्रिय मित्र का आरता उतारती है | वास्तव में अत्यन्त मनोहारी दृश्य होता है यह |

इस वर्ष माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि 2 फरवरी को प्रातः सवा नौ के लगभग बव करण और सिद्ध योग में आरम्भ हो रही है, जो तीन फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 6:52 तक रहेगी | अतः रविवार दो फरवरी को यानी कल सरस्वती और रतिकामदेव की पूजा के साथ वसन्त का उल्लास मनाया जाएगा |

कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और ऋतुसंहार तथा बाणभट्ट के कादम्बरी और हर्ष चरित जैसे अमर ग्रन्थों में वसन्त ऋतु का तथा प्रेम के इस मधुर पर्व का इतना सुरुचिपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है कि जहाँ या तो प्रेमीजन जीवन भर साथ रहने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं या फिर बिरहीजन अपने प्रिय के शीघ्र मिलन की कामना करते दिखाई देते हैंसंस्कृत ग्रन्थों में तो वसन्तोत्सव को मदनोत्सव ही कहा गया है जबकि वसन्त के श्रृंगार टेसू के पुष्पों से सजे वसन्त की मादकता देखकर तथा होली की मस्ती और फाग के गीतों की धुन पर हर मन मचल उठता थाइस मदनोत्सव में नर नारी एकत्र होकर चुन चुन कर पीले पुष्पों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते और एक दूसरे पर अबीर कुमकुम की बौछार करते हुए वसन्त की मादकता में डूबकर कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा करते थेयह पर्व Valentine’s Day की तरह केवल एक दिन के लिए ही प्रेमीजनों के दिलों की धड़कने बढ़ाकर शान्त नहीं हो जाता था, अपितु वसन्त पञ्चमी से लेकर होली तक सारा समय प्रेम के लिए समर्पित होता था

कालिदास को तो वसन्त ऋतु में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की टहनियाँ वन में धधक उठी दावानल की लपटों जैसी प्रतीत होती हैं और इनसे घिरी हुई धरा ऐसी प्रतीत होती है मानो रक्तिम वस्त्रों में लिपटी कोई वधूटी हो | साथ ही उन्हें वसन्त ऋतु सबसे अधिक चारुतर प्रतीत होती है, तभी तो ऋतुसंहार में बोल उठते हैं

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम स्त्रिय: सकामा: पवन: सुगन्धि: |

सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:, सर्व प्रिये चारुतरं वसन्ते ||

वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम् |चूतद्रुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसंत: ||

ऐसी मनभावन ऋतु आई

वृक्षों की हर डाली डाली पुष्पित है / प्रमुदित है मन में

प्रफुल्लित हैं पद्म हर एक जलाशय में

और प्रवाहित है सुगन्धित पवन हर दिशा दिशा में

दिवस सुरम्य / सुखकर सन्ध्या

ऐसा चारुतर है वसन्त / तभी तो प्रिय है सभी को

हर ओर एक आकर्षण / एक सम्मोहन

पहले से भी कहीं अधिक

जलाशयों के ठहरे हुए जल को / मणिखचित मेखलाओं को / कंगनों को

चन्द्रमा की चन्द्रिका को / सुकुमारियों की सुकुमारता को

और पुष्पाभूषणों से आभूषित आम्रवृक्षों को

दिया है दान सौन्दर्य का / सौभाग्य का

इसी वसन्त ने तो

तभी तो है इतना मोहक और आकर्षक

यही कालिदास विक्रमोर्वशीयं में दक्षिण दिशा से प्रवाहित होती पवन को वसन्त का सबसे प्रिय मित्र बताते हुए कहते हैं

वासार्थं हर संभृतं सुरभिणा पौष्पं रजो वीरुधांकिं कार्यं भवतो हृतेन दयितास्नेहस्वहस्तेन में |जानीते हि मनोविनोदनशतैरेवंविधैर्धारितंकामार्तं जनमज्जनां प्रति भवानालक्षितप्रार्थनः ||

स्वयं को करना चाहते हो सुवासित सुगन्धि से

तो क्यों नहीं उठा ले जाते वसन्त ऋतु में

वृक्षों की डालियों पर प्रफुल्लित पुष्पों का पराग…?

मेरी प्रियतमा के हाथ का लिखा हुआ ये पत्र

भला किस काम का तुम्हारे…?

तुम तो स्वयं प्रेम कर चुके हो अंजना से

तुम्हें क्या पता नहीं…?

मन के भावों को आनन्दित करते हैं यही प्रेम पत्र तो

देते हैं जीवनदान प्रेमियों को

ऐसी राग रंग रचाती ऋतु को ऋतुओं का राजा भला क्यों न कहा जाएगा…? वसन्तजिस ऋतु में चिर सुषमा की वंशी सदा गुंजायमान रहती होअपार यौवनअपार सुखअपार विलास के देवता कामदेव का पुत्रतभी तो आधार है नव सृजन काशस्य श्यामला वसुन्धरा में स्वर्णिम सौन्दर्यजहाँ भगवान भास्कर की रश्मियाँ पञ्चम का सुर आलापती कोयल तथा घनी अमराइयों में मँडराते भ्रमरों के गान पर थिरक उठती होंसंस्कृत साहित्य ही नहीं वरन रीतिकालीन हिन्दी काव्य से लेकर आज तक के सभी रचनाकारों को वसन्त प्रभावित किये बिना नहीं रहताकिसी को वसन्त के आते ही पुष्पों का खिल जानाभ्रमरों का गानकोयल की कुहुक सब कुछ प्राणिमात्र के लिए सुख तथा स्वास्थ्यकर लगता हैतो किसी को वसन्त की वासन्ती आभा विरह वेदना को और अधिक बढ़ाती जान पड़ती हैतभी तो कहते हैं इसे ऋतुओं का राजाआज भी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराँचल सहित देश के अनेक अंचलों में पीतवस्त्रों और पीतपुष्पों में सजे नरनारी बालवृद्ध एक साथ मिलकर माँ वाणी के वन्दन के साथ साथ प्रेम के इस देवता की भी उल्लासपूर्वक अर्चना करते हैं

इस पर्व के दौरान पीले वस्त्र धारण करने के एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि पीत वर्ण का सम्बन्ध जहाँ एक ओर सूर्य से माना जाता है, वहीं भगवान् विष्णु और माँ वाणी से सम्बद्ध माना जाता है | साथ ही पीला रंग सौभाग्य का प्रतीक भी माना जाता है तथा मन को स्थिरता प्रदान करने वाला, शान्ति प्रदान करने वाला माना जाता है | पीला रंग विचारों में सकारात्मकता, आशा तथा ताज़गी का प्रतीक माना जाने के कारण व्यक्ति को उसके व्यवसाय में उन्नति का सूचक भी माना जाता है | इन्हीं कारणों से भगवान् विष्णु और भगवती सरस्वती को पीले पुष्प अर्पित किये जाते हैं |

साथ ही यह तिथि प्रत्येक कार्य के लिए शुभ मानी जाती है इसलिए इसे अबूझ मुहूर्त भी कहा जाता हैअर्थात जब कोई भी शुभ मुहूर्त न मिल रहा हो तो इसके लिए मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहींबिना मुहूर्त देखे ही इस दिन समस्त शुभ तथा मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं | कितना विचित्र संयोग है कि इस दिन एक ओर जहाँ ज्ञान विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती को श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति को भी स्नेह सुमनों के हार से आभूषित किया जाता है

सर्दियों की विदाई के साथ ही प्रकृति स्वयं अपने समस्त बन्धन खोलकरअपनी समस्त सीमाएँ तोड़करप्रेम के मद में ऐसी मस्त हो जाती है कि मानो ऋतुराज को रिझाने के लिए ही वासन्ती परिधान धारण कर नव प्रस्फुटित कलिकाओं से स्वयं को सुसज्जित कर लेती हैजिनका अनछुआ नवयौवन लख चारों ओर मंडराते भँवरे गुन गुन करते वसन्त का राग आलापने लगते हैंआम बौरा जाते हैंवसन्त के परम मित्र कामदेव अपने धनुष पर स्नेह प्रेम के पुष्पों का बाण चढ़ा देते हैंऔर प्रकृति की इस रंग बिरंगी छटा को देखकर मगन हुई कोयल भी कुहू कुहू का गान सुनाती हर जड़ चेतन को प्रेम का नृत्य रचाने को विवश कर देती हैइसीलिए तो वसन्त को ऋतुओं का राजा कहा जाता हैवास्तव में बड़ी मदमस्त कर देने वाली होती है ये रुतवृक्षों की शाख़ों पर चहचहाते पक्षियों का कलरव ऐसा लगता है मानों पर्वतराज की सभा में मुख्य नर्तकी के आने से पूर्व उसके सम्मान में वृन्दगान चल रहा हो

वसन्त को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अपना ही एक रूप बताया है

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||

गीता अध्याय 10 श्लोक 35||

सारी श्रुतियों में मूर्धन्य

वह बृहत्साम मैं ही तो हूं 

वैदिक छन्दों का महच्छंद

गायत्री भी मैं ही तो हूं

द्वादश मासों में मार्गशीर्ष का

का अद्भुत मास भी मैं ही हूं

और षड ऋतुओं का राजा

सबका प्रिय वसन्त मैं ही तो हूं

हमें अक्सर याद आ जाता है कोटद्वार में अपने कार्यकाल के दौरान सिद्धबली मन्दिर के बाहर मुंडेर पर बैठ जाया करते थे अकेलेअपने आपमें खोए सेनीचे कल कल छल छल बहती खोह का मधुर संगीत मन को मोह लिया करता थामन्दिर के चारों ओर ऊपर नीचे देखते तो हरियाली की चादर ताने और रंग बिरंगे पुष्पों से ढकी ऊँची नीची पर्वत श्रृंखलाएँ ऐसी जान पड़तीं मानों अपने तने हुए उभरे कुचों पर बहुरंगी कंचुकियाँ कसेहरितवर्णी उत्तरीयों से अपनी कदलीजँघाओं को हल्के से आवृत कियेकोई काममुग्धा नर्तकी नायिकाप्रियतम को मौन निमन्त्रण दे रही होउसे अभी कहाँ होश पर्वतराज की सभा में जा नृत्य करने काअभी तो कामक्रीड़ा के पश्चात् कुछ अलसाना हैऔर उसके पश्चात्और अधिक पुष्पों की जननी बनना हैवसन्त के आगमन पर उसे स्वयं को पुष्पहारों से और भी अलंकृत करना हैताकि पिछली रात के सारे चिह्न विलुप्त हो जाएँऔर ऋतुराज वसन्त के लिये वो पुनः अनछुई कली जैसी बन जाएऐसा मदमस्त होता है वसन्त का मौसमऋतुओं का राजा

वसन्त की उत्पत्ति के विषय में भी एक रोचक कथा है | तारकासुर नामक राक्षस का वध केवल शिवपार्वती के पुत्र द्वारा ही सम्भव था | भोलेनाथ तो तपस्या में लीन बैठे थे तो उनका पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता था ? तब देवताओं ने कामदेव से उनकी तपस्या भंग करने के लिए सहायता माँगी | कामदेव जानते थे कि शंकर की तपस्या भंग करने का अर्थ है उनके कोप का भाजन बनना | किन्तु देवताओं का कार्य भी आवश्यक था | तब उन्होंने वसन्त को उत्पन्न किया और वसन्त ऋतु तथा कामदेव के बाणों से भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई | कामदेव को दण्ड स्वरूप भगवान शंकर ने भस्म कर दिया किन्तु फिर कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें छाया रूप में जीवित रहने का वरदान दे दिया | इसीलिए वसन्त को कामदेव का पुत्र भी कहा जाता है और मित्र भीयह कथा वास्तव में प्रतीक है इस तथ्य का कि वसन्त के आगमन पर जब भगवान भास्कर मुस्कुराते हुए रश्मिरथ पर सवार हो प्रकट होते हैं तो शीत का अन्धकार नष्ट हो जाता है | साथ ही पतझड़ के कारण जो प्रकृति का विकास एक प्रकार से बाधित सा हो जाता है वह पुनः आरम्भ हो जाता है | ऐसा प्रतीत होता है मानों रूप व सौन्दर्य के देवता कामदेव के घर में सन्तानोत्पत्ति का समाचार प्राप्त होते ही समूची प्रकृति आनन्द में झूम उठती है, वृक्ष उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, रंग बिरंगे पुष्प उसे वस्त्र पहनाते हैं, पवन झूला झुलाती है और कोयल पंचम की तान सुना उसका मन बहलाती है |साथ ही इस सत्य का प्रतीक भी है कि जिस प्रेम में लोक मंगल की भावना न होकर केवल काम वासना प्रमुख होती है वह प्रेम सम्बन्ध या तो स्वयं के ही प्रमाद के कारण अथवा ऋषि श्राप से भस्म हो जाता हैशिव पार्वती का विवाह किसी काम की भावनाके कारण नहीं हुआ था अपितु लोक मंगल की कामना से हुआ था

और संयोग देखिए कि वसन्त ही के दिन नूतन काव्य वधू का अपने गीतों के माध्यम से नूतन श्रृंगार रचने वाले प्रकृति नटी के चतुर चितेरे महाप्राण निराला का जन्मदिवस भी धूम धाम से मनाया जाता है | यों निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1899 यानी माघ शुक्ल एकादशी को हुआ था, किन्तु प्रकृति का यथार्थ और सुकुमार चित्र प्रस्तुत करने के कारण 1930 में वसन्त पंचमी के दिन उनका जन्मदिन मनाने की प्रथा उनके प्रशंसकों ने आरम्भ कर दी ।

वास्तव में वसन्त प्रकृति कापीत वर्ण कापर्व हैजब समस्त प्रकृति में नव जीवन का संचार होने लगता हैफसलें पकने लगती हैंसरसों के खेत समूची धरा को पीली चादर से ढक देते हैं | कडाके की ठण्ड के बाद प्रकृति एक बार पुनः अपने मूल रूप में आ जाती है | इसी सबका स्वागत करने के लिए मन्दिरों कोघरों को पीत पुष्पों से आभूषित किया जाता है और पीली मिठाइयाँ बनाकर उनका प्रसाद ग्रहण किया जाता है | पीले वस्त्र धारण किये जाते हैंअर्थात कण कण में प्रेम और समृद्धि का प्रतीक वासन्ती रंग घुला होता है |

धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व इस पर्व का यही है कि ज्ञान विज्ञान की देवी भगवती सरस्वती के साथ ही सूर्य, गंगा मैया तथा भू देवी की पूजा अर्चना के माध्यम से जन जन को सन्देश प्राप्त होता है कि जिस प्रकृति ने हमारे जीवन में इतने सारे रंग भरे हैं, हमें वृक्षों, वनस्पतियों, स्वच्छ वायु, जल, पशु पक्षियों आदि के रूप में जीवित रहने के समस्त साधन प्रदान किये हैंउस पञ्चभूतात्मिका प्रकृति को धन्यवाद दें और उसका सम्मान करना सीखें |

तो, वसन्त के मनमोहक संगीत के साथ सभी मित्रों को सरस्वती पूजन, निराला जयन्ती तथा प्रेम के मधुमय वासन्ती पर्व वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँइस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब ज्ञान प्राप्त करके समस्त भयों तथा सन्देहों से मोक्ष प्राप्त कर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकेंताकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करके उन्मुक्त भाव से प्रेम का राग आलाप सकें

—–कात्यायनी

माघ गुप्त नवरात्रि

माघ गुप्त नवरात्रि

गुरुवार तीस जनवरी, माघ शुक्ल प्रतिपदा से माघ नवरात्र आरम्भ हो रहे हैंजो सात फरवरी को माघ शुक्ल नवमी को सम्पन्न होंगे और जिन्हें गुप्त नवरात्र के नाम से जाना जाता है | गुप्त नवरात्र आषाढ़ और माघ दो मासों में आते हैं | इन्हें तन्त्र साधना के लिए उत्तम माना जाता है और दश महाविद्याओं की उपासना की जाती है | इस वर्ष माघ शुक्ल प्रतिपदा का आरम्भ 29 जनवरी को सायं छह बजकर छह मिनट के लगभग किंस्तुघ्न करण और सिद्धि योग में हो रहा है | तीस जनवरी को सूर्योदय सात बजकर दस मिनट पर होगा इसलिए इसी दिन से नवरात्रों का आरम्भ होगा तथा सात फ़रवरी को इनका समापन होगा | घट स्थापना का मुहूर्त मीन लग्न में प्रातः 9:27 से 10:50 तक बव करण और व्यतिपत योग में रहेगा | इसके अतिरिक्त दिन में 12:13 से 12:56 तक अभिजित मुहूर्त में भी घट स्थापना की जा सकती है |

शाक्त सम्प्रदाय ने इस विश्वास को पोषित किया कि सर्वशक्तिमान केवल एक नारी ही है | वास्तव में शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही सत्य है तथा शक्ति सर्वत्र व्याप्त भी है | फिर चाहे वह नवदुर्गा के नौ रूपों में प्रतिबिम्बित होती हो अथवा दशमहाविद्याओं के रूप में | दशमहाविद्याओं की साधना यद्यपि तान्त्रिक साधना है, किन्तु यदि साधारण साधक भी इनकी सामान्य रूप से उपासना करें तो उनके लिए भी ये शुभ फलदायी होती हैं |

हिन्दू धर्म की तीन अन्तःप्रवाहित तथा परस्पर विरोधी धाराएँ हैंजिनमें वैष्णव भगवान् विष्णु की उपासना करते हैं, शैव भगवान् शिव की पूजा अर्चना करते हैं तथा शाक्त माँ भगवती के शक्ति रूप की उपासना करते हैंजो भगवान् विष्णु और शिव दोनों की ही अन्तःकरण की शक्ति हैं तथा वे ही प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय की कारणभूता भी हैं | शिव यदि शिव अर्थात मंगल हैं तो शक्ति स्वयं प्रकाश है, और शिव तथा शक्ति के सम्मिलन से ही संसार की रचना होती है तथा रचना करना शक्ति का मूलभूत धर्म है | वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सत्य प्रतीत होता है |

शाक्त विचारधारा के अनुसार भगवती दुर्गा ही पराशक्ति हैं | यही कारण है कि श्री दुर्गा भागवत पुराणजिसका एक अंग श्री दुर्गा सप्तशती भी हैको शाक्त पुराण भी कहा जाता है | अन्य सभी सम्प्रदायों के ही सामान शाक्त सम्प्रदाय का भी उद्देश्य मोक्ष प्राप्तिपरमतत्व की प्राप्तिपरम ज्ञान की प्राप्ति ही है | इसके लिए एकनिष्ठ साधना द्वारा उपलब्ध एक विशेष प्रकार की शक्ति की आवश्यकता होती है | अतः शाक्त सम्प्रदाय के लोग सशक्त बनने अर्थात सिद्धियाँ प्राप्त के लिए अनेक प्रकार से योग साधना तथा तन्त्र साधना करते हैं | इस क्रम में वे दश महाविद्याओं की उपासना करते हैं | इनके अनुसार शक्ति के इस दश रूपों में एक सत्य समाहित हैमहाविद्यामहान ज्ञानजिसके अन्तर्गत माँ भगवती के दश लौकिक व्यक्तित्वों की व्याख्या होती है | शक्ति के ये दश व्यक्तित्व हैं :-

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी |

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ||

बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका |

एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्रकीर्तिता ||

काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला ये दश महाविद्याएँ साधक को सिद्धि प्रदान करने वाली कही गई हैं |

देवी भागवत के अनुसार शिव और सती के विवाह से सती के पिता दक्ष अप्रसन्न थे | उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया और शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से उन्हें आमन्त्रित नहीं किया | किन्तु सती अपने पिता के घर यज्ञ में जाना चाहती थीं | शिव ने उन्हें रोकना चाहा तब सती ने स्वयं को महाकाली के भयानक रूप में परिवर्तित कर लिया | शिव घबराकर वहाँ से भागने लगे तो वे जिस भी दिशा में जाते उसी दिशा में उन्हें सती किसी न किसी रूप में मार्ग रोके खड़ी मिलतीं | अन्त में शिव ने उन्हें जाने दिया जहाँ दक्ष के द्वारा शिव की निन्दा किये जाने पर सती ने यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहुति देकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया | इस प्रकार दशों दिशाओं में जो उनके दश रूप प्रकट हुए वे ही दश महाविद्या के नाम से जाने जाते हैं |

शिव पुराण के अनुसार माँ दुर्गा ने दश रूप धारण करके उनकी सहायता से दुर्गम दैत्य का वध किया थाये ही देवी के दश रूप दश महाविद्या कहलाए | दश महाविद्याओं का यह समन्वित रूप इस तथ्य को भी सिद्ध करता है कि नारी वास्तव में सर्वशक्तिमान है | शाक्त दर्शन इन दश महाविद्याओं को भगवान विष्णु के दश अवतारों से भी सम्बद्ध करता है और साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि महाविद्याओं के ये दशों रूप चाहे भयानक हों अथवा सौम्यजगज्जननी जगदम्बिका के रूप में पूज्यमान हैं |

इनके विषय में विस्तार से भविष्य में कभी

ये दशों महाविद्याएँ समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाने वाली तथा सर्वार्थ का साधन करने वाली हैं, किन्तु इनकी उपासना की विधियाँ प्रायः तान्त्रिक हैं तथा बहुत कठिन हैं | और हमारा ऐसा मानना है कि गृहस्थी लोगों को इस प्रकार की तान्त्रिक उपासनाओं से प्रायः बचना चाहिए | यदि उपासना में थोड़ी सी भी चूक हो जाए तो न केवल साधक पर बल्कि उसके परिवार के लिए भी घातक सिद्ध हो सकती है |

देवी के सभी रूप समस्त संसार का कल्याण करें यही कामना है

——-कात्यायनी

कुम्भ पर्व का माहात्म्य 

कुम्भ पर्व का माहात्म्य 

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च | 

लक्षप्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत् फलम् ||

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |

चतुःस्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले ||

विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे |

सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम् ||

कुम्भ पर्व चल रहा हैऔर इस वर्ष तो महाकुम्भ है | दो शाही स्नानप्रथम स्नान पौष पूर्णिमा को और दूसरा मकर संक्रान्ति परहो चुके हैं | शाही स्नान की तिथियों और कुम्भ कितने प्रकार के होते हैं इस विषय में हम पूर्व में लिख चुके हैं, आज बात करते हैं कुम्भ के ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व की |

कुभि पूरणेधातु से निष्पन्न कुम्भ शब्द का तात्पर्य– ‘कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत् पिपासादि द्वन्द्वजालम् निर्वंतयति इति कुम्भःअर्थात् जो पर्व अमृतमय जल से पूर्ण होकर हमें क्षुत् पिपासादि अनेक द्वन्द्वों से निवृत्त करता है, उसे कुम्भ कहते हैं | इसी कारण से कुम्भ का शाब्दिक अर्थ भी घट ही हैघट के जल से जीव मात्र की तृषा शान्त होती है | साथ ही घट ईशोपनिषद कीॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते | |” की भावना का भी पोषक है कि घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें अथवा घट को सागर में डालेंहर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है | यह समस्त ब्रह्माण्ड भी घट स्वरूप है और इसका कारक तथा नियन्ता सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है | यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है | इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है | यही कारण है कि भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है कि वे समस्त तीर्थों के सहित, समस्त नदियों के सहित तथा समस्त देवों के सहित आकार घट में निवास करें |

कुम्भ पर्व की यदि बात करें तो इसका पौराणिक, आध्यात्मिक और धार्मिक महत्त्व होने के साथ ही सामाजिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी है | कुम्भ के विषय में प्रचलित पौराणिक आख्यान तो सभी को विदित हैं जिनके अनुसार समुद्र मन्थन के समय जब भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो देवताओं और दानवों के मध्य अमृत पान करने के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया था | देवराज इन्द्र के पुत्र जयन्त ने जब अमृत कुम्भ को लेकर भागने की चेष्टा की और दैत्यों ने उनसे वह घट छीनने का प्रयत्न किया और उस आपा धापी में उस अमृत घट से चार स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं | यह स्थान पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक हैं | उसी घटना की स्मृति में प्रत्येक 12 वर्ष में कुम्भ का आयोजन इन चारों स्थानों में होता है | माना जाता है कि इन प्रत्येक 12 वर्ष बाद इन विशेष नदियों का जल अमृत के समान हो जाता है | कुम्भ मेले के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | यों ऋग्वेद ऋग्वेद में कुम्भ शब्द उपलब्ध होता है किन्तु वह इन्द्र के अर्थ में है – “जघानं वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पूरो अरदत्र सिन्धून् | विभेद गिरं नवमित्र कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुतस्व युग्भि: | |” (ऋग्वेद 10/89/7) इसके अतिरिक्त ऋग्वेद के ही दशम मण्डल के 75 वें सूक्त में गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम का भी उल्लेख है जो प्रयागराज के संगम की ओर इंगित करता है | किन्तु कुम्भ मेले का उल्लेख नहीं है | उसके परवर्ती वेद अथर्ववेद के चतुर्थ मण्डल के चौंतीसवें में पूर्ण कुम्भ का उल्लेख है और उसे समय का प्रतीक माना गया है | प्रयागराज का उल्लेख महाभारत तथा अन्य पुराणों में भी उपलब्ध होता है जहाँ माघ मास में संगम में स्नान को पुण्य कारक बताया गया है | साथ ही माघ मेले के विवरण प्राप्त होते हैं, किन्तु आज की भाँति सुव्यवस्थित रूप से मेला उस समय नहीं था | कुछ विद्वान गुप्तकाल से इसका संगठित स्वरूप मानते हैं तो कुछ शिलादित्य हर्षवर्धन के समय से |

किन्तु कुम्भ पर्व का महत्त्व केवल इन आख्यानों के कारण ही नहीं है, अपितु वास्तव में कुम्भ पर्व का महत्त्व देवगुरु बृहस्पति के विशेष राशियों में सूर्य और चन्द्र के साथ युति के कारण है | अमृत कलश के संरक्षण में सूर्य, चन्द्र और देवगुरु बृहस्पति का विशेष योगदान रहा और इन तीनों ग्रहों के उन्हीं विशिष्ट योगों में आने से, जिन योगों में अमृत संरक्षित हुआ था, कुम्भ पर्व का योग बनता है | मान्यता है कि, 

 सूर्येन्दुगुरु संयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे |

सुधा कुंभ प्लवे भूमो कुंभो भवतिनान्यथा ||

 इस प्रमाण के अनुसार अमृत बिंदु पतन के समय जिन राशियों में सूर्यचन्द्रगुरु की स्थिति थी उन्हीं राशियों में इन तीनों ग्रहों का संयोग जब जब होता है तब तब कुम्भ पर्व का आयोजन किया जाता है | ‘कुंभोभवति नान्यथाकहकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इन योगों के अभाव में कुम्भ पर्व नहीं मनाया जा सकता है | सूर्य हर महीने अपनी राशि बदलता है और चन्द्रमा लगभग सवा दो दिन एक राशि में रहता है | किन्तु देवगुरु बृहस्पति को एक राशि से दूसरी राशि पर जाने में लगभग बारह वर्षों का समय लग जाता है इसीलिए पूर्ण कुम्भ लगभग प्रत्येक बारह वर्षों के अन्तराल पर आता है |

देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यै द्वादश वत्सरे: |

जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया | |

 तत्राध्रुतात्तयेनूपांचत्वरों भुवि भारते |

अष्टौलोकान्तरे प्रोक्तादेवैर्गम्यानचेतरै: | |

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |

विष्णु द्वारे तीर्थराजेवन्त्यां गोदावरी तटे,

सुधा बिंदु विनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति विश्रुत: | |

 अर्थात देवताओं के 12 दिन और मनुष्यों के 12 वर्ष में कुल 12 कुम्भ पर्व आते हैं | पृथ्वी पर मनुष्यों के चार कुम्भ तथा शेष आठ कुम्भ पर्व देवताओं के होते हैं | क्योंकि ये आठ कुम्भ पृथिवी पर नहीं होते अतः इनका भान भी नहीं होता | जब गुरु और सूर्य चन्द्र सिंह राशि में होते हैं तब कुम्भ मेला नासिक में आयोजित होता है | गुरु के सिंह राशि और सूर्य के मेष राशि में होने पर कुम्भ मेला उज्जैन में आयोजित किया जाता है | गुरु के सिंह राशि में होने के कारण इन कुम्भ मेलों को सिंहस्थ भी कहा जाता है | सूर्य मेष राशि और गुरु कुम्भ  राशि में होते हैं तब उत्तराखण्ड के चार धामों – बद्रीनाथकेदारनाथगंगोत्रीयमुनोत्री – के प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन होता है | माना जाता है कि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने कुम्भ मेले का आयोजन आरम्भ कराया था | वैसे तो हर 12 वर्ष में कुम्भ का मेला लगता हैकिन्तु छह वर्षों की अवधि में भी कुम्भ का आयोजन किया जाता है जो प्रयागराज और हरिद्वार में दो पूर्ण कुम्भ मेलों के मध्य की अवधि में होता है |

किन्तु पूरे बारह वर्षों के बाद कुम्भ मेले का आयोजन होता है ऐसा भी नहीं है | ज्योतिषीय परिभाषाओं के अनुसार बारह मास के एक वर्ष और तीस दिन का एक मास होता है | किन्तु साथ ही दो पूर्णिमा के मध्य कभी 29, तो कभी 30 और कभी 31 दिन तक की अवधि लग जाती है | सूर्य तथा चन्द्र के इस अन्तर को पूर्ण करने के लिए क्षय तथा अधिक मास का विधान भी किया गया है उसी प्रकार जैसे अँग्रेज़ी कैलेण्डर में हर चौथे वर्ष लीप ईयर माना गया है और फरवरी को 28 के स्थान पर 29 दिन का कर दिया गया है | अतः इस क्षय तथा अधिक मास के कारण बृहस्पति कभी कभीवैदिक गणितज्ञों के अनुसार लगभग ग्यारह वर्ष ग्यारह महीने और 27 दिनों मेंबारह राशियों में भ्रमण करके पुनः उसी राशि पर आ जाता है | और यही कारण है कि लगभग हर सप्तम और अष्टम कुम्भ के मध्य बारह वर्षों के स्थान पर ग्यारह वर्षों का भी अन्तराल आ जाता है | उदाहरण के लिए प्रयागराज के 2010 के कुम्भ के ग्यारह महीनों के बाद 2021 में हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन हुआ था |  

 कुम्भ मेले के आधुनिक स्वरूप का प्रवर्तक जगद्गुरु आड़ शंकराचार्य को माना जाता है जिन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सौहार्द और एकता को बढ़ाने के उद्देश्य से दशनामी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की थी और कुम्भ मेले को संगठित स्वरूप प्रदान किया था | उन्होंने ही नागा साधुओं को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देकर उनके अखाड़ों की स्थापना की तथा इन नागा साधुओं को धार्मिक स्थलों, धार्मिक ग्रन्थों और आध्यात्मिक ज्ञान की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा | 1857 की क्रान्ति के समय तो क्रान्तिकारी साधु सन्तों के वेष में कुम्भ मेले में प्रयागराज पहुँचे हुए थे जिससे अँग्रेज़ भयभीत हो गाए थे और उन्होंने उस वर्ष मेले में जन साधारण के जाने पर रोक लगा दी थी | 1915 के हरिद्वार के कुम्भ में महामना मदन मोहन मालवीय जी और गाँधी जी भी पहुँचे थे ऐसे उल्लेख बहुत स्थानों पर उपलब्ध होते हैं | मदन मोहन मालवीय जी ने इसी कुम्भ में अखिल भारतीय हिन्दू सभा की नींव रखी थी | और गाँधी जी दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद दो दिनों तक स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ कैम्प में रहे थे और वहाँ उपस्थित जन साधारण को आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास किया था |

बहुत सी कथाएँ कुम्भ मेले के विषय में हैंपौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक | किन्तु वास्तव में कुम्भ का मेला एक ऐसा आयोजन होता है जो खगोल विज्ञानज्योतिषआध्यात्मअनुष्ठान तथा कर्मकाण्ड की परम्पराओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों और प्रथाओं को स्वयं में समाहित किए होने के कारण अत्यन्त समृद्ध होता है | इनमें सभी धर्मों के लोग आते हैं | आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग की साधना करने वाले साधु तथा नागा साधु भी इनमें सम्मिलित होते हैं, नागा साधुओं ने ही महारानी लक्ष्मीबाई की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी | सन्यासी अपना एकान्तवास छोड़कर जान साधारण के मध्य इस अवधि में पहुँच जाते हैं | साथ ही धार्मिक भावनाओं से ओत प्रोत जन साधारण तो इस अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान कर तथा इन साधु सन्तों के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करते ही हैं | इस सबके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के आयोजन इन मेलों में होते हैं जैसे – हाथी घोड़ों और रथों पर पारम्परिक अखाड़ों के जुलूस जिन्हें “पेशवाई” कहा जाता हैशाही स्नान के समय नागा साधुओं की रस्में तथा अन्य अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम सदा से इन कुम्भ मेलों का आकर्षण सदा से रहे हैं, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे | हमारे देश की महान संस्कृति और धार्मिक तथा आध्यात्मिक आस्थाओं और विचारों को देखने सुनने तथा उनसे कुछ सीखने के लिए और पवित्र नदियों में विशिष्ट ग्रह योगों में स्नान करके पुण्य लाभ के लिए लाखों करोड़ों की संख्या में लोग न केवल भारत के विभिन्न शहरों क़स्बों से इस कुम्भ मेले में आते हैं बल्कि संसार के बहुत से देशों से भी श्रद्धालु इस अमृत पर्व में उमड़े पड़ते हैं, और यही है महानता इस पर्व की

हम सब भी यदि कुम्भ मेले में नहीं भी जा सकते हैं तो भी अपने हृदय रूपी घट में कुछ पलों के लिए पैठकर आत्मावलोकन का प्रयास अवश्य करें इसी कामना के साथ कुम्भ पर्व की शुभकामनाएँ

माघ कृष्ण चतुर्थी

माघ कृष्ण चतुर्थी

संकष्टी चतुर्थी 

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रविनायकम् |

भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये ||

हिन्दू मान्यता के अनुसार ऋद्धि सिद्धिदायक भगवन गणेश किसी भी शुभ कार्य में सर्वप्रथम पूजनीय माने जाते हैं | गणेश जी को विघ्नहर्ता माना जाता है, यही कारण है कि कोई भी शुभ कार्य आरम्भ करने से पूर्व गणपति का आह्वाहन और स्थापन हिन्दू मान्यता के अनुसार आवश्यक माना जाता है | चतुर्थी तिथि भगवान गणेश को समर्पित मानी जाती है और इस दिन गणपति की उपासना बहुत फलदायी मानी जाती है |

माह के दोनों पक्षों में दो बार चतुर्थी आती है | इनमें पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है और अमावस्या के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहा जाता है | इस प्रकार यद्यपि संकष्टी चतुर्थी का व्रत हर माह में होता है, किन्तु माघ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का विशेष महत्त्व माना जाता है | 

इस वर्ष शुक्रवार 17 जनवरी को माघ कृष्ण चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी का व्रत किया जाएगाजिसे विघ्न विनाशक गणपति की पूजा अर्चना के कारण लम्बोदर संकष्टी चतुर्थीआँचलिक बोली में संकट चतुर्थीवक्रतुंडी चतुर्थीतिलकुटा चौथसकट चौथ के नाम से भी जाना जाता है | इस व्रत को माघ मास में होने के कारण माघी भी कहा जाता है तथा इसमें तिल के सेवन का विधान होने के कारण तिलकुट चतुर्थी भी कहा जाता है | उत्तर भारत में तथा मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में इस व्रत की विशेष मान्यता है और विशेष रूप से माताएँ अपनी सन्तान की मंगल कामना से इस व्रत को करती हैं | हमने सुना है अलवर से लगभग 60 किलोमीटर की दूर पर सकट माता का मन्दिर भी है जिसकी दूर दूर तक मान्यता है और अपनी मनोकामना सिद्धि के लिए जैन साधारण वहाँ पहुँचता भी है | इस वर्ष संकष्टी चतुर्थी के दिन यानी 17 जनवरी को सूर्योदय से पूर्व चार बजकर छह मिनट पर वृश्चिक लग्न, धनु राशि, बव करण और सौभाग्य योग में चतुर्थी तिथि का आरम्भ हो रहा है जो दूसरे दिन यानी 18 जनवरी को प्रातः 8:30 तक रहेगी | भगवान भास्कर मकर राशि में विचरण कर रहे हैं तथा शनि देव स्वराशिगत हैं शुक्र के साथ | इन ग्रह स्थितियों के कारण बहुत शुभ योग भी इस दिन बन रहे हैं |  सकट चौथ के पूजन के लिए मुहूर्त धनु लग्न में प्रातः पाँच बजकर पाँच मिनट से लग्न की समाप्ति तक यानी सात बजकर सात मिनट तक रहेगा | किन्तु सामाजिक पर्व होने के कारण अपने परिवार की मान्यताओं के अनुसार किसी भी समय गणपति और सकट माता की पूजा इस दिन की जा सकती है | चन्द्र दर्शन रात्रि नौ बजकर नौ मिनट पर होना है अतः चन्द्रमा को अर्घ्य देने का समय रात्रि में नौ बजकर नौ मिनट से आरम्भ हो रहा है | सभी को संकष्टी चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ

गणपति की पूजा अर्चना के साथ ही संकष्टी माता या सकट माता की उदारता से सम्बन्धित कथा का भी पठन और श्रवण इस दिन किया जाता है | कथा अनेक रूपों में हैअपने अपने परिवार और समाज की प्रथा के अनुसार कहीं भगवान शंकर और गणेश जी की कथा का श्रवण किया जाता है कि किन परिस्थितियों में गणेश जी को हाथी का सर लगाया गया था | कहीं कुम्हार की कहानी भी कही सुनी जाती है | तो कहीं कहीं गणेश जी और बूढ़ी माई की कहानी तो कहीं साहूकारनी की कहानी कही सुनी जाती है | कहीं जेठानी और देवरानी की कहानी कही सुनी जाती है | कुछ अन्य मान्यताएँ भी हैं, जैसे मान्यता है कि इसी दिन भगवान् शंकर ने अपने पुत्र गणेश के शरीर पर हाथी का सिर लगाया था और माता पार्वती अपने पुत्र को इसी रूप में पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो गई थीं | एक और कथा कही सुनी जाती है कि भगवान विष्णु जब माता लक्ष्मी से विवाह करने जा रहे थे तब उन्होंने गणेश जी के भारी भरकम शरीर और बहुत अधिक भोजन करने के कारण उनका अपमान किया जिसके कारण बारातियों को बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ा और अन्त में गणेश जी को मनाया गया तब कहीं जाकर विवाह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुआ |

किन्तु, जैसी कि अन्य हिन्दू व्रतोत्सवों की इन समस्त लोक कथाओं का कोई पौराणिक अथवा वैज्ञानिक महत्त्व नहीं है, किन्तु इन सब के साथ कोई न कोई नैतिक सन्देश अवश्य जुड़ा होता है | इन संकष्टी चतुर्थी की कथाओं में भी कुछ इसी प्रकार के सन्देश निहित हैं कि कष्ट के समय घबराना नहीं चाहिए अपितु साहस से बुद्धि पूर्वक कार्य करना चाहिए, माता पिता की सेवा परम धर्म है, लालच और ईर्ष्या अन्ततः कष्टप्रद ही होती है, किसी भी व्यक्ति का आकलन उसके रूप रंग तथा धनी निर्धन आदि होने के आधार पर नहीं करना चाहिए, समस्त प्राणिमात्र में अपनी आत्मा का निवास मानते हुए सबके साथ सम्मान दया तथा करना का व्यवहार करना चाहिए तथा मन में लिए संकल्प को अवश्य पूर्ण करना चाहिए | 

साथ ही, पूजा में जो तिलकुट का प्रयोग किया जाता है वह भी ऋतु के अनुसार ही हैतिल और गुड़ का कूट बनाकर भोग लगाया जाता है जो कडकडाती ठण्ड में कुछ शान्ति प्राप्त करने का अच्छा उपाय है | ऐसा भी माना जाता है कि तिल में फाइबर और एंटीऑक्सीडेंट की मात्रा अधिक होने के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है | ऐसा भी ज्ञात हुआ है कि तिल में जो एंटीऑक्सीडेंट होता है वह अनेक प्रकार के कैंसर की सम्भावनाओं को क्षीण करता है | तिलों के सर्दियों में सेवन से जोड़ों में दर्द नहीं होता, स्निग्ध बनी रहती है | बालों के लिए भी तिल उपयोग लाभकारी माना जाता है | वैसे ये सब दादी नानी के नुस्ख़े हैं, मूल रूप से तो ये सब डॉक्टर्स के विषय हैंवही इस दिशा में जानकारी दें तो अच्छा होगा |

अस्तु ! हम सभी परस्पर प्रेम और सौहार्द की भावना के साथ ऋद्धि सिद्धिदायक विघ्नहर्ता भगवान गणेश का आह्वाहन करें और प्रार्थना करें कि गणपति सभी को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रखेंइसी कामना के साथ सभी को संकष्टी चतुर्थी के व्रत की हार्दिक शुभकामनाएँ

महाकुम्भ प्रयागराज

महाकुम्भ प्रयागराज

कुम्भ पर्व हिन्दू धर्मं का एक महत्वपूर्ण पर्व है | प्रयागराज में सोमवार13 जनवरी 2025 पौष पूर्णिमा से आरम्भ होकर बुधवार 26 फरवरी 2025 फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी यानी महाशिवरात्रि तक महाकुम्भ का आयोजन किया जाएगा | हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में हर बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन किया जाता है | हरिद्वार और प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के मध्य छः वर्ष के अंतराल पर एक अर्धकुम्भ भी होता है | माना जाता है कि पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल पर आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी | साथ ही माना जाता है कि यहाँ सरस्वती नदी भी गुप्त रूप में गंगा और यमुना से मिलती है | संगम तट पर, जहाँ कुम्भ मेले के आयोजन होता है वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम भी है | इसे विष्णु नगरी भी कहा जाता है और महाभारत के अनुसार माना जाता है कि सृष्टि की रचना के पश्चात यहीं पर ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ भी किया था | कुम्भ पर्व का आयोजन समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से सम्बद्ध है, जब देव दानवों द्वारा समुद्र मंथन से अमृत कुम्भ प्राप्त हुआ | अमृत कुम्भ दानव भी हड़प कर जाना चाहते थे | बारह दिनों तक दैत्य और दानवों में उस कलश के लिये युद्ध होता रहा | इस युद्ध के कारण कलश से अमृत की कुछ बूँदें पृथिवी पर प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में छलक गईं | उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से अमृत की रक्षा की, सूर्य ने घट को फूटने से बचाया, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से बचाया और शनि ने इन्द्र के भय से कुम्भ की रक्षा की | अन्त में भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर यथाधिकार सबके मध्य उस अमृत का बँटवारा किया तब युद्ध शान्त हुआ | अमृत की खींचा तानी के समय चन्द्रमा ने अमृत को बहने से बचाया | गुरूदेव बृहस्पति ने कलश को छुपा कर रखा | भगवान भास्कर ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से रक्षा की | अतः ये समस्त ग्रह जब एक विशिष्ट स्थिति में आते हैं तो कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है |

वास्तव में भचक्र में सभी ग्रह हर क्षण गतिमान रहते हैं और प्रत्येक ग्रह का गोचर एक राशि से दूसरी राशि में समय समय पर होता रहता है | इनमें देवगुरु बृहस्पति की गति गोचर का कुम्भ के आयोजन में बहुत बड़ा योगदान है | साथ ही जब सभी राशि नक्षत्रों पर भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा भगवान भास्कर के सान्निध्य में आता है तो धरा पर एक विशेष प्रकार की ऊर्जा का संचार होता है जिसे जान साधारण अनुभव भी करता है | यह ऊर्जा प्राणी मात्र के कल्याण का कारक होती है | और यही ऊर्जा अमृत घट की वे बूँदें हैं जो पृथिवी पर समुद्र मन्थन के बाद चार नगरों में गिरी थीं | अतः सूर्य चन्द्र गुरु तथा शनि की विशेष स्थितियों में विशेष संयोगों में इन सभी कुम्भ मेलों का आयोजन किया जाता है |

कुम्भ मेला हर बारह वर्ष में आता है यह तो सभी जानते हैं | कुम्भ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चन्द्र, गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है | इस वर्ष मौनी अमावस्या 29 जनवरी को सायं छह बजकर छह मिनट के लगभग सूर्य और चन्द्र मकर राशि में समान अंशों में होंगे तथा देवगुरु बृहस्पति वृषभ राशि में चल ही रहे हैं | उस दिन महाकुम्भ का महास्नान होगा | जब गुरु और सूर्य चन्द्र सिंह राशि में होते हैं तब कुम्भ मेला नासिक में आयोजित होता है | गुरु के सिंह राशि और सूर्य के मेष राशि में होने पर कुम्भ मेला उज्जैन में आयोजित किया जाता है | गुरु के सिंह राशि में होने के कारण इन कुम्भ मेलों को सिंहस्थ भी कहा जाता है | सूर्य मेष राशि और गुरु कुम्भ  राशि में होते हैं तब उत्तराखण्ड के चार धामोंबद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्रीके प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन होता है | माना जाता है कि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने कुम्भ मेले का आयोजन आरम्भ कराया था | वैसे तो हर 12 वर्ष में कुम्भ का मेला लगता है, किन्तु छह वर्षों की अवधि में भी कुम्भ का आयोजन किया जाता है | कुम्भ मेले को तीन वर्गों में बाँटा गया है

पूर्ण कुम्भ मेलाजिसे केवल कुम्भ मेला भी कहा जाता है और यह प्रत्येक बारह वर्षों में प्रयागराज में संगम के तट पर, नासिक में गोदावरी के तट पर, उज्जैन में क्षिप्रा के तट पर तथा हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर आयोजित किया जाता है |

अर्ध कुम्भ मेलाअर्थ से ही स्पष्ट हैअर्ध अर्थात आधाप्रयागराज और हरिद्वार में दो पूर्ण कुम्भ मेलों के मध्य में लगभग प्रत्येक छह वर्षों में अर्ध कुम्भ मेले आयोजन किया जाता है |

महाकुम्भजो इस वर्ष यानी 2025 में प्रयागराज में आयोजित किया जा रहा है और यह बारह पूर्ण कुम्भ मेलों के बाद आता है |

चारों तीर्थ नगरों में आने वाले कुम्भ की स्थिति विशेष होती है | एक ओर जहाँ नासिक और उज्जैन के कुम्भ को प्रायः सिंहस्थ कहा जाता है वहीं दूसरी ओर हरिद्वार और प्रयागराज के कुम्भ को अर्ध कुम्भ, पूर्ण कुम्भ और महाकुम्भ कहा जाता है |

वास्तव में कुम्भ का मेला एक ऐसा आयोजन होता है जो खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्म, अनुष्ठान तथा कर्मकाण्ड की परम्पराओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों और प्रथाओं को स्वयं में समाहित किए होने के कारण अत्यन्त समृद्ध होता है | इनमें सभी धर्मों के लोग आते हैं | आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग की साधना करने वाले साधु तथा नागा साधु भी इनमें सम्मिलित होते हैं | सन्यासी अपना एकान्तवास छोड़कर जान साधारण के मध्य इस अवधि में पहुँच जाते हैं | साथ ही धार्मिक भावनाओं से ओत प्रोत जन साधारण तो इस अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान कर तथा इन साधु सन्तों के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करते ही हैं | इस सबके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के आयोजन इन मेलों में होते हैं जैसेहाथी घोड़ों और रथों पर पारम्परिक अखाड़ों के जुलूस जिन्हेंपेशवाईकहा जाता है, शाही स्नान के समय नागा साधुओं की रस्में तथा अन्य अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम सदा से इन कुम्भ मेलों का आकर्षण रहे हैं |

2025 के महाकुम्भ मेले में विशिष्ट स्नान की तिथियाँ इस प्रकार हैं

  1. सोमवार 13 जनवरीपौषपूर्णिमा
  2. मंगलवार 14 जनवरीमकरसंक्रान्ति
  3. बुधवार 29 जनवरीमौनीअमावस्या
  4. सोमवार 3 फरवरीवसन्तपञ्चमी
  5. बुधवार 12 फरवरीमाघीपूर्णिमा
  6. बुधवार 26 फरवरीमहाशिवरात्रि

पर्वों के सम्बन्ध में अन्धविश्वास

पर्वों के सम्बन्ध में अन्धविश्वास

कहाँ तक उचित

ध्रियते लोकोऽनेन, वा धारयतीति धर्मः |”

आज अहोई अष्टमी है, और करवाचौथ तथा अहोई अष्टमी सम्पन्न होने के साथ ही पर्वों की श्रृंखला दीपावली का उल्लासमय पर्व आरम्भ होने वाला है, सर्वप्रथम सभी को इन पर्वों की मिठास और प्रकाश से युक्त उल्लासमय हार्दिक शुभकामनाएँ

श्रावण मास से ही समूचे हिन्दू समाज में व्रतोत्सव और पर्वों का उल्लासमय तथा श्रद्धा भक्ति से परिपूर्ण वातावरण बन जाता है | एक ओर नभ में उमड़ घुमड़ चल रहे मेघराज के उत्सवों के साथ श्रावण मास समर्पित होता है भगवान शंकर को, तो कर्म और बुद्धि के सन्तुलन तथा साधना के द्वारा जीवन में सफलता की ओर अग्रसर रहने का सन्देश देता हुआ भाद्रपद मास भी श्री कृष्ण जन्म महोत्सव, पजूसन और क्षमावाणी पर्व, अनन्त चतुर्दशी तथा श्राद्ध पर्वों से सम्पन्न होता है | भारतीय दर्शनों के अनुसार आत्मा कभी नष्ट नहीं होतावह अजर अमर होता हैऔर यही कारण है कि दिवंगतों के प्रति शोक न मनाकर उनके प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं और इस का उत्सव होता है श्राद्ध पक्ष | उसके सम्पन्न होते ही आश्विन मास में भगवती के नौ रूपों की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्र आरम्भ हो जाते हैं | तत्पश्चात विजया दशमी और शरद पूर्णिमा के साथ आश्विन मास सम्पन्न होता है तो करक चतुर्थी और अहोई अष्टमी के साथ ही पाँच पर्वों की श्रृंखला दीपावली तथा छठ पूजा के उत्सव आरम्भ हो जाते हैं | उसके पश्चात कार्तिक पूर्णिमा को होता है गुरुपर्वसिखों के प्रथम गुरु नानकदेव जी का जन्म महोत्सवजिसे प्रकाश पर्व के नाम से भी जाना जाता है | इस प्रकार श्रावण मास से न केवल कार्तिक मास तक बल्कि सूर्य के उत्तरायण होने तक पर्वों, उत्सवों तथा व्रतोपवासों का क्रम निरन्तर चलता रहता है | और ये सभी पर्व और उत्सव धार्मिक तथा आध्यात्मिक भावनाओं से ओत प्रोत होते हैं | यही तो है भारतीय दर्शन की विशेषता | क्योंकि परम सत्य के ज्ञान की ओर सभी की प्रवृत्ति होती है और धर्म इसी परम सत्य के ज्ञान का एक साधन माना जाता है तथा धर्म का अन्तिम लक्ष्य होता है प्राणिमात्र का कल्याण | निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति को अपने अपने धर्म का पालन करना चाहिएजैसा कहा भी गया हैस्वधर्मे निधनं श्रेयं परधर्मे भयावह” |

किन्तु मनुष्य के धर्म के मार्ग पर चलने की इसी लालसा के कारण लगभग प्रत्येक पर्व के सन्दर्भ में बहुत से अन्धविश्वास भी पूर्ण निष्ठा और आस्था के साथ सोशल मीडिया पर परोसे जाते रहते हैं | धर्म का चरम लक्ष्य होता है संसार को हर प्रकार के ताप से मुक्त कर उसे अनन्त सुख की अन्तिम सीमा तक पहुँचाकर सदा के लिये आनन्दमय बना देना | जिस धर्म का लक्ष्य इतना पावन है, इतना विशाल हैउस धर्म में किसी प्रकार के अन्धविश्वास के लिए स्थान ही नहीं रह जाता है |

उदाहरण के लिए, करवाचौथ के अवसर पर चन्द्र दर्शन न होने की स्थिति में किस प्रकार जल दिया जा सकता है इस विषय में विद्वानों के विचार जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | एक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण जानकारी प्राप्त हुई कि यदि बादलों के कारण, कुहासे के कारण या वर्षा आदि के कारण चन्द्रमा के दर्शन न हो सकें तो भगवान शिव की जटाओं में जो अर्धचन्द्र शोभायमान है उसके दर्शन करके जल दिया जा सकता हैअथवा किसी कागज़ पर चन्द्रमा की आकृति बनाकर उसके दर्शन करके जल दिया जा सकता है | इसी प्रकार से एक और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई कि करवाचौथ के दिन किस राशि वाली महिला को किस रंग की साड़ी पहननी चाहिएऔर ये ज्ञान तो नवरात्रों के दिनों में मिल जाता है कि भगवती के किस रूप की पूजा करते समय महिला को किस रंग की साड़ी पहननी चाहिए | दीपावली पर घर में नई झाड़ू लाकर उसकी पूजा की जानी चाहिए | और ये अन्ध विश्वास केवल सोशल मीडिया के युग में ही प्रसारित होते हों ऐसा भी नहीं है, हमें याद है जब हम बच्चे थे तब एक अन्धविश्वास प्रचलित थे कि दीपावली की रात को घर के दरवाज़े खुले छोड़कर सोना चाहिए क्योंकि उससे लक्ष्मी घर में आती है |  पिताजी समझाते भी थे कि ऐसा करके आप किसी दुर्घटना को न्यौता दे रहे हैंपर अनहोनी की आशंका और जो अपने पास है उससे भी अधिक की लालसा में लोग इन अन्धविश्वासों का पालन भी करते थे | वो तो दरवाज़े खुले छोड़कर जब घरों में चोरियाँ होने लगीं तब सबने स्वयं ही इस अन्धविश्वास से किनारा कर लिया | इसी प्रकार के बहुत से अन्धविश्वास लगभग सभी पर्वों के विषय में प्रसारित होते रहते हैं | और इनमें से कोई भी नियम या कह लीजिये अन्धविश्वास पुरुषों के लिए नहीं होता, केवल महिलाओं के लिए होता है |

हमारा मानना है कि यदि किसी कारणवश करवा चौथ पर चन्द्रमा के अथवा अहोई अष्टमी पर तारे के दर्शन न भी हो पाएँ तो कोई बात नहींप्रकृति अपने रूप बदलती रहती है और हमें उसके इस परिवर्तन का स्वागत भी करना चाहिए | चन्द्रमा अथवा तारे के दर्शन न होने की स्थिति में अपने परिवार की प्रथा के अनुसार पूजा अर्चना आदि से निवृत्त होकर इनके उदय होने के समय के कुछ देर बाद इनका मन ही मन ध्यान करके अर्घ्य समर्पित कर सकते हैं |

यहाँ एक बात हम आप सभी से जानना चाहते हैंक्या सनातनी संस्कृति में भगवान अर्थात परमात्मा किसी प्रकार के दिखावे से प्रसन्न होता है ? जहाँ तक हम समझते हैं भगवान तो भावों का भूखा होता है | किसी भी स्थिति में किसी भी स्थान पर यदि भावपूर्ण मन से सत्य निष्ठा और आस्था के साथ उसे पुकारा जाएगा तो निश्चित रूप से वह अपने भक्त के पास दौड़ा चला आएगाऔर इस प्रकार की अनेकों कथाएँ हमारे पुराणों में उपलब्ध भी होती हैं | भोले बाबा की जटाओं के चन्द्र को देखकर अथवा कागज़ पर बने चन्द्रमा के दर्शन करके अर्घ्य समर्पित करने में कोई बुराई नहीं हैलेकिन क्या हम पूर्ण श्रद्धा और आस्था युक्त मन से चन्द्रमा का स्मरण करके अर्घ्य नहीं समर्पित कर सकते ? क्या राशि विशेष की महिला किसी विशेष रंग की साड़ी धारण करेगी तभी उसका सुख सौभाग्य अखण्ड बनेगा ? एक बार विचार अवश्य करें इन बातों पर | क्योंकि इस प्रकार के अन्धविश्वास को प्रोत्साहित करना न तो सनातन संस्कृति में ही मान्य है और न ही भारतीय वैदिक दर्शन के अनुरूप हैजिसका एकमात्र लक्ष्य है समस्त प्रकार के दिखावे, ढोंग, आडम्बरों का त्याग करके अपनी बुद्धि से लोक कल्याणार्थ धर्म का पालन करते हुए परमात्मतत्व की उपलब्धितभी हमें सच्चा आनन्द और शान्ति प्राप्त हो सकती है | धर्म की उस भावना को स्मरण करके ही हम प्राणिमात्र का तथा स्वयं का भी कल्याण कर सकते हैं |

एक और बात, जैसा कि हमने पहले भी एक लेख में लिखा है, प्रायः पर्वों के अवसर पर उन पर्वों से सम्बन्धित धार्मिक कथाएं केवल भारत में ही नहीं, बल्कि संसार के हर देश में कही सुनी या पढ़ी जाती हैं | वे कथाएं भले ही वैज्ञानिक अथवा तार्किक स्तर पर खरी न उतरती हों, किन्तु इतना अवश्य है कि उन सबके पीछे कोई न कोई नैतिक शिक्षा अवश्य होती है | कथाओं के माध्यम से तथा धर्म की भावना से जो शिक्षाएँ जन साधारण को दी जाती हैं वे सहज बोधगम्य होती हैं, इसीलिए सम्भवतः इस प्रकार की नैतिक कथाओं को पर्वों के साथ जोड़ा गया होगा | और हमारा ऐसा मानना है कि नैतिक मूल्यों से युक्त ये कथाएँ हमें भी अपने बच्चों को अवश्य सुनानी चाहियेंउनमें निहित सन्देश के विषय में बताते हुए |

अस्तु, हम सभी सोच विचार कर हर कार्य करते हुए, जीवमात्र के प्रति स्नेह, समता तथा करुणा का भाव रखते हुए आगे बढ़ते रहें इसी भावना के साथ सभी को दीपोत्सव के पाँचों पर्वों की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँसभी स्वस्थ रहें, सुखी रहें, समृद्ध रहें, तथा सभी के हृदय हर्षोल्लास की स्वर्णिम आभा से प्रकाशित रहें

दीपावली के पर्वों से जुड़ी कुछ मधुर स्मृतियाँ

दीपावली के पर्वों से जुड़ी कुछ मधुर स्मृतियाँ

कल सभी हिंदू महिलाएँ अपनी सन्तान तथा परिवार की मंगल कामना के लिए अहोई  अष्टमी का व्रत रखेंगी | जब भी इस प्रकार के कुछ पर्व आते हैं तो हमें अपना मायका याद आ जाता हैसभी को आता होगा, क्योंकि ससुराल और मायके के रीति रिवाज़ों में कुछ न कुछ अन्तर तो रहता ही है और ससुराल में आकर लड़की को उन्हीं के रीति रिवाज़ों का पालन करना होता है | बहरहाल, हमें याद आता है किस तरह से श्राद्ध पक्ष समाप्त होते ही सबसे पहला कार्य होता था घर की टूट फूट को ठीक करके पुताई कराना | महालया के दिन ही पुताई वाले आ जाते थे और सबसे पहले पूजा के कमरे को ठीक कर देते थे ताकि वहाँ भगवती की स्थापना की जा सके और उसके बाद शेष घर को ठीक किया जाता था | फिर शरद पूर्णिमा से ही माँ पूजा के कमरे की पूर्व की दीवार को चावल की पिट्ठी का एपन बनाकर उससे एकसार लीप कर एक बोर्ड जैसा बना लिया करती थीं और फिर अपना स्केल और लाल पेंसिल लेकर बैठ जाती थीं उस पर तस्वीर बनाने | माँ हमारी बहुत अच्छी ड्राइंग बनाया करती थीं और उनकी करवाचौथ, अहोई और दिवाली के चित्र देखने के लिए तो कलाप्रेमी आया करते थे | रंगीन चित्र बनाती थीं और ऐसे मानों कोई कैलेण्डर लाकर दीवार पर चिपका दिया हो | करवाचौथ में जहाँ तरह तरह के पकवानों के चित्रों के साथ करवे लिए महिलाएँ, पेड़ पर चढ़कर दीपक दिखाता भाई, उसके पास खड़े शेष भाई और दीपक को चन्द्रमा समझ जल देती कन्या जीवन्त हो जाती थी,  वहीं दीपावली के चित्र में श्री गणेश, हाथ के कलश से धनवर्षा करतीं कमल पुष्प पर खड़ी माँ लक्ष्मी और मयूर पर हाथ में वीणा लिये बैठी माँ वाणी वास्तविक प्रतीत होती थीं | उधर अहोई अष्टमी के चित्र में कथा के अनुसार स्याऊ सेही की जोड़ी, कुदाल से ज़मीन खोदती महिला और फिर अहोई माता की पूजा करती महिला नेत्रों के समक्ष प्रत्यक्ष उपस्थित हो जाती थीं | माँ को घर के अन्य कार्य भी देखने होते थे, तो जिस समय वे दिन का भोजन तैयार कर रही होती थीं उस समय नजीबाबाद के ही निवासी हमारे इकलौते जीजा जीजो एक बहुत अच्छे चित्रकार थे और जिनकी बनाई पेंटिंग्स कला प्रदर्शनियों में भी लगा करती थींउस पेंटिंग में हाथ लगाने आ जाते थे | और इस तरह सास दामाद मिलकर उन चित्रों को पूरा कर लिया करते थे | जितने दिन ये चित्र बनाने का कार्यक्रम चलता था उतने दिन फर्श पर रंगों की शीशियाँ, रंग घोलने की ट्रे और तरह तरह के छोटे बड़े मोटे पतले ब्रश शोभायमान रहते थे |

हम बात कर रहे थे अहोई अष्टमी की | तो उस दिन माँ प्रातः पूजा अर्चन से निबट अहोई के पकवान बनाने में लग जाती थीं | और सारे पकवानों के साथ गुड़ के मीठे पूए और आटे में गुड़ मिलाकर तरह तरह के खेल खिलौने बनाकर तला करती थी देस घी में और शाम को पूजा के समय अहोई माता के चित्र के सामने एक ओर जल से भरे दो करवे ऊपर नीचे रखे जाया करते थेजिनमें से एक करवे से पूजा के बाद तारे देखकर अर्घ्य दिया जाता था और दूसरे करवे का जल नरक चतुर्दशी के दिन नहाने के पानी में मिलाया जाता था गंगाजल की तरह | चित्र के दूसरी ओर मिट्टी की दो तीन छोटी छोटी मटकियों में पूए और शेष खेल खिलौने रखें जाया करते थे जो पूजा के बाद हम सब बच्चों को बाँट दिए जाते थे | हम लोगों को उस आयु में पूजा से सम्भव है उतना लेना देना न रहा हो, किन्तु हमें याद हैहम सब माँ के व्रत के पारायण की प्रतीक्षा किए करते थे ताकि उन छोटी मटकियों में रखे पकवान हमें मिल सकें |

इसी तरह दीपावली के अवसर परचार पाँच दिन पहले से एक दूसरे के घर मिठाई लेने देने का कार्यक्रम आरम्भ हो जाया करता था | उन दिनों आज की तरह मिठाइयों के डिब्बे या किसी प्रकार के उपहार आदि नहीं लिए दिए जाते थे, बल्कि अपने ख़ास ख़ास घरों में और पास पड़ोसियों के यहाँ जिसके साथ जैसा व्यवहार होता था उसके अनुसार प्लेट्स में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक कितनी भी मिठाइयाँ रखकर पहुँचाई जाती थीं | कुछ विशेष परिवारों में बच्चे भी बड़ों के साथ चले जाया करते थेउन्हें अपने नए जूते कपड़ों का प्रदर्शन जो करना होता था | दीपावली की पूजा के दिन माँ पापा का दिन भर का व्रत हुआ करता था और कोई ऐस पूजा भी वे लोग किया करते थे जो बच्चों को नहीं दिखाई जाती थी और जिसे वे सत्ती ऊतों की पूजा कहा करते थे | रात को पूजन के समय  चित्र के आगे हटरी लगाई जाती थी और रात्रि भर के लिए दीपक जलाया जाता था | साथ ही छोटी छोटी कुलियों यानी कसोरों में खिल बताशे खाण्ड के खिलौने और कुछ पैसे भरे जाया करते थे जिन्हें पूजा के दूसरे दिन बच्चों में बाँट दिया जाता था | बच्चों को तो जैसे न जाने कितना बड़ा ख़ज़ाना मिल जाया करता था | फिर रात को घर में दीये लगाने के बाद माँ पापा के साथ मन्दिर और शहर की रोशनी देखने जाया करते थे क्योंकि उस रोशनी को देखे बिना माँ दिन भर का व्रत नहीं खोलती थीं |

पूजा करते समय अड़ोस पड़ोस की महिलाएँ भी आ जाती थीं करवा चौथ के दिन भी और अहोई के दिन भी अपने अपने करवे और बायने की थालियाँ लेकर और सब एक साथ मिश्रानी जी से कहानी सुना करती थीं | हमारे लिए तो सारी ही कहानियाँ कौतूहल का विषय होती थीं | कैसे करवाचौथ पर मन ये मानने को न तब तैयार होता था न अब होता है कि कोई दीपक को भी चाँद समझ सकता है ? अथवा किसी की अँगुली में वास्तव में इतना अमृत हो सकता है कि उससे कोई मृत व्यक्ति जीवित हो जाए ? या फिर अहोई पर कि किसी महिला से मिट्टी खोदते समय स्याऊ सेही के बच्चे मर गए तो उसने उसकी कोख बाँध दी और उसकी सभी सन्तानें नष्ट हो गईं, बाद में जब उसने प्रायश्चित किया तब सेही ने उसकी कोख छोड़ी और उसके बच्चों को वापस दिया | इतना अवश्य था कि मिश्रानी जिस प्रकार लयबद्ध और भावपूर्ण स्वर में कहानियाँ सुनाया करती थीं उन्हें सुनकर हम बच्चे इन कहानियों को सुनकर इनके भावों में बह जाया करते थे | लेकिन अब सोचते हैं तो पाते हैं कि ये कहानियाँ वैज्ञानिक तथ्यों से पूर्ण रूप से परे होते हुए भी कुछ अच्छे सँदेश मानस पर छोड़ जाती थींजैसे करवा चौथ की कथा का सँदेश कि यों ही किसी की बात का विश्वास न करके अपनी बुद्धि का भी प्रयोग करना चाहिएभले ही वह व्यक्ति आपका अपना ही क्यों न हो | या फिर अहोई की कथा से कि बिना सोचे समझे लापरवाही से यदि कार्य किया जाएगा तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा | क्योंकि जब बाद में हम माँ बाबा से उन कहानियों के विषय में बात करते थे तो दोनों ही हमें यही सब तो समझाते थे |

अन्त में इतना ही कहेंगे कि करवाचौथ और अहोई अष्टमी दोनों ही आँचलिक पर्व हैं और अपने अपने परिवारों के रीति रिवाज़ों के अनुसार मनाए जाते हैं अतः उनकी कहानियों में हमें वैज्ञानिक तथ्य नहीं ढूँढने चाहियें, अपितु उन कथाओं में निहित भावों पर ध्यान देना चाहिए | हमारे माता पिता ने जिन नियमों का पालन किया हैआज के युग की जीवन यापन की आपा धापी में यदि उतना पालन नहीं भी कर सकें तो भी कुछ तो अवश्य करें और सोच समझकर कार्य करते रहें ताकि किसी भी प्रकार की अशुभ घटना दुर्घटना के शिकार होने से बचे रहेंसभी को अहोई अष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ

दीपोत्सव के पाँचों पर्वों की पूजा के मुहूर्त

दीपोत्सव के पाँचों पर्वों की पूजा के मुहूर्त

सभी जानते हैं कि कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को प्रकाश का पर्व दीपोत्सव मनाया जाता है और लक्ष्मी पूजन किया जाता है | इस दिन माता लक्ष्मी के साथ भगवान गणेश, मां सरस्वती और कुबेर जी की पूजाअर्चना की जाती है | मान्यता है कि दीपावली के दिन मां लक्ष्मी धरती पर भ्रमण के लिए आती हैं | ऐसे में देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए लोग तरहतरह के उपाय भी करते हैं | माता लक्ष्मी के चरण जिस भी घरआंगन में पड़ते हैं वहां धनधान्य और सुखसमृद्धि की वर्षा होती है | यह दीपोत्सव वास्तव में पाँच पर्वों की एक शृंखला के रूप में मनाया जाता है | प्रस्तुत है दीपोत्सव के इन पाँच पर्वों की पूजा के लिए इस वर्ष के शुभ मुहूर्त

धन्वन्तरी त्रयोदशी (धनतेरस)दीपोत्सव के पाँच पर्वों की शृंखला का प्रथम पर्व होता है धन्वन्तरी त्रयोदशी, जिसे लोग आम भाषा में धनतेरस भी कहते हैं| इस विषय में अलग से लिखेंगे| यहाँ धन्वन्तरी त्रयोदशी की पूजा के मुहूर्त के सम्बन्ध में| इस वर्ष मंगलवार 29 अक्तूबर को प्रातः 10:31 से तीस अक्टूबर को दिन में 1:15 तक त्रयोदशी तिथि है | इस प्रकार धन्वन्तरी त्रयोदशी 29 अक्टूबर को मनाई जाएगी | इसी दिन प्रदोष व्रत भी है| इस दिन प्रदोष काल सायं 5:38 से 8:13 तक है तथा वृषभ लग्न सायं 6:31 से रात्रि 8:27 तक रहेगी | इस प्रकार 6:31 से 8:27 तक धन्वन्तरी त्रयोदशी के लिए पूजा का मुहूर्त है| प्रदोष काल में भी पूजा की जाती है

नरक चतुर्दशी (रूप चतुर्दशी)बुधवार 30 अक्टूबर को दिन में 1:15 से 31 अक्टूबर को अपराह्न 3:52 तक चतुर्दशी / 31 को सूर्योदय 6:32 पर/ अभ्यंग स्नान सूर्योदय से पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में 5:20 से सूर्योदय तक |

लक्ष्मी पूजन और दीपोत्सव के मुहूर्त अमावस्या तिथि गुरुवार 31 अक्तूबर को अपराह्न 3:52 से लेकर पहली नवम्बर को सायं 6:16 तक रहेगी | इस वर्ष लक्ष्मी पूजन और दीपावली को लेकर विद्वानों में मतभेद है जिसके कारण भ्रम की स्थिति बनी हुई है| यद्यपि इस भ्रम को दूर करने के प्रयास भी विद्वानों के द्वारा किए गए हैं, किन्तु फिर भी कुछ लोग अभी भी उलझन में हैं | यहाँ हम कहना चाहेंगे कि विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि लक्ष्मी पूजन के लिए अमावस्या तिथि के निर्धारण के लिए उदया तिथि को नहीं देखा जाता हैक्योंकि लक्ष्मी पूजन प्रदोष काल में अथवा रात्रि में किया जाता है| पूजन के समय अमावस्या तिथि आवश्यक होती है | किन्तु ऐसा भी माना जाता है कि एक दिन यदि अमावस्या तिथि प्रदोष व्यापिनी है किन्तु दूसरे दिन तीन प्रहर से अधिक समय तक अमावस्या हैभले ही वह प्रदोष अथवा निशीथ व्यापिनी नहीं है और प्रतिपदा सायंकाल में ही आ गई हैतो भीपूर्व दिन की अपेक्षा दूसरे दिन की अमावस्या को महत्त्व दिया जाता है| इस वर्ष सभी पञ्चांगों में यद्यपि 31 अक्टूबर को अपराह्न 3:55 पर चतुष्पद करण और प्रीति योग में अमावस्या तिथि का आगमन हो रहा है जो प्रदोष व्यापिनी अमावस्या है, और पहली नवम्बर को सायं छह बजकर सोलह मिनट पर प्रतिपदा तिथि का आगमन हो रहा है, अतः 31 अक्टूबर को ही दीपावली पूजन और लक्ष्मी पूजन किया जाना चाहिए | किन्तु फिर भीक्योंकि पहली नवम्बर को तीन प्रहर से अधिक समय तक अमावस्या है तथा इस दिन भी प्रदोष व्यापिनी ही है, अतः दीपावली और लक्ष्मी पूजन नैमित्तिक कर्म होने के कारण 31 अक्टूबर और पहली नवम्बर दोनों दिन ही अपनी सुविधानुसार लक्ष्मी पूजा की जा सकती है| यहाँ हम दोनों ही दिनों के मुहूर्त लिख रहे हैं…  

31 अक्टूबर को दीपावली और लक्ष्मी पूजन के शुभ मुहूर्त 

  • प्रदोष कालसायं 5:36 से रात्रि 8:11 तक 
  • वृषभ लग्नसायं 6:20 से रात्रि 8:15 तकयही समय जन साधारण के लिए लक्ष्मी पूजन का शुभ मुहूर्त है|  
  • ब्रह्म मुहूर्तसूर्योदय से पूर्व 4:49 से 5:41 तक 
  • अभिजीत मुहूर्तप्रातः 11:42 से 12:27 तक 
  • विजय मुहूर्तदिन में 1:55 से 2:39 तक 
  • अमृत कालसायं 5:32 से 7:20 तक
  • निशीथ कालरात्रि 11:39 से अर्धरात्रि में 12:31 तक
  • सिंह लग्नअर्धरात्रि में 12:55 से अर्धरात्र्योत्तर (पहली नवम्बर को सूर्योदय से पूर्व) 3:12 तक 

पहली नवम्बर को दीपावली और लक्ष्मी पूजन मुहूर्त:  

  • प्रदोष कालसायं 5:36 से 8:11 तक
  • सर्वसाधारण के लिए वृषभ लग्नसायं 6:20 से 8:15 तक |  
  • प्रातः मुहूर्त (चर, लाभ, अमृत) – प्रातः 6:33 से 10:42 तक 
  • अपराह्न मुहूर्त (चर) – सायं 4:13 से 5:36 तक 
  • अपराह्न मुहूर्त (शुभ) – दोपहर 12:4 से 1:27 तक 
  • अभिजित मुहूर्तप्रातः 11:43 से 12:28 तक |
  • निशीथ कालरात्रि 11:39 से अर्धरात्रि में 12:31 तक  
  • सिंह लग्नपहली नवम्बर को अर्धरात्रि में 12:50 से अर्धरात्र्योत्तर (दो नवम्बर को सूर्योदय से पूर्व) 3:7  तक 

गोवर्धन पूजा, बलि प्रतिपदा और अन्नकूटप्रतिपदा तिथि शुक्रवार एक नवम्बर को सायं 6:16 से दो नवम्बर को रात्रि 8:21 तक | गोवर्धन पूजा और बलि प्रतिपदा का प्रातःकालीन मुहूर्त दो नवम्बर को प्रातः 6:34 से 8:46 तक, सायंकालीन मुहूर्त दो नवम्बर को ही अपराह्न 3:23 से सायं 5:35 तक, दिन में अन्नकूट

भाई दूज (यम द्वितीया)द्वितीया तिथि रविवार दो नवम्बर को रात्रि 8:21 पर आरम्भ होगी और तीन नवम्बर को रात्रि दस बजकर पाँच मिनट तक रहेगी | इस स्थिति में भाई दूज तीन नवम्बर को मनाई जाएगी और तिलक करने का शुभ मुहूर्त है दिन में एक बजकर दस मिनट से तीन बजकर बाईस मिनट तक

सभी को इन सभी पर्वों की हार्दिक शुभकामनाएँ

 ——-कात्यायनी

करवाचौथ व्रत 2024

करवाचौथ व्रत 2024

हम सभी परिचित हैं कि भारत के उत्तरी और पश्चिमी अंचलों में कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को करवाचौथ व्रत अथवा करक चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है | करक का अर्थ होता है मिट्टी का पात्र और इसीलिए इस दिन मिट्टी के पात्र से चन्द्रमा को अर्घ्य देने की प्रथा है | इस वर्ष रविवार बीस अक्तूबर को पति, सन्तान तथा परिवार के सभी सदस्यों की दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य की कामना से महिलाएँ करवाचौथ के व्रत का पालन करेंगी | करवाचौथ के व्रत का पारायण उस समय किया जाता है जब चन्द्र दर्शन के समय चतुर्थी तिथि रहे | इसीलिए यदि प्रातःकाल से चतुर्थी तिथि नहीं भी हो तो प्रायः तृतीया में व्रत रखकर तृतीयाचतुर्थी के सन्धिकालप्रदोष कालमें पूजा अर्चना का विधान है | कुछ स्थानों पर निशीथ कालमध्य रात्रिमें भी करवा चौथ की पूजा अर्चना की जाती है |

इस अवसर पर अन्य देवी देवताओं के साथ शिव परिवार की पूजा अर्चना की जाती है | सबसे पहले अखण्ड सौभाग्यवती माता पार्वती की पूजा की जाती है और फिर उनके पश्चात् श्री गणेश तथा शेष शिव परिवार की अर्चना की जाती है | चतुर्थी तिथि वैसे भी विघ्नहर्ता गणपति के लिए समर्पित होती है | करक चतुर्थी को प्रातःकाल सरगी लेने से पूर्व स्नानादि से निवृत्त होकर महिलाएँ संकल्प लेती हैंमम सुखसौभाग्यपुत्रपौत्रादि सुस्थिरश्रीप्राप्तये करकचतुर्थीव्रतमहं करिष्ये…” अर्थात अपने पति पुत्र पौत्रादि के सुख सौभाग्य की कामना से तथा स्थिर लक्ष्मी प्राप्त करने के उद्देश्य से मैं ये करक चतुर्थी का व्रत कर रही हूँ | इसके पश्चात माता पार्वती की पूजानमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं सन्ततिशुभाम्‌प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे ||” मन्त्र से की जाती है | तत्पश्चात गणेश, शंकर, कार्तिकेय आदि की पूजा करने के बाद दुग्ध अथवा जल से पूर्ण करक यानी करवे में कुछ दक्षिणा डालकर परिवार की बुज़ुर्ग महिलाओं अथवा अन्य किसी भी सम्माननीय महिला को दान किया जाता है | करवा दान करते समयकरकं क्षीरसम्पूर्णं तोयपूर्णमथापि वाददामि रत्नसंयुक्तं चिरञ्जीवतु मे पतिः ||” जिसका अर्थ है कि हे शंकरप्रिया, मैं अपने पति की दीर्घायु की कामना से रत्न (अथवा दक्षिणा) सहित दुग्ध अथवा जल से परिपूर्ण करवा यानी मिट्टी का पात्र दान कर रही हूँऔर फिर अन्त में चन्द्र दर्शन करके व्रत का पारायण किया जाता है |

इस वर्ष करवाचौथ के मुहूर्त:

चतुर्थी तिथि का आरम्भरविवार 20 अक्तूबर प्रातः 6:46 पर

चतुर्थी तिथि समाप्त सोमवार 21 अक्तूबर सूर्योदय से पूर्व 4:16 पर

20 अक्तूबर को सूर्योदय – 6:25 पर, सरगी – 6:25 तकबवकरणऔरव्यातिपतयोगमें

सायंकालीन पूजा का मुहूर्तसायं 5:46 से 7:02 तक मेष लग्न, बालवकरणऔरवरीयानयोगमें

अभिजित मुहूर्त मेंप्रातः 11:43 से 12:28 तक

चन्द्र दर्शन दिल्ली और उत्तराखण्ड तथा उसके आस पास के क्षेत्रों में रात्रि 7:54 के लगभग सम्भव है | शेष शहरों में वहाँ के पञ्चांग के अनुसार देखा जाएगा | चन्द्र दर्शन के समय वृषभ लग्न में चन्द्रमा भी अपनी उच्च राशि में रोहिणी नक्षत्र पर विचरण करेगा, साथ ही गुरुदेव के साथ मिलकर गज केसरी योग भी बना रहा है |

सरगी की प्रथा आरम्भ होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि पहले छोटी आयु की बच्चियों के विवाह हो जाया करते थे | ऐसे में परिवार के लोगों को लगता था कि सारा दिन इतनी छोटी बच्ची के लिए भूखा प्यासा रहना कठिन होगाजिस कारण से एक ऐसा नियम ही बना दिया गया कि बच्चियाँ सूर्योदय से पूर्व कुछ हल्का भोजन जैसे फल इत्यादि ग्रहण कर लें ताकि सारा दिन उन्हें इस भोजन का पोषण उपलब्ध होता रहे | आज की भाँति अन्न से बने किसी खाद्य पदार्थ का भोजन नहीं किया जाता था क्योंकि ऐसा भोजन इस समय करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, साथ ही अन्न आलस्य का कारण भी होता है और व्रत उपवास में आलस्य के लिए कोई स्थान नहीं होता |

ऐसी मान्यता है कि सती ने अपने पति शिव के अपमान का बदला लेने के लिए अपने पिता दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने हेतु उनके यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था | उसके बाद वे महाराज हिमालय की पुत्री के रूप में उनकी पत्नी मैना के गर्भ से पार्वती के रूप में उत्पन्न हुईं | उस समय भगवान शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए बहुत से अन्य उपवासों के साथ इस व्रत का भी पालन किया था | अतः यह व्रत और इसकी पूजा शिवपार्वती को समर्पित होती है |

करवाचौथ एक आँचलिक पर्व है और उन अंचलों में इसके सम्बन्ध में बहुत सी कथाएँ प्रचलित हैं, व्रत के दौरान जिनका श्रवण सौभाग्यवती महिलाएँ करती हैं | उन सबमें महाभारत की एक कथा हमें विशेष रूप से आकर्षित करती है | इसके अनुसार अर्जुन शक्तिशाली अस्त्र प्राप्त करने के उद्देश्य से पर्वतों में तपस्या करने चले गए और बहुत समय तक वापस नहीं लौटे | द्रौपदी इस बात से बहुत चिन्तित थीं | तब भगवान कृष्ण ने उन्हें पार्वती के व्रत की कथा सुनाकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थी का व्रत करने की सलाह दी थी |

करवाचौथ का पालन उत्तर भारत में प्रायः सभी विवाहित हिन्दू महिलाएँ चिर सौभाग्य की कामना से करती हैं | कुछ स्थानों पर उन लड़कियों से भी यह व्रत कराया जाता है जो विवाह योग्य होती हैं अथवा जिनका विवाह तय हो चुका है | यह व्रत पारिवारिक परम्पराओं तथा स्थानीय रीति रिवाज़ के अनुसार किया जाता है | व्रत की कहानियाँ भी पारिवारिक मान्यताओं के ही अनुसार अलग अलग हैं | लेकिन कहानी कोई भी हो, एक बात हर कहानी में समान है कि बहन को व्रत में भूखा प्यासा देख भाइयों ने नकली चाँद दिखाकर बहन को व्रत का पारायण करा दिया, जिसके फलस्वरूप उसके पति के साथ अशुभ घटना घट गई |

कथा एक लोक कथा ही है | किन्तु इस लोक कथा में इस विशेष दुर्घटना का चित्र खींचकर एक बात पर विशेष रूप से बल दिया गया है कि जिस दिन व्यक्ति नियम संयम और धैर्य का पालन करना छोड़ देगा उसी दिन से उसके कार्यों में बाधा पड़नी आरम्भ हो जाएगी | नियमों का धैर्य के साथ पालन करते हुए यदि कार्यरत रहे तो समय अनुकूल बना रह सकता है | वैसे भी यदि व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तोसौभाग्यशब्द से तात्पर्य केवलअखण्ड सुहागसे ही नहीं है, अपितु सौभाग्य का अर्थ है अच्छा भाग्य. .. जो प्राप्त होता है अच्छे तथा पूर्ण संकल्प से किये गए कर्मों सेअतः हम सभी नियम संयम की डोर को मज़बूती से थामे हुए सोच विचार कर हर कार्य करते हुए आगे बढ़ते रहें, इसी कामना के साथ सभी महिलाओं को करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएँ

——-कात्यायनी

शरद पूर्णिमा – 2024

शरद पूर्णिमा – 2024

बुधवार 16 अक्तूबर को आश्विन मास की पूर्णिमा, जिसे शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है का मोहक पर्व है | और इसके साथ ही पन्द्रह दिनों बाद आने वाले दीपोत्सव की चहल पहल आरम्भ हो जाएगी | 16 अक्टूबर को रात्रि 8:41 के लगभग विष्टि करण और व्याघात योग में पूर्णिमा तिथि का आगमन होगा जो 17 तारीख़ को सायं 4:55 तक रहेगी | देश के अलग अलग भागों में इस पर्व की धूम रहती है और इसे रास पूर्णिमा, कोजागरी पूर्णिमा, नवान्न पूर्णिमा, कुमुद्वती तथा कुमार पूर्णिमा आदि अनेकों नामों से जाना जाता है | आज ही के दिन महर्षि वाल्मीकि का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है | सभी को शरद पूर्णिमा तथा वाल्मीकि जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ इस आशा के साथ कि हम सभी का जीवन शरद पूर्णिमा के चाँद जैसा प्रफुल्लित रहे…

यों हिन्दू मान्यता के अनुसार हर माह की पूर्णिमा महत्त्वपूर्ण होती हैं | लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्त्व इस मान्यता के कारण और अधिक बढ़ जाता है कि आज के दिन चन्द्रमा पृथिवी के इतने अधिक निकट होता है कि उसकी किरणों के सारे जीवन रक्षक पौष्टिक तत्व पृथिवीवासियों को उपलब्ध हो जाते हैं | एक ओर तो वर्षा ऋतु बीत जाती है | मेघराज भी अपनी टोली के साथ इन्द्रलोक को वापस लौट जाते हैं | उनके साथ ही उनकी प्रेयसि नृत्यांगना दामिनी भी अपने बरखा की बूँदों के घुँघरूओं को झनकाती फिर से वापस लौटने का वादा कर अपने महल की ओर प्रस्थान कर जाती हैं | शरद ऋतु के स्वागत में धवल चन्द्रिका की शीतल प्रकाश गंगा में डुबकी लगाकर चन्द्रकिरणों की अठखेलियों से रोमांचित हुआ आकाश पूर्ण रूप से स्वच्छ और विशाल दिखाई देने लगता है | निश्चित रूप से आज की रात चन्द्रदेव अपनी समस्त पौष्टिकता अपनी किरणों के माध्यम से समस्त जड़ चेतन पर लुटाने को तत्पर रहते हैं | इसीलिए आज की रात अधिकाँश लोग घरों के आँगन में या कहीं भी खुले स्थान में रात बिताना अधिक पसन्द करते हैं – ताकि चन्द्रमा की उन पौष्टिक किरणों में अच्छी तरह स्नान करके स्वयं को पुनः ऊर्जावान अनुभव कर सकें |

इसीलिए तो ऐसी लोकमान्यताएँ हैं कि आज के दिन चन्द्रमा को एकटक कुछ देर के लिए निहारते रहने से नेत्रज्योति में वृद्धि होती है | हमारी आयु के लोगों को अपना बचपन भी याद अवश्य होगा जब हममें से अधिकाँश घरों में माताएँ हम सबके हाथों में सुई धागा पकड़ा कर आँगन में चन्दा की चाँदनी में बैठा दिया करती थीं सुई में धागा डालने के लिए और हमसे कहा जाता था कि आज के दिन चन्द्रमा के प्रकाश में सुई में धागा डालोगे तो आँखों की रोशनी अच्छी बनी रहेगी | और वास्तव में इतना स्पष्ट और आँखों के रास्ते मन में उतर कर समूचे व्यक्तित्व को आह्लाद की सरिता में स्नान कराके रोमांचित कर देने वाला प्रकाश शरद पूर्णिमा के उजले चाँद का होता था कि अन्य किसी भी प्रकाश की आवश्यकता ही नहीं होती थी | बड़े आराम से चाँद के शीतल प्रकाश की चादर में लिपटे सुई में धागा डाल देते थे और काफ़ी समय तक यही खेल चलता रहता था – जब तक कि माँ की मीठी झिडकियाँ कानों में सुनाई देनी आरम्भ नहीं हो जाती थीं “अरे अब चलकर सो जाओ | मैंने खेल करने को नहीं कहा था, बस एक बार धागा डालना था और बस – पर तुम लोगों को तो हर काम में खेल चाहिए | चलो सोने के लिए जाओ – सुबह उठकर पढ़ाई नहीं करनी क्या ?” उत्सव की रुत में पढ़ाई का नाम सुनकर वैसे ही बच्चों को खुन्दक आ जाती थी – सो बेमन से जाकर लेट जाते थे अपने बिस्तरों पर – आँखों में शीतल चाँदनी लुटाते उस धवल मनोहारी शरद के पूर्ण चन्द्र की छवि को बसाए |

प्रातः दैनिक कर्मों से निवृत्त होने के बाद घर भर को दूध में भीगे चोले (पोहा) प्रसाद के रूप में नाश्ते में दिए जाते थे | रात को माँ दूध में चोले भिगाकर बाहर आँगन में चाँद की चाँदनी के नीचे छींके पर लटका दिया करती थीं | प्रायः हर घर में ऐसा होता था | माना जाता था कि आज रात की चाँद की किरणों के समस्त पौष्टिक तत्व इन चोलों में घुल मिल जाएँगे | और वास्तव में सुबह जब हम उन्हें खाते थे तो इतने शीतल और अमृततुल्य स्वाद से युक्त होते थे कि मन ही नहीं भरता था | इन सभी मान्यताओं में सम्भव है कहीं न कहीं कुछ न कुछ वैज्ञानिक तथ्य अवश्य रहा होगा |

ये तो थी शरद पूर्णिमा के पर्व से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत से लोक रिवाज़ों की बात | कृष्ण भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा की रात्रि का कितना अधिक और विशेष महत्त्व है ये सभी जानते हैं | आज रात को ही भगवान कृष्ण अपनी महाशक्ति राधा सहित समस्त गोपियों के साथ महारास रचाते हैं | कितना आकर्षक दृश्य रहा होगा जब हर गोपी को उसके प्यारे कन्हाई अपने साथ नृत्य करते जान पड़े होंगे | लेकिन ये रास केवल एक युग का ही रास नहीं है, अनन्त युगों से चला आ रहा है और युगों युगों तक चलता रहेगा |

जो लोग कृष्ण को केवल रास रचैया भर मानते हैं वास्तव में वे लोग रास के अर्थ तथा मर्म को ही भली भाँति नहीं समझ पाए हैं | कृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य करना कोई साधारण घटना नहीं है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है – वैष्णव परम्पराओं से लेकर जैन परम्पराओं तक समस्त चिन्तन परम्पराओं में ज्ञान का आलोक लेकर आया | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरुष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है । उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरुष तत्व है और गोपियाँ प्रकृति तत्व । इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरुष का महानृत्य है । विराट प्रकृति और विराट पुरुष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं । सांसारिक दृष्टि से यह रास नृत्य मनोरंजन मात्र हो सकता है, किन्तु यह नृत्य पूर्ण रूप से पारमार्थिक नृत्य है | इस महारास के द्वारा यही सिखाने का प्रयास श्री कृष्ण का रहा कि प्रेम न तो वासना है न ही किसी का एकाधिकार, वरन प्रेम का कालुष्यरहित सामूहिक विकास आवश्यक है, और प्रेमियों के मध्य किसी प्रकार का आवरण – किसी प्रकार का रहस्य नहीं रहता – वहाँ होती है केवल विचारों की – भावों की – स्पष्टता और समर्पण | रासलीला कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम का वह चरम उत्कर्ष बिन्दु है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं है | राग योग की इस दशा में बृहदारण्यक का यह कथन सत्य सिद्ध होता है “जैसे पुरुष को अपने आलिंगनकाल में बाहर भीतर की कोई सुध नहीं रहती उसी प्रकार जब उपासक प्राज्ञ द्वारा आलिंगित होता है तब वह अपनी सुध बुध खो बैठता है |”

तो विराट प्रकृति और विराट पुरुष के महारास के साक्षी और प्रतीक तथा अपनी ज्योति किरणों द्वारा समस्त चराचर को नवजीवन का सुधापान कराते शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र को नमन करते हुए सभी को शरद पूर्णिमा के उल्लासमय अमृतमय पर्व की एक बार पुनः हार्दिक शुभकामनाएँ…