सर्वपितृ अमावस्या और महालया 2024

सर्वपितृ अमावस्या और महालया 2024

आश्विनअमावस्याअर्थातबुधवार 2 अक्टूबर को पितृविसर्जनी अमावस्या है, समस्त हिन्दू धर्मावलम्बी इस दिन पितृपक्ष का समापन करेंगे और उसके दूसरे दिन अर्थात अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को घट स्थापना के साथ शारदीय अथवा आश्विन नवरात्रों का आरम्भ हो जाएगा | कैसा सुखद संयोग है कि पितृपक्ष के समापन के साथ ही आरम्भ हो जाती है नवरात्रों की चहल पहल | इसे महालया भी कहा जाता है | महालया शब्द का अर्थ ही होता है महान आलय अर्थात आवासएक ही दिन पितरों के विसर्जन और महालया का भाव ही यह है कि समस्त पितृगण अपने महान अर्थात शाश्वत आवास के लिए प्रस्थान करें और माँ भगवती अपने नौ रूपों के साथ अपने महान आवास से पृथिवी पर विराजित होंयही कारण है कि नवरात्रों के लिए दुर्गा प्रतिमा बनाते समय महालया के ही दिन देवी की आँखें बनाई जाती हैं और पितरों को विसर्जित करके धूम धाम से उत्सव मनाया जाता है

भारतमेंपूर्वजपूजाकीप्रथाअत्यन्तप्राचीनहै | वैदिक काल से ही यह प्रथा चली आ रही है | विभिन्न देवी देवताओं के सम्बोधन तथा सम्मान के लिए उच्चरित बहुत सी वैदिक ऋचाओं में से अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं | पितरों का आह्वाहन किया जाता है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके अपराधों के लिए उन्हें क्षमा करें तथा अपने वंशजों को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें | साथ ही अग्निदेव से प्रार्थना की जाती है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो | अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर दिवंगत आत्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें | ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है | स्वर्ग के आवास में पितृगण परम शक्तिमान एवं आनन्दमय रूप धारण करें तथा पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि का अनुभव करें इसी हेतु पिंडदान तथा आहुतियाँ आदि देने की प्रथा है | दिवंगत पूर्वजों के प्रति सम्मान के कारण ही पितृपक्ष को समस्त हिन्दू समाज एक उत्सव के रूप में मनाता है और इसे श्राद्ध पर्व का नाम दिया जाता है |

दार्शनिकदृष्टिकोणसेदेखाजाएतोसमस्तभारतीयदर्शनमनुष्यमेंआध्यात्मिकतत्वकीअमरताकापक्षधरहै | आत्मा किसी शारीरिक आकार में प्रतिष्ठित होती है और इस आकार के माध्यम से ही आत्मा का संसरण अर्थात मोक्ष भी सम्भव है, क्योंकि कर्म तो शरीर के माध्यम से ही किया जा सकता है, फिर चाहे वह किसी भी योनि में हो | असंख्य जन्म और मरण के पश्चात आत्मा पुनरावृत्ति से मुक्त हो जाती है | यद्यपि आत्मा के संसरण का मार्ग पूर्व कर्मों द्वारा निश्चित होता है तथापि वंशजों द्वारा सम्पन्न श्राद्धकर्म का इसमें बहुत बड़ा योगदान माना गया है | बौद्ध धर्म में दो जन्मों के बीच एक अन्तःस्थायी अवस्था की कल्पना की गई है जिसमें आत्मा के संसरण का रूप पूर्वकर्मानुसार निर्धारित होता हैपुनर्जन्म में विश्वास हिन्दूबौद्ध तथा जैन तीनों चिन्तन प्रणालियों में पाया जाता है | हिन्दू दर्शन की चार्वाक पद्धति को इसका अपवाद कहा जा सकता है |

इससबकोलिखनेकाएकमात्रअभिप्राययहीहैकिपितृकर्मतथापिण्डदानऔरतर्पणआदिक्रियाएँवैदिककालसेहिन्दुओंकेदैनिककर्मकाण्डकाअंगरहीहैं | हाँ, इस विषय में बहुत सी पौराणिक कथाएँ और मान्यताएँ उपलब्ध हैं, क्योंकि जन साधारण को इन समस्त क्रियाओं का महत्त्व समझाने के लिए इन कथाओं को दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत करने की अत्यन्त आवश्यकता थी |

जैसा कि सभी जानते हैं, अनन्त चतुर्दशीजिसमें भगवान विष्णु के ही एक रूप अनन्त भगवान की पूजा अर्चना की जाती हैके बाद भाद्रपद पूर्णिमा से श्राद्ध पक्ष का आरम्भ हो जाता है | यों तो आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से पितृपक्ष का आरम्भ माना जाता है, किन्तु जिनके प्रियजन पूर्णिमा को परलोकगामी हुए हैं उनका श्राद्ध एक दिन पूर्व अर्थात भाद्रपद पूर्णिमा को करने का विधान है | इस प्रकार इन सोलह दिवसों तक लगभग समस्त हिन्दू समुदाय अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित करता है | उनकी स्मृति में भोज कराए जाते हैंऔर ये भोज केवल मानव मात्र के निमित्त ही नहीं किये जाते, अपितु पृथिवी पर निवास कर रहे समस्त जीव जन्तुओं के लिए भी ग्रास निकालने की प्रथा इस अवसर पर हैचाहे वह काग हो, गौ हो, चींटी इत्यादि अन्य प्रकार के कीड़े मकोड़े होंसभी के लिए ग्रास निकाले जाते हैं | साथ ही दिवंगत पूर्वजों के निमित्त अग्नि में आहुति दी जाती है | कितनी उदात्त भावना रही होगी हमारे ऋषि मुनियों कीहमारे पूर्वजों कीकि वर्ष का पूरा एक पक्ष ही पितृगणों के लिये समर्पित कर दिया | इन पन्द्रह दिनों में कोई अन्य कार्य न करके केवल विधि विधान पूर्वक श्राद्धकर्म किया जाता है |

शास्त्रोंकेअनुसारश्राद्धकर्मकरनेकाअधिकारीकौनहै, विधान क्या है आदि चर्चा में हम नहीं पड़ना चाहते, इस कार्य के लिये पण्डित पुरोहित हैं | पण्डित लोगों का तो कहना है और शास्त्रों में भी लिखा हुआ है कि श्राद्ध कर्म पुत्र द्वारा किया जाना चाहिये | प्राचीन काल में पुत्र की कामना ही इसलिये की जाती थी कि अन्य अनेक बातों के साथ साथ वह श्राद्ध कर्म द्वारा माता पिता को मुक्ति प्रदान कराने वाला माना जाता था “पुमान् तारयतीति पुत्र:” | लेकिन जिन लोगों के पुत्र नहीं हैं उनकी क्या मुक्ति नहीं होगी, या उनके समस्त कर्म नहीं किये जाएँगे ? तो इस प्रकार का तर्क वितर्क हमारा विषय नहीं है | हम तो बात कर रहे हैं इस श्राद्ध पर्व की मूलभूत भावना श्रद्धा कीजो भारतीय संस्कृति की नींव में ही निहित है |

वास्तवमेंश्राद्धप्रतीकहैपूर्वजोंकेप्रतिसच्चीश्रद्धाका | हिन्दू मान्यता के अनुसार प्रत्येक शुभ कर्म के आरम्भ में माता पिता तथा पूर्वजों को प्रणाम करना चाहिये | यद्यपि अपने पूर्वजों को कोई विस्मृत नहीं कर सकता, किन्तु फिर भी दैनिक जीवन में अनेक समस्याओं और व्यस्तताओं के चलते इस कार्य में भूल हो सकती है | इसीलिये हमारे ऋषि मुनियों ने वर्ष में पूरा एक पक्ष इस निमित्त रखा हुआ है |

श्राद्धशब्दकासामान्यअर्थहैश्रद्धापूर्वककियागयाकर्म – “संपादन: श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम् |” जिस कर्म के द्वारा मनुष्यअहंअर्थातमैंका त्याग करके समर्पण भाव सेपरकी चेतना से युक्त होने का प्रयास करता है वही वास्तव में श्रद्धा का आचरण है | श्रद्धा का आचरण करता हुआ व्यक्ति समष्टि भाव को प्राप्त हो जाता है तथा समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखता है | श्रद्धावान व्यक्ति उदारमना, करुणाशील, मैत्री तथा कृतज्ञता के भाव से युक्त तथा दानशील होता है | और यही कारण है कि ऐसे व्यक्ति की भावना समस्त जीवों के प्रति आत्मौपम्य की हो जाती हैअर्थात उसे हर प्राणी मेंहर जीव मेंअपनी आत्मा ही जान पड़ती है | अपने पूर्वजों के प्रति इसी प्रकार की श्रद्धा के साथ दिया गया दान श्राद्ध कहलाता है – “श्रद्धया दीयते यस्मात्तस्माच्छ्राद्धम् निगद्यते |” इस प्रकार श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है और यही कारण है कि श्रद्धा और श्राद्ध में घनिष्ठ सम्बन्ध है | वैसे भी देखा जाए तो श्रद्धा रहित कोई भी कर्म करने से दम्भ में वृद्धि होती है तथा कर्म में कुशलता का अभाव रहता है | अतः श्रद्धा तो दैनिक जीवन की मुख्य आवश्यकता है | माता पिता के प्रति श्रद्धा हमें विनम्र बनाती है तो गुरु के प्रति श्रद्धा हमें ज्ञानवान बनाती हैक्योंकि तब हम संशय रहित और समर्पण भाव से गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं | समस्त चराचर सृष्टि के प्रति यदि श्रद्धा का भाव मन में दृढ़ हो जाए तो मनुष्य किसी भी प्रकार के अनाचार अन्य जीव के साथ कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी श्रद्धा उसे अन्य जीवों के प्रति उदारमना बना देती है | गीता में कहा गया है “श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय:, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति, नायंलोकोsस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः ||” (4/39,40) – अर्थात आरम्भ में तो दूसरों के अनुभव से श्रद्धा प्राप्त करके मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उस ज्ञान को आचरण में लाने में तत्पर हो जाता है तो उसे श्रद्धाजन्य शान्ति से भी बढ़कर साक्षात्कारजन्य शान्ति का अनुभव होता है | किन्तु दूसरी ओर श्रद्धा रहित और संशय से युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है | उसके लिये न इस लोक में सुख होता है और न परलोक में |

इसप्रकारश्रद्धावानहोनाचारित्रिकउत्थानका, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का एक प्रमुख सोपान है | और जिस राष्ट्र के परिवार तथा समाज की नींव सुदृढ़ होगी उस राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता | साथ ही, पितृजनों के प्रति श्रद्धायुत होकर दान करने से तो निश्चित रूप से अपार शान्ति का अनुभव होता है तथा शास्त्रों की मान्यता के अनुसार लोक परलोक संवर जाता है | इसलिये इस श्राद्धपक्ष का इतना महत्व हिन्दू मान्यता में है | और इस श्राद्धपक्ष के समापन अर्थात पितृ विसर्जन के साथ ही आरम्भ हो जाता है माँ दुर्गा की उपासना का पर्व नवरात्र | जैसा पूर्व में भी लिखा है, इस दिन को महालया के नाम से भी जाना जाता हैपितृपक्ष का अन्तिम दिन अर्थात् पितरों को विदा करके माँ दुर्गा के आह्वाहन का दिन | एक ओर अन्तिम श्राद्ध और दूसरी ओर माँ दुर्गा की पूजा अर्चना का आरम्भ | पितरों को श्रद्धा सहित अन्तिम तर्पण करके उन्हें विदा किया जाता है और इसी के साथ आरम्भ हो जाती है महिषासुरमर्दिनी के मन्त्रोच्चार के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना | आश्विन नवरात्रों की धूम मच जाती है | जगह जगह देवी के पण्डाल सजते हैं जहाँ दिन दिन भर और देर रात तक माँ दुर्गा की पूजा का उत्सव चलता रहता है नौ दिनों तक, जिसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ किया जाता है |

अस्तु, आश्विन अमावस्याजिसे पितृविसर्जनी अमावस्या भी कहा जाता हैअर्थात महालया के अवसर परगायत्री मन्त्र के साथ

ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वेयतः स्थानादुपागताः |

सर्वे ते हृष्टमनसःसवार्न् कामान् ददन्तु मे ||

ये लोकाः दानशीलानांये लोकाः पुण्यकर्मणां |

सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तुतान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||

इहास्माकं शिवं शान्तिःआयुरारोगयसम्पदः |

वृद्धिः सन्तानवगर्स्यजायतामुत्तरोत्तरा ||

इनमन्त्रोंकाइसभावनाकेसाथकिहमारेनिमन्त्रणपरहमारेपूर्वजजिसभीलोकसेपधारेथेहमारे स्वागत सत्कार से प्रसन्न होने के उपरान्त अब अपने उन्हीं लोकों को वापस जाएँ और सदा हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रहेंश्रद्धापूर्वक जाप करते हुए हम सभी अपने पूर्वजों को विदा करें और महालया के साथ देवी के आगमन के उत्सव का आरम्भ करें

महिला सशक्तीकरण और योग

महिला सशक्तीकरण और योग

हम सभी जानते हैं कि हमारे माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयासों के फलस्वरूप हर वर्ष 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस का आयोजन किया जाता है समस्त विश्व में | हर वर्ष कोई किसी नवीन विषय के साथ इस दिवस का आयोजन किया जाता है | इस वर्ष की थीम है “महिला सशक्तीकरण के लिए योग” | किन्तु हम विषय पर आएँ, उससे पूर्व कुछ बात कर ली जाए कि योग कहते किसे हैं | क्योंकि योग का नियमित अभ्यास महिलाओं के लिए भी उसी प्रकार लाभदायक है जिस प्रकार पुरुषों के लिए |

“योग” शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी धातु में घञ् प्रत्यय लगाकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है समाधि अर्थात चित्त वृत्तियों का निरोध | इसके अतिरिक्त “युजिर योग” तथा “युज संयमने” रूप में भी इसका प्रयोग होता है जिसका अर्थ होता है क्रमशः योगफल अर्थात गुणन अथवा जोड़ तथा नियमन | श्रीमद्भगवद्गीता में कथन है “योगः कर्मसु कौशलम्” अर्थात कर्म में कुशलता ही योग है | इसके अतिरिक्त विविध दर्शनों में दार्शनिक – आध्यात्मिक आदि पृथक पृथक अर्थों में योग शब्द का प्रयोग हुआ है | पतञ्जलि योगसूत्र में, कहा गया है “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है | किन्तु चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम तो चित्त है | पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का निःशेष हो जाना | उस स्थिति में भगवान श्रीकृष्ण के कथन “योगस्थः कुरु कर्माणि” अर्थात योग में स्थित होकर कर्म करो – इस वाक्य का क्या अर्थ रह जाएगा | इस प्रकार विविध दर्शनों के आधार पर – अध्यात्मिक दृष्टिकोण से – योग की अनेकानेक परिभाषाएँ उपलब्ध होती हैं – जो सब एक विशद विवेचना का विषय है | यहाँ हम आधुनिक सन्दर्भों में योग के विषय में बात कर रहे हैं |

योग के प्रामाणिक ग्रन्थों में चार प्रकार के योगों का वर्णन उपलब्ध होता है : मन्त्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः | चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता 5/11) अर्थात मन्त्र योग, हठ योग, लय योग और राजयोग | महर्षि पतंजलि ने पातंजल योग दर्शन “अथयोग अनुशासनम्” शब्द से प्रारम्भ किया है इससे स्पष्ट है कि उन्होंने जीवन के आदर्शों में अनुशासन को महत्व दिया है | पतंजलि योग का विकास आठ क्रमों में होता है इसलिए इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है और इन आठों अंगों का अभ्यास करने से पूर्व साधक के लिए षट्कर्म करना अति आवश्यक होता है – जो हैं – नेति, नौलि, धौति, वस्ति, कपाल भाति और त्राटक |

योग के आठ चरण अनुशासन के व्यवस्थित मार्ग की खोज करते हैं | ये आठ चरण हैं – यम और नियम – जो कायिक वाचिक तथा मानसिक संयम के लिए योग के नैतिक नियमों का निर्माण करते हैं तथा व्यक्ति के मानसिक व्यवहार को उचित रूप प्रदान करने में सहायक होते हैं | आसनों का उद्देश्य है शारीरिक स्वास्थ्य तथा शरीर को स्थिरता प्रदान करना | प्राणायाम प्राण अर्थात जीवनी शक्ति को नियन्त्रित करने की प्रक्रिया है और यह नियन्त्रण प्राण के सर्वाधिक स्थूल स्वरूप श्वास पर नियन्त्रण के द्वारा प्राप्त होता है | मन को नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक है सर्वप्रथम श्वास को नियन्त्रित किया जाए | प्रत्याहार का अर्थ है इन्द्रिय निग्रह – जो मानसिक शान्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है | ये पाँचों अंग बाह्य अंग कहलाते हैं |

राजयोग के आन्तरिक अंगों का लक्ष्य है मन को अनुशासित करना | धारणा का अर्थ है ध्यान और एकाग्रता – धारण करना – मन को एक केन्द्र पर एकाग्र करना – धारण करना | दीर्घ अवधि तक धारणा का अभ्यास ध्यान की स्थिति को ले जाता है जिसे मन की एकाग्रता भी कह सकते हैं | जबकि दीर्घकालिक ध्यान समाधि अर्थात आत्मज्ञान की स्थिति को ले जाता है | यहाँ मन ऊपर उठ जाता है और साधक आत्मा के विषय में जागरूक होकर स्वयं को उससे युत (युज) कर लेता है | इसी स्थिति को सत्-चित्-आनन्द की स्थिति कहा जाता है | व्यक्ति अपनी चेतना का प्रसार करता है और अन्तिम सत्य के साथ एकाकार हो जाता है – तादात्म्य स्थापित कर लेता है | ये तीनों राजयोग के आन्तरिक अंग हैं | स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि देखें तो सामान्यतः रोग किसी भी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक तथा आध्यात्मिक कारणों से तथा असन्तुलित जीवन शैली के कारण उत्पन्न होते हैं |

इनके अतिरिक्त बन्ध और मुद्राएँ प्राणायाम से सम्बद्ध साधनाएँ हैं | इनको योग की उच्चतर साधना के रूप में देखा जाता है क्योंकि इनमें मुख्य रूप से श्वसन पर नियन्त्रण के साथ कतिपय शारीरिक और मानसिक पद्धतियों को अंगीकार किया जाता है | योगाभ्यासों में जो श्वास प्रश्वास को नियन्त्रित करके तथा बन्ध आदि लगाकर जो विभिन्न प्रकार की आसन आदि लगाने की क्रियाएँ की जाती हैं वे योग मुद्राएँ कहलाती हैं | आसन से शरीर की हड्डियाँ लचीली और मजबूत होती हैं, जबकि मुद्राओं के द्वारा शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है | जितने भी योग से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं सभी में हस्त मुद्राओं सहित कुल मिलाकर पचास से साठ मुद्राओं का उल्लेख प्राप्त होता है |

भारत में सहस्रों वर्षों से पूजा अर्चना और सन्ध्या वन्दन के समय मुद्राओं का उपयोग होता रहा है | मनुष्य केवल शरीर और मन का मेल ही नहीं है, अपितु भावनाएँ और इच्छाएँ भी मनुष्य की मनुष्यता का एक अंग हैं | हमारे ऋषि मुनियों ने इस तथ्य को समझा और कुछ नैतिक मूल्यों के साथ धर्म की सत्ता प्रकाश में आई | जिसमें ऋषि मुनियों ने धार्मिक क्रियाओं के साथ मुद्राओं को जोड़ दिया |

वास्तव में शरीर की अपनी एक भाषा होती है | एक मूक और बधिर व्यक्ति भी शरीर तथा हाथों की मुद्राओं के माध्यम से सामान्य व्यक्तियों के समान बात कर सकता है | और नृत्यों में तो सारी बातें – समस्त अभिनय – मुद्राओं के माध्यम से ही होता है | हम कह सकते हैं कि नृत्य यदि एक भाषा है तो मुद्राएँ उसके शब्द हैं – नृत्य और अभिनय के भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम हैं | इस प्रकार अनादि काल से मुद्राओं का मानव के जीवन में महत्त्व रहा है | हमारे मनीषियों ने इन मुद्राओं अनेक वर्षों तक कठिन साधना करके शोध कार्य किये और मानव जीवन में मुद्राओं के महत्त्व को समझने समझाने का प्रयास किया | संस्कृत में तो मुद्राओं का अर्थ ही है शरीर के हाव भाव (अंग विन्यास) अथवा प्रवृत्ति | व्यक्ति के बैठने से अथवा खड़े होने से अनुमान हो जाता है कि उस व्यक्ति के मन में क्या चल रहा होगा | व्यक्ति का अंग विन्यास बहुत सीमा तक बता देता है कि वह व्यक्ति किसी प्रकार के अवसाद से ग्रस्त है अथवा किसी प्रकार के अत्यन्त आनन्द का अनुभव कर रहा है अथवा क्रोध में है इत्यादि इत्यादि |

हमारा शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है – जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथिवी | इनमें से प्रत्येक तत्व का शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों तथा समस्त विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण कार्यों से सम्बन्ध होता है | हमारे हाथों की पाँचों अँगुलियाँ इन्हीं पाँच तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं | हमारे हाथ के अँगूठे अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, तर्जनी अँगुली वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करती है, मध्यमा को आकाश तत्व का प्रतिनिधि माना जाता है, अनामिका प्रतिनिधित्व करती है पृथिवी तत्व का तथा कनिष्ठिका को जल तत्व का प्रतिनिधित्व प्राप्त है | अँगुलियों के इन पाँचों वर्गों से अलग अलग शक्ति धाराएँ प्रवाहित होती हैं जो किसी कारणवश असन्तुलित हो जाती हैं | अँगुलियों को विभिन्न प्रकार से आपस में मिलाकर जो मुद्राएँ बनाते हैं उनसे उन विविध तत्वों के सम्मिश्रण के कारण ये असन्तुलित शक्तियाँ सन्तुलित होने लग जाती हैं और शरीर में उन तत्वों असन्तुलन से उत्पन्न दोष दूर होने लगते हैं | अर्थात हमारे हाथों की दसों अँगुलियों से निर्मित मुद्राएँ शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को नियन्त्रित कर स्वास्थ्य लाभ का मार्ग प्रशस्त करती हैं |

कुछ हस्त मुद्राओं का उपयोग कुण्डलिनी अथवा ऊर्जा के स्रोत को जागृत करने के लिए किया जाता है, कुछ का अभ्यास आरोग्य प्राप्ति तथा दीर्घायु की कामना से किया जाता है, तो कुछ का प्रयोग अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति के लिए भी किया जाता है |

षट्कर्म विषाक्तता दूर करने की प्रक्रियाएँ हैं तथा शरीर में संचित विष को निकालने में सहायक होते हैं |

इस प्रकार वास्तव में योग बहुत सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित एक आध्यात्मिक विषय है जो मन एवं शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करने पर ध्यान देता है | साथ ही, यह स्वस्थ जीवन – यापन की कला एवं विज्ञान है | योग से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार योगाभ्यास से व्यक्ति की चेतना ब्रह्माण्डीय चेतना से युत हो जाती है जो मन एवं शरीर, मानव एवं प्रकृति के बीच परिपूर्ण सामंजस्य का द्योतक है |

इस वर्ष योग दिवस की थीम है नारी सशक्तिकरण में योग की भूमिका | तो यहाँ कहना चाहेंगे कि नियमित योगाभ्यास करने वाली महिलाओं में अपनी आन्तरिक प्रतिभा, कौशल तथा शक्तियों के प्रति जागरूकता उत्पन्न हो जाती है | उनकेआत्मविश्वास में वृद्धि होती है जिसके कारण उनकी निर्णायक क्षमता में भी वृद्धि होती है और वे स्वयं अपने तथा परिवार के लिए निर्णय ले सकती हैं | किसी भी प्रकार की चुनौती का साहस के साथ सामना करने में सक्षम हो जाती हैं क्योंकि उनकी मानसिक और शारीरिक शक्ति में वृद्धि के साथ ही मन और शरीर में सन्तुलन बना रहता है | प्रसव काल की उस सुखद पीड़ा को सरलता से सहन करने की सामर्थ्य तथा उस समय के लिए आवश्यक शक्ति उन्हें योग के माध्यम से प्राप्त होती है | योग इनकी मांसपेशियों को बलिष्ठ बनाने के साथ ही उनके भावनात्मक तनाव को कम करके में सहायता कर सकता है |

महर्षि पतंजलि के राजयोग में  इसमें मार्गों की शिक्षाएँ समाविष्ट हैं और यही कारण है कि किसी भी स्वभाव और किसी भी परिवेश के व्यक्ति इनका अभ्यास कर सकते हैं | यह तीन दिशाओं में कार्य करता है – शारीरिक, आध्यात्मिक और मानसिक और इस प्रकार साधक पूर्ण आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता जाता है | यह एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक अनुशासन है जो मनुष्य को चरम सत्य की ओर ले जाता है | यही कारण है कि राजयोग उस आधुनिक समाज के लिए भी पूर्ण रूप से अनुकूल है जिसका धर्म ही हर बात में सन्देह करना बन गया है |

अस्तु, अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर आइये संकल्प लें कि शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन नियत समय पर योगाभ्यास अवश्य करेंगे | हम सभी स्वस्थ रहते हुए सुख के भागी बनें यही कामना है…
—–कात्यायनी

गंगा दशहरा आपः देवता

गंगा दशहरा आपः देवता

आज दस दिन से चले आ रहे गंगा पूजन के पर्व का समापब है – गंगा  दशहरा के रूप में | बहुत से लोगों ने पुण्य प्राप्ति के लिए गंगा के पवित्र जल में स्नान किया होगा | होना भी चाहिए, क्योंकि जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता होने के साथ ही प्रगति का संवाहक भी है | वैदिक साहित्य में जितने अधिक मन्त्र और स्तुतियाँ किसी न किसी रूप में जल के लिए उपलब्ध होती हैं उतनी सम्भवतः किसी अन्य देवता के लिए नहीं उपलब्ध होतीं | जल के देवता मित्र और वरुण को भाई माना गया है तथा ये द्वादश आदित्यों (मित्रावरुणौ – देवमाता अदिति के पुत्र) में गिने जाते हैं |

व्यावहारिक दृष्टि से भी देखें तो जल का सबसे अधिक उपयोग होता है क्योंकि इसके द्वारा जीवन को ऊर्जा और गति प्राप्त होती है | यदि मनुष्य को पौष्टिक और कर्मठ बने रहना है तो उसे शुद्ध जल का अधिकाधिक सेवन करने की सलाह दी जाती है | क्योंकि जल का मुख्य गुण है नमी और शीतलता प्रदान करते हुए दोषों को समाप्त करना | जल ही विद्युत् के रूप में प्रकाश देता है तो भाप बनकर पुनः पृथिवी को सिंचित करके प्राणीमात्र के लिए भोज्य पदार्थों, वनस्पतियों तथा औषधियों आदि की उत्पत्ति का कारण बनता है | जल तत्व के ही कारण मन भावमय है, वाणी सरस है तथा नेत्रों में आर्द्रता और तेज विद्यमान है | अथर्ववेद में जल के गुणों का विस्तार से वर्णन मिलता है | यजुर्वेद में भी कहा गया है कि जल को दूषित करना तथा वनस्पतियों को हानि पहुँचाना जीवन के लिए हानिकारक है | ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में प्राथना है कि हमें शुद्ध जल तथा औषधियाँ उपलब्ध हों | वेदों में जल को “आप: देवता” कहा गया है और पूरे चार सूक्त इसी “आप: देवता” के लिए समर्पित हैं | अस्तु, गंगा दशहरा के पावन पर्व पर प्रस्तुत है इसी आपः सूक्त के कुछ अंश उनके हिन्दी पद्य भावानुवाद सहित…

अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् || पृञ्चतीर्मधुना पयः ||
अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह || ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ||
अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः || सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः ||
अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये || देवा भवत वाजिनः ||
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा ||
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः ||
आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वेSमम || ज्योक् च सूर्यं दृशे ||
इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि ||
यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम् ||
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि ||
पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा || (प्रथम मण्डल सूक्त 23/16/23)

याज्ञिकों को मातृ वत है, पुष्ट करता है यही जल |
सूर्य किरणों से समाहित जल, सदा उपलब्ध हों ||
है प्रवाहित अंतरिक्षों में, धरा पर भी प्रवाहित |
धेनु जिससे हैं पयस्विनि, जल समर्पित यज्ञ में हों ||
भेषजीय सोमयुत इस जल की, अनुशंसा करें हम |
जिनसे उत्साहित सभी वे, स्वर्ग के हर देवता हों ||
ऊर्जा से युत जलों से, तन सदा को हो निरोगी |
सूर्य के दर्शन करें सब, शरद शत, दीर्घायु हों ||
हों प्रवाहित मनुज के अज्ञान उससे दूर सारे |
द्रोह यद्वा क्रोध अथवा दुरित जो व्यवहार हों ||
पैठ कर इस मधुर जल में, हों रसाप्लावित सभी |
दें हमें वर्चस्व जल, हम नत सदा श्रद्धा से हों ||

आपो यं वः प्रथमं देवयन्त इन्द्रानमूर्मिमकृण्वतेल: |
तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतेप्रुषं मधुमन्तं वनेम ||
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोSपां नपादवत्वा शुहेमा |यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य ||
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः |ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत ||
याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।।
तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः || (सप्तम मण्डल सूक्त 47/1-4)

हे जलदेवता !
मिश्रित है मधुर प्रवाह सोमरस में आपका |
कर रहे अर्पित जिसे हम इन्द्र को इस यज्ञ में ||
हों सभी सोमप्रिय, मिल जाए तृप्ति जीव को |
और हमारे यज्ञ सब, निर्विघ्न ही सम्पन्न हों ||
रश्मियों से सूर्य की ये जल प्रवाहित हों सदा |
सुख समृद्धि धन धान्य से पूरित सकल संसार हो ||
हों प्रवाहित सतत, जल से पूर्ण आशय जल के हों |
मनुज का कल्याण हो, हे सिन्धु ये आशीष दो ||

समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः |
इन्द्रो या वज्री वृषभोरराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः |
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् |
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा या सूर्जं मदन्ति |
वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु || (सप्तम मण्डल सूक्त 49/1-4)

समुद्र जिनमें ज्येष्ठ हैं
जो दिव्य जल हमें प्राप्त होते हैं आकाश से
रूप में वर्षा के…
जो प्रवाहित होते निरन्तर
नदी तड़ाग कूप और स्रोतों में
और करते हुए पवित्र समस्त जड़ चेतन को
समा जाते हैं अपने शाश्वत धाम
उस महा समुद्र में…
इन्द्र दिखलाते हैं मार्ग जिनको
सत्यासत्य के साक्षी वरुण देवता हैं जिनके…
स्वयं वरुण-सोम-अग्नि
करते हैं निवास जिनमें
करने को व्यवस्थित समस्त विश्व को…
और जिनके द्वारा प्रदत्त अन्नादिक से
प्रसन्न होते हैं समस्त देवता ये…
वे रसपूर्ण, दीप्तिमती नदियाँ
जो करती हैं पवित्र समस्त चराचर को
रक्षा करें हमारी भी…

वैदिक ऋषि की इसी मंगलकामना के साथ सभी को आज गंगा दशहरा और कल निर्जला एकादशी की हार्दिक शुभकामनाएँ…
—–कात्यायनी

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

आज वैशाख शुक्ल सप्तमी – यानी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज माँ गंगा का जन्मोत्सव है – गंगा सप्तमी | कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने राक्षसों के उत्पात से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हुए उनका पद प्रक्षालन किया और उस जल को अपने कमण्डल में भर लिया, जिससे बाद में गंगा जी की उत्पत्ति हुई | ऐसी भी मान्यता है कि गंगा सप्तमी के दिन माँ गंगा ने भगवान विष्णु के चरण प्रक्षालित करके उनके चरणों में स्थान प्राप्त किया था | राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्त करने के लिए गंगा जी को पृथिवी पर लाने हेतु कठोर तपस्या की जिसके परिणामस्वरूप गंगा सप्तमी के दिन ब्रह्मा जी ने गंगा जी को अपने कमण्डल से मुक्त किया और माँ गंगा नीचे की ओर तीव्र वेग से दौड़ पड़ीं | क्योंकि बहुत समय से कमण्डल के भीतर बन्द थीं और अब उन्हें कुछ स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी तो उनके भीतर बहुत अधिक उद्वेग था – बहुत अधिक आवेग था – बहुत अधिक उमंग थी – और उसी के कारण उनसे प्रमाद हो गया और वे तीव्र वेग से नीचे आने लगीं | उनका प्रवाह इतना अधिक तीव्र था कि मार्ग में आने वाली हर वस्तु को अपने साथ बहा लिए जा रही थीं | जब भगवान ने यह सब देखा तो उन्होंने गंगा को शान्त करने के लिए अपनी जटाओं में जकड़ लिया और गंगा दशहरा अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तक गंगा जी वहीं बन्द रहीं | भगीरथ अब चिन्तित हो गाए और पुनः उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की कि अब तो उन्हें अपनी जटाओं के बन्धन से मुक्त करें | गंगा जी शंकर जी की जटाओं में शनैः शनैः शान्त होने लगी थीं और शंकर भगवान ने भगीरथ की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गंगा जी को अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया |

जब वे शंकर जी की जटाओं से मुक्त हुईं तो उनमें पुनः वही आवेग आदि आ गया कि मैं तो अब मुक्त हूँ और कुछ भी कर सकती हूँ | और पुनः उसी तीव्र वेग से नीचे उतरती हुई वे अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को – हर प्राणी को अपने प्रवाह के साथ बहाती आगे बढ़ने लगीं | मार्ग में जानू ऋषि का आश्रम पड़ता था | उन्होंने उनका सारा आश्रम भी ध्वस्त कर दिया | जानू ऋषि को क्रोध आया और उन्होंने गंगा का सारा जल पीकर उन्हें सुखा दिया | अब तो सारी पृथिवी पर – सारे लोकों में हाहाकार मच गया | धरा व्याकुल हो गई कि उनकी बहन उनसे मिलने के लिए – उन्हें रसापलावित करने के लिए – नीचे आ रही थी – लेकिन उन्हें पहले तो शंकर भगवान ने उन्हें जटाओं में बाँध लिया, फिर जानू ऋषि ने उनका सारा जल सुखा दिया | अब मैं कैसी मिलूँगी अपनी भगिनी से | तब सारे देवों ने – समस्त लोकों के प्राणियों ने मिलकर जानू ऋषि से प्रार्थना की तब उन्होंने अपने एक कान से गंगा जी को छोड़ा एक पतली धारा के रूप में ताकि उनका प्रवाह नियंत्रित रहे | अब तक उन्हें शिक्षा मिल चुकी थी की मुझे उन्माद में नहीं आना है और वे पूरे शान्त भाव से नीचे उतर आईं |

ये समस्त कथाएँ या तो पौराणिक हैं अथवा लोक मान्यताओं पर आधारित हैं | किन्तु जैसा कि हम प्रायः कहते हैं कि भारतवर्ष का कोई भी पर्व अथवा त्यौहार ऐसा नहीं है जो अकारण हो अथवा जिसमें कोई सन्देश न निहित हो | यहाँ इस पूरे कथानक को देखें समझें तो ज्ञात होता है कि यह सब प्रतीकात्मक है | जल की अधोगति होती है ऊर्ध्व गति नहीं होती – सदा नीचे की ओर ही प्रवाहित होता है | नर्मदा को छोड़कर शेष सारी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं | तो पहली समस्या तो है जल की अधोगति – अधोगति होने पर किसी भी प्रकार का प्रमाद सम्भव है – अथवा ऐसे भी क़ाह सकते हैं कि जब व्यक्ति प्रमाद स्वरूप अपने कर्तव्य कर्म को भुला बैठता हाँ और आवेग अथवा अहंकार में आ जाता है तो उसकी अधोगति निश्चित है | किन्तु वही जब पुनः अपने मार्ग पर लौट आता है शान्त भाव से तो स्वयं स्थिर रहते हुए अन्य जनों को भी स्थिरता और शान्ति प्रदान करता है |

उसके बाद इस कहानी से जो तथ्य स्पष्ट होता है वह यह कि गंगा जी यदि जानू तक अर्थात् घुटने तक रहें तब तक तो ठीक है, लेकिन जितना अधिक वे तीव्र बहाव के साथ चढ़ती जाएँगी और आगे बढ़ती जाएँगी तो वे प्रलय का – बाढ़ का कारण बन जाएँगी | घुटनों तक रहने का अभिप्राय है विनम्रता का भाव रहना | अतः मनुष्य में विनम्रता का भाव सदैव विद्यमान रहना चाहिए | साथ ही एक शिक्षा भी, कि माना वो जन कल्याण के लिए नीचे आ रही थीं, अपनी भगिनी वसुधा से मिलने के लिए नीचे आ रही थीं, बहुत समय बाद उनसे मिल रही थीं तो मन में एक उत्साह था, उमंग थी, भगिनी का प्रेम था, किन्तु प्रेम में यदि उन्माद आ जाए, प्रेम में यदि प्रमाद आ जाए, प्रेम में यदि अहंकार आ जाए, आवेग आ जाए, तो वह प्रेम या तो शकुन्तला के प्रेम की भाँति ऋषि श्राप से विस्मृत कर दिया जाता है अथवा बार बार बंधनों में जकड़ जाता है या उसके रस को सुखा दिया जाता है – भस्म कर दिया जाता है | स्वतन्त्रता का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि मनुष्य अपनी मर्यादा भूल जाए | अतः हमें अपनी मर्यादा नहीं भूलनी चाहिए – अपनी सीमाओं का ध्यान सदैव रखना चाहिए – तभी हम पथ भ्रष्ट होने से बच सकते हैं तथा बहुत सी समस्याओं से मुक्त रह सकते हैं | गंगा नदी अपने तीव्र वेग के कारण इतने सारे व्यवधानों को पार करके शान्त भाव से धरा पर उतरीं तभी तो उनके अमृत तुल्य जल में स्नान करने से – उसका आचमन करने से – त्रिविध तापों से मुक्ति प्राप्त होती है, समस्त प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक पापों से मुक्ति प्राप्त होती है |

गंगा सप्तमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…

अष्ट वसु

अष्ट वसु

हमारी एक मित्र ने हमसे वसुओं के विषय में प्रश्न किया था । व्यस्तताओं के कारण समय पर इस विषय में कुछ नहीं लिख सके । अष्ट वसुओं के विषय में कुछ लिख पाना इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि अनेकों पौराणिक सन्दर्भ और मान्यताएं इस विषय में हैं और इनके पृथक पृथक नाम पृथक पृथक पुराणों में उपलब्ध होते हैं । बहरहाल, विषय पर आगे बढ़ते हैं ।

वसु – जिनके कारण पृथिवी वसुधा, वसुन्धरा, वसुमती इत्यादि नामों से पुकारी जाती है । तो सबसे पहले हमें वसु शब्द की निष्पत्ति और उसके भाव को समझने की आवश्यकता है । सामान्यतः वसु का अर्थ धन सम्पदा आदि से किया जाता है – जो बहुत सीमा तक उचित भी है । धरती माता की कोख में अमूल्य निधियाँ भरी हैं, जिनके कारण वह वसुन्धरा कहलाती है । लाखो, करोड़ों वर्षो से अनेक प्रकार की धातुओं को, रत्नादिकों को पृथ्वी के गर्भ में पोषण मिला है । और सबसे महान तथा जीवनदायी रत्न तो वसुधा से प्राप्त अन्न, जल, वनस्पतियां ही हैं – जिनके अभाव में जीवन का कोई अस्तित्व ही नहीं । यहां जिन वसुओं के विषय में प्रश्न है वे आठ मौलिक देवता हैं जिन्हें “अष्ट-वसु” कहा जाता है और ये आठों वसु प्रकृति के आठ तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं – ब्रह्माण्डीय प्राकृतिक घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और तैंतीस देवी देवताओं में गिने जाते हैं । वसु का अर्थ है निवास करने वाला और यह शब्द वस धातु में उप प्रत्यय लगाकर बना है । इस प्रकार रत्नगर्भा के हृदय में निवास करने वाली रत्नराशि वसु कहलाई ।

ये वसु तैंतीस देवताओं में से आठ हैं । वेदों में तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के देवी देवता उनके रूप गुण धर्मादि के आधार पर बताए गए हैं, जिन्हें हमारे विद्वानों ने तैंतीस करोड़ बना दिया है । ये तैंतीस देवी देवता हैं – 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु, इन्द्र और प्रजापति । कुछ स्थानों पर प्रजापति के स्थान पर अश्विनी कुमारों का उल्लेख भी मिलता है । प्रजापति ब्रह्मा के लिए कहा गया है । 12 आदित्यों में एक विष्णु स्वयं हैं और 11 रुद्रों में एक शिव भी हैं । इन सभी को उस परम सत्ता ने ब्रह्माण्ड के सुचारू रूप से संचालन के लिए अलग अलग कार्य सौंपे हुए हैं ।

यहां हम बात कर रहे हैं अष्ट वसुओं की । आठ पदार्थों की ही भांति इन आठ वसुओं को भी समझा जाना चाहिए । इन सभी का जन्म दक्ष की पुत्री तथा धर्म की पत्नी अदिति के गर्भ से हुआ था जो भगवान शिव की पत्नी सती की बहिन थीं । जैसा कि ऊपर लिखा है, इन आठों वसुओं के अलग अलग पौराणिक ग्रन्थों में अलग अलग नाम उपलब्ध होते हैं । उदाहरण के लिए स्कन्द, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में आठ वसुओं के नाम हैं:- आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष । भागवत पुराण के अनुसार द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, द्यौ, वसु और विभावसु नाम हैं । महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है । ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं ।

इनके मानव रूप में जन्म के विषय में भी पृथक पृथक पौराणिक ग्रन्थों में पृथक पृथक कथाएँ उपलब्ध होती हैं । जिनमें प्रसिद्ध कथा है कि पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर बारह वर्षों तक घोर तपस्या की । तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया । तत्पश्चात वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । एक अन्य कथा के अनुसार वसुओं में सबसे छोटे वसु द्यौ ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था । वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया । वसुओं के क्षमा मांगने पर महर्षि ने सात वसुओं के तो श्राप की अवधि केवल एक वर्ष कर दी, किन्तु द्यौ नाम के वसु ने क्योंकि उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में निसंतान रहने के साथ ही महान विद्वान और वीर होने के साथ साथ स्त्री के भोग का त्याग करने का भी श्राप दिया । इसी श्राप के कारण इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ । सात पुत्रों को गंगा ने जल में फेंक दिया था, किन्तु आठवें भीष्म को बचा लिया गया था ।

नाम चाहे जो भी हों और मान्यताएँ तथा कथाएँ चाहे जितनी भी प्रचलित हों, इतना अवश्य माना जाता है कि इन सबका प्रकृति और पञ्च महाभूतों से सम्बन्ध है – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र । जैसे :

धर अर्थात धारण करने के गुण धर्म के कारण अर्थात पृथिवी । उनकी पत्नी द्यौ हैं जिनका सम्बन्ध आकाश से है । धरा है तब ही प्राणी मात्र का अस्तित्व और आश्रय है । जो धारण करती है । कुछ भी धारण करने की सामर्थ्य – वह कोई वस्तु भी हो सकती है और विचार भी हो सकता है ।

आप अर्थात जल की वर्षा अन्तरिक्ष से होती है जो नदियों से होता हुआ समुद्र में पहुँचता है और पुनः वाष्पीकृत होकर बरसने के लिए तत्पर हो जाता है । जीवन के लिए अमृत यह जल ही है । जल न हो तो जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसी के कारण मानव शरीर के सारे रस बनते हैं और यही समूची प्रकृति को – समूची धरा को – समस्त वसुओं की जननी बनाता है ।

अनल का अर्थ ही है अग्नि – ऊर्जा । जब हम अग्नि में आहुति देते हैं तो यह माना जाता है कि यह अग्नि के माध्यम से भगवान तक पहुंचता है और बुराई को अच्छाई में बदल देता है और उदारतापूर्वक आशीर्वाद भी देता है । जीवन का आधार यही ऊर्जा है । अग्नि तत्व थोड़ा भी बिगड़ जाए तो शरीर के अंग समुचित रूप से कार्य नहीं कर सकते ।

अनिल का अर्थ भी सर्व विदित है – वायु और अन्तरिक्ष के देव हैं । इन्हें दिशाओं का रक्षक माना जाता है । इसी से हमें जीवित रहने के लिए प्राणवायु प्राप्त होती है । क्योंकि यह तत्व हमारी चेतना को – हमारी विचार शक्ति को प्रभावित करता है इसी कारण से यह हमारी स्मरण शक्ति को भी प्रभावित करता है | यदि यह तत्व विकृत हो जाए तो भ्रम और द्विविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है व्यक्ति के लिए |

द्यौ का अर्थ भी सर्व विदित है – आकाश और इनका एक नाम प्रभाष भी है । अन्तरिक्ष की दिव्य उपस्थिति सर्वव्यापी है और वह सुनिश्चित करती है कि मन की शान्ति, आनन्द और समृद्धि बनी रहे । ये आकाश के पिता और देवी पृथ्वी की पत्नी माने गए हैं और इसीलिए इन्हें सम्मिलित रूप से द्यावापृथ्वी कहा जाता है । वह वर्षा के देवता इन्द्र के भी पिता माने जाते हैं ।

सोम अपने नाम के अनुरूप ही अपनी किरणों से अमृत की वर्षा करने वाले चन्द्र देव हैं । ये सभी प्रकार की भावनाओं अर्थात मन को नियंत्रित करते हैं तथा व्यक्तित्व निर्मित करते हैं । जिस प्रकार चन्द्र सूर्य के प्रकाश से भासित होता है उसी प्रकार मन भी चेतना के प्रकाश से ही प्रकाशित अर्थात् एकाग्र होता है ।

ध्रुव अटल होने के कारण नक्षत्रों के देव हैं । किसी भी विचार को केन्द्रित करने के लिए इसी अटल भाव की आवश्यकता होती है । किसी भी ऊर्जा के प्रवाह का केन्द्र बिन्दु ।

प्रत्यूष अथवा आदित्य सूर्य देव हैं जो प्रकाश तथा ऊर्जा और प्राण अर्थात जीवनी शक्ति के दाता हैं । यह वसु नेतृत्व के गुण प्रदान करते हैं, एक उज्ज्वल भविष्य और अचल सम्पत्ति प्रदान करने वाले माने जाते हैं ।

मान्यताएं और कथाएं चाहे जितनी भी हों, इतना सत्य है कि प्रकृति की ये शक्तियां मनुष्य के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये ऐसी ऊर्जाएं हैं जो हमारे जीवन को सुचारू और संतुलित रूप से सञ्चालन में और हमारे जीवन तथा विचारों को सकारात्मकता प्रदान करने के लिए हमारे साथ निरन्तर “वास” करती हैं ।
—– कात्यायनी

 

गुरु का वृषभ में गोचर

गुरु का वृषभ में गोचर

बुधवार एक मई, वैशाख कृष्ण अष्टमी को दिन में एक बजे के लगभग शुभ योग और बालव करण में देवगुरु बृहस्पति अपने मित्र मंगल की मेष राशि से निकाल कर शत्रु ग्रह शुक्र की वृषभ राशि में प्रस्थान कर जाएँगे, जहाँ 14 मई 2025 तक विश्राम करने का पश्चात एक अन्य शत्रु ग्रह बुध की मिथुन राशि में पहुँच जाएँगे | गुरुदेव इस समय कृत्तिका नक्षत्र पर विचरण कर रहे हैं | वृषभ राशि में भ्रमण करते हुए गुरुदेव 3 मई से 3 जून तक अस्त भी रहेंगे – जिसे सामान्य भाषा में तारा डूबना कहा जाता है और इस समय विवाह जैसे मांगलिक कार्यों की मनाही होती है | इसके अतिरिक्त नौ अक्टूबर 2024 से वक्री होते हुए 28 नवम्बर को रोहिणी नक्षत्र पर वापस आ जाएँगे | यहाँ से 4 फरवरी 2025 से मार्गी होते हुए पुनः दस अप्रैल 2025 को मृगशिर नक्षत्र पर आकर दस मई 2025 को रात्रि में 10:36 के लगभग मिथुन राशि में प्रविष्ट हो जाएँगे | कृत्तिका नक्षत्र के स्वामी सूर्य से गुरु की मित्रता है, रोहिणी नक्षत्र के स्वामी शुक्र और गुरु की परस्पर शत्रुता है तथा मृगशिर नक्षत्र के स्वामी मंगल के साथ गुरुदेव की मित्रता है | इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है कि शत्रु ग्रह की राशि में गोचर करते हुए भी गुरुदेव अधिकाँश समय अपने मित्र ग्रहों के नक्षत्रों पर आरूढ़ रहेंगे | साथ ही यह भी सत्य है कि देवगुरु बृहस्पति तथा दैत्यगुरु भार्गव शुक्र दोनों ही ग्रह शुभ ग्रह माने जाते हैं | गुरु जहाँ ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, धर्म और आध्यात्म, राजनीति, कूटनीति के साथ-साथ भाग्य वृद्धि, विवाह तथा सन्तान और पिता के सुख के कारक हैं, तो वहीं शुक्र भौतिक सुख और ऐश्वर्य, भोग विलास, रोमांस, विवाह, सौन्दर्य तथा समस्त प्रकार की कलाओं के स्वामी हैं | अतः व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो ये दोनों ग्रह जब किसी न किसी रूप में परस्पर मिल जाएँ अथवा एक दूसरे के प्रभाव में आ जाएँ तो निश्चित रूप से कुछ चमत्कार की सम्भावना तो की ही जा सकती है |

राशियों की यदि बात करें तो, गुरु की एक राशि धनु के लिए वृषभ छठा भाव तथा दूसरी राशि मीन के लिए तीसरा भाव हो जाता है | वृषभ राशि के लिए गुरु अष्टमेश और एकादशेश हो जाता है | यहाँ उपस्थित होने पर गुरु की दृष्टियाँ कन्या, वृश्चिक तथा मकर राशियों पर रहेंगी, इस प्रकार धनु, मीन और वृषभ के साथ साथ ये तीनों राशियाँ भी इस गोचर से प्रभावित होंगी | इन्हीं समस्त तथ्यों के आधार जानने का प्रयास करते हैं कि सभी बारह राशियों के जातकों के लिए गुरु के वृषभ में गोचर के क्या सम्भावित परिणाम रह सकते हैं | “सम्भावित” इसलिए, क्योंकि ये सभी परिणाम चन्द्र राशि पर आधारित हैं, और चन्द्रमा एक राशि में लहभाग सवा दो दिन रहता है और इस अवधि में अनगिनत बच्चों का जन्म हो जाता है – और सबही के लिए तो कोई ग्रह एक समान नहीं हुआ करता | साथ ही, सबसे प्रमुख तो व्यक्ति अपना कर्म होता है जो किसी भी ग्रह दशा को अपने अनुकूल बनाने की सामर्थ्य रखता है…

प्रस्तुत है सभी बारह राशियों के जातकों के लिए गुरु के वृषभ में गोचर के सम्भावित परिणाम…

मेष : आपके लिए गुरु नवमेश तथा द्वादशेश है और आपके दूसरे भाव में गोचर कर रहा है, जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपकी राशि से छठे, आठवें और दशम भावों पर आ रही हैं | आपके लिए यह गोचर भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | कार्यक्षेत्र में प्रगति के संकेत प्रतीत होते हैं | किसी जॉब में हैं तो वहाँ कोई प्रमोशन भी सम्भव है | अपने स्वयं का कार्य है तो आपको कुछ नवीन प्रोजेक्ट्स का लाभ हो सकता है जिनके कारण आप वर्ष भर व्यस्त रहते हुए धनोपार्जन कर सकते हैं | बहुत समय से यदि कुछ कार्य रुके हुए हैं अथवा उनमें किन्हीं कारणों से व्यवधान की स्थिति चल रही है तो वे कार्य भी पुनः आरम्भ होकर पूर्णता को प्राप्त हो सकते हैं | यदि कहीं से ऋण लिया हुआ है तो इस अवधि में उससे भी मुक्ति सम्भव है | किसी पुराने रोग से मुक्ति भी इस अवधि में सम्भव है | पैतृक सम्पत्ति का लाभ सम्भव है | कार्य के सिलसिले में दूर पास की यात्राओं के योग भी प्रतीत होते हैं | कलाकारों के लिए, अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र से सम्बद्ध व्यक्तियों के लिए तथा राजनीति से सम्बन्ध रखने वाले जातकों के लिए यह गोचर बहुत अनुकूल प्रतीत होता है | माँ सम्मान में वृद्धि के साथ हाई आपको किसी पुरस्कार आदि से भी सम्मानित किया जा सकता है | धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि के संकेत प्रतीत होते हैं |

वृषभ: आपके लिए आपके अष्टमेश और एकादशेश का गोचर आपकी लग्न में ही हो रहा है जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपके पँचम, सप्तम और नवम भावों पर रहेंगी | आपकी सोच इस अवधि में सकारात्मक बनी रहेगी जिसका लाभ आपको पारिवारिक और व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों में दिखाई देगा | परिवार में प्रसन्नता का वातावरण बना रहेगा | सुख और भोग विलास के साधनों में वृद्धि की भी सम्भावना है | आप किसी नौकरी में हैं तो आपकी पदोन्नति के साथ हाई अर्थ लाभ और किसी पुरस्कार आदि की प्राप्ति की भी सम्भावना है | आपके साहस और निर्णायक क्षमता में वृद्धि के कारण आप न केवल अपने कार्य समय पर पूर्ण करने में सक्षम होंगे, अपितु अपनें अधीनस्थ कर्मचारियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन सकते हैं दूर पास की यात्राओं के भी योग प्रतीत होते हैं जो आपके लिए कार्य की दृष्टि से लाभदायक रहेंगी | नौकरी में अच्छा इंक्रीमेंट और बोनस प्राप्त हो सकता है जिसके कारण आप अपने ऋणों का समय पर भुगतान करके उनसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं | साथ ही आप अपनी फ़िज़ूलख़र्ची बन्द करके पैसा कहीं इन्वेस्ट भी कर सकते हैं ताकि भविष्य में उसका लाभ प्राप्त हो सके | दाम्पत्य जीवन में भी प्रगाढ़ता और आनन्द के संकेत प्रतीत होते हैं | धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि के संकेत हैं | शारीरिक और मानसिक समस्याओं से मुक्ति के संकेत हैं |

मिथुन : आपके लिए गुरु आपका सप्तमेश और दशमेश होकर योगकारक हो जाता है और इस समय आपके बारहवें भाव में गोचर करेगा | यहाँ से गुरु की दृष्टियाँ आपके चतुर्थ भाव, छठे भाव तथा आठवें भाव पर होंगी | आपके लिए यह गोचर बहुत अधिक अनुकूल नहीं प्रतीत होता | कार्य स्थल पर कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है | अचानक हाई विरोध के सवार मुखर हो सकते हैं | अच्छा यही रहेगा कि अपने आँख कान खुले रखकर शान्ति के साथ अपने कार्य करते रहें | पिता अथवा जीवन साथी के साथ किसी प्रकार का माँ मटाव भी सम्भव है | इस अवधि में आपको कार्य के सिलसिले में यात्राएँ करनी पड़ सकती हैं जिनमें थकान बहुत अधिक होगी | यात्राओं के दौरान आपको अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान रखने की आवश्यकता होगी | स्वास्थ्य अथवा कोर्ट कचहरी के चक्कर में धन भी बहुत अधिक ख़र्च हो सकता है जिसके कारण आपका बजट गड़बड़ा सकता है अतः इस ओर से सावधान रहने की आवश्यकता है | आपको लीवर तथा पेट से सम्बन्धित कोई बीमारी गम्भीर रूप धारण कर सकती है अतः अपने खान पर नियंत्रण रखने तथा समय पर डॉक्टर को दिखाने की आवश्यकता है | गर्भवती महिलाओं को भी विशेष रूप से सावधान रहने की आवश्यकता है | यदि कोई प्रेम प्रसंग चल रहा है तो उसे अभी विवाह की स्थिति तक न ले जाना ही आपके हित में रहेगा |

कर्क : आपके लिए गुरु आपका षष्ठेश तथा भाग्येश होकर आपके लाभ स्थान में गोचर कर रहा है, जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपके तृतीय भाव, पँचम भाव तथा सप्तम भावों पर हैं | आपके लिए या गोचर अनुकूल तथा भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | जीवन में किसी क्षेत्र में यदि बहुत समय से कुछ बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है तो अब उन बाधाओं से मुक्ति का समय प्रतीत होता है | उच्च शिक्षा प्राप्त के रहे छात्रों को अनुकूल परिणाम प्राप्त हो सकते हैं | किसी नौकरी में हैं तो पदोन्नति सम्भव है | अपना स्वयं का व्यवसाय है तो उसमें भी प्रगति और धनलाभ की सम्भावनाएँ हैं | पार्टनरशिप में जिन लोगों का व्यवसाय है उनके लिए विशेष रूप से यह गोचर भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | कोई नवीन प्रोजेक्ट भी इस अवधि में आप आरम्भ कर सकते हैं | कार्य से सम्बन्धित यात्राओं में वृद्धि की सम्भावना है | आय के नवीन स्रोत आपके समक्ष उपस्थित हो सकते हैं | सन्तान के जन्म के कारण उत्सव का वातावरण बनेगा | आपको अपने जीवन साथी के माध्यम से भी अर्थ लाभ की सम्भावना है | आपकी सन्तान की ओर से कोई शुभ समाचार इस अवधि में आपको प्राप्त हो सकता है | आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि की सम्भावना है |

सिंह : आपके लिए आपके पंचमेश और अष्टमेश का गोचर आपके दशम भाव में हो रहा है, जहाँ से आपके द्वितीय भाव, चतुर्थ भाव तथा छठे भाव पर उसकी दृष्टियाँ हैं | कार्य क्षेत्र में आपको सफलता प्राप्त होने के योग प्रतीत होते हैं | यदि आप एक वक़ील हैं, डॉक्टर हैं अथवा इन दोनों क्षेत्रों में से किसी क्षेत्र में अध्ययनरत हैं तो आपके लिए यह गोचर अत्यन्त भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | पोलिटिक्स से सम्बद्ध जातकों के लिए भी यह गोचर अनुकूल फल देने वाला प्रतीत होता है | आपको कुछ विशेष ज़िम्मेदारियाँ आपकी पार्टी की ओर से दी जा सकती हैं जिनके कारण आपकी व्यसत्ताएँ भी बढ़ सकती हैं | जिन लोगों का पैतृक व्यवसाय है अथवा जो लोग प्रॉपर्टी से सम्बद्ध व्यवसाय में हैं उनके लिए भी यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है | आप अपने निवास को Renovate भी करा सकते हैं | सुख सुविधाओं के साधनों में भी रुचि बढ़ सकती है | कोई नवीन प्रॉपर्टी भी आप इस अवधि में ख़रीद सकते हैं | आपकी वाणी प्रभावशाली रहेगी जिसका लाभ आपको अपने कार्य में निश्चित रूप से प्राप्त होगा | किन्तु इसके साथ ही स्वास्थ्य का भी ध्यान रखने की आवश्यकता है | विशेष रूप से पेट और लीवर से सम्बन्धित समस्याएँ गम्भीर रूप धारण कर सकती है, अतः अपने खान पान पर नियंत्रण रखने की विशेष रूप से आवश्यकता है |

कन्या : आपके लिए चतुर्थेश तथा सप्तमेश होकर गुरु योगकारक हो जाता है और इस समय आपके भाग्य स्थान में गोचर करेगा जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपकी लग्न पर, तृतीय भाव पर तथा पँचम भावों पर रहेंगी | आपके लिए, आपकी सन्तान के लिए तथा छोटे भाई बहनों के लिए यह गोचर अत्यन्त भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | एक ओर जहाँ आर्थिक स्थिति में सुधार और दृढ़ता की सम्भावना है वहीं प्रॉपर्टी से सम्बन्धित मामलों में भी लाभ की सम्भावना प्रतीत होती है | भौतिक सुख सुविधाओं में वृद्धि के साथ हाई आप कोई नवीन प्रॉपर्टी भी इस अवधि में ख़रीद सकते हैं | नौकरी में हैं तो पदोन्नति की सम्भावना है | अपने स्वयं का व्यवसाय है, अथवा पार्टनरशिप में कोई व्यवसाय कर रहे हैं तो उसमें भी उन्नति और अर्थ लाभ की सम्भावना है | परिवार में आनन्द का वातावरण बना रहेगा | समाज में मान सम्मान तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि की सम्भावना है | उच्च शिक्षा के लिए विदेश जा सकते हैं अथवा अपनी सन्तान को भेज सकते हैं | छात्रों को अनुकूल परिणाम की सम्भावना की जा सकती है | आपके जीवन साथी के माध्यम से भी अर्थ लाभ की सम्भावना है | कार्य के सिलसिले में दूर पास की यात्राओं के योग भी प्रतीत होते हैं | नौकरी में हैं तो अधिकारी वर्ग का सहयोग आपको उपलब्ध रहेगा | धार्मिक तथा आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि हो सकती है | छोटे भाई बहनों के साथ यदि कुछ समय से मतभेद चल रहा है तो वह भी इस अवधि में दूर हो सकता है |

तुला : आपके लिए गुरु आपका तृतीयेश तथा षष्ठेश है और आपके अष्टम भाव में गोचर कर रहा है, जहाँ से इसकी दृष्टियाँ आपके द्वादश भाव, द्वितीय भाव तथा चतुर्थ भाव पर आ रही हैं | अष्टम भाव से जीवन में आकस्मिक घटनाओं का विचार किया जाता है | आपके लिए यह गोचर कुछ अधिक अनुकूल नहीं प्रतीत होता | सर्वप्रथम तो अचानक ही ऐसी यात्राएँ करनी पड़ सकती हैं जिनके कारण धन की हानि होने के साथ ही कष्ट भी प्राप्त हो सकता है | यदि यात्रा करनी पड़ जाए तो अपने महत्त्वपूर्ण काग़ज़ों को सम्हाल कर रखने की आवश्यकता है | परिवारजनो के साथ सम्पत्ति को लेकर भी किसी प्रकार का वैमनस्य भी सम्भव है | इससे पूर्व कि विवाद कोर्ट तक पहुँचे, बात को सम्हालने का प्रयास आपके हित में होगा, अन्यथा धन और सम्मान दोनों की हानि सम्भव है | नौकरी और व्यवसाय में भी कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है | यदि कहीं पैसा इन्वेस्ट किया हुआ तो उसकी वापसी में सन्देह है | कार्य स्थल पर कुछ गुप्त शत्रु आपकी छवि धूमिल करने का प्रयास कर सकते हैं, अतः अपने आँख और कान खुले रखने की आवश्यकता है | यदि आपने अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रखा तो आपको उसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है | साथ ही खान पान पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है | आपके लिए यह समय आत्म मन्थन का समय है, अतः हर ओर से ध्यान हटाकर बृहस्पति के मन्त्र का जाप करें तथा भविष्य के लिए योजनाएँ तैयार करें |

वृश्चिक : आपके लिए आपके द्वितीयेश तथा पंचमेश का गोचर आपके सप्तम भाव में हो रहा है, जहाँ से आपके लाभ स्थान, लग्न तथा तृतीय भाव पर उसकी दृष्टियाँ हैं | आपके लिए यह गोचर भाग्यवर्धक रहने की सम्भावना है | यदि विवाह की योजना है तो वह इस अवधि में सम्भव है | विवाहित हैं तो दाम्पत्य जीवन में आनन्द रहेगा तथा आप सन्तान के लिए भी प्रयास कर सकते हैं | आपके वर्तमान व्यवसाय में लाभ की आशा की जा सकती है | कोई नवीन कार्य भी आप इस अवधि में आरम्भ कर सकते हैं | आपको अपने कार्य में मित्रों का तथा परिवार जनों का पूर्ण सहयोग प्राप्त रहेगा | बहन भाइयों के साथ सम्बन्धों में मधुरता में वृद्धि होगी | समाज में माँ सम्मान में वृद्धि के योग हैं | आपको तथा आपके जीवन साथी के लिए अर्थलभ सम्भव है | यदि कहीं पैसा इन्वेस्ट किया हुआ तो उसकी वापसी भी इस अवधि में सम्भव है | अध्ययन अध्यापन से सम्बन्धित जिनका कार्य है उनके लिए भी समय अनुकूल प्रतीत होता है | आपकी वाणी इस समय अत्यन्त प्रभावशाली है जिसका लाभ आपको अपने कार्य में निश्चित रूप से प्राप्त होगा | आपका कोई शोध प्रबन्ध इस अवधि में पूर्ण होकर प्रकाशित हो सकता है और उसके कारण आपको कोई पुरस्कार भी प्राप्त हो सकता है | कार्य से सम्बन्धित यात्राएँ सुखकर तथा लाभदायक रहेंगी | सन्तान की ओर से कोई शुभ समाचार प्राप्त हो सकता है | छात्रों के लिए अनुकूल परिणाम की आशा की जा सकती है |

धनु : आपके लिए आपका लग्नेश और चतुर्थेश होकर योगकारक हो जाता है तथा इस समय आपके छठे भाव में गोचर करेगा, जहाँ से इसकी दृष्टियाँ आपके दशम, द्वादश तथा द्वितीय भाव पर रहेंगी | छठे भाव से क़ानूनी समस्याओं, स्वास्थ्य तथा प्रतियोगिता इत्यादि का विचार किया जाता है | आपके लिए यह गोचर मिश्रित फल देने वाला प्रतीत होता है | आपको अपने प्रयासों में सफलता तो प्राप्त होगी, किन्तु उसके लिए आपको अधिक प्रयास करने की आवश्यकता होगी | आपको अपने स्वयं के अथवा परिवार में किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है तथा उनके कारण पैसा भी अधिक खर्च हो सकता है | आपको स्वयं को अथवा परिवार में किसी अन्य व्यक्ति को अस्पताल में भी भर्ती होना पड़ सकता है | जिन परिवारजनों के लिए आप पूर्ण रूप से समर्पित हैं उन्हीं के साथ मन मुटाव के चलते आपको मानसिक कष्ट का भी आपको अनुभव हो सकता है | यदि किसी नौकरी में हैं तो अपने अधिकारी वर्ग को प्रसन्न रखने के लिए भी आपको बहुत अधिक प्रयास करना पड़ सकता है | विवाहित हैं तो ससुराल पक्ष की ओर से भी किसी प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है | आय से अधिक ख़र्च होने के कारण आपका बजट भी गड़बड़ा सकता है | आपके लिए आवश्यक है कि कार्य से सम्बन्धित अपनी योजनाओं के विषय में अपने मित्रों से कुछ विचार विमर्श न करें | साथ ही बृहस्पति के मन्त्र का जाप आपके लिए विपरीत प्रभाव को कम करेगा |

मकर : आपके लिए गुरु आपके तृतीय और द्वादश भावों का स्वामी है तथा आपके योगकारक शुक्र की राशि में पँचम भाव में गोचर करेगा, जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपके भाग्य स्थान, लाभ स्थान तथा लग्न पर रहेंगी | परिवार में किसी बच्चे के जन्म के कारण आनन्द और उत्सव का वातावरण बनेगा | यदि जीवन साथी की तलाश है तो वह इस अवधि में पूर्ण हो सकती है | आपकी सन्तान उच्च शिक्षा के लिए कहीं विदेश जा सकती है | आप यदि किसी नौकरी में हैं तो पदोन्नति के साथ ही किसी अन्य स्थान पर ट्रांसफ़र की भी सम्भावना है | आर्थिक दृष्टि से यह ट्रांसफ़र आपके हित में रहेगा | हाथ के कारीगरों के लिए विशेष रूप से यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है | आपकी कलाकृतियों की एग्जीविशन लग सकती हैं जिनमें आपके कार्य की प्रशंसा होगी | इन प्रदर्शनियों के लिए आपको दूर पास की यात्राओं के अवसर भी उपलब्ध हो सकते हैं | आपका अपना स्वयं का व्यवसाय है अथवा आप अपने पैतृक व्यवसाय में हैं या उनके साथ पार्टनरशिप में कोई कार्य कर रहे हैं तो आपके लिए व्यापार में उन्नति और अर्थलाभ की सम्भावना प्रबल है | पिता, बड़े भाई, मित्रों तथा अधिकारी वर्ग का सहयोग आपको उपलब्ध रहेगा | परिवार में माँगलिक कार्यों का आयोजन हो सकता है | आपकी रुचि धार्मिक गतिविधियों में बढ़ सकती है | स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है |

कुम्भ : गुरु आपके द्वितीय और एकादश भावों का स्वामी है तथा इस समय आपके लिए योगकारक ग्रह शुक्र की राशि में आपके चतुर्थ भाव में गोचर करेगा | यहाँ से गुरु की दृष्टियाँ आपके अष्टम भाव, दशम भाव तथा बारहवें भाव पर रहेंगी | चतुर्थ भाव से मुख्य रूप से मानसिक शक्ति, भौतिक सुख सुविधाओं, परिवार तथा माता का विचार किया जाता है | एक ओर जहाँ किन्हीं कारणों से आप मानसिक अशान्ति का अनुभव कर सकते हैं, वहीं दूसरी ओर आपकी आर्थिक स्थिति में सुधार तथा दृढ़ता आने की भी सम्भावना है | हाँ इतना अवश्य है कि आपको बजट बनाकर चलना होगा ताकि अनावश्यक ख़र्चों से बचा जा सके | जो लोग अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत हैं, मैनेजमेंट जैसे किसी व्यवसाय में हैं अथवा कम्प्यूटर आदि से सम्बन्धित कोई कार्य है तो उनके लिए यह गोचर बहुत अनुकूल रह सकता है | कार्य स्थल पर चली आ रही समस्याओं से मुक्ति की आशा इस अवधि में की जा सकती है | आपकी अपने कार्य से सम्बन्धित कोई पुस्तक इस अवधि में प्रकाशित हो सकती है जिसके कारण आपको कोई पुरस्कार आदि भी प्राप्त हो सकता है | आपका स्वयं का व्यवसाय है तो आप उसका भी विस्तार इस अवधि में कर सकते हैं | यदि आपका कार्य विदेश से सम्बन्धित है तो आपके लिए यह गोचर अत्यन्त अनुकूल फल दे सकता है | साथ ही पोलिटिक्स से सम्बन्ध रखने वाले जातकों के लिए भी यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है | किन्तु जैसा कि पूर्व में लिखा है, सम्भवतः कार्य की अधिकता के कारण अथवा सन्तुष्ट न होने के अपने स्वभाव के कारण आपको मानसिक अशान्ति अथवा तनाव का अनुभव हो सकता है | इसके लिए यदि आप ध्यान और प्राणायाम के अभ्यास करते हैं तो ये आपके लिए उचित रहेंगे |

मीन : आपके लिए गुरु आपका लग्नेश और दशमेश होकर आपके लिए योगकारक हो जाता है और इस समय आपके तृतीय भाव में गोचर करने जा रहा है, जहाँ से इसकी दृष्टियाँ आपके सप्तम भाव, भाग्य स्थान तथा लाभ स्थान पर रहेंगी | आपके तथा आपके जीवन साथी के लिए पराक्रम और उत्साह में वृद्धि के संकेत हैं | यह गोचर आपके लिए भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | हाथ के कारीगरों, कलाकारों, मीडिया आदि से सम्बन्ध रखने वाले जातकों तथा लेखन आदि से जुड़े जातकों के लिए तो यह गोचर निश्चित रूप से अत्यन्त अनुकूल प्रतीत होता है | आपके कार्य की प्रशंसा के साथ ही आपकी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ होने की सम्भावना है | अपना स्वयं का व्यवसाय है और उसमें यदि कुछ समय से समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था तो अब उन समस्याओं से मुक्ति का समय प्रतीत होता है | आपको अधिकारी वर्ग का, पिता का, भाई बहनों, जीवन साथी तथा मित्रों का समुचित सहयोग इस अवधि में उपलब्ध रहेगा | परिवार में आनन्द का वातावरण बना रहेगा जिसके कारण आपक पूर्ण मनोयोग से अपने कार्य पूर्ण करने में सक्षम होंगे | कुछ नवीन प्रोजेक्ट्स भी आपको प्राप्त हो सकते हैं जिनके कारण आप दीर्घ समय तक व्यस्त रहते हुए अर्थ लाभ कर सकते हैं | धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में आपकी रुचि में वृद्धि की सम्भावना है | आप तीर्थाटन के लिए भी जा सकते हैं | किन्तु इतना ध्यान रहे कि पोंग पण्डितों के झाँसे में न आने पाएँ |

अन्त में, सबसे प्रमुख व्यक्ति का अपना कर्म होता है | यदि हम कर्मशील रहते हुए अपने लक्ष्य की ओर हम सभी अग्रसर रहे तो निश्चित रूप से गुरुदेव हमारी सहायता अवश्य करेंगे |

 

 

माँ दुर्गा के पूजन की विधि और सामग्री 

माँ दुर्गा के पूजन की विधि और सामग्री 

नौ अप्रैल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के साथ ही नव संवत्सर का आरम्भ हो जाएगा और माँ भगवती की उपासना का पर्व नवरात्र आरम्भ हो जाएँगे | सभी को हिन्दू नव वर्ष, साम्वत्सरिक नवरात्र, गुड़ी पड़वा तथा उगडी की हार्दिक शुभकामनाएँ…

मित्रों का आग्रह होता है कि नवरात्रों में माँ भगवती की उपासना की विधि तथा उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री के विषय में कुछ लिखें और सामग्री के महत्त्व के विषय में भी जानकारी दें | तो सबसे पहले तो, इस लेख की लेखिका यानी कि हम इस विषय के कोई बहुत बड़े ज्ञाता तो नहीं हैं, फिर भी जैसा माता पिता तथा गुरुजनों और पुस्तकों तथा अनुभवों से जाना वही सब आपके साथ साँझा कर रहे हैं |

सर्वप्रथम तो हमारा सबसे यही आग्रह है कि साधारण रीति से की गई ईशोपासना भी उतनी ही सार्थक होती है जितनी कि बहुत अधिक सामग्री आदि के द्वारा की गई पूजा अर्चना | साथ ही जिसकी जैसी सुविधा हो, जितना समय उपलब्ध हो, जितनी सामर्थ्य हो उसी के अनुसार हर किसी को माँ भगवती अथवा किसी भी देवी देवता की पूजा अर्चना उपासना करनी चाहिए, वास्तविक बात तो भावना की है | भावना के साथ यदि अपने पलंग पर बैठकर भी ईश्वर की उपासना कर ली गई तो वही सार्थक हो जाएगी | भगवान श्री राम ने प्रेम और श्रद्धा की भावना के ही वशीभूत होकर शबरी के झूठे बेर खाए थे और उसे “भामिनी” कहा था – जिसका अर्थ होता है ऐसी महिला जो भासती हो – अर्थात गरिमामयी नारी | भगवान श्री कृष्ण ने विदुर के घर भोजन किया था और सखा सुदामा के लाए तन्दुल पेट भर ग्रहण किये थे | रही बात पूजन की सामग्री की, तो धार्मिक रीति रिवाज़ों के व्यावसायीकरण के चलते न केवल नवरात्र आरम्भ होने पर, बल्कि किसी भी पर्व के अवसर पर बाज़ार हाट पूजा की सामग्रियों से सजकर ग्राहकों का मन लुभाते रहते हैं | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि जितनी भी सामग्री पूजन में काम में लाई जाती है वो तो सब भौतिक वस्तुएँ हैं, भगवान कभी ये नहीं कहते कि उन्हें कितनी सामग्री से अपनी पूजा करानी है – वे तो बस भावों के भूखे हैं – प्रेम के भूखे हैं | फिर भी, क्योंकि हमसे कुछ लोगों ने जानना चाहा है, तो सामान्य रूप से पूजा की विधि और सामग्री के विषय में लिख रहे हैं…

घट स्थापना के साथ माँ भगवती के नौ रूपों के आह्वाहन स्थापन के साथ अनुष्ठान का आरम्भ किया जाता है | इसके लिए एक मिट्टी का कलश घट के रूप में स्थापित करने के लिए चाहिए होता है | यदि आप जौ बोते हैं तो उसके लिए भी एक मिट्टी का पात्र मिट्टी और जौ के साथ | जल, मौली जिसे हम कलावा भी कहते हैं, इत्र, सुपारी, पान के पत्ते, आम की टहनी, कच्चे लेकिन साबुत चावल यानी अक्षत, नारियल, पुष्प और पुष्पमाला, माँ भगवती का चित्र अथवा मूर्ति, गणपति का चित्र अथवा मूर्ति, गाय का दूध, दही और घी, नैवेद्य अर्थात मिठाई, फल, सिन्दूर, रोली, धूप दीप इत्यादि, पञ्चामृत, वस्त्र, यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ, हल्दी, – इन वस्तुओं की आवश्यकता होती है | इसके अतिरिक्त विसर्जन के दिन यदि हवन करना है तो उसके लिए हविष्य अर्थात सामग्री जिसमें धूप, जौ, नारियल, गुग्गुल, मखाना, काजू, किशमिश, छुहारा, शहद, घी तथा अक्षत आदि तथा समिधा अर्थात लकड़ी की आवश्यकता होती है | किन्तु सामान्य तौर पर केवल घट स्थापना करके पाठ ही किया जाता है |

दुर्गा पूजा के लिए सर्वप्रथम एक लकड़ी की चौकी पर वेदी बनाई जाती है | इसके लिए चौकी पर श्वेत वस्त्र बिछा दिया जाता है और उस पर गौरी और गणपति की प्रतिमा अथवा चित्र के समक्ष ॐकार, श्री, नवग्रह, षोडश मातृका, नव कन्या तथा सप्तघृतमातृका बनाई जाती हैं | ध्यान रहे पूजा करते समय आपका मुँह उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व में हो तो अधिक अच्छा है | वेदी के दाहिनी ओर ईशान कोण में घट स्थापना के लिए अष्टदल कमल बनाकर उस पर घट स्थापित किया जाता है और बाँई ओर दीपक रखा जाता है | साथ ही, यदि जौ बोए जा रहे हैं तो उनका पात्र भी कलश के पास ही होना चाहिए |

अब मन्त्रोच्चारपूर्वक वेदी की पूजा करके अखण्ड दीप प्रज्वलित किया जाता है और फिर कलश को विधिवत स्थापित किया जाता है | इसके बाद ॐकार, श्री, गौरी गणपति आदि की पूजा के बाद नवग्रहों का आह्वाहन स्थापन, षोडश मातृकाओं का, नव कन्याओं का, सप्तघृतमातृकाओं का आह्वाहन स्थापन करके पाठ आरम्भ किया जाता है |

कुछ लोग केवल कवच, अर्गला और कीलक का पाठ करके भी आरम्भ कर देते हैं, कुछ पहले सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ, श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं आदि का पाठ करके वैदिक विधि से अंगन्यास, मौली बन्धन, पुण्याहवाचन, मंगल पाठ, आसन शुद्धि, भूत शुद्धि, प्राण प्रतिष्ठा, कर न्यास, हृदयादि न्यास, शापोद्धार आदि अनेक अंग होते हैं जिनके साथ संकल्प लेकर रात्रि सूक्त और देव्यथर्वशीर्ष आदि का पाठ करके पाठ आरम्भ करते हैं | अन्त में यही समस्त प्रक्रियाएँ पुनः दोहराई जाती हैं और फिर ऋग्वेदोक्त देवी सूक्त, तीनों रहस्य तथा मानस पूजा आदि के द्वारा पाठ सम्पन्न किया जाता है | और भी जो लोग कोई बहुत बड़ा अनुष्ठान करते हैं अथवा किसी कामना की सिद्धि के लिए पाठ करते हैं तो बहुत सारे और भी अंग होते हैं पाठ के समय | लेकिन सामान्य रूप से कवच अर्गला कीलक का पाठ करके पाठ आरम्भ कर दिया जाता है |

हमारा मानना है कि यदि किसी कारणवश पूजन सामग्री न भी उपलब्ध हो तो केवल एक दीप प्रज्वलित करके शुद्ध हृदय से बैठ जाइए श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ आरम्भ कर दीजिये | उसका भी वही फल प्राप्त होगा तो इतने सारे कर्मकाण्ड की विधि से षोडशोपचार विधि से पूजा अर्चना के बाद प्राप्त होता है |

कहने का तात्पर्य है कि ऐसा कोई विशेष बन्धन इस सबमें नहीं है | आप हर दिन सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का पाठ भी कर सकते हैं, या उसमें कहे गए तीनों चरित्रों – मधु कैटभ वध, महिषासुर वध और शुम्भ निशुम्भ वध – को एक एक दिन में कर सकते हैं, अथवा केवल प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम तथा एकादश अध्याय की स्तुतियों का पाठ कर सकते हैं, अथवा – समय का अभाव है और पूरी सप्तशती करना चाहते हैं तो हर दिन उतना ही पाठ कीजिए जितना समय उपलब्ध है और इस प्रकार से पूरे नौ दिनों में सप्तशती सम्पन्न कर लीजिये | और यदि संस्कृत नहीं पढ़ सकते हैं तो उनके हिन्दी अनुवाद को ही पढ़ सकते हैं | और सप्तशती यदि नहीं भी पढ़ सकते हैं तो माँ भगवती तो अपने नाम स्मरण मात्र से प्रसन्न हो जाती हैं – यदि सच्ची भावना से उनका स्मरण किया जाए… माँ हैं न, इसलिए… माँ को सन्तान से यदि कुछ चाहिए तो वो है सम्मान और प्रेम की भावना…

यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता – जहाँ नारी का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का निवास होता है – की मान्यता का पोषक है भारतीय दर्शन – इस कारण भी माँ भगवती की उपासना का विशेष महत्त्व हो जाता है | भारत में सदा से नारी को शक्तिरूपा माना जाता रहा है | उसे न केवल पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का अधिकार है, न केवल पुरुष की हर गतिविधि में सम्मिलित होने का अधिकार है, वरन् पुरुष के समान ही स्वतन्त्रता पर भी उसका उतना ही अधिकार है | नारी वे समस्त कार्य कर सकती है जिन पर पुरुष अपना एकाधिकार समझता है | माँ भगवती द्वारा महिषासुर, शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज इत्यादि दानवों का संहार इसी बात का प्रमाण हैं | यहाँ तक कि मधु कैटभ का वध भी भगवान विष्णु ने शक्ति के ही आश्रय से किया था |

वास्तव में तो समस्त प्रकृति ही नारीरूपा है और अपने रहस्यमय तथा विस्मित करते रहने वाले अस्तित्व से पल पल इसी बात का अहसास कराती रहती है कि नारी शक्तिरूपा है, स्नेहरूपा है, ज्ञानरूपा है तथा लक्ष्मीरूपा है – उसकी इन समस्त शक्तियों को नकारने की नहीं – अपितु उनके सामने श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होने की तथा प्रेमपूर्वक अपने हृदय में स्थान देने की आवश्यकता है |

नवरात्रों में होने वाली माँ भवानी की उपासना इसी बात का प्रमाण है कि नारी के साथ – शक्ति के साथ – प्रकृति के साथ – सम्मान और प्रेम का व्यवहार किया जाएगा तथा उन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं पहुँचाया जाएगा तो उसी में सबका कल्याण निहित है… इसी भावना से कलश स्थापना करते हुए हम सभी माँ भगवती की अर्चना करें… बिना ये सोचे विचारे कि हमारे पास पूजन की क्या सामग्री है क्या नहीं – बस हृदय से माँ भगवती का स्मरण कीजिए, इस भावना के साथ कि संसार में सभी स्वस्थ रहें… प्राणियों में सद्भावना हो… और सब परस्पर हिल मिल कर जीवन व्यतीत करें… इसी भावना से सभी को साम्वत्सरिक नवरात्र या वासन्तिक नवरात्र और हिन्दू नव वर्ष की अग्रिम रूप से हार्दिक शुभकामनाएँ… माँ दुर्गा सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें…

 

 

चैत्र नवरात्र 2024 की तिथियाँ

चैत्र नवरात्र 2024 की तिथियाँ

इस वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी मंगलवार नौ अप्रैल से पिंगल नामक विक्रम सम्वत 2081 तथा क्रोधी नामक शक सम्वत 1946 आरम्भ हो जाएगा | यद्यपि जो लोग कृष्ण प्रतिपदा से मासारम्भ मानते हैं उनके अनुसार विक्रम सम्वत् 2081 चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अर्थात् 26 मार्च से आरम्भ हो चुका है | किन्तु अधिकांश भारत में शुक्ल प्रतिपदा से मासारम्भ माना जाता है अतः चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी नौ अप्रैल से विक्रम सम्वत् 2081 आरम्भ होगा | इसी दिन घट स्थापना करके माँ दुर्गा के प्रथम स्वरूप “शैलपुत्री” की उपासना के साथ ही चैत्र नवरात्र – जिन्हें वासन्तिक और साम्वत्सरिक नवरात्र भी कहा जाता है – के रूप में माँ भवानी के नवरूपों की पूजा अर्चना आरम्भ हो जाएगी जो बुधवार 17 अप्रैल को भगवान श्री राम के जन्मदिवस रामनवमी और कन्या पूजन के साथ सम्पन्न होगी | इसी दिन उगडी और गुडी पर्व भी है | सर्वप्रथम सभी को उगडी और गुडी पर्व, हिन्दू नव वर्ष तथा साम्वत्सरिक नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ…

प्रतिपदा तिथि आठ अप्रैल को रात्रि 11:50 पर आरम्भ होकर नौ अप्रैल को रात्रि 8:30 पर समाप्त होगी | नौ अप्रैल को सूर्योदय छः बजकर एक मिनट पर वैधृति योग, किंस्तुघ्न करण तथा मीन लग्न में है अतः कलश स्थापना का मुहूर्त भी 6:01 से 10:16 तक रहेगा | इसके अतिरिक्त जो लोग कुछ विलम्ब से घट स्थापना करना चाहते हैं वे अभिजित मुहूर्त में प्रातः 11:57 से 12:48 तक भी कर सकते हैं | किन्तु साथ ही व्यक्तिगत रूप से घट स्थापना का मुहूर्त जानने के लिए अपने ज्योतिषी से अपनी कुण्डली के अनुसार मुहूर्त ज्ञात करना होगा |

जिस प्रकार किसी भी देश की सरकार के कार्य को विधिवत नियन्त्रित करने के लिए मन्त्रीमण्डल की आवश्यकता होती है उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी नवग्रहों का मन्त्रीमण्डल समस्त ग्रह नक्षत्रों की गतिविधियों को नियन्त्रित करता है | जिस वार से सम्वत्सर का आरम्भ माना जाता है उसी ग्रह को उस वर्ष का आधिपत्य प्राप्त होता है | इस प्रकार विद्वानों की मानें तो इस वर्ष का राजा तथा वित्त मन्त्री मंगल तथा मन्त्री का पद शनिदेव को दिया गया है | इसके अतिरिक्त रक्षा मन्त्रालय तथा जल मन्त्रालय यानी दुर्गेश और मेघेश भी शनि महाराज ही होंगे | धान्येश यानी कृषि मन्त्रालय चन्द्रमा के पास होगा तथा रसेश गुरुदेव होंगे | मंगल के राजा होने के कारण अग्नि आदि का भय रह सकता है तथा सम्भव है वर्षा में भी कमी देखी जाए जिस कारण कृषि व्यवस्था प्रभावित हो सकती है तथा प्रजा के समक्ष कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं | मेघेश शनि होने के कारण भी यह स्थिति प्रतीत होती है | शनि दुर्गेश भी हैं अतः दुर्गों अर्थात् राष्ट्रों के मध्य तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है | सम्भवतः वैश्विक स्तर पर उग्रता की स्थिति दृष्टिगत हो सकती है |

इस वर्ष भगवती का आगमन भी अश्व पर हो रहा है, और हम देख रहे हैं पिछले कुछ वर्षों से माता के नवरात्रि में आगमन तथा प्रस्थान के वाहन का भी विचार किया जाता है । पहले यज्ञ के समय अग्नि के वास पर तो विचार किया जाता था किन्तु माता के वाहन को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता था – क्योंकि वाहन के अतिरिक्त और बहुत से महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर विचार किया जाता है | फिर भी जन साधारण की उत्सुकता निवारण हेतु बता दें कि इस वर्ष माता का आगमन मंगल को हो रहा है अतः अश्व पर सवार होकर आएँगी, जो बहुत शुभ नहीं माना जाता – इसके पीछे सम्भवतः धारणा यह रही होगी कि अश्व पर सवार होकर प्रायः युद्ध यज्ञ में जाया जाता था | यही कारण है कि माता का वाहन यदि अश्व हो तो उसे सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में उथल पुथल का संकेत तथा प्राकृतिक आपदाओं का संकेत माना जाता है | किन्तु ध्यान देने योग्य है कि राजनीतिक उठा पटक तो समस्त विश्व के पटल पर निरन्तर होती ही रहती है, और भारत में तो चुनावों का मौसम है तो निश्चित रूप से राजनीतिक उथल पुथल का समय है | और चुनावों के समय समाज पर भी पूरा प्रभाव पड़ता ही है | रही प्राकृतिक आपदाओं की बात – तो वे भी निरन्तर कहीं न कहीं घटित होती ही रहती हैं | अतः हमारे विचार से इस विषय में चिन्ता की आवश्यकता नहीं है | वैसे भी अश्व की सवारी का एक सकारात्मक पक्ष भी तो है – अश्व पर विजयी जन सवार होते हैं, अश्व तीव्र गति का प्रतीक है – अर्थात तीव्र गति से सुख समृद्धि में वृद्धि भी तो हो सकती है | अश्व उपलब्धियों का, शक्ति का, ऊर्जा का तथा शान्ति का प्रतीक होते हैं | फिर भी यदि आप माता के आगमन के वाहन से चिन्तित हैं तो उसकी आवश्यकता नहीं है – क्योंकि जाते जाते भगवती अच्छी बारिश, सुख समृद्धि तथा हर क्षेत्र में उन्नति का आशीर्वाद देकर जाएँगी – क्योंकि बुधवार 17 अप्रैल को नवरात्रि के समापन पर देवी गज पर आरूढ़ होकर प्रस्थान करेंगी | साथ ही इस वर्ष के ब्रह्माण्ड की संसद में रसेश गुरु और कृषि मन्त्रालय चन्द्रमा के पास होने के कारण परिस्थितियाँ उतनी विकट नहीं होंगी | देवगुरु और चन्द्रमा मिलकर परिस्थियों में सुधार भी कर सकते हैं और बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उथल पुथल के चलते हुए भी सभी प्रकार के खाद्यान्नों और फसलों के उत्पादन में वृद्धि दृष्टिगत हो सकती है | सरकार अनेक लोक कल्याण के कार्य कर सकती है | साथ ही आम जन में धार्मिक आस्था में भी वृद्धि की सम्भावना की जा सकती है | साथ ही इस वर्ष जिस दिन नवरात्र आरम्भ हो रहे हैं उस दिन चन्द्रमा भी अश्वनी नक्षत्र पर है – और मंगलवार को यदि चन्द्रमा अश्वनी नक्षत्र पर आरूढ़ हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है – यह भी एक शुभ संकेत जानना चाहिए | साथ ही पिंगल सम्वत्सर का देवता इन्द्र है जो निश्चित रूप से वर्षा को प्रभावित कर सकता है |

नवरात्रि के महत्त्व के विषय में विशिष्ट विवरण मार्कंडेय पुराण, वामन पुराण, वाराह पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में उपलब्ध होता है | इन पुराणों में देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के मर्दन का उल्लेख उपलब्ध होता है | महिषासुर मर्दन की इस कथा को “दुर्गा सप्तशती” के रूप में देवी माहात्मय के नाम से जाना जाता है | नवरात्रि के दिनों में इसी माहात्मय का पाठ किया जाता है और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है | जिसमें 537 चरणों में सप्तशत यानी 700 मन्त्रों के द्वारा देवी के माहात्मय का जाप किया जाता है | इसमें देवी के तीन मुख्य रूपों – काली अर्थात बल, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा के द्वारा देवी के तीन चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध तथा शुम्भ निशुम्भ वध का वर्णन किया जाता है |

इस वर्ष नवरात्रों की तिथियाँ इस प्रकार हैं…

मंगलवार 9 अप्रैल – चैत्र शुक्ल प्रतिपदा / साम्वत्सरिक नवरात्र आरम्भ / आठ अप्रैल रात्रि 11:50 से नौ अप्रैल को रात्रि 8:30 तक प्रतिपदा तिथि – घट स्थापना मुहूर्त नौ अप्रैल को द्विस्वभाव मीन लग्न में प्रातः छः बजकर एक मिनट से – वैधृति योग, किंस्तुघ्न करण / भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना / गुड़ी पड़वा / युगादि

बुधवार 10 अप्रैल – चैत्र शुक्ल द्वितीया / भगवती के ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना / मत्स्य जयन्ती

गुरुवार 11 अप्रैल – चैत्र शुक्ल तृतीया / भगवती के चन्द्रघंटा रूप की उपासना / गणगौर पूजा / मत्स्य जयन्ती

शुक्रवार 12 अप्रैल – चैत्र शुक्ल चतुर्थी / भगवती के कूष्माण्डा रूप की उपासना / लक्ष्मी पञ्चमी

शनिवार 13 अप्रैल – चैत्र शुक्ल पञ्चमी / भगवती के स्कन्दमाता रूप की उपासना / मेष संक्रान्ति – सूर्य का मेष राशि में संक्रमण रात्रि 9:15 पर / बैसाखी

रविवार 14 अप्रैल – चैत्र शुक्ल षष्ठी / भगवती के कात्यायनी रूप की उपासना / विशु / यमुना षष्ठी

सोमवार 15 अप्रैल – चैत्र शुक्ल सप्तमी / भगवती के कालरात्रि रूप की उपासना / पोहिला बैसाख

मंगलवार 16 अप्रैल – चैत्र शुक्ल अष्टमी / भगवती के महागौरी रूप की उपासना

बुधवार 17 अप्रैल – चैत्र शुक्ल नवमी / भगवती के सिद्धिदात्री रूप की उपासना / रामनवमी / स्वामी नारायण जयन्ती

माँ भगवती अपने नवरूपों में सभी का कल्याण करें… सभी को नव सम्वत्सर तथा नवरात्र की अग्रिम रूप से हार्दिक शुभकामनाएँ…

 

 

शीतला सप्तमी और अष्टमी 2024

शीतला सप्तमी और अष्टमी 2024

चैत्र कृष्ण सप्तमी और अष्टमी को उत्तर भारत में – विशेष रूप से राजस्थान और उत्तर प्रदेश में – शीतला माता की पूजा की जाती है | कुछ स्थानों पर यह पूजा सप्तमी को होती है और कुछ स्थानों पर अष्टमी को | वैसे शीतला देवी की पूजा अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समय की जाती है | उदाहरण के लिए बंगाली समाज में माघ शुक्ल पँचमी को सरस्वती पूजा के बाद दूसरे दिन यानी माघ शुक्ल षष्ठी को शीतला षष्ठी मनाई जाती है | इस दिन 6 प्रकार की सब्जियों को एक साथ उबालकर खाने का नियम है | शीतला षष्ठी के नाम से सरस्वती पूजा के दिन इस खाने को पकाया जाता है और अगले दिन ठण्डा करके खाया जाता है | आप इसे बासी भोजन कह सकते हैं | अधिकतर बंगाली पर‍िवारों में उस दिन चूल्‍हा नहीं जलता | यहां तक क‍ि‍ सिलबट्टा पर भी कोई चीज पीसी नहीं जा सकती | इस दिन प्रातःकाल विधि-विधान के साथ घरों में सील लोढ़ा (सिलबट्टे) और चूल्हे की भी पूजा की जाती है | ऐसी मान्यता है कि क्योंकि यह यह शीतल षष्ठी होती है, इसलिए गर्म भोजन नहीं, बल्‍क‍ि एक दिन पहले पका हुआ शीतल भोजन ग्रहण करना चाहिए | कहीं वैशाख कृष्ण अष्टमी को तो कहीं चैत्र कृष्ण सप्तमी-अष्टमी को इस पर्व को मनाया जाता है | कुछ स्थानों पर होली के बाद प्रथम सोमवार अथवा बुधवार को शीतला माता की पूजा का विधान है | गुजरात में श्री कृष्ण जन्माष्टमी से एक दिन पूर्व “शीतला सतम” नाम से इस पर्व को मनाया जाता है | किन्तु चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को शीतला पूजा का विशेष महत्त्व है |

इस वर्ष रविवार 31 मार्च को रात्रि 9:31 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और व्यातिपत योग में सप्तमी तिथि का आगमन हो रहा है जो सोमवार पहली अप्रैल को रात्रि नौ बजकर नौ मिनट तक रहेगी और उसके बाद अष्टमी तिथि लग जाएगी जो मंगलवार रात्रि आठ बजकर आठ मिनट तक रहेगी | गुरूवार को सूर्योदय 6:20 पर तथा सूर्यास्त 6:34 पर हो रहा है | अतः इस मध्य किसी भी समय शीतला सप्तमी की पूजा की जा सकती है | जो लोग अष्टमी को शीतला देवी की पूजा करते हैं वे भी शुक्रवार को प्रातः 6:20 से 6:34 के मध्य किसी भी समय शीतला अष्टमी की पूजा कर सकते हैं | इस प्रकार उदया तिथि होने के कारण सप्तमी को शीतला माता की पूजा सोमवार पहली अप्रैल को की जाएगी और अष्टमी को जो लोग शीतला माता की पूजा करते हैं वे मंगलवार को करेंगे |

हमें स्मरण है कि हमारे श्वसुरालय ऋषिकेश और पैतृक नगर नजीबाबाद में शीतला माता के मन्दिर हैं | जब वहाँ होली के बाद आने वाली शीतलाष्टमी को शीतला माता के मन्दिर पर मेला भरा करता था तथा वहाँ मन्दिर में जो कुछ भी माता को अर्पित किया जाता था वह सफ़ाई कर्मचारी को सम्मानपूर्वक दिया जाता था तथा उनका आशीर्वाद भी लिया जाता था | ये सब एक सामाजिक समभाव की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया तो थी ही, साथ ही यह मेला बड़ों के लिए एक ओर जहाँ शीतला माता की पूजा अर्चना का स्थान होता था वहीं हम बच्चों के लिए मनोरंजन का माध्यम होता था |

शीतला माता का उल्लेख स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | इसके लिए पहले दिन सायंकाल के समय भोजन बनाकर रख दिया जाता है और अगले दिन उस बासी भोजन का ही देवी को भोग लगाया जाता है और उसी को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है | इसका कारण सम्भवतः यही रहा होगा कि इसके बाद ऐसा मौसम आ जाता है जब भोजन बासी बचने पर खराब हो जाता है और उसे फिर से उपयोग में नहीं लाया जा सकता | और इसी कारण से कुछ स्थानों पर इसे “बासडा” अथवा “बसौड़ा” भी कहा जाता है | इस दिन लोग लाल वस्त्र, कुमकुम, दही, गंगाजल, कच्चे अनाज, लाल धागे तथा बासी भोजन से माता की पूजा करते हैं | शीतला देवी की पूजा मुख्य रूप से ऐसे समय में होती है जब वसन्त के साथ साथ ग्रीष्म का आगमन हो रहा होता है | चेचक आदि के संक्रमण का भी मुख्य रूप से ऋतु परिवर्तन का यही समय होता है |

शीतला माता का वाहन गर्दभ को माना जाता है तथा इनके हाथों में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते रहते हैं | इन सबका भी सम्भवतः यही प्रतीकात्मक महत्त्व रहा होगा कि इस ऋतु में प्रायः व्यक्तियों को चेचक खसरा जैसी व्याधियाँ हो जाती थीं | रोगी तीव्र ज्वर से पीड़ित रहता था और उस समय रोगी की हवा करने के लिए सूप ही उपलब्ध रहा होगा | नीम के पत्तों के औषधीय गुण तो सभी जानते हैं – उनके कारण रोगी के छालों को शीतलता प्राप्त होती होगी तथा उनमें किसी प्रकार के इन्फेक्शन से भी बचाव हो जाता होगा | स्कन्द पुराण में शीतला माता की पूजा के लिए शीतलाष्टक भी उपलब्ध होता है | वैसे शीतला देवी की पूजा करते समय निम्न मन्त्र का जाप किया जाता है:

वन्देsहम् शीतलां देवीं रासभस्थान्दिगम्बराम् |

मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम् ||

अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश और मस्तक पर सूप का मुकुट धारण करने वाली भगवती शीतला की हम वन्दना करते हैं | इस मन्त्र से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि शीतला देवी स्वच्छता की प्रतीक हैं – हाथ में झाडू तथा सफ़ाई कर्मचारियों का सम्मान और उन्हें मन्दिर के पुजारी के समान पूजा की वस्तुएँ समर्पित करना इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि एक ओर तो हम सबको स्वच्छता के प्रति जागरूक और कटिबद्ध होना चाहिए, क्योंकि चेचक, खसरा तथा अन्य भी सभी प्रकार के संक्रमणों का मुख्य कारण तो गन्दगी ही है, तो वहीं दूसरी ओर पुरुष सूक्त की इस भावना की भी पुष्टि करता है कि सभी मनुष्य ईश्वर का अंश हैं, उनकी सामर्थ्य के अनुसार वे संसार के सकुशल संचालन में अपना अपना योगदान देते हैं अतः सभी एक समान सम्मान के अधिकारी हैं | साथ ही, समुद्रमन्थन से उद्भूत हाथों में कलश लिए आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरी की ही भाँति शीतला माता के हाथों में भी कलश होता है, सम्भवतः इस सबका अभिप्राय यही रहा होगा कि स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति जन साधारण को जागरूक किया जाए, क्योंकि जहाँ स्वच्छता होगी वहाँ स्वास्थ्य उत्तम रहेगा, और स्वास्थ्य उत्तम रहेगा तो समृद्धि भी बनी रहेगी | सूप का भी यही तात्पर्य है कि परिवार धन धान्य से परिपूर्ण रहे |

देवी का नाम भी सम्भवतः इसी लोकमान्यता के कारण शीतला पड़ा होगा कि शीतला देवी की उपासना से दाहज्वर, पीतज्वर, फोड़े फुन्सी तथा चेचक और खसरा जैसे रक्त और त्वचा सम्बन्धी विकारों तथा नेत्रों के इन्फेक्शन जैसी व्याधियों में शीतलता प्राप्त होती है और ये व्याधियाँ निकट भी नहीं आने पातीं | आज के युग में भी शीतला देवी की उपासना स्वच्छता की प्रेरणा तथा उत्तम स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और सामाजिक समभाव के दृष्टिकोण से सर्वथा प्रासंगिक प्रतीत होती है… अतः हम सभी अपने चारों ओर स्वच्छता का ध्यान रखें, स्वस्थ रहें तथा सभी प्रकार के ऊँच नीच के भेद को दूर कर सबको एक समान समझें… यही कामना है…

 

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

शनिवार 16 मार्च को रात्रि 9:39 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और आयुष्मान योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ हो रहा है जो 17 मार्च को रात्रि 9:53 तक रहेगी | अतः 17 मार्च से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे जो रविवार 24 मार्च को होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाएँगे | पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 24 मार्च को प्रातः 9:55 पर विष्टि करण और गण्ड योग में होगा और 25 मार्च दिन में 12:29 पर समाप्त हो जाएगी और फिर रंगों की बरसात करती होली – धुलहाँडी – आ जाएगी | 24 मार्च को पूर्णिमा के उदय के साथ ही विष्टि करण यानी भद्रा का भी उदय हो रहा है जो रात्रि 11:13 तक रहेगी |

देखा जाए तो प्रत्येक वर्ष या दो वर्ष के अन्तराल में भद्रा होलिका दहन की अवधि में आती ही है | प्रश्न यह है कि भद्रा को कितना महत्त्व दिया जाना चाहिए | विद्वानों का मानना है कि भद्रा काल में यद्यपि होलिका दहन निषिद्ध माना जाता है, किन्तु फिर भी यदि अर्द्ध रात्रि के बाद भी भद्रा रहे और दूसरे दिन दोपहर तक ही प्रतिपदा तिथि आ जाए तो पूर्णिमा तिथि रहते हुए भद्रा पुच्छ काल में ही होलिका दहन कर दिया जाता है – भद्रा मुख में नहीं किया जाता – निशीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव | भद्रा को भगवान सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहन माना गया तथा अत्यन्त उग्र स्वभाव माना गया है | साथ ही यह भी विचार करना आवश्यक है कि चन्द्रमा उस समय किस राशि में विचरण कर रहा है | यदि चन्द्रमा का संचरण कन्या, तुला अथवा धनु राशि में हो रहा हो तो वह भद्रा पाताल में वास करती है तथा धन धान्य और प्रगति प्रदान करती है, अर्थात् मंगलकारी होती है | 24 मार्च को सूर्यास्त 6:34 पर है अतः उससे 45 मिनट पूर्व से 45 मिनट बाद का समय प्रदोष काल है – अर्थात् सायं 5:49 से 6:45 तक का समय प्रदोष काल है और भद्रा का पुच्छ काल है | साथ ही दोपहर 2:21 से चन्द्रमा का संचार भी कन्या राशि में हो जाएगा | इसके अतिरिक्त 25 मार्च को दिन में 12:29 पर प्रतिपदा तिथि आएगी | अतः प्रदोष काल में भद्रा पुच्छ के साथ होलिका दहन किया जाएगा | और यदि भद्रा मुक्त काल में होलिका दहन करना है तो भद्रा की समाप्ति पर रात्रि ग्यारह बजकर तेरह मिनट से लेकर वृश्चिक लग्न की समाप्ति – अर्ध रात्रि में बारह बजकर 39 मिनट तक – रहेगा |

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक आरम्भ होने के साथ ही होली के पर्व का भी आरम्भ हो जाता है | इसे “होलाष्टक दोष” की संज्ञा भी दी जाती है और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | विद्वान् पण्डितों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, भवन निर्माण आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |

फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को होलिका दहन के स्थान को गंगाजल से पवित्र करके होलिका दहन के लिए दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों की कटाई न करनी पड़े | इस प्रकार देखा जाए तो होलाष्टक होली के रंग पर्व के आगमन के सूचक भी होते हैं |

पौराणिक मान्यता ऐसी भी है कि तारकासुर नामक असुर ने जब देवताओं पर अत्याचार बढ़ा दिए तब उसके वध का एक ही उपाय ब्रह्मा जी ने बताया, और वो ये था कि भगवान शिव और पार्वती की सन्तान ही उसका वध करने में समर्थ हो सकती है | तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए घोर तप का आरम्भ कर दिया | किन्तु शिव तो दक्ष के यज्ञ में सती के आत्मदाह के पश्चात ध्यान में लीन हो गए थे | पार्वती से उनकी भेंट कराने के लिए उनका उस ध्यान की अवस्था से बाहर आना आवश्यक था | समस्या यह थी कि जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का दुस्साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थी – भगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | इसी के प्रतीक स्वरूप होलाष्टक के दिनों में कोई शुभ कार्य करने की मनाही होती है |

वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |

अतः, मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा तो व्याप्त होती ही है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में चारों ओर से पड़ रही रंगों की बौछारों को भूलकर ब्याह शादी, भवन निर्माण या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा…

इन सभी मान्यताओं का कोई वैदिक, ज्योतिषीय अथवा आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है, केवल धार्मिक आस्थाएँ और लौकिक मान्यताएँ ही इस सबका आधार हैं – और इनका पालन करना सामाजिक जीवन के लिए – सामाजिक सम्बन्धों के लिए – अनुकूल होता ही है | तो क्यों न होलाष्टक की इन आठ दिनों की अवधि में स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ व्यतीत किया जाए…

रंगों के पर्व की अभी से रंग और उल्लास से भरी हार्दिक शुभकामनाएँ…