Category Archives: अध्यात्म

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

आज वैशाख शुक्ल सप्तमी – यानी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज माँ गंगा का जन्मोत्सव है – गंगा सप्तमी | कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने राक्षसों के उत्पात से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हुए उनका पद प्रक्षालन किया और उस जल को अपने कमण्डल में भर लिया, जिससे बाद में गंगा जी की उत्पत्ति हुई | ऐसी भी मान्यता है कि गंगा सप्तमी के दिन माँ गंगा ने भगवान विष्णु के चरण प्रक्षालित करके उनके चरणों में स्थान प्राप्त किया था | राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्त करने के लिए गंगा जी को पृथिवी पर लाने हेतु कठोर तपस्या की जिसके परिणामस्वरूप गंगा सप्तमी के दिन ब्रह्मा जी ने गंगा जी को अपने कमण्डल से मुक्त किया और माँ गंगा नीचे की ओर तीव्र वेग से दौड़ पड़ीं | क्योंकि बहुत समय से कमण्डल के भीतर बन्द थीं और अब उन्हें कुछ स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी तो उनके भीतर बहुत अधिक उद्वेग था – बहुत अधिक आवेग था – बहुत अधिक उमंग थी – और उसी के कारण उनसे प्रमाद हो गया और वे तीव्र वेग से नीचे आने लगीं | उनका प्रवाह इतना अधिक तीव्र था कि मार्ग में आने वाली हर वस्तु को अपने साथ बहा लिए जा रही थीं | जब भगवान ने यह सब देखा तो उन्होंने गंगा को शान्त करने के लिए अपनी जटाओं में जकड़ लिया और गंगा दशहरा अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तक गंगा जी वहीं बन्द रहीं | भगीरथ अब चिन्तित हो गाए और पुनः उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की कि अब तो उन्हें अपनी जटाओं के बन्धन से मुक्त करें | गंगा जी शंकर जी की जटाओं में शनैः शनैः शान्त होने लगी थीं और शंकर भगवान ने भगीरथ की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गंगा जी को अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया |

जब वे शंकर जी की जटाओं से मुक्त हुईं तो उनमें पुनः वही आवेग आदि आ गया कि मैं तो अब मुक्त हूँ और कुछ भी कर सकती हूँ | और पुनः उसी तीव्र वेग से नीचे उतरती हुई वे अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को – हर प्राणी को अपने प्रवाह के साथ बहाती आगे बढ़ने लगीं | मार्ग में जानू ऋषि का आश्रम पड़ता था | उन्होंने उनका सारा आश्रम भी ध्वस्त कर दिया | जानू ऋषि को क्रोध आया और उन्होंने गंगा का सारा जल पीकर उन्हें सुखा दिया | अब तो सारी पृथिवी पर – सारे लोकों में हाहाकार मच गया | धरा व्याकुल हो गई कि उनकी बहन उनसे मिलने के लिए – उन्हें रसापलावित करने के लिए – नीचे आ रही थी – लेकिन उन्हें पहले तो शंकर भगवान ने उन्हें जटाओं में बाँध लिया, फिर जानू ऋषि ने उनका सारा जल सुखा दिया | अब मैं कैसी मिलूँगी अपनी भगिनी से | तब सारे देवों ने – समस्त लोकों के प्राणियों ने मिलकर जानू ऋषि से प्रार्थना की तब उन्होंने अपने एक कान से गंगा जी को छोड़ा एक पतली धारा के रूप में ताकि उनका प्रवाह नियंत्रित रहे | अब तक उन्हें शिक्षा मिल चुकी थी की मुझे उन्माद में नहीं आना है और वे पूरे शान्त भाव से नीचे उतर आईं |

ये समस्त कथाएँ या तो पौराणिक हैं अथवा लोक मान्यताओं पर आधारित हैं | किन्तु जैसा कि हम प्रायः कहते हैं कि भारतवर्ष का कोई भी पर्व अथवा त्यौहार ऐसा नहीं है जो अकारण हो अथवा जिसमें कोई सन्देश न निहित हो | यहाँ इस पूरे कथानक को देखें समझें तो ज्ञात होता है कि यह सब प्रतीकात्मक है | जल की अधोगति होती है ऊर्ध्व गति नहीं होती – सदा नीचे की ओर ही प्रवाहित होता है | नर्मदा को छोड़कर शेष सारी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं | तो पहली समस्या तो है जल की अधोगति – अधोगति होने पर किसी भी प्रकार का प्रमाद सम्भव है – अथवा ऐसे भी क़ाह सकते हैं कि जब व्यक्ति प्रमाद स्वरूप अपने कर्तव्य कर्म को भुला बैठता हाँ और आवेग अथवा अहंकार में आ जाता है तो उसकी अधोगति निश्चित है | किन्तु वही जब पुनः अपने मार्ग पर लौट आता है शान्त भाव से तो स्वयं स्थिर रहते हुए अन्य जनों को भी स्थिरता और शान्ति प्रदान करता है |

उसके बाद इस कहानी से जो तथ्य स्पष्ट होता है वह यह कि गंगा जी यदि जानू तक अर्थात् घुटने तक रहें तब तक तो ठीक है, लेकिन जितना अधिक वे तीव्र बहाव के साथ चढ़ती जाएँगी और आगे बढ़ती जाएँगी तो वे प्रलय का – बाढ़ का कारण बन जाएँगी | घुटनों तक रहने का अभिप्राय है विनम्रता का भाव रहना | अतः मनुष्य में विनम्रता का भाव सदैव विद्यमान रहना चाहिए | साथ ही एक शिक्षा भी, कि माना वो जन कल्याण के लिए नीचे आ रही थीं, अपनी भगिनी वसुधा से मिलने के लिए नीचे आ रही थीं, बहुत समय बाद उनसे मिल रही थीं तो मन में एक उत्साह था, उमंग थी, भगिनी का प्रेम था, किन्तु प्रेम में यदि उन्माद आ जाए, प्रेम में यदि प्रमाद आ जाए, प्रेम में यदि अहंकार आ जाए, आवेग आ जाए, तो वह प्रेम या तो शकुन्तला के प्रेम की भाँति ऋषि श्राप से विस्मृत कर दिया जाता है अथवा बार बार बंधनों में जकड़ जाता है या उसके रस को सुखा दिया जाता है – भस्म कर दिया जाता है | स्वतन्त्रता का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि मनुष्य अपनी मर्यादा भूल जाए | अतः हमें अपनी मर्यादा नहीं भूलनी चाहिए – अपनी सीमाओं का ध्यान सदैव रखना चाहिए – तभी हम पथ भ्रष्ट होने से बच सकते हैं तथा बहुत सी समस्याओं से मुक्त रह सकते हैं | गंगा नदी अपने तीव्र वेग के कारण इतने सारे व्यवधानों को पार करके शान्त भाव से धरा पर उतरीं तभी तो उनके अमृत तुल्य जल में स्नान करने से – उसका आचमन करने से – त्रिविध तापों से मुक्ति प्राप्त होती है, समस्त प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक पापों से मुक्ति प्राप्त होती है |

गंगा सप्तमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

कल समूचा राष्ट्र एक महान और गौरवशाली घटना का साक्षी बनने जा रहा है – भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा – जिसके बाद वह प्रस्तर प्रतिमा “विग्रह” बन जाएगी | लगभग हर व्यक्ति अपनी अपनी सामर्थ्य और योग्यता इत्यादि के अनुसार इस आनन्द का अनुभव कर रहा है | ऐसे ही कुछ लोग तरह तरह से भगवान श्री राम के चित्र, रंगोली, मूर्तियाँ इत्यादि भी गढ़ कर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं | आज ही एक मूर्ति सोशल मीडिया पर वायरल हुई जिसमें एक लड़की ने घर में उपलब्ध टीन के कनस्तर इत्यादि से बड़ी ख़ूबसूरती से भगवान श्री राम की मूर्ति बनाकर पोस्ट की और उस पर कुछ लोगों ने उस लड़की की आलोचना भी आरम्भ कर दी कि ऐसा करना भगवान का अपमान करना है और इसकी पूजा नहीं की जा सकती | तो सर्वप्रथम तो हम उन आलोचकों से निवेदन करना चाहेंगे कि वह मूर्ति उस लड़की ने केवल अपने आनन्द की अभिव्यक्ति के लिए बनाई थी और उसकी पूजा करना उसका उद्देश्य था ही नहीं | क्योंकि किसी भी मूर्ति को यदि पूजा अर्चना के लिए उपयुक्त बनाना है तो पहले उसमें प्राण प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता होती है – जिसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि के मार्ग पर चलने की आवश्यकता होती है – जिस प्रकार इन दिनों हमारे आदरणीय प्रधानमन्त्री जी यम नियम का पालन कर रहे हैं | किसी ने सुझाव दिया इस विषय पर कुछ लिखने का, तो आइए आज इसी विषय पर बात करते हैं | आगे बढ़ने से पूर्व एक बात स्पष्ट कर दें कि इस लेख की लेखिका मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के विधान की ज्ञाता नहीं है, केवल अपने पिताजी और विद्वज्जनों से जो कुछ ज्ञात हुआ है उसे ही यहाँ लिखने का प्रयास कर रही है, अतः यदि कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए आरम्भ में ही क्षमा याचना करते हैं… |

प्राण प्रतिष्ठा केवल एक रीति अथवा आडम्बर मात्र नहीं है, अपितु यह एक अत्यन्त प्रभावशाली कार्य है क्योंकि प्रतिष्ठा करने वाला व्यक्ति उस मूर्ति में मन्त्र जाप इत्यादि के माध्यम से इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न कर देता है – यहाँ तक कि अपने प्राणों की ऊर्जा तक उसमें प्रेषित कर देता है कि जब यह अनुष्ठान पूर्ण होता है तो मूर्ति से निसृत ऊर्जा प्रतिष्ठा करने वाले व्यक्ति तथा वहाँ उपस्थित समस्त जन समूह को भी प्रभावित कर देती है | हम जब दुर्गा पूजा अथवा गणपति पूजा के समय अपने घरों में मूर्ति लेकर आते हैं पूजा के लिए तो अनुष्ठान के आरम्भ में यज्ञ में आहुति समर्पित करते हुए मंत्रोच्चार किया जाता है “मनो जूतिर्जुषतामज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं, तनोत्वरितष्टं यज्ञSघ्वँ समिम दधातु विश्वेदेवास इह मादयन्तामोSम्प्रतिष्ठ ||” (यजुर्वेद 2/13 ) अर्थात्, ही सविता देव आपका वेगमान मन इस आज्य अर्थात् घृत का सेवन करे, बृहस्पति देव इस यज्ञ को सभी प्रकार के अनिष्ट से रहित करते हुए इसका विस्तार करें और इसे धारण करें तथा सभी दिव्य शक्तियाँ प्रतिष्ठित होकर आनन्दित और सन्तुष्ट हों | तथा, “अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च | अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ||” अर्थात्, इस देव प्रतिमा के प्राण यहाँ प्रतिष्ठित हों, इसमें नित्य प्राणों का सँचार होता रहे, अर्चना हेतु इसके दैवत्व कि महानता को कम नहीं समझना चाहिए – यह बहुत महान है | इत्यादि मन्त्र बोलकर सर्व प्रथाम उस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है ताकि सम्बन्धित देवता की मूर्ति में इतनी ऊर्जा उत्पन्न हो जाए कि वह अनुष्ठान निर्विघ्न सम्पन्न हो सके | और आपने देखा भी होगा कि अनुष्ठान की उस अवधि में साधक के तन मन में ऊर्जा का पूर्ण प्रवाह बना रहता है | और ऐसा केवल मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा तक ही सीमित नहीं है – जब एक गुरु अपने शिष्य को कोई मन्त्र इत्यादि देता है तो उस गुरु और शिष्य को भी उसी प्रकार यम नियम आदि का पालन करना आवश्यक होता है – शिष्य को मन्त्र देते समय गुरु अपनी स्वयं की ऊर्जा भी शिष्य में प्रेषित करता है ताकि वह निर्विघ्न रूप से उस मन्त्र को सिद्ध कर सके | भारत में तो लगभग हर हिन्दू परिवार में और मन्दिरों इत्यादि में इस प्रकार के अनुष्ठान अनादि काल से सम्पन्न होते आ रहे हैं और यही कारण है कि कितनी भी समस्याएँ राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हो जाएँ – कितनी भी आपदाएँ उपस्थित हो जाएँ – यहाँ का जन मानस इतना सबल और दृढ़ निश्चयी है कि उन सभी से मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है और हमारा देश उसी दृढ़ता के साथ पुनः उठ खड़ा होता है |

प्राण-प्रतिष्ठा के पीछे वैदिक विज्ञान समाहित है | यह समस्त संसार – समस्त प्राणी – पँच महाभूतों से निर्मित हैं | ये पँच महाभूत समस्त सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं | जल, वायु, प्रकाश अर्थात् अग्नि, ध्वनि अर्थात् आकाश तथा पृथिवी अर्थात् मृत्तिका सर्वत्र व्याप्त हैं | ब्रह्माण्ड में व्याप्त इन समस्त ईश्वरीय तत्वों को जब एक स्थान पर एकत्र करके पूर्ण विधि विधान से एक मूर्ति में समाहित कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा उस ऊरती में सन्निहित हो जाती है और वह मूर्ति एक प्रकार से जीवन्त हो जाती है | कई बार पौरातत्विक धरोहर के रूप में आरक्षित किसी मन्दिर में जाने पर एक विचित्र प्रकार का आध्यात्मिक अनुभव होता होता है, जबकि वहाँ पूजा अर्चना का भी नहीं हो रही होती है, और जब हम वहाँ से बाहर निकलते हैं तो कुछ समय तक कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं होते हैं | इसका कारण यही है कि सदियों पूर्व ऋषि मुनियों ने वहाँ की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की थी जिनका प्रभाव वर्तमान समय तक भी विद्यमान है – क्योंकि पँच महाभूतों का जो संगम वहाँ ऋषि मुनियों ने कराया उसका प्रभाव तो कभी नष्ट हो नहीं सकता |

जब हम किसी स्थान पर प्राण प्रतिष्ठा करते हैं तो वहाँ की ऊर्जा इतनी तीव्र हो जाती है कि उससे एक प्रकार का अदृश्य कम्पन सा उत्पन्न होता है और जब हम उस स्थान पर जाते हैं तो उसी ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर के निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर स्वाभाविक रूप से होना आरम्भ हो जाता है | समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य भी यही है कि साधक ऊर्जा को निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर ले जाए | यही कारण है कि प्राण प्रतिष्ठा एक असाधारण तथा अद्भुत कार्य है और हर कोई इस कार्य को करने और कराने में सक्षम नहीं होता | अन्यथा तो मूर्ति क्या है – एक चट्टान का टुकड़ा भर ही न | और एक बात, प्राण प्रतिष्ठा के द्वारा किसी प्रस्तर प्रतिमा को जीवित मनुष्य नहीं बनाया जाता अपितु उसके जागृत होने का – उसके सिद्ध होने का अनुभव किया जाता है | इस प्रक्रिया में मूर्ति के कई अधिवास कराए जाते हैं – कई अभिषेकों के द्वारा उसके दोषों का शमन किया जाता है, वेदिक मन्त्रों तथा शंख आदि की ध्वनियों का नाद किया जाता है – और जब यह नाद शून्य अर्थात् आकाश में विद्यमान नाद से जाकर मिल जाता है तो वह मूर्ति और वह स्थान समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा से सम्पन्न हो जाता है – और यही होता है मूर्ति का जागृत होना | यह अनुष्ठान इतना कठिन होता है कि इसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि का भी पालन करने की आवश्यकता होती है |

शास्त्रों के अनुसार अष्टांग योग के आठ भाग है, जिसमें आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, भजन, समाधि, यम और नियम होते हैं | यम नियम में अन्न और बिस्तर पर सोने का त्याग और प्रतिदिन स्नान करना आवश्यक तथा मन्त्र आदि का जाप करना होता है | विद्वज्जनों और शास्त्रों के अनुसार मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के मुख्य यजमान को मूर्ति स्थापना से पूर्व इन समस्त यम नियमों का पालन करके स्वयं को मूर्ति से निसृत ऊर्जा के योग्य बनाने की आवश्यकता होती है | यही कारण है मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा के समय उसके नेत्रों पर वस्त्र बाँध दिया जाता है और एक शीशे को सामने रखकर ही वस्त्र हटाया जाता है | अन्यथा इतने अधिक मन्त्र जाप, अधिवास और तान्त्रिक अनुष्ठान आदि के कारण जो ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका प्रवाह इतना तीव्र होता है कि साधारण मनुष्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है | ऊर्जा के वेग से कई बार वह शीशा भी टूट कर बिखर जाता है – जिसे एक शुभ संकेत माना जाता है |

और भगवान श्री राम की मूर्ति का तो निर्माण ही एक बहुत प्रभावशाली शिला “शालिग्राम” से हुआ है – जो वास्तव में एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है, जिसके विषय में प्रायः सभी को ज्ञात होगा कि जीवाश्म पौधों और जानवरों के संरक्षित अवशेष होते हैं जिनके शरीर प्राचीन समुद्रों, झीलों और नदियों के नीचे रेत और मिट्टी जैसी तलछट में दबे हुए पाए जाते हैं और प्रायः लाखों करोड़ों वर्ष पुराने होते हैं | भगवान श्री राम की प्रतिमा जिस शालिग्राम से गढ़ी गई है वह भी लगभग 60 करोड़ वर्ष पुराना है | शालिग्राम का प्रयोग परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है | प्रायः घरों में गोल अथवा अंडाकार रूप में शालिग्राम का अभिषेक किया जाता है | पद्मपुराण के अनुसार – गण्डकी (नेपाल) अर्थात नारायणी नदी के एक प्रदेश में शालिग्राम स्थल नाम का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँ से निकलनेवाले पत्थर को शालिग्राम कहते हैं | ऐसी मान्यता है कि इसके स्पर्श मात्र से जन्म जन्मान्तर पाप नष्ट हो जाते हैं | ऐसे प्रभावशाली पत्थर से जिस मूर्ति का निर्माण हुआ हो उसमें जब प्राण प्रतिष्ठा के विधान से ब्रह्मांडीय ऊर्जा समाहित होगी तो सोचने की बात है वह कितनी अधिक तीव्र होगी |

अस्तु, इस विग्रह से निसृत ऊर्जा समस्त जन मानस के मनों को भी चैतन्यता प्रदान करे, इसी कामना के साथ – जय श्री राम…

 

वर्ष 2024 मे पञ्चक

वर्ष 2024 मे पञ्चक

नमस्कार मित्रों ! वर्ष 2023 को विदा करके वर्ष 2024 आने वाला है… सर्वप्रथम सभी को वर्ष 2024 के लिये अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ… हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी नूतन वर्ष के आरम्भ से पूर्व प्रस्तुत है वर्ष 2024 में आने वाले पञ्चकों की एक तालिका… किन्तु तालिका प्रस्तुत करने से पूर्व आइये जानते हैं कि पञ्चक वास्तव में होते क्या हैं |

पञ्चकों का निर्णय चन्द्रमा की स्थिति से होता है | घनिष्ठा से रेवती तक पाँच नक्षत्र पञ्चक समूह में आते हैं | अर्थात घनिष्ठा, शतभिषज, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती नक्षत्रों में जब चन्द्रमा होता है तब यह स्थिति नक्षत्र पञ्चक – पाँच विशिष्ट नक्षत्रों का समूह – कहलाती है | इनमें दो नक्षत्र – पूर्वा भाद्रपद और रेवती – सात्विक नक्षत्र हैं, तथा शेष तीन – शतभिषज धनिष्ठा और उत्तरभाद्रपद – तामसी नक्षत्र हैं | इन पाँचों नक्षत्रों में चन्द्रमा क्रमशः कुम्भ और मीन राशियों पर भ्रमण करता है | अर्थात चन्द्रमा के मेष राशि में आ जाने पर पञ्चक समाप्त हो जाते हैं | इस प्रकार वर्ष भर में कई बार पञ्चकों का समय आता है |

वास्तव में तो धनिष्ठा के तृतीय चरण से लेकर रेवती के अन्त तक का समय पञ्चक का समय माना जाता है – यानी धनिष्ठा के दो पाद, शतभिषज, दोनों भाद्रपद और रेवती के चारों पाद पञ्चक समूह में आते हैं | पञ्चकों को प्रायः किसी भी शुभ कार्य के लिए अशुभ माना गया है | इस अवधि में बच्चे का नामकरण तो नितान्त ही वर्जित है | ऐसी भी मान्यता है कि पञ्चक में यदि किसी का स्वर्गवास हो जाए तो पञ्चकों के समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए और उसकी समस्त क्रियाएँ पञ्चकों की समाप्ति पर कुछ शान्ति उपायों के साथ सम्पन्न करनी चाहियें | अर्थात पञ्चक काल में शव का दाह संस्कार नहीं करना चाहिए अन्यथा परिवार के लिए शुभ नहीं होता |

पञ्चकों के अलग अलग वार के अनुसार अलग अलग फल होते हैं | जैसे सोमवार को यदि पञ्चकों का आरम्भ हो तो उन्हें राज पञ्चक कहा जाता है जो शुभ माना जाता है | यदि “राज पञ्चक” की मान्यता को मानें तो इसका अर्थ यह हुआ कि इस अवधि में कोई शुभ कार्य भी किया जा सकता है | इसके अतिरिक्त रविवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को रोग पञ्चक माना जाता है, शुक्रवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को चोर पञ्चक और मंगलवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को अग्नि पञ्चक माना जाता है | नाम से ही स्पष्ट है कि मान्यता के अनुसार इन पञ्चकों में रोग, आग लगने अथवा चोरी आदि का भय हो सकता है | जैसे धनिष्ठा नक्षत्र में कोई कार्य आरम्भ करने से अग्नि का भय हो सकता है, शतभिषज में क्लेश का भय, पूर्वाभाद्रपद रोगकारक, उत्तर भाद्रपद में दण्ड का भय तथा रेवती नक्षत्र में कोई कार्य आरम्भ करने पर धनहानि का भय माना जाता है | इनके अतिरिक्त गुरुवार और बुधवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को सदा शुभ माना जाता है |

कुछ अन्य कार्यों की भी मनाही पञ्चकों के दौरान होती है – जैसे दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए | लेकिन आज के प्रतियोगिता के युग में यदि किसी व्यक्ति का नौकरी के लिए इन्टरव्यू उसी दिन हो और उसे दक्षिण दिशा की ही यात्रा करनी पड़ जाए तो वह कैसे इस नियम का पालन कर सकता है ? यदि पञ्चकों के भय से वह इन्टरव्यू देने नहीं जाएगा तो जो कार्य उसे मिलने की सम्भावना हो सकती थी वह कार्य उसके हाथ से निकल कर किसी और को मिल सकता है |

एक और मान्यता है कि पञ्चकों के एक विशेष नक्षत्र में लकड़ी इत्यादि इकट्ठा करने का या छत आदि डलवाने का कार्य नहीं करना चाहिए | लेकिन आज जिस प्रकार की व्यस्तताओं में हर व्यक्ति घिरा हुआ है उसके चलते ऐसा भी तो हो सकता है कि व्यक्ति को उसी दिन अपने ऑफिस से अवकाश मिला हो और उसी दिन उसे वह कार्य सम्पन्न करना हो ?

ऐसी भी मान्यता है कि इस अवधि में किया कोई भी कार्य पाँचगुना फल देता है | इस स्थिति में तो इस अवधि में किये गए शुभ कार्यों का फल भी पाँच गुना प्राप्त होना चाहिए – केवल अशुभ कार्यों का ही फल पाँच गुणा क्यों हो ? सम्भवतः इसी विचार के चलते कुछ लोगों ने ऐसा विचार किया कि पञ्चक केवल अशुभ ही नहीं होते, शुभ भी हो सकते हैं | इसीलिए पञ्चकों में सगाई, विवाह आदि शुभ कार्य करना अच्छा माना जाता है | पञ्चक के अन्तर्गत आने वाले तीन नक्षत्र – पूर्वा भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद और रेवती – में से कोई यदि रविवार को आए तो वह बहुत शुभ योग तथा कार्य में सफलता प्रदान करने वाला माना जाता है |

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमारी ऐसी मान्यता है कि ज्योतिष के प्राचीन सूत्रों को – प्राचीन मान्यताओं को – आज की परिस्थितियों के अनुकूल उन पर शोध कार्य करके यदि संशोधित नहीं किया जाएगा तो उनका वास्तविक लाभ उठाने से हम वंचित रह सकते हैं | वैसे भी ज्योतिष के आधार पर कुण्डली का फल कथन करते समय भी देश-काल-व्यक्ति का ध्यान रखना आवश्यक होता है | तो फिर विशिष्ट शुभाशुभ कालों पर भी इन सब बातों पर विचार करना चाहिए | साथ ही हर बात का उपाय होता है | किसी भी बात से भयभीत होने की अपेक्षा यदि उसके उपायों पर ध्यान दिया जाए तो उस निषिद्ध समय का भी सदुपयोग किया जा सकता है |

तोअपने कर्तव्य कर्मों का पालन करते हुए हम सभी का जीवन मंगलमय रहे और सब सुखी रहें… इसी भावना के साथ प्रस्तुत है वर्ष 2024 में आने वाले पञ्चकों की एक तालिका…

शनिवार 13 जनवरी रात्रि 11:35  से गुरूवार 18 जनवरी अर्धरात्रयोत्तर 03:33 तक – मृत्यु पञ्चक

शनिवार 10 फ़रवरी प्रातः 10:02 से बुधवार 14 फ़रवरी प्रातः 10:43 तक – मृत्यु पञ्चक

शुक्रवार 08 मार्च रात्रि 9:20 से मंगलवार 12 मार्च रात्रि 8:29 तक – चोर पञ्चक

शुक्रवार 05 अप्रैल प्रातः 07:12 से मंगलवार 09 अप्रैल प्रातः 07:32 तक – चोर पञ्चक

गुरूवार 02 मई दिन में 2:32 से सोमवार 06 मई सायं 5:43 तक

बुधवार 29 मई रात्रि 8:06 से सोमवार 03 जून अर्ध रात्रि में 01:40 तक

बुधवार 26 जून अर्ध रात्रि में 01:49 से रविवार 30 जून प्रातः 07:34 तक

मंगलवार 23 जुलाई प्रातः 09:20 से शनिवार 27 जुलाई दिन में 1 बजे तक – अग्नि पञ्चक

सोमवार 19 अगस्त रात्रि 7 बजे से शुक्रवार 23 अगस्त रात्रि 7:54 तक – राज पञ्चक

सोमवार 16 सितम्बर प्रातः 05:44 से शुक्रवार 20 सितम्बर प्रातः 05:15 तक – राज पञ्चक

रविवार 13 अक्टूबर अपराह्न 3:44 से गुरूवार 17 अक्टूबर सायं 4:20 तक – रोग पञ्चक

शनिवार 09 नवम्बर रात्रि 11:27 से गुरूवार 14 नवम्बर अर्धरात्रयोत्तर  03:11 तक – मृत्यु पञ्चक

शनिवार 07 दिसम्बर प्रातः 05:07 से बुधवार 11 दिसम्बर प्रातः 11:48 तक – मृत्यु पञ्चक

अन्त में इतना हीकि ज्योतिष के प्राचीन सूत्रों को – प्राचीन मान्यताओं को – आज की परिस्थितियों के अनुकूल उन पर शोध कार्य करके यदि संशोधित नहीं किया जाएगा तो उनका वास्तविक लाभ उठाने से हम वंचित रह सकते हैं | वैसे भी ज्योतिष के आधार पर कुण्डली का फल कथन करते समय भी देश-काल-व्यक्ति का ध्यान रखना आवश्यक होता है | तो फिर विशिष्ट शुभाशुभ काल निर्णय के लिए भी इन सब बातों पर विचार करना चाहिए | साथ ही हर बात का उपाय होता है |

अन्त में यही कहेंगे कि किसी भी प्रकार के अन्धविश्वास से भयभीत होने की अपेक्षा अपने कर्म पर बल देना चाहिए… इसी भावना के साथ वर्ष 2024 की सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ…

 

एकादशी व्रत 2024

एकादशी व्रत 2024

नमस्कार मित्रों ! वर्ष 2023 को विदा करके वर्ष 2024 आने वाला है… सर्वप्रथम सभी को आने वाले वर्ष के लिए अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ… हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी नूतन वर्ष के आरम्भ से पूर्व प्रस्तुत है वर्ष 2024 में आने वाले सभी एकादशी व्रतों की एक तालिका… वर्ष 2024 का आरम्भ ही एकादशी व्रत के साथ हो रहा है… प्रथम एकादशी होगी पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी – जिसे पुत्रदा एकादशी कहा जाता है…

सभी जानते हैं कि हिन्दू धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्त्व है | पद्मपुराण के अनुसार भगवान् श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को एकादशी व्रत का आदेश दिया था और इस व्रत का माहात्म्य बताया था | प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशी होती है, और अधिमास हो जाने पर ये छब्बीस हो जाती हैं | किस एकादशी के व्रत का क्या महत्त्व है तथा किस प्रकार इस व्रत को करना चाहिए इस सबके विषय में विशेष रूप से पद्मपुराण में विस्तार से उल्लेख मिलता है | यदि दो दिन एकादशी तिथि हो तो स्मार्त (गृहस्थ) लोग पहले दिन व्रत रख कर उसी दिन पारायण कर सकते हैं, किन्तु वैष्णवों के लिए एकादशी का पारायण दूसरे दिन द्वादशी तिथि में ही करने की प्रथा है | हाँ, यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त होकर त्रयोदशी तिथि आ रही हो तो पहले दिन ही उन्हें भी पारायण करने का विधान है | सभी जानते हैं कि एकादशी को भगवान् विष्णु के साथ त्रिदेवों की पूजा अर्चना की जाती है | यों तो सभी एकादशी महत्त्वपूर्ण होती हैं, किन्तु कुछ एकादशी जैसे षटतिला, निर्जला, देवशयनी, देवोत्थान, तथा मोक्षदा एकादशी का व्रत प्रायः वे लोग भी करते हैं जो अन्य किसी एकादशी का व्रत नहीं करते | इन सभी एकादशी के विषय में हम समय समय पर लिखते रहे हैं | वर्ष 2024 की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है सन् 2024 के लिए एकादशी की तारीखों की एक तालिका – उनके नामों तथा जिस हिन्दी माह में वे आती हैं उनके नाम सहित… वर्ष 2024 में प्रथम एकादशी होगी पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी – जिसे पुत्रदा एकादशी कहा जाता है

  • रविवार 7 जनवरी – पौष कृष्ण सफला एकादशी
  • रविवार 21 जनवरी – पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशी
  • मंगलवार 6 फ़रवरी – माघ कृष्ण षटतिला एकादशी
  • मंगलवार 20 फरवरी – माघ शुक्ल जया एकादशी
  • बुधवार 6 मार्च – फाल्गुन कृष्ण विजया एकादशी
  • बुधवार 20 मार्च – फाल्गुन शुक्ल आमलकी एकादशी
  • शुक्रवार 5 अप्रैल – चैत्र कृष्ण पापमोचिनी एकादशी
  • शुक्रवार 19 अप्रैल – चैत्र शुक्ल कामदा एकादशी
  • शनिवार 4 मई – वैशाख कृष्ण बरूथिनी एकादशी
  • रविवार 19 मई – वैशाख शुक्ल मोहिनी एकादशी
  • रविवार 2 जून – ज्येष्ठ कृष्ण अपरा एकादशी स्मार्त
  • सोमवार 3 जून – ज्येष्ठ कृष्ण अपरा एकादशी वैष्णव
  • मंगलवार 18 जून – ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी
  • मंगलवार 2 जुलाई – आषाढ़ कृष्ण योगिनी एकादशी
  • बुधवार 17 जुलाई – आषाढ़ शुक्ल देवशयनी एकादशी
  • बुधवार 31 जुलाई – श्रावण कृष्ण कामिका एकादशी
  • शुक्रवार 16 अगस्त – श्रावण शुक्ल पुत्रदा एकादशी
  • गुरुवार 29 अगस्त – भाद्रपद कृष्ण अजा एकादशी
  • शनिवार 14 सितम्बर – भाद्रपद शुक्ल परिवर्तिनी एकादशी
  • शनिवार 28 सितम्बर – आश्विन कृष्ण इन्दिरा एकादशी
  • रविवार 13 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल पापांकुशा एकादशी स्मार्त
  • सोमवार 14 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल पापांकुशा एकादशी वैष्णव
  • रविवार 27 अक्टूबर – कार्तिक कृष्ण रमा एकादशी स्मार्त
  • सोमवार 28 अक्टूबर – कार्तिक कृष्ण रमा एकादशी वैष्णव
  • मंगलवार 12 नवम्बर – कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी
  • मंगलवार 26 नवम्बर – मार्गशीर्ष कृष्ण उत्पन्ना एकादशी
  • बुधवार 11 दिसम्बर – मार्गशीर्ष शुक्ल मोक्षदा एकादशी
  • गुरुवार 26 दिसम्बर – पौष शुक्ल सफला एकादशी

त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की कृपादृष्टि समस्त जगत पर बनी रहे और सभी स्वस्थ व सुखी रहें, इसी भावना के साथ सभी को वर्ष 2023 की हार्दिक शुभकामनाएँ वर्ष 2023 का हर दिनहर तिथिहर पर्व आपके लिए मंगलमय हो यही कामना है

—–कात्यायनी

शारदीय नवरात्र 2023 की तिथियाँ 

शारदीय नवरात्र 2023 की तिथियाँ 

शनिवार 14 अक्तूबर को महालया के साथ ही हमारे पूर्वज अपने शाश्वत धाम को वापस लौट जाएँगे और उसके दूसरे दिन यानी रविवार 15 अक्तूबर आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र आरम्भ हो जाएँगे |

प्रायः लोग देवी के वाहन के विषय में बात करते हैं, तो इसके विषय में देवी भागवत महापुराण में कहा गया है :

शशि सूर्य गजरुढा शनिभौमै तुरंगमे, गुरौशुक्रे च दोलायां बुधे नौकाप्रकीर्तिता

अर्थात नवरात्र का आरम्भ यदि सोमवार या रविवार से हो तो भगवती का वाहन हाथी होता है, शनिवार या मंगलवार को हो तो अश्व, शुक्रवार या गुरूवार को हो तो डोली तथा बुधवार को हो तो नौका भगवती का वाहन होता है | इस वर्ष क्योंकि रविवार से नवरात्र आरम्भ हो रहे हैं अतः भगवती का वाहन हाथी है | भगवती का वाहन यदि हाथी हो तो वह अत्यन्त शुभ माना जाता है और माना जाता है कि उस वर्ष वर्षा उत्तम होने के कारण फसल अच्छी होती है तथा देश में अन्न के भण्डार भरे रहते हैं और सम्पन्नता बनी रहती है | इसी प्रकार भगवती के प्रस्थान के वाहन के भी विद्वज्जन कुछ संकेत मानते हैं, यथा : रविवार और सोमवार को भगवती का वाहन भैंसा होता है, जो शुभ नहीं माना जाता | शनिवार और मंगलवार को मुर्गे की सवारी मानी जाती है जो वाहन कष्ट का संकेत देती है | बुधवार और शुक्रवार को हाथी – जो सम्पन्नता का प्रतीक है | गुरुवार का वाहन मनुष्य स्वयं है – जो सुख समृद्धि का द्योतक है | इस वर्ष नवमी को जो लोग विसर्जन करते हैं उनके लिए सोमवार होने के कारण देवी भैंसे पर जाएँगी और दशमी को मंगलवार होने के कारण मुर्गे पर जाएँगी – जो दोनों ही शुभ नहीं माने जाते |

किन्तु इस विषय में हमारी स्वयं की मान्यता है कि जब भगवती का आगमन शुभ योगों में हो रहा है तो जन साधारण के लिए वर्ष भर शुभत्व ही रहना चाहिए | साथ ही, पूर्ण भक्ति भावना की गई उपासना किसी भी मुहूर्त में की जाए – अनुकूल फल ही प्रदान करेगी | अतः किसी प्रकार के भ्रम की आवश्यकता नहीं है |

इस वर्ष प्रतिपदा तिथि का आरम्भ चौदह अक्तूबर को रात्रि 11:24 के लगभग होगा जो पन्द्रह अक्तूबर को अर्धरात्रि में 12:32 तक रहेगी | चौदह अक्तूबर को ही सायं 4:24 से चित्रा नक्षत्र आरम्भ हो जाएगा जो पन्द्रह को सायं 6:13 तक रहेगा | विद्वानों की मानें तो घट स्थापना में चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग का यथासम्भव त्याग करना नहीं चाहिए, किन्तु इन्हें वर्जित नहीं किया गया है | यदि कोई अन्य शुभ मुहूर्त न मिल रहा हो तो चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग में भी घट स्थापना की जा सकती है – के मध्य घट स्थापना का शुभ मुहूर्त है | विशेष मुहूर्त के लिए तो आपको अपने ज्योतिषी से ही मुहूर्त निकलवाना होगा | किसी भी अन्य मुहूर्त से बढ़कर द्विस्वभाव लग्न होनी आवश्यक है | पन्द्रह को सूर्योदय काल में लगभग सत्रह मिनट कन्या लग्न के शेष हैं – अतः इस समय यदि घट स्थापना कर सकें तो अत्युत्तम है | माँ भगवती के चरणों में ध्यान लगाते हुए सूर्योदय से लेकर कभी भी घट स्थापना कर सकते हैं |

तो प्रस्तुत है इस वर्ष के नवरात्रों की तिथियों की तालिका

रविवार 15  अक्टूबर – आश्विन शुक्ल प्रतिपदा तिथि – घट स्थापना मुहूर्त के विषय में ऊपर लिख दिया है / शारदीय नवरात्र आरम्भ / प्रथम नवरात्र / भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना /महाराजा अग्रसेन जयन्ती

सोमवार 16 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल द्वितीया / द्वितीय नवरात्र / भगवती के ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना

मंगलवार 17 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल तृतीया / तृतीय नवरात्र / भगवती के चन्द्रघंटा रूप की उपासना

बुधवार 18 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल चतुर्थी / चतुर्थ नवरात्र / भगवती के कूष्माण्डा रूप की उपासना

गुरुवार 19 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल पञ्चमी / पञ्चम नवरात्र / भगवती के स्कन्दमाता रूप की उपासना

शुक्रवार 20 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल षष्ठी / षष्टं नवरात्र / भगवती के कात्यायनी रूप की उपासना / सरस्वती आह्वाहन पूजा

शनिवार 21 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल सप्तमी / सप्तम नवरात्र / भगवती के कालरात्रि रूप की उपासना / सरस्वती पूजा

रविवार 22 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल अष्टमी / अष्टम नवरात्र / भगवती के महागौरी रूप की उपासना / सरस्वती बलिदान

सोमवार 23 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल नवमी / नवम नवरात्र / भगवती के सिद्धिदात्री रूप की उपासना / सरस्वती विसर्जन

मंगलवार 24 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल दशमी / विजया दशमी / प्रतिमा विसर्जन / अपराजिता देवी की उपासना / विद्यारम्भ / माधवाचार्य जयन्ती

तो आइये, माँ भगवती अपने सभी रूपों में समस्त जगत का कल्याण करें इसी कामना के साथ आह्वाहन-स्थापन करें भगवती का और व्यतीत करें कुछ समय उनके सान्निध्य में…

माँ भगवती की उपासना का पर्व

माँ भगवती की उपासना का पर्व

शारदीय नवरात्र

आश्विन और चैत्र माह की शुक्ल प्रतिपदा से माँ भगवती की उपासना के नवदिवसीय पर्व नवरात्र आरम्भ हो जाते हैं और घट स्थापना के साथ समूचा देश माँ भगवती की आस्था में तल्लीन हो जाता है | आश्विन मास के नवरात्र – जिन्हें शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है – महालया और पितृ विसर्जिनी अमावस्या के दूसरे दिन से आरम्भ होते हैं |

ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः |

सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे ||

ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां |

सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||

इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः |

वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ||

समस्त पितृगण हमारे द्वारा किये गए तर्पण से प्रसन्न होकर अपनी सन्तानों को सौभाग्य का आशीष प्रदान कर अपने अपने लोकों को वापस जाएँ – कल भाद्रपद अमावस्या – यानी पितृपक्ष का अन्तिम श्राद्ध – महालया को – गायत्री मन्त्र के साथ इन उपरोक्त मन्त्रों का श्रद्धापूर्वक जाप करते हुए पितृगणों को ससम्मान विदा किया जाता है और उसके साथ ही आरम्भ हो जाता है नवरात्रों का उल्लासमय पर्व | कितनी विचित्र बात है कि एक ओर पितरों को सम्मान के साथ विदा किया जाता है तो दूसरी ओर माँ दुर्गा का आगमन होता है और उनके स्वागत के रूप में आरम्भ हो जाती है महिषासुरमर्दिनी के मन्त्रों के मधुर उच्चारण के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना और इसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ होता है | एक ओर मृतात्माओं के प्रति श्रद्धा का पर्व श्राद्धपक्ष के रूप में और दूसरी ओर उसके तुरन्त बाद नवजीवन के रूप में देवी भगवती की उपासना का पर्व नवरात्र के रूप में – मृत्यु और नवजीवन का कितना अनूठा संगम है ये – और ऐसा केवल भारतीय संस्कृति में ही सम्भव है |

महालया अर्थात पितृविसर्जनी अमावस्या को श्राद्ध पक्ष का समापन हो जाता है | महालया का अर्थ ही है महान आलय अर्थात महान आवास – अन्तिम आवास – शाश्वत आवास | श्राद्ध पक्ष के इन पन्द्रह दिनों में अपने पूर्वजों का आह्वान करते हैं कि हमारे असत् आवास अर्थात पञ्चभूतात्मिका पृथिवी पर आकर हमारा आतिथ्य स्वीकार करें, और महालया के दिन पुनः अपने अस्तित्व में विलीन हो अपने शाश्वत धाम को प्रस्थान करें | और उसी दिन से आरम्भ हो जाता है अज्ञान रूपी महिष का वध करने वाली महिषासुरमर्दिनी की उपासना का उत्साहमय पर्व शारदीय नवरात्र | इस समय माँ भगवती से भी प्रार्थना की जाती है कि वे अपने महान अर्थात शाश्वत आवास अर्थात आलय को कुछ समय के लिए छोड़कर पृथिवी पर आएँ और हमारा आतिथ्य स्वीकार करें तथा नवरात्रों के अन्तिम दिन हम उन्हें ससम्मान उनके शाश्वत आलय के लिए उन्हें विदा करेंगे अगले बरस पुनः हमारा आतिथ्य स्वीकार करने की प्रार्थना के साथ | यही कारण है कि नवरात्रों के लिए दुर्गा प्रतिमा बनाने वाले कारीगर महालया के दिन धूम धाम से उत्सव मनाकर भगवती के नेत्रों को आकार देते हैं | वर्तमान का तो नहीं मालूम, लेकिन हमारी पीढ़ी के लोगों को ज्ञात होगा कि महालया यानी पितृविसर्जनी अमावस्या के दिन प्रातः चार बजे से आकाशवाणी पर श्री वीरेन्द्र कृष्ण भद्र के गाए महिषासुरमर्दिनी का प्रसारण किया जाता था और सभी केन्द्र इसे रिले करते थे | हम सभी भोर में ही रेडियो ट्रांजिस्टर ऑन करके बैठ जाते थे और पूरे भक्ति भाव से उस पाठ को सुना करते थे |

वह देवी ही समस्त प्राणियों में चेतन आत्मा कहलाती है और वही सम्पूर्ण जगत को चैतन्य रूप से व्याप्त करके स्थित है | इस प्रकार अज्ञान का नाश होकर जीव का पुनर्जन्म – आत्मा का शुद्धीकरण होता है – ताकि आत्मा जब दूसरी देह में प्रविष्ट हो तो सत्वशीला हो…

“या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः |
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्वाप्य स्थित जगत्, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||” (श्री दुर्गा सप्तशती पञ्चम अध्याय)

अस्तु, सर्वप्रथम तो, माँ भगवती सभी का कल्याण करें और सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें, इस आशय के साथ सभी को शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ…

इस वर्ष रविवार 15 अक्तूबर से शारदीय नवरात्र आरम्भ हो रहे हैं | वास्तव में लौकिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो हर माँ शक्तिस्वरूपा माँ भगवती का ही प्रतिनिधित्व करती है – जो अपनी सन्तान को जन्म देती है, उसका भली भाँति पालन पोषण करती है और किसी भी विपत्ति का सामना करके उसे परास्त करने के लिए सन्तान को भावनात्मक और शारीरिक बल प्रदान करती है, उसे शिक्षा दीक्षा प्रदान करके परिवार – समाज और देश की सेवा के योग्य बनाती है – और इस सबके साथ ही किसी भी विपत्ति से उसकी रक्षा भी करती है | इस प्रकार सृष्टि में जो भी जीवन है वह सब माँ भगवती की कृपा के बिना सम्भव ही नहीं | इस प्रकार भारत जैसे देश में जहाँ नारी को भोग्या नहीं वरन एक सम्माननीय व्यक्तित्व माना जाता है वहाँ नवरात्रों में भगवती की उपासना के रूप में उन्हीं आदर्शों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाता है |

इसी क्रम में यदि आरोग्य की दृष्टि से देखें तो दोनों ही नवरात्र ऋतु परिवर्तन के समय आते हैं | चैत्र नवरात्र में सर्दी को विदा करके गर्मी का आगमन हो रहा होता है और शारदीय नवरात्रों में गर्मी को विदा करके सर्दी के स्वागत की तैयारी की जाती है | वातावरण के इस परिवर्तन का प्रभाव मानव शरीर और मन पर पड़ना स्वाभाविक ही है | अतः हमारे पूर्वजों ने व्रत उपवास आदि के द्वारा शरीर और मन को संयमित करने की सलाह दी ताकि हमारे शरीर आने वाले मौसम के अभ्यस्त हो जाएँ और ऋतु परिवर्तन से सम्बन्धित रोगों से उनका बचाव हो सके तथा हमारे मन सकारात्मक विचारों से प्रफुल्लित रह सकें |

आध्यात्मिक दृष्टि से नवरात्र के दौरान किये जाने वाले व्रत उपवास आदि प्रतीक है समस्त गुणों पर विजय प्राप्त करके मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होने के | माना जाता है कि नवरात्रों के प्रथम तीन दिन मनुष्य अपने भीतर के तमस से मुक्ति पाने का प्रयास करता है, उसके बाद के तीन दिन मानव मात्र का प्रयास होता है अपने भीतर के रजस से मुक्ति प्राप्त करने का और अन्तिम तीन दिन पूर्ण रूप से सत्व के प्रति समर्पित होते हैं ताकि मन के पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाने पर हम अपनी अन्तरात्मा से साक्षात्कार का प्रयास करें – क्योंकि वास्तविक मुक्ति तो वही है |

इस प्रक्रिया में प्रथम तीन दिन दुर्गा के रूप में माँ भगवती के शक्ति रूप को जागृत करने का प्रयास किया जाता है ताकि हमारे भीतर बहुत गहराई तक बैठे हुए तमस अथवा नकारात्मकता को नष्ट किया जा सके | उसके बाद के तीन दिनों में देवी की लक्ष्मी के रूप में उपासना की जाती है कि वे हमारे भीतर के भौतिक रजस को नष्ट करके जीवन के आदर्श रूपी धन को हमें प्रदान करें जिससे कि हम अपने मन को पवित्र करके उसका उदात्त विचारों एक साथ पोषण कर सकें | और जब हमारा मन पूर्ण रूप से तम और रज से मुक्त हो जाता है तो अन्तिम तीन दिन माता सरस्वती का आह्वाहन किया जाता है कि वे हमारे मनों को ज्ञान के उच्चतम प्रकाश से आलोकित करें ताकि हम अपने वास्तविक स्वरूप – अपनी अन्तरात्मा – से साक्षात्कार कर सकें |

नवरात्रि के महत्त्व के विषय में विवरण मार्कंडेय पुराण, वामन पुराण, वाराह पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में उपलब्ध होता है | इन पुराणों में देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के मर्दन का उल्लेख उपलब्ध होता है | महिषासुर मर्दन की इस कथा को “दुर्गा सप्तशती” के रूप में देवी माहात्म्य के नाम से जाना जाता है | नवरात्रि के दिनों में इसी माहात्म्य का पाठ किया जाता है और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है | जिसमें 537 चरणों में 700 मन्त्रों के द्वारा देवी के माहात्म्य का जाप किया जाता है | इसमें देवी के तीन मुख्य रूपों – काली अर्थात बल, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा के द्वारा देवी के तीन चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध तथा शुम्भ निशुम्भ वध का वर्णन किया जाता है | पितृ पक्ष की अमावस्या को महालया के दिन पितृ तर्पण के बाद से आरम्भ होकर नवमी तक चलने वाले इस महान अनुष्ठान का समापन दशमी को प्रतिमा विसर्जन के साथ होता है | इन नौ दिनों में दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है | ये नौ रूप सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं |

“प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी, तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् |

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ||

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता:, उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ||

अस्तु, माँ भगवती को नमन करते हुए सभी को शारदीय नवरात्र – आश्विन नवरात्र – की हार्दिक शुभकामनाएँ…

जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोSतु ते…

श्रद्धा का पर्व श्राद्ध पर्व

श्रद्धा का पर्व श्राद्ध पर्व

शुक्रवार 29 सितम्बर भाद्रपद पूर्णिमा से सोलह दिनों का दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व श्राद्ध पक्ष आरम्भ हो रहा है – जो पितृ विसर्जिनी अमावस्या और महालया के साथ सम्पन्न हो जाएगा |  हिन्दू समाज में अपने दिवंगत पूर्वजों के सम्मान में पूरे सोलह दिन श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाएँगे – तर्पण दानादि किया जाएगा | और पितृ विसर्जिनी अमावस्या को…

ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः |

सर्वे ते हृष्टमनसः, सर्वान् कामान् ददन्तु मे ||

ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां |

सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||

इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः |

वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ||

मन्त्रों के साथ अगले वर्ष पुनः हमारा अतिथि स्वीकार करने की प्रार्थना के साथ ससम्मान उन्हें उनके शाश्वत धाम के लिए विदा किया जाएगा | श्राद्ध शब्द की निष्पत्ति ही “श्रद्धा” से हुई है – श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ – जो श्रद्धापूर्वक किया जाए वह श्राद्ध है, अथवा – श्रद्धया दीयते इति श्राद्धम् – अर्थात जो श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध है | यही कारण है कि श्राद्ध पर्व को उत्सव की भाँति सम्पन्न किया जाता है | “उत्सव” इसलिए क्योंकि ये सोलह दिन – भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक – हम सभी पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं – उनकी पसन्द के भोजन बनाकर ब्रह्मभोज कराते हैं और स्वयं भी प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं – सुपात्रों को दान दक्षिणा से सम्मानित करते हैं – और अन्तिम दिन उन्हें पुनः आने का निमन्त्रण देकर सम्मान पूर्वक उनके शाश्वत धाम के लिए विदा करते हैं | इस दिन उन पूर्वजों के लिए भी तर्पण किया जाता है जिनके देहावसान की तिथि न ज्ञात हो अथवा भ्रमवश जिनका श्राद्ध करना भूल गए हों | साथ ही उन आत्माओं की शान्ति के लिए भी तर्पण किया जाता है जिनके साथ हमारा कभी कोई सम्बन्ध या कोई परिचय ही नहीं रहा – अर्थात् अपरिचित लोगों की भी आत्मा को शान्ति प्राप्त हो – ऐसी उदात्त विचारधारा हिन्दू और भारतीय संस्कृति की ही देन है |

गीता में कहा गया है “श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय:, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति, नायंलोकोsस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः ||” (4/39,40) – अर्थात आरम्भ में तो दूसरों के अनुभव से श्रद्धा प्राप्त करके मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उस ज्ञान को आचरण में लाने में तत्पर हो जाता है तो उसे श्रद्धाजन्य शान्ति से भी बढ़कर साक्षात्कारजन्य शान्ति का अनुभव होता है | किन्तु दूसरी ओर श्रद्धा रहित और संशय से युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है | उसके लिये न इस लोक में सुख होता है और न परलोक में | इस प्रकार श्रद्धावान होना चारित्रिक उत्थान का, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का एक प्रमुख सोपान है | और जिस राष्ट्र के परिवार तथा समाज की नींव सुदृढ़ होगी उस राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता |

प्रायः सभी के मनों में यह उत्सुकता बनी रहती है कि श्राद्ध पर्व मनाने की प्रथा हिन्दू संस्कृति में कब से चली आ रही है | तो पितृ पक्ष तो आदिकाल से मान्य रहा है | वेदों के अनुसार पाँच प्रकार के यज्ञ माने गए हैं – ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ तथा अतिथि यज्ञ | इनमें जो पितृ यज्ञ है उसी का विस्तार पुराणों में “श्राद्ध” के नाम से उपलब्ध होता है | वेदों में प्रायः श्रद्धा पूर्वक किये गए कर्म को श्राद्ध कहा गया है – साथ ही जिस कर्म से माता पिता तथा आचार्य गण तृप्त हों उस कार्य को तर्पण कहा गया है – अर्थात तृप्त करने की क्रिया – तृप्यते अनेन इति तर्पण: | अर्थात जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस ऊर्जा के साथ पितृगण पृथिवी पर विचरण करते हैं अतः श्रद्धा पूर्वक उन्हें तृप्त करने के लिए श्राद्ध पर्व में तर्पण आदि का कार्य किया जाता है | श्राद्ध पक्ष के अन्तिम दिन आश्विन अमावस्या को अपना अपना भाग लेकर तृप्त हुए समस्त पितृ गण उसी ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के साथ अपने लोकों को वापस लौट जाते हैं | अर्थात अपने पूर्वजों, माता पिता तथा आचार्य के प्रति सत्यनिष्ठ होकर श्रद्धापूर्वक किये गए कर्म से जब हमारे ये आदरणीय तृप्त हो जाते हैं उसे श्राद्ध-तर्पण कहा जाता है | और इसी पितृ यज्ञ से पितृ ऋण भी पूर्ण हो जाता है | अथर्ववेद में कथन है:

अभूद्दूत: प्रहितो जातवेदा: सायं न्यन्हे उपवन्द्यो नृभि:

प्रादा: पितृभ्य: स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि (18/4/65)

हमारे ये पितृ गण प्रभु के दूत हैं जो हमें हितकर और प्रिय ज्ञान देते हैं | पितृगणों को भोजन कराने के बाद यज्ञ से शेष भोजन को ही हमें ग्रहण करना चाहिए |

इस प्रकार के बहुत से मन्त्र उपलब्ध होते हैं | इसके अतिरिक्त विभिन्न देवी देवताओं से सम्बन्धित वैदिक ऋचाओं में से अनेक ऐसी हैं जिन्हें पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाया गया है | पितृ गणों का आह्वान किया गया है कि वे धन, समृद्धि और बल प्रदान करें | साथ ही पितृ गणों की वर, अवर और मध्यम श्रेणियाँ भी बताई गई हैं | अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो तथा वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें | पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों को क्षमा करें | उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है | उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है | परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान | पितृगणों से यह भी प्रार्थना की जाती है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों | कहा गया है कि ज्ञानोपार्जन करने वाले व्यक्ति मरणोपरान्त देवयान द्वारा सर्वोच्च ब्राह्मण पद प्राप्त करते हैं | पूजा पाठ एवं जन कार्य करने वाले दूसरी श्रेणी के व्यक्ति रजनी और आकाश मार्ग से होते हुए पुन: पृथ्वी पर लौट आते हैं और इसी नक्षत्र में जन्म लेते हैं | इस प्रकार वेदों में वर्णित कर्तव्य कर्मों में श्राद्ध संस्कारों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनका पालन भी गृहस्थ लोग करते हैं |

पुराण काल में देखें तो भगवान श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख मिलता है तथा भरत के द्वारा दशरथ के लिए दशगात्र – मरणोपरान्त दस दिनों तक किये जाने वाले कर्म – विधान का उल्लेख रामचरितमानस में उपलब्ध होता है:

एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही | बिधिवत न्हाइ तिलांजलि दीन्ही ||
सोधि सुमृति सब बेद पुराना | कीन्ह भरत दसगात बिधाना || (अयोध्याकाण्ड)

रामायण के बाद महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को भिन्न भिन्न नक्षत्रों में किये जाने वाले काम्य श्राद्धों के विषय में बताया है (अनुशासन पर्व 89/1-15) | साथ ही श्राद्ध कर्म के अन्तर्गत दानादि के महत्त्व और दान के लिए सुपात्र व्यक्ति को भी परिभाषित किया है (अनुशासन पर्व अध्याय 145/50) | इसी में आगे वृत्तान्त आता है कि श्राद्ध का उपदेश महर्षि नेमि – जिन्हें श्री कृष्ण का चचेरा भाई बताया गया है और जो जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ बने – ने अत्रि मुनि को दिया था और बाद में अन्य महर्षि भी श्राद्ध कर्म करने लगे |

इस समस्त श्राद्ध और तर्पण कर्म की वास्तविकता तो यही है कि माता पिता तथा अपने पूर्वजों की पूजा से बड़ी कोई पूजा नहीं होती | जीवन के संघर्षों में उलझ कर कहीं हम अपने पूर्वजों को विस्मृत न कर दें इसीलिए हमारे महान मनीषियों ने वर्ष के एक माह के पूरे सोलह दिन ही इस कार्य के लिए निश्चित कर दिए ताकि इस अवधि में केवल इसी कार्य को पूर्ण आस्था के साथ पूर्ण किया जा सके | “कन्यायां गत: सूर्य: इति कन्यागत: (कनागत) अर्थात आश्विन मास में जब कन्या राशि में सूर्य हो उस समय कृष्ण पक्ष पितृगणों के लिए समर्पित किया गया है |

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्वयं को पितरों में श्रेष्ठ अर्यमा कहा है :

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् |
पितृ़णामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ||10/29

नागों के नाना भेदों में मैं अनन्त हूँ अर्थात् नागराज शेष हूँ, जल सम्बन्धी देवों में उनका राजा वरुण हूँ, पितरों में अर्यमा नामक पितृराज हूँ और शासन करने वालों में यमराज हूँ |

इस प्रकार पितृ तर्पण की प्रथा – पितृयज्ञ का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है – हाँ उसकी प्रक्रिया में समय के परिवर्तन के साथ परिवर्तन और परिवर्धन अवश्य हुआ है | हम सभी श्राद्ध पर्व में अपने पितृगणों को यथाशक्ति प्रसन्न करके पितृ विसर्जिनी अमावस्या को उन्हें अगले वर्ष पुनः आगमन की प्रार्थना के साथ विदा करें…

 

श्री गणपत्यथर्वशीर्ष का हिन्दी पद्य भावानुवाद

श्री गणपत्यथर्वशीर्ष का हिन्दी पद्य भावानुवाद

हम सभी जानते हैं कि वेद समस्त प्रकार के ज्ञाताज्ञात ज्ञान विज्ञान के स्रोत हैं | मानव मात्र के कल्याण के लिए सूक्त रूप में मन्त्रों के समूह हैं | उन्हीं सूक्तों – अर्थात उत्तम विधि से कही गई उक्तियाँ – में गणपति की प्रार्थना के लिए श्री गणपति सूक्त भी है – जिसे श्री गणपत्यथर्व सूक्त कहा जाता है… वर्तमान समय में मनुष्य की व्यस्तताओं में – उसकी जीवन यापन के संघर्ष की भाग दौड़ में वृद्धि के कारण बहुत सी विघ्न बाधाएँ भी उसके मार्ग में उपस्थित हो जाती हैं | श्री गणपत्यथर्व सूक्त के श्रवण अथवा पठान से समस्त विघ्न बाधाएँ दूर हो जाती हैं | वेदों में इन्हें ब्रह्मणस्पति कहा गया है | “ब्रह्मणस्पति” के रूप में वे ही सर्वज्ञाननिधि तथा समस्त वाङ्मय के अधिष्ठाता हैं |

विघ्नेश विधिमार्तण्डचन्द्रेन्द्रोपेन्द्रवन्दित |

नमो गणपते तुभ्यं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पते ||

ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र तथा विष्णु के द्वारा वन्दित हे विघ्नेश गणपति ! मन्त्रों के स्वामी ब्रह्मणस्पति ! आपको नमस्कार है |

सिद्धिबुद्धिपति वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञितम् |

माङ्गल्येशं सर्वपूज्यं विघ्नानां नायकं परम् ||

समस्त मंगलों के स्वामी, सभी के परम पूज्य, सकल विघ्नों के परम नायक, ‘ब्रह्मणस्पति’ नाम से प्रसिद्ध सिद्धि-बुद्धि के पति गणपति को नमस्कार है |

समस्त मांगलिक कार्यों में गणपति-पूजन के बाद प्रार्थना के रूप में श्री गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ किया जाता है | तो सर्वप्रथम अथर्वशीर्ष के विषय में ही बात करते हैं | अथर्वशीर्ष शब्द अ+थर्व+शीर्ष को मिलाकर बना है | जिनमें अ अक्षर प्रतीक है अभाव का, थर्व का अर्थ है चंचल तथा शीर्ष का अर्थ होता है मस्तिष्क अर्थात मन | अर्थात जिस सूक्त का पाठ करके मन की चंचलता का अभाव हो जाए वह अथर्वशीर्ष है | मन में बहुत शक्ति होती है | वही समस्त जगत का संचालन करता है | वही समस्त के विषय में संकल्प विकल्प करता है – मनन करता है | मन का समाहित हो जाना ही परम योग कहलाता है | श्री गणपत्यथर्वशीर्ष के श्रवण पठान के द्वारा मन की क्रियाओं को शान्त करने का प्रयास किया जाता है |

अथर्वशीर्ष में दस ऋचाओं में मूलाधार चक्र में गणपति का निवास बताया गया है | मूलाधार चक्र ॐकारमय आत्मा का निवास भी माना जाता है | ध्यान केन्द्रित करने के अभ्यास का प्रथम सोपान भी यही है – जहाँ से आरम्भ करके समस्त चक्रों को शान्त करते हुए अन्त में सहस्रार चक्र में प्रविष्ट होना ध्यान का अन्तिम सोपान होता है |

आज श्री गणेश चतुर्थी के अवसर पर प्रस्तुत है इसी श्री गणपत्यथर्वशीर्ष का हिन्दी पद्यभावानुवाद…

ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि | त्वमेव केवलं कर्तासि | त्वमेव केवलं धर्तासि | त्वमेव केवलं हर्तासि | त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि | त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ||1||

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि ||2||

अव त्वं माम् | अव वक्तारम् | अव श्रोतारम् | अव दातारम् | अव धातारम् | अव अनूचानम् | अव शिष्यम् | अव पश्चातात् | अव पुरस्तात् | अव वोत्तरात्तात् | अव दक्षिणात्तात् | अव चोर्ध्वात्तात् || अवाधरात्तात् | सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ||3|| इत्यादि इत्यादि…

पद्यभावानुवाद…

अष्टाक्षर है मन्त्र तुम्हारा, गं गणपतये नमो नम:

दूर्वांकुर अर्पित करते हैं, नमन गणपति नमो नमः…

तुम ही प्रणवाक्षर हो, तत्व रूप में भी तो तुम ही हो

तुम्हीं जगत के कर्ता धर्ता, संहर्ता भी तुम ही हो

विश्वरूप तुम, नित्य आत्मा, नमन गणपति नमो नमः…

रक्षा करो जगत की भगवन, श्रोता के रक्षक तुम हो

धाता दाता और उपदेशक, शिष्यों के रक्षक तुम हो

हरेक दिशा में अभयदान दो, नमन गणपति नमो नमः…

तुम्हीं वाङ्‍मय, तुम ही चिन्मय, तुम्हीं ब्रह्म आनन्दधन हो

त्रिगुणातीत तुम्हीं हो, कालत्रयातीत भी तुम ही हो

मूलाधारस्थित शक्ति तुम, नमन गणपति नमो नमः…

तीन देह से ऊपर हो तुम, ध्यान योगियों का तुम हो

तुम्हीं ज्ञान विज्ञान शिरोमणि, हर पुरुषार्थ के दाता हो

ज्ञान ज्योति जग में फैला दो, नमन गणपति नमो नमः…

पञ्चतत्व में रूप तुम्हारा, वाणी चारों तुम ही हो

जागृति स्वप्न सुषुप्ति ये चारों अवस्थाएँ भी तुम ही हो

लक्ष्य ध्यान का भी तुम ही हो, नमन गणपति नमो नमः…

सारे देव समाए तुममें, भूर्भुवः स्वः तुम ही हो

वर्णाक्षर तुम, और सकल ये अलंकार स्वर तुम ही हो

तुम्हीं नाद सन्धान संहिता, नमन गणपति नमो नमः…

एकदन्त तुम, वक्रतुण्ड तुम, लम्बोदर, मूषकध्वज हो

चतुर्हस्त पाशांकुशधारी, शूपकर्ण भी तुम ही हो

भक्तों का परित्राण करो तुम, नमन गणपति नमो नमः…

तुम्हीं व्रातपति, प्रमथपति तुम, विघ्न विनाशक तुम ही हो

साधक योगी को वर देते, वरदमूर्ति भी तुम ही हो

ऋद्धि सिद्धि बुद्धि के दाता, नमन गणपति नमो नमः…

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी 2023

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी 2023

गणेश चतुर्थी, ऋषि पञ्चमी और पर्यूषण पर्व

मंगलवार 19 सितम्बर – भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी – गणेश चतुर्थी – दश दिवसीय गणपति पूजन के पर्व का आरम्भ | यों चतुर्थी तिथि का आगमन 18 सितम्बर को दिन

गणेश चतुर्थी
गणेश चतुर्थी

में 12:40 के लगभग वृश्चिक लग्न, वणिज करण और इन्द्र योग में होगा | किन्तु हिन्दुओं के अधिकाँश पर्वों में उदया तिथि को महत्त्व दिया जाता है अतः 19 सितम्बर को गणेश चतुर्थी का पर्व मनाया जाएगा | इसी दिन दोपहर 1:44 के लगभग पञ्चमी तिथि का आगमन होने के कारण जैन समुदाय के दशलाक्षण पर्व जिन्हें पर्यूषण पर्व और साम्वत्सरिक पर्व भी कहा जाता है – आरम्भ हो रहे हैं | सूर्योदय काल में क्योंकि पञ्चमी तिथि उसके दूसरे दिन यानी बीस सितम्बर को होगी अतः ऋषि पञ्चमी का उपवास बीस सितम्बर को रखा जाएगा | सर्वप्रथम सभी को इन पर्वों की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ…

जहाँ तक ऋषि पञ्चमी का प्रश्न है तो यह पर्व न होकर एक उपवास है जो सप्तर्षियों को समर्पित होता है | आरम्भ में सभी वर्णों का पुरुष समुदाय यह उपवास करता था, किन्तु अब अधिकाँश में महिलाएँ ही इस उपवास को रखती हैं | इस दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर सातों ऋषियों की प्रतिमाओं को पञ्चामृत से स्नान कराया जाता है | उसके बाद उन्हें चन्दन कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करके पुष्प-धूप-दीप-वस्त्र-यज्ञोपवीत-नैवेद्य इत्यादि समर्पित करके अर्घ्य प्रदान किया जाता है | अर्घ्य प्रदान करने के लिए मन्त्र है:

कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:
गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा ||

अर्थात काश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ इन सातों

ऋषि-पञ्चमी
ऋषि-पञ्चमी

ऋषियों को हम अर्घ्य प्रदान करते हैं, ये सदा हम पर प्रसन्न रहें |

इस व्रत में केवल शाक-कन्द-मूल-फल आदि का भोजन करने का विधान है | मान्यता है कि सात वर्ष तक निरन्तर जो व्यक्ति इस व्रत का पालन करता है उसे समस्त प्रकार का सुख सौभाग्य प्राप्त होता है | सप्तम वर्ष में इस व्रत का उद्यापन किया जाता है जिसमें सात ब्राह्मणों को आमन्त्रित करके उन्हें यथाशक्ति दान दक्षिणा आदि भेंट करके भोजन कराके विदा किया जाता है |

भाद्रपद कृष्ण द्वादशी को श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के अष्टदिवसीय पजूसन पर्व का आरम्भ हुआ था – जिसे अष्ट+अह्निका होने के कारण अष्टाह्निका भी कहा जाता है | पजूसन पर्व समाप्त होते ही दूसरे दिन से भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से दिगम्बरों के दशदिवसीय पर्यूषण पर्व का आरम्भ हो जाता है, जो इस वर्ष 19 सितम्बर से आरम्भ हो रहा है तथा भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा (अनन्त चतुर्दशी) को सम्पन्न होगा | इस पर्व का आध्यात्मिक महत्त्व इसके लौकिक महत्त्व से कहीं अधिक गहन है | जिस प्रकार नवरात्र पर्व संयम और आत्म शुद्धि का पर्व होता है, उसी भाँति पर्यूषण पर्व भी – जिसका विशेष अंग है दशलाक्षण व्रत – संयम और आत्म शुद्धि के त्यौहार हैं | नवरात्र और दशलाक्षण दोनों में ही त्याग, तप, उपवास, परिष्कार, संकल्प, स्वाध्याय और आराधना पर बल दिया जाता है । यदि उपवास न भी हो तो भी यथासम्भव तामसिक भोजन तथा कृत्यों से दूर रहने का प्रयास किया जाता है | भारत के अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य सत्यशोधन करके उसी परमानन्द की उपलब्धि करना है | और इसे ही तत्वज्ञान कहा जाता है |

जैन धर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के आचार विचार का सीधा और स्पष्ट प्रतिबिम्ब मुख्यतया आचारांगसूत्र में देखने को मिलता है | उसमें जो कुछ कहा गया है उस सबमें साध्य, समता या सम पर ही पूर्णतया भार दिया गया है | सम्यग्दृष्टिमूलक और सम्यग्दृष्टिपोषक जो जो आचार विचार हैं वे सब सामयिक रूप से जैन परम्परा में पाए जाते हैं | गृहस्थ और त्यागी सभी के लिये छह आवश्यक कर्म बताए गए हैं | जिनमें मुख्य “सामाइय” (जिस प्रकार सन्ध्या वन्दन ब्राह्मण परम्परा का आवश्यक अंग है उसी प्रकार जैन परम्परा में सामाइय हैं) हैं | त्यागी हो या गृहस्थ, वह जब भी अपने अपने अधिकार के अनुसार धार्मिक जीवन को स्वीकार करता है तभी उसे यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है “करोमि भन्ते सामाइयम् |” जिसका अर्थ है कि मैं समता अर्थात् समभाव की प्रतिज्ञा करता हूँ | मैं पापव्यापार अथवा सावद्ययोग का यथाशक्ति त्याग करता हूँ | साम्यदृष्टि जैन परम्परा के आचार विचार दोनों ही में है | और समस्त आचार विचार का केन्द्र है अहिंसा | अहिंसा पर प्रायः सभी पन्थ बल देते हैं | किन्तु जैन परम्परा में अहिंसा तत्व पर जितना अधिक बल दिया गया है और इसे जितना व्यापक बनाया गया है उतना बल और उतनी व्यापकता अन्य परम्पराओं में सम्भवतः नहीं है | मनुष्य, पशु पक्षी, कीट पतंग आदि जीवित प्राणी ही नहीं, वनस्पति, पार्थिव-जलीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने को कहा गया है | आत्मौपम्य की भावना अर्थात् समस्त प्राणियों की आत्मा को अपनी ही आत्मा मानना | इस प्रकार विचार में जिस साम्य दृष्टि पर बल दिया गया है वही इस पर्यूषण पर्व का आधार है | और इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के पालन द्वारा आत्मा को मिथ्यात्व, विषय व कषाय से मुक्त करने का प्रयास किया जाता है |

पर्यूषण पर्व की अट्ठाई में बीच में साम्वत्सरिक पर्व आता है जो पर्यूषण का ही नही वरन् जैन धर्म का भी प्राण है | इस दिन साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिसके द्वारा वर्ष भर में किए गए पापों का प्रायश्चित्त करते हैं | साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी चौरासी लाख जीव योनि से क्षमा याचना की जाती है | यह क्षमा याचना सभी जीवों से वैर भाव मिटा कर मैत्री करने के लिए होती है | क्योंकि इस पर्व में दश लक्षणों का पालन किया जाता है | ये दश हैं – क्षमा, विनम्रता, माया का विनाश, निर्मलता, सत्य अर्थात आत्मसत्य का ज्ञान – और यह तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति मितभाषी हो तथा स्थिर मन वाला हो, संयम – इच्छाओं और भावनाओं पर नियन्त्रण, तप – मन में सभी प्रकार की इच्छाओं का अभाव हो जाने पर

पर्यूषण पर्व
पर्यूषण पर्व

ध्यान की स्थिति को प्राप्त करना, त्याग – किसी पर भी अधिकार की भावना का त्याग, परिग्रह का निवारण और ब्रह्मचर्य – आत्मस्थ होना – केवल अपने भीतर स्थित होकर ही स्वयं को नियन्त्रित किया जा सकता है अन्यथा तो आत्मा इच्छाओं के अधीन रहती है – का पालन किया जाता है तथा क्षमायाचना और क्षमादान दिया जाता है और इसीलिए इसे क्षमावाणी पर्व भी कहा जाता है |

सच्चा सुख और सच्ची शान्ति प्राप्त करने के लिये एकमात्र उपाय यही है कि व्यक्ति अपनी जीवन प्रवृत्ति का सूक्ष्मता से अवलोकन करे | और जहाँ कहीं, किसी के साथ, किसी प्रकार भी की हुई भूल के लिये – चाहे वह छोटी से छोटी ही क्यों न हो – नम्रतापूर्वक क्षमायाचना करे और दूसरे को उसकी पहाड़ सी भूल के लिये भी क्षमादान दे | सामाजिक स्वास्थ्य के लिये तथा स्वयं को जागृत और विवेकी बनाने के लिये यह व्यवहार नितान्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है | इस पर्व पर इसीलिये क्षमायाचना और क्षमादान का क्रम चलता है | जिसके लिये सभी जैन मतावलम्बी संकल्प लेते हैं “खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण वि | अर्थात् समस्त जीवों को मैं क्षमा करता हूँ और  सब जीव मुझे क्षमा करे | सब जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव रहे, किसी के साथ भी वैर-भाव नहीं रहे | और इस प्रकार क्षमादान देकर तथा क्षमा माँग कर व्यक्ति संयम और विवेक का अनुसरण करता है, आत्मिक शान्ति का अनुभव करता है | किसी प्रकार के भी क्रोध के लिये तब स्थान नहीं रहता और इस प्रकार समस्त जीवों के प्रति प्रेम की भावना तथा मैत्री का भाव विकसित होता है | आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और न ही किसी बाहरी तत्व से विचलित हो | क्षमा-भाव इसका मूल मन्त्र है | यह केवल जैन परम्परा तक ही नहीं वरन् समाजव्यापी क्षमापना में सन्निहित है | मन को स्वच्छ उदार एवं विवेकी बनाकर समाज के संगठन की दिशा में इससे बड़ा और क्या प्रयत्न हो सकता है |

अस्तु, इसी के साथ समस्त चराचर से क्षमायाचना सहित सभी को गणेश चतुर्थी, ऋषि पञ्चमी और पर्यूषण पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ…

श्री कृष्ण जन्म महोत्सव 2023

श्री कृष्ण जन्म महोत्सव 2023

हमारे धार्मिक विद्वानों की हठधर्मिता तथा लकीर का फ़कीर वाली मानसिकता के कारण प्रायः हमारे सारे ही पर्व दो दिन हो जाते हैं – क्योंकि हमारे ये विद्वान् जन साधारण के मनों में पर्व के मुहूर्त को लेकर द्विविधा की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं | किन्तु पूर्ण पुरुष, योगिराज भगवान श्री कृष्ण के जन्म महोत्सव की बात आती है तो वह तो सदा से ही दो दिनों के लिए मनाया जाता है | एक दिन जब मामा कंस के कारागृह में उनका अवतरण हुआ, और दूसरे दिन जब मैया यशोदा ने अपने पास कृष्ण के रूप में एक दिव्य सन्तान को अपने आँचल में प्राप्त किया – इसे दही हांडी के नाम से भी जाना जाता है | इनमें प्रथम दिवस का महोत्सव स्मार्तों का कहलाता है और दूसरे दिन का वैष्णवों का | स्मार्त और वैष्णव की व्याख्या पूर्व के लेखों में करते रहे हैं अतः उस ओर नहीं जाएँगे | इस वर्ष भी 6 और 7 सितम्बर को भगवान श्री कृष्ण का जन्म महोत्सव मनाया जाएगा | अष्टमी तिथि का आरम्भ 6 सितम्बर बुधवार को दिन में 3:39 के लगभग धनु लग्न, बालव करण और हर्षण योग में होगा जो सात सितम्बर को सायं चार बजकर चौदह मिनट तक रहेगी | 6 सितम्बर को प्रातः 9:20 से दूसरे दिन प्रातः 20:24 तक रोहिणी नक्षत्र भी रहेगा और चन्द्रमा अपनी उच्च राशि में विराजमान रहेगा | तिथ्योदय के समय वासरपति योग भी इस दिन बन रहा है – बुधवार के दिन का अधिपति बुध सूर्य के साथ एक ही राशि सिंह में विचरण कर रहा है | जन्माष्टमी की पूजा प्रायः निशीथ काल में सम्पन्न की जाती है क्योंकि माना जाता है कि अर्द्ध रात्रि को ही श्री कृष्ण का अवतरण हुआ था, और उस समय ये रोहिणी नक्षत्र भी हो – जो कि प्रायः मिल ही जाता है – तो बहुत ही उत्तम माना जाता है | यही कारण है कि केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक के कुछ भागों में इसे रोहिणी अष्टमी के नाम से जाना जाता है | निशीथ काल की पूजा का समय है 6 सितम्बर को रात्रि 11:57 से 12:42 तक मिथुन लग्न में |

देश भर में श्री कृष्ण के अनेक रूपों की उपासना की जाती है | इसका कारण है कि वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना भव्य है कि न केवल भारतीय इतिहास के लिये, वरन विश्व के इतिहास के लिये भी अलौकिक एवम् आकर्षक है और सदा रहेगा | उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिये अपने जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अन्तः एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमा में नहीं आ सकता |

श्री कृष्ण षोडश कला सम्पन्न पूर्णावतार होने के कारण कृष्णस्तु भगवान स्वयम् हैं | उनका चरित्र ऐसा है कि हर कोई उनकी ओर खिंचा चला जाता है | उनकी समस्त लीलाओं को यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखकर केवल लौकिक दृष्टि से देखा जाए – क्योंकि भगवान श्री कृष्ण अलौकिक चरित्र के लौकिक मानव थे जिन्होंने मनुष्य रूप में रहते हुए नीति तथा व्यावहारिकता और सामाजिकता से सम्बद्ध अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये – तो हम कहेंगे कि सर्वप्रथम तो कारागृह में उनका जन्म हुआ – किन्तु पिता वसुदेव ने उन्हें सुरक्षित अन्यत्र पहुँचाने का संकल्प लिया तो कुछ भयंकर समस्याओं के साथ ही परिस्थितियाँ स्वयमेव उनके अनुकूल होती चली गईं – इसका तात्पर्य यही है कि व्यक्ति यदि संकल्प ले ले तो कोई भी बाधा उसे लक्ष्य प्राप्ति से नहीं रोक सकती – साथ ही यह भी कि सन्तान की रक्षा करने के लिए माता पिता स्वयं के जीवन की भी परवाह नहीं करते | साथ ही इन बाल्यकाल की घटनाओं से माता पिता को यह भी शिक्षा प्राप्त होती है कि शैशव काल से ही बच्चों के पालन पोषण में किस प्रकार की सावधानियों का पालन करना चाहिए | उदाहरण के लिए पूतना का प्रकरण प्रतीक है इस तथ्य का किसी अपरिचित पर विश्वास न करें | इस लीला से यह भी संकेत प्राप्त होता है कि दुग्धपान कराने वाली महिला के लिए साफ़ सफाई का ध्यान रखना आवश्यक है अन्यथा उसके अमृत रूपी दुग्ध को विष बनते देर नहीं लगेगी | इसी प्रकार तृणावर्त, अघासुर और बकासुर आदि की घटनाएँ – जो बताती हैं कि इतने छोटे शिशुओं को कभी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए – वह भी खुले स्थान में – न जाने कब कहाँ से आँधी तूफ़ान आ जाए और बच्चे को उड़ा ले जाए, और न जाने कहाँ किस अनजान स्थल पर जाकर कहीं खो जाएँ | शकटासुर – आज जिस प्रकार से लाड़ लाड़ में माता पिता छोटे बच्चों को कार की ड्राइविंग सीट पर बैठा देते हैं – अथवा किशोरों के हाथों में बाईक इत्यादि दे देते हैं – कभी भी ये बातें शकटासुर का रूप ले सकती हैं – इस ओर से माता पिता को सावधान रहने की आवश्यकता है | यमलार्जुन के वध की लीला – जिससे संकेत मिलता है कि बच्चों को उनकी आयु के समान ही दण्ड दिया जाना चाहिए और वह भी इतना कठोर न हो कि उसको किसी प्रकार की चोट पहुँचा सके | और भी बहुत सी बाल लीलाएँ हैं जिनसे माता पिता को सन्तान के पालन पोषण के सन्दर्भ में बहुत प्रकार की शिक्षाएँ प्राप्त हो सकती हैं | यद्यपि कृष्ण की सभी लीलाओं के बहुत गहन आध्यात्मिक अर्थ हैं – किन्तु पूर्ण पुरुष होने के कारण उनकी लीलाओं को हमें सांसारिक दृष्टि से भी उन्हें समझने का प्रयास करने की आवश्यकता है |

कृष्ण की लीलाएँ इतनी अनोखी हैं कि एक ओर वे मनोचिकित्सक बनकर अर्जुन को गीताज्ञान देकर धर्मयुद्ध के लिए प्रेरित करते हुए उपदेशक की भूमिका में दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर एक आदर्श राजनीतिज्ञ के रूप में भी दिखाई देते हैं जब पाण्डवों के दूत बनकर दुर्योधन की सभा में जाते हैं | गोपियों और सभी सखाओं के लिए उनके बंसी बजैया बालसखा, संगीतज्ञ और एक ऐसे प्रेमी हैं जो कभी माखन चुराकर मैया यशोदा से अपने कान खिंचवाता है – ऊखल से बंधता है, तो कभी ग्वाल बालों की गेंद यमुना में फेंक देता है और खेल खेल में कालिया नाग का मर्दन करके जनसाधारण को यह शिक्षा देता है कि स्वार्थपरता, निर्दयता आदि ऐसे दोष हैं जो जीवन रूपी यमुना के निर्मल जल को विषाक्त कर देते हैं | जब तक सात्विक बुद्धि से इन विकारों का मर्दन नहीं किया जाएगा तब तक जीवन सरिता की सरसता एवं शुद्धता असम्भव रहेगी | कभी गोपियों के वस्त्र हरण कर उन्हें शालीनता और सदाचार की शिक्षा देने वाला सद्गुरु बनता है तो कभी गोपियों संग रास रचाता है | कभी सुदामा का आदर्श मित्र बनकर उनके तंदुल खाकर बदले में राज पाट देकर मित्र के कर्त्तव्य का निर्वाह करता है | यह घटना सामन्तवादी मनोवृत्ति का भी पूर्ण रूप से विरोध करते हुए ऐसी प्रवृत्ति का उपहास करती है | साथ ही सुदामा जैसे लोग जो परिग्रह और अभाव में अन्तर भुला बैठते हैं उनके लिए एक सीख भी है कि दोनों में सन्तुलन स्थापित करने की आवश्यकता है | परिग्रह मत करो पर अभावग्रस्त भी मत रहो | व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसके लिए व्यावहारिक होना अत्यन्त आवश्यक है |

श्री कृष्ण एक ऐसे क्रान्तिकारी भी हैं जो अन्याय के विरुद्ध सुदर्शन चक्र उठाने में भी नहीं चूकते | कृष्ण के रूप में एक ऐसा युगप्रवर्तक दिखाई देता है जो निरर्थक रीति रिवाज़ों के विरोध में खड़ा होकर इन्द्र की पूजा को रोककर इन्द्र को क्रुद्ध कर देता है लेकिन वहीं गवर्धन पर्वत के नीचे सबको इकट्ठा करके अपने आस पास की प्रकृति का, बुजुर्गों का, पशुधन का सम्मान करने की शिक्षा भी देता है | साथ ही यह भी बताता है कि व्यक्ति का परम धर्म जनसेवा है – एक राजा अथवा कबीले का मुखिया भी वास्तव में जनसेवक ही होता है | साथ ही जो भक्ति मार्ग की दिशा में भी संसार को समझाता है कि केवल दम्भ प्रदर्शन के लिये किया गया कर्मकाण्ड और वेदपाठ केवल आत्मप्रवंचना है तथा ममता और निरभिमानता ही जीवन का सार है |

कहने का अर्थ यह कि कृष्ण के चरित्र में एक आदर्श पुत्र, आदर्श सखा, आदर्श प्रेमी और पति, आदर्श मित्र, निष्पक्ष और निष्कपट व्यवहार करने वाले उत्कृष्ट राजनीतिक कुशलता वाले एक आदर्श राजनीतिज्ञ, आदर्श योद्धा, आदर्श क्रान्तिकारी, उच्च कोटि के संगीतज्ञ इत्यादि वे सभी गुण दीख पड़ते हैं जो उन्हें पूर्ण पुरुष बनाते हैं | वास्तव में श्री कृष्ण षोडश कलासम्पन्न युगप्रवर्तक पूर्णपुरुष थे |

संसार के जिस जिस सम्बन्ध और जिस जिस स्तर पर जो जो व्यवहार हुआ करते हैं उन सबकी दृष्टि से और देश, काल, पात्र, अवस्था, अधिकार आदि भेदों से व्यक्ति के जितने भिन्न भिन्न धर्म अथवा कर्तव्य हुआ करते हैं उन सबमें कृष्ण ने अपने विचार, व्यवहार और आचरण से एक सद्गुरु की भांति पथ प्रदर्शन किया है | कर्तव्य चाहे माता पिता के प्रति रहा हो, चाहे गुरु-ब्राह्मण के प्रति, चाहे बड़े भाई के प्रति अथवा गौ माता और अपने भक्तों के प्रति रहा हो, चाहे शत्रु से व्यवहार हो अथवा मित्र से, चाहे शिष्य और शरणागत हो – सर्वत्र ही धर्म का उच्चतम स्वरूप और कर्तव्यपालन का सार्वभौम आदर्श उनके आचरण में प्रकट होता है | आज जो गो माता की रक्षा के लिए आन्दोलन प्रकाश में आए हैं देखा जाए तो कृष्ण के समय में ही गोरक्षा की नींव डल गई थी |

श्री कृष्ण जन्म भी कोई साधारण घटना नहीं थी | श्रीकृष्ण ने नगर के कारागार में जन्म लिया और गाँव में खेलते हुए उनका बचपन व्यतीत हुआ | इस प्रकार श्रीकृष्ण का चरित्र गाँव व नगर की संस्कृति को जोड़ता है | कोई भी साधारण मानव श्रीकृष्ण की तरह समाज की प्रत्येक स्थिति को छूकर, सबका प्रिय होकर राष्ट्रोद्धारक बन सकता है | कंस के वीर राक्षसों को पल में मारने वाला अपने प्रिय ग्वालों से पिट जाता है | खेल में हार जाता है | यही है दिव्य प्रेम की स्थापना का उदाहरण |

श्रीकृष्ण को सहस्ररमणीप्रिय और रसिक आदि भी कहा जाता है | लेकिन ऐसा कहते समय हम यह भूल जाते हैं कि नरकासुर के विनाश के पश्चात् उसके द्वारा बन्दी बनाई गई सोलह हज़ार स्त्रियों को कृष्ण यदि स्वीकार न करते तो समाज तो उन्हें स्वीकार करता ही नहीं | उनके साथ विवाह के लिए कोई आगे नहीं आता | उन्हें कुलटा मान लिया जाता और उनका तिरस्कार करते हुए उन पर अत्याचार भी किये जाते | उनके सम्मान की रक्षा के लिए ही श्रीकृष्ण ने यह आदर्श स्थापित किया और पत्नी सत्यभामा की साक्षी में उन सोलह हज़ार नारियों को पत्नी रूप में स्वीकार किया – जिसकी स्मृति में दीपावली से एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी भी मनाया जाता है | मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस विवाह के लिए सोलह हज़ार रूप एक साथ धारण किये थे – इसका भी मर्म यही है की भगवान की कृपा के समक्ष वे सभी षोडश सहस्र नारियाँ इतनी नत मस्तक हो गईं थीं कि कृष्ण भक्ति में स्वयं को ही भुला बैठीं और उन सबको भगवान अपने साथ ही खड़े दिखाई देने लगे | यही है भक्ति की पराकाष्ठा – जब भक्त को अपने साथ हर पल अपने आराध्य की उपस्थिति का आभास हो और वह उसी में लीन हो जाए |

रासलीला का भी यही मर्म है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरूष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है | उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएँ प्रकृति तत्व | इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरूष का महानृत्य है | विराट प्रकृति और विराट पुरूष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं | रासलीला में कृष्ण तथा गोपियों का प्रेम अपने उस चरम उत्कर्ष बिंदु पर पहुँचता है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं रहता |

भगवान श्रीकृष्ण की यही लीलाएँ सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रप्रियता का प्रेरक मानदण्ड हैं | यही कारण है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है | श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी वर्तमान की शिक्षा और भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं | उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि उसे पूर्ण रूप से समझ पाना वास्तव में कठिन कार्य है | वे अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊँचाइयों पर जाकर भी न तो गम्भीर ही दिखाई देते हैं और न ही उदासीन दीख पड़ते हैं, अपितु पूर्ण रूप से जीवनी शक्ति से भरपूर व्यक्तित्व हैं | श्रीकृष्ण के चरित्र में नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है आवश्यकता पड़ने पर युद्ध को भी स्वीकार कर लेने की मानसिकता | धर्म व सत्य की रक्षा के लिए महायुद्ध का उद्घोष है | एक हाथ में बाँसुरी और दूसरे हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर महा-इतिहास रचने वाला कोई अन्य व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार के इतिहास में | उनका व्यक्तित्त्व एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसने जीवन के प्रत्येक पल को, प्रत्येक पदार्थ को, प्रत्येक घटना को समग्रता के साथ स्वीकार किया – कभी आधे अधूरे मन से कुछ नहीं किया | प्रेम किया तो पूर्ण रूप से स्वयं को उसमें डुबो दिया, फिर मित्रता भी की तो उसके प्रति भी पूर्ण निष्ठावान रहे | जब युद्ध स्वीकार किया तो उसमें भी पूर्ण स्वीकृति का भाव रहा |

इस प्रकार कृष्ण एक ऐसा विराट स्वरूप हैं कि किसी को उनका बालरूप पसन्द आता है तो कोई उन्हें आराध्य के रूप में देखता है तो कोई सखा के रूप में | किसी को उनका मोर मुकुट और पीताम्बरधारी, यमुना के तट पर कदम्ब वृक्ष के नीचे वंशी बजाता हुआ प्राणप्रिया राधा के साथ प्रेम रचाता प्रेमी का रूप भाता है तो कोई उनके महाभारत के पराक्रमी और रणनीति के ज्ञाता योद्धा के रूप की सराहना करता है और उन्हें युगपुरुष मानता है | वास्तव में श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूष हैं | वास्तव में श्रीकृष्ण प्रेममय, दयामय, दृढ़व्रती, धर्मात्मा, नीतिज्ञ, समाजवादी दार्शनिक, विचारक, राजनीतिज्ञ, लोकहितैषी, न्यायवान, क्षमावान, निर्भय, निरहंकार, तपस्वी एवं निष्काम कर्मयोगी हैं, और लौकिक मानवी शक्ति से कार्य करते हुए भी अलौकिक चरित्र के महामानव हैं… युगप्रवर्तक पूर्ण पुरुष हैं…

इसीलिए तो कहा गया है “कृष्णस्तु भगवान स्वयम्”… अतः एक बार पुनः ऐसे समग्र पुरुष श्रीकृष्ण के जन्म महोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ…