सर्वपितृ अमावस्या और महालया 2024
आश्विनअमावस्याअर्थातबुधवार 2 अक्टूबर को पितृविसर्जनी अमावस्या है, समस्त हिन्दू धर्मावलम्बी इस दिन पितृपक्ष का समापन करेंगे और उसके दूसरे दिन अर्थात अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को घट स्थापना के साथ शारदीय अथवा आश्विन नवरात्रों का आरम्भ हो जाएगा | कैसा सुखद संयोग है कि पितृपक्ष के समापन के साथ ही आरम्भ हो जाती है नवरात्रों की चहल पहल | इसे महालया भी कहा जाता है | महालया शब्द का अर्थ ही होता है महान आलय अर्थात आवास – एक ही दिन पितरों के विसर्जन और महालया का भाव ही यह है कि समस्त पितृगण अपने महान अर्थात शाश्वत आवास के लिए प्रस्थान करें और माँ भगवती अपने नौ रूपों के साथ अपने महान आवास से पृथिवी पर विराजित हों… यही कारण है कि नवरात्रों के लिए दुर्गा प्रतिमा बनाते समय महालया के ही दिन देवी की आँखें बनाई जाती हैं और पितरों को विसर्जित करके धूम धाम से उत्सव मनाया जाता है…
भारतमेंपूर्वजपूजाकीप्रथाअत्यन्तप्राचीनहै | वैदिक काल से ही यह प्रथा चली आ रही है | विभिन्न देवी देवताओं के सम्बोधन तथा सम्मान के लिए उच्चरित बहुत सी वैदिक ऋचाओं में से अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं | पितरों का आह्वाहन किया जाता है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके अपराधों के लिए उन्हें क्षमा करें तथा अपने वंशजों को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें | साथ ही अग्निदेव से प्रार्थना की जाती है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो | अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर दिवंगत आत्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें | ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है | स्वर्ग के आवास में पितृगण परम शक्तिमान एवं आनन्दमय रूप धारण करें तथा पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि का अनुभव करें इसी हेतु पिंडदान तथा आहुतियाँ आदि देने की प्रथा है | दिवंगत पूर्वजों के प्रति सम्मान के कारण ही पितृपक्ष को समस्त हिन्दू समाज एक उत्सव के रूप में मनाता है और इसे श्राद्ध पर्व का नाम दिया जाता है |
दार्शनिकदृष्टिकोणसेदेखाजाएतोसमस्तभारतीयदर्शनमनुष्यमेंआध्यात्मिकतत्वकीअमरताकापक्षधरहै | आत्मा किसी शारीरिक आकार में प्रतिष्ठित होती है और इस आकार के माध्यम से ही आत्मा का संसरण अर्थात मोक्ष भी सम्भव है, क्योंकि कर्म तो शरीर के माध्यम से ही किया जा सकता है, फिर चाहे वह किसी भी योनि में हो | असंख्य जन्म और मरण के पश्चात आत्मा पुनरावृत्ति से मुक्त हो जाती है | यद्यपि आत्मा के संसरण का मार्ग पूर्व कर्मों द्वारा निश्चित होता है तथापि वंशजों द्वारा सम्पन्न श्राद्धकर्म का इसमें बहुत बड़ा योगदान माना गया है | बौद्ध धर्म में दो जन्मों के बीच एक अन्तःस्थायी अवस्था की कल्पना की गई है जिसमें आत्मा के संसरण का रूप पूर्वकर्मानुसार निर्धारित होता है | पुनर्जन्म में विश्वास हिन्दू, बौद्ध तथा जैन तीनों चिन्तन प्रणालियों में पाया जाता है | हिन्दू दर्शन की चार्वाक पद्धति को इसका अपवाद कहा जा सकता है |
इससबकोलिखनेकाएकमात्रअभिप्राययहीहैकिपितृकर्मतथापिण्डदानऔरतर्पणआदिक्रियाएँवैदिककालसेहिन्दुओंकेदैनिककर्मकाण्डकाअंगरहीहैं | हाँ, इस विषय में बहुत सी पौराणिक कथाएँ और मान्यताएँ उपलब्ध हैं, क्योंकि जन साधारण को इन समस्त क्रियाओं का महत्त्व समझाने के लिए इन कथाओं को दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत करने की अत्यन्त आवश्यकता थी |
जैसा कि सभी जानते हैं, अनन्त चतुर्दशी – जिसमें भगवान विष्णु के ही एक रूप अनन्त भगवान की पूजा अर्चना की जाती है – के बाद भाद्रपद पूर्णिमा से श्राद्ध पक्ष का आरम्भ हो जाता है | यों तो आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से पितृपक्ष का आरम्भ माना जाता है, किन्तु जिनके प्रियजन पूर्णिमा को परलोकगामी हुए हैं उनका श्राद्ध एक दिन पूर्व अर्थात भाद्रपद पूर्णिमा को करने का विधान है | इस प्रकार इन सोलह दिवसों तक लगभग समस्त हिन्दू समुदाय अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित करता है | उनकी स्मृति में भोज कराए जाते हैं – और ये भोज केवल मानव मात्र के निमित्त ही नहीं किये जाते, अपितु पृथिवी पर निवास कर रहे समस्त जीव जन्तुओं के लिए भी ग्रास निकालने की प्रथा इस अवसर पर है – चाहे वह काग हो, गौ हो, चींटी इत्यादि अन्य प्रकार के कीड़े मकोड़े हों – सभी के लिए ग्रास निकाले जाते हैं | साथ ही दिवंगत पूर्वजों के निमित्त अग्नि में आहुति दी जाती है | कितनी उदात्त भावना रही होगी हमारे ऋषि मुनियों की – हमारे पूर्वजों की – कि वर्ष का पूरा एक पक्ष ही पितृगणों के लिये समर्पित कर दिया | इन पन्द्रह दिनों में कोई अन्य कार्य न करके केवल विधि विधान पूर्वक श्राद्धकर्म किया जाता है |
शास्त्रोंकेअनुसारश्राद्धकर्मकरनेकाअधिकारीकौनहै, विधान क्या है आदि चर्चा में हम नहीं पड़ना चाहते, इस कार्य के लिये पण्डित पुरोहित हैं | पण्डित लोगों का तो कहना है और शास्त्रों में भी लिखा हुआ है कि श्राद्ध कर्म पुत्र द्वारा किया जाना चाहिये | प्राचीन काल में पुत्र की कामना ही इसलिये की जाती थी कि अन्य अनेक बातों के साथ साथ वह श्राद्ध कर्म द्वारा माता पिता को मुक्ति प्रदान कराने वाला माना जाता था “पुमान् तारयतीति पुत्र:” | लेकिन जिन लोगों के पुत्र नहीं हैं उनकी क्या मुक्ति नहीं होगी, या उनके समस्त कर्म नहीं किये जाएँगे ? तो इस प्रकार का तर्क वितर्क हमारा विषय नहीं है | हम तो बात कर रहे हैं इस श्राद्ध पर्व की मूलभूत भावना श्रद्धा की – जो भारतीय संस्कृति की नींव में ही निहित है |
वास्तवमेंश्राद्धप्रतीकहैपूर्वजोंकेप्रतिसच्चीश्रद्धाका | हिन्दू मान्यता के अनुसार प्रत्येक शुभ कर्म के आरम्भ में माता पिता तथा पूर्वजों को प्रणाम करना चाहिये | यद्यपि अपने पूर्वजों को कोई विस्मृत नहीं कर सकता, किन्तु फिर भी दैनिक जीवन में अनेक समस्याओं और व्यस्तताओं के चलते इस कार्य में भूल हो सकती है | इसीलिये हमारे ऋषि मुनियों ने वर्ष में पूरा एक पक्ष इस निमित्त रखा हुआ है |
श्राद्धशब्दकासामान्यअर्थहैश्रद्धापूर्वककियागयाकर्म – “संपादन: श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम् |” जिस कर्म के द्वारा मनुष्य “अहं” अर्थात “मैं” का त्याग करके समर्पण भाव से “पर” की चेतना से युक्त होने का प्रयास करता है वही वास्तव में श्रद्धा का आचरण है | श्रद्धा का आचरण करता हुआ व्यक्ति समष्टि भाव को प्राप्त हो जाता है तथा समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखता है | श्रद्धावान व्यक्ति उदारमना, करुणाशील, मैत्री तथा कृतज्ञता के भाव से युक्त तथा दानशील होता है | और यही कारण है कि ऐसे व्यक्ति की भावना समस्त जीवों के प्रति आत्मौपम्य की हो जाती है – अर्थात उसे हर प्राणी में – हर जीव में – अपनी आत्मा ही जान पड़ती है | अपने पूर्वजों के प्रति इसी प्रकार की श्रद्धा के साथ दिया गया दान श्राद्ध कहलाता है – “श्रद्धया दीयते यस्मात्तस्माच्छ्राद्धम् निगद्यते |” इस प्रकार श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है और यही कारण है कि श्रद्धा और श्राद्ध में घनिष्ठ सम्बन्ध है | वैसे भी देखा जाए तो श्रद्धा रहित कोई भी कर्म करने से दम्भ में वृद्धि होती है तथा कर्म में कुशलता का अभाव रहता है | अतः श्रद्धा तो दैनिक जीवन की मुख्य आवश्यकता है | माता पिता के प्रति श्रद्धा हमें विनम्र बनाती है तो गुरु के प्रति श्रद्धा हमें ज्ञानवान बनाती है – क्योंकि तब हम संशय रहित और समर्पण भाव से गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं | समस्त चराचर सृष्टि के प्रति यदि श्रद्धा का भाव मन में दृढ़ हो जाए तो मनुष्य किसी भी प्रकार के अनाचार अन्य जीव के साथ कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी श्रद्धा उसे अन्य जीवों के प्रति उदारमना बना देती है | गीता में कहा गया है “श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय:, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति, नायंलोकोsस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः ||” (4/39,40) – अर्थात आरम्भ में तो दूसरों के अनुभव से श्रद्धा प्राप्त करके मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उस ज्ञान को आचरण में लाने में तत्पर हो जाता है तो उसे श्रद्धाजन्य शान्ति से भी बढ़कर साक्षात्कारजन्य शान्ति का अनुभव होता है | किन्तु दूसरी ओर श्रद्धा रहित और संशय से युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है | उसके लिये न इस लोक में सुख होता है और न परलोक में |
इसप्रकारश्रद्धावानहोनाचारित्रिकउत्थानका, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का एक प्रमुख सोपान है | और जिस राष्ट्र के परिवार तथा समाज की नींव सुदृढ़ होगी उस राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता | साथ ही, पितृजनों के प्रति श्रद्धायुत होकर दान करने से तो निश्चित रूप से अपार शान्ति का अनुभव होता है तथा शास्त्रों की मान्यता के अनुसार लोक परलोक संवर जाता है | इसलिये इस श्राद्धपक्ष का इतना महत्व हिन्दू मान्यता में है | और इस श्राद्धपक्ष के समापन अर्थात पितृ विसर्जन के साथ ही आरम्भ हो जाता है माँ दुर्गा की उपासना का पर्व नवरात्र | जैसा पूर्व में भी लिखा है, इस दिन को महालया के नाम से भी जाना जाता है – पितृपक्ष का अन्तिम दिन अर्थात् पितरों को विदा करके माँ दुर्गा के आह्वाहन का दिन | एक ओर अन्तिम श्राद्ध और दूसरी ओर माँ दुर्गा की पूजा अर्चना का आरम्भ | पितरों को श्रद्धा सहित अन्तिम तर्पण करके उन्हें विदा किया जाता है और इसी के साथ आरम्भ हो जाती है महिषासुरमर्दिनी के मन्त्रोच्चार के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना | आश्विन नवरात्रों की धूम मच जाती है | जगह जगह देवी के पण्डाल सजते हैं जहाँ दिन दिन भर और देर रात तक माँ दुर्गा की पूजा का उत्सव चलता रहता है नौ दिनों तक, जिसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ किया जाता है |
अस्तु, आश्विन अमावस्या – जिसे पितृविसर्जनी अमावस्या भी कहा जाता है – अर्थात महालया के अवसर पर – गायत्री मन्त्र के साथ
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः |
सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे ||
ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां |
सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||
इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः |
वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ||
इनमन्त्रोंकाइसभावनाकेसाथकिहमारेनिमन्त्रणपरहमारेपूर्वजजिसभीलोकसेपधारेथे – हमारे स्वागत सत्कार से प्रसन्न होने के उपरान्त अब अपने उन्हीं लोकों को वापस जाएँ और सदा हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रहें – श्रद्धापूर्वक जाप करते हुए हम सभी अपने पूर्वजों को विदा करें और महालया के साथ देवी के आगमन के उत्सव का आरम्भ करें…