Category Archives: अध्यात्म

अक्षय पर्व और भगवान परशुराम

अक्षय पर्व और भगवान परशुराम

ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः

ॐ जमदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात

कल यानी बुधवार 30 मई को वैशाख शुक्ल तृतीय अर्थात अक्षय तृतीया का अक्षय पर्व है, जिसे भगवान् विष्णु के छठे अवतार परशुराम के जन्मदिवस के रूप में भी मनाया जाता है – यद्यपि इस वर्ष आज मनाई जा रही है परशुराम जयन्ती | इस विषय पर आगे बात करेंगे |

आज कन्या लग्न में सायं 5:32 पर तृतीया तिथि का उदय होगा, जो कल यानी 30 मई को दोपहर 2:12 तक रहेगी | तिथ्योदय के समय सूर्य अपनी उच्च राशि में हैं और गुरु तथा शुक्र का राशि परिवर्तन एक बहुत शुभ योग बना रहा है | उधर कन्या लग्न से नवम भाव में उच्च के चन्द्रमा के साथ गुरुदेव गजकेसरी योग बना रहे हैं । यानी अक्षय तृतीया तो होती ही अबूझ है, लेकिन उसके साथ ही आरम्भ से ही अत्यन्त भाग्यवर्द्धक योग बना रही है | अस्तु, सभी के लिए सौभाग्य कामना से सर्वप्रथम सभी को अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ…

यों तो हर माह की दोनों ही पक्षों की तृतीया जया तिथि होने के कारण शुभ मानी जाती है, किन्तु वैशाख शुक्ल तृतीया स्वयंसिद्ध तिथि मानी जाती है | पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं उनका अक्षत अर्थात कभी न समाप्त होने वाला शुभ फल प्राप्त होता है | भविष्य पुराण तथा अन्य पुराणों की मान्यता है कि भारतीय काल गणना के सिद्धान्त से अक्षय तृतीया के दिन ही सतयुग और त्रेतायुग का आरम्भ हुआ था जिसके कारण इस तिथि को युगादि तिथि – युग के आरम्भ की तिथि – माना जाता है |

साथ ही पद्मपुराण के अनुसार यह तिथि मध्याह्न के आरम्भ से लेकर प्रदोष काल तक अत्यन्त शुभ मानी जाती है | इसका कारण भी सम्भवतः यह रहा होगा कि पुराणों के अनुसार भगवान् परशुराम का जन्म प्रदोष काल में हुआ था | परशुराम के अतिरिक्त भगवान् विष्णु ने नर-नारायण और हयग्रीव के रूप में अवतार भी इसी दिन लिया था | ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतार भी इसी दिन माना जाता है | पवित्र नदी गंगा का धरती पर अवतरण भी इसी दिन माना जाता है | माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने पाण्डवों को वनवास की अवधि में अक्षत पात्र भी इसी दिन दिया था – जिसमें अन्न कभी समाप्त नहीं होता था | माना जाता है कि महाभारत के युद्ध और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था तथा महर्षि वेदव्यास ने इसी दिन महान ऐतिहासिक महाकाव्य महाभारत की रचना आरम्भ की थी |

जैन धर्म में भी अक्षय तृतीया का महत्त्व माना जाता है | प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को उनके वर्षीतप के सम्पन्न होने पर उनके पौत्र श्रेयाँस ने इसी दिन गन्ने के रस के रूप में प्रथम आहार दिया था | श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बन्धनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार किया था | सत्य और अहिंसा के प्रचार करते करते आदिनाथ हस्तिनापुर पहुँचे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था | वहाँ सोमयश के पुत्र श्रेयाँस ने इन्हें पहचान लिया और शुद्ध आहार के रूप में गन्ने का रस पिलाकर इनके व्रत का पारायण कराया | गन्ने को इक्षु कहते हैं इसलिए इस तिथि को इक्षु तृतीया अर्थात अक्षय तृतीया कहा जाने लगा | आज भी बहुत से जैन धर्मावलम्बी वर्षीतप की आराधना करते हैं जो कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होकर दूसरे वर्ष वैशाख शुक्ल तृतीया को सम्पन्न होती है और इस अवधि में प्रत्येक माह की चतुर्दशी को उपवास रखा जाता है | इस प्रकार यह साधना लगभग तेरह मास में सम्पन्न होती है |

इस प्रकार विभिन्न पौराणिक तथा लोक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि को इतने सारे महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए इसीलिए सम्भवतः इस तिथि को सर्वार्थसिद्ध तिथि माना जाता है | किसी भी शुभ कार्य के लिए अक्षय तृतीया को सबसे अधिक शुभ तिथि माना जाता है : “अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तम्, तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया | उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यै:, तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ||”

सांस्कृतिक दृष्टि से इस दिन विवाह आदि माँगलिक कार्यों का आरम्भ किया जाता है | कृषक लोग एक स्थल पर एकत्र होकर कृषि के शगुन देखते हैं साथ ही अच्छी वर्षा के लिए पूजा पाठ आदि का आयोजन करते हैं | ऐसी भी मान्यता है इस दिन यदि कृषि कार्य का आरम्भ किया जाए जो किसानों को समृद्धि प्राप्त होती है | इस प्रकार प्रायः पूरे देश में इस पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है | साथ ही, माना जाता है कि इस दिन जो भी कार्य किया जाए अथवा जो भी वस्तु खरीदी जाए उसका कभी ह्रास नहीं होता | किन्तु, वास्तविकता तो यह है कि यह समस्त संसार ही क्षणभंगुर है | ऐसी स्थिति में हम यह कैसे मान सकते हैं कि किसी भौतिक और मर्त्य पदार्थ का कभी क्षय नहीं होगा ? पञ्चतत्वों से निर्मित यह शरीर नाशवान है और अन्त में इसे उन्हीं पाँच तत्वों में मिल जाना है | तो कितनी भी धन सम्पत्ति हम एकत्र कर लें सब यहीं रह जानी है | अभी पहलगाम की आतंकी घटना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है | इसीलिए यह सोचना भी वास्तव में निरर्थक है कि अक्षय तृतीया पर हम जितना स्वर्ण खरीदेंगे वह हमारे लिए शुभ रहेगा, अथवा हम जो भी कार्य आरम्भ करेंगे उसमें दिन दूनी रात चौगुनी तरक्क़ी होगी |

जिस समय हमारे मनीषियों ने इस प्रकार कथन किये थे उस समय का समाज तथा उस समय की आर्थिक परिस्थितियाँ भिन्न थीं | उस समय भी अर्थ तथा भौतिक सुख सुविधाओं को महत्त्व दिया जाता था, किन्तु चारित्रिक नैतिक आदर्शों के मूल्य पर नहीं | यही कारण था कि परस्पर सद्भाव तथा लोक कल्याण की भावना हर व्यक्ति की होती थी | इसलिए हमारे मनीषियों के कथन का तात्पर्य सम्भवतः यही रहा होगा कि हमारे कर्म सकारात्मक तथा लोक कल्याण की भावना से निहित हों, जिनके करने से समस्त प्राणिमात्र में आनन्द और प्रेम की सरिता प्रवाहित होने लगे तो उस उपक्रम का कभी क्षय नहीं होता अपितु उसके शुभ फलों में दिन प्रतिदिन वृद्धि ही होती है – और यही तो है जीवन का वास्तविक स्वर्ण | किन्तु परवर्ती जन समुदाय ने – विशेषकर व्यापारी वर्ग ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इसे भौतिक वस्तुओं – विशेष रूप से स्वर्ण – के साथ जोड़ लिया | अभी हम देखते हैं कि अक्षय तृतीया से कुछ दिन पूर्व से ही हमारे विद्वान् ज्योतिषी अक्षय तृतीया पर स्वर्ण खरीदने का मुहूर्त बताने में लग जाते हैं | लोग अपने आनन्द के लिए प्रत्येक पर्व पर कुछ न कुछ नई वस्तु खरीदते हैं तो वे ऐसा कर सकते हैं, किन्तु वास्तविकता तो यही है कि इस पर्व का स्वर्ण की ख़रीदारी से कोई सम्बन्ध नहीं है |

एक अन्य महत्त्व इस पर्व का है | यह पर्व ऐसे समय आता है जो वसन्त ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के कारण दोनों ऋतुओं का सन्धिकाल होता है | इस मौसम में गर्मी और उमस वातावरण में व्याप्त होती है | सम्भवतः इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस दिन सत्तू, खरबूजा, तरबूज, खीरा तथा जल से भरे मिट्टी के पात्र आदि दान देने की परम्परा है अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है | साथ ही यज्ञ की आहुतियों से वातावरण स्वच्छ हो जाता है और इस मौसम में जन्म लेने वाले रोग फैलाने वाले बहुत से कीटाणु तथा मच्छर आदि नष्ट हो जाते हैं – सम्भवतः इसीलिए इस दिन यज्ञ करने की भी परम्परा है |

जहाँ तक एक दिन पूर्व परशुराम जयन्ती मनाने का प्रश्न है तो ऐसा इसलिए कि भगवान परशुराम का जन्म प्रदोषकाल में हुआ था | कल दोपहर में ही तृतीया तिथि समाप्त हो जाएगी इसलिए आज प्रदोषकाल में भगवान परशुराम की पूजा अर्चना की जाएगी | किन्तु उदया तिथि के अनुसार अक्षय तृतीया का व्रत कल ही होगा | भगवान परशुराम की कथाएँ जन साधारण को ज्ञात हैं अतः उनके विषय में लिखना पुनरावृत्ति ही होगी | फिर भी कुछ महत्वपूर्ण तथ्य…

भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववन्द्य महाबाहु परशुराम का जन्म हुआ था | वे भगवान विष्णु के छठे अवतार है | उनका मूल नाम राम है, भगवान शिव ने जब उन्हें परशु अस्त्र प्रदान किया तब उनका नाम परशुराम पड़ा | जमदग्नि ऋषि की सन्तान होने के कारण वे जामदग्न्य कहलाए | जन्म से ब्राह्मण किन्तु कर्म से क्षत्रिय परशुराम भृगु वंश के कारण भार्गव भी कहलाए जाते हैं | उन्होंने केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र शिक्षा प्रदान की – भीष्म और कर्ण इसके अपवाद हैं | भविष्य में भी कल्कि अवतार के समय वे ही कल्कि भगवान को अस्त्र शस्त्र की शिक्षा प्रदान करेंगे ऐसी पौराणिक मान्यता है | भगवान परशुराम एक समाज सुधारक के रूप में भी सामने आते हैं | उन्होंने अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य मुनि की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी जागृति अभियान का संचालन भी किया था | उन्होंने 21 बार अहंकारी और धृष्ट हैहेय वंश के क्षत्रियों का संहार करके धरा को उनके आतंक से मुक्त किया | वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार में उनका अतुलनीय योगदान रहा | माना जाता है कि कोंकण, गोवा और केरल के अधिकांश ग्राम उन्होंने ही बसाए थे |

अस्तु, कथाएँ और दन्त कथाएँ अनेकों हैं, लेकिन…

ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्,

ऊँ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात्…

श्री लक्ष्मी-नारायण की उपासना के पर्व अक्षय तृतीया तथा परशुराम जयन्ती की सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ… सभी के जीवन में सुख-समृद्धि-सौभाग्य-ज्ञान-उत्तम स्वास्थ्य की वृद्धि होती रहे तथा हर कार्य में सफलता प्राप्त होती रहे… यही कामना है…

परशुराम ने हैहय वंश का नाश 21 बार किया था | जब उन्होंने देखा कि हैहेय वंश के राजा सहस्रार्जुन के ऋषियों और ब्राह्मणों पर अत्याचार रुक नहीं रहे, यहाँ तक कि उनके पिता के आश्रम पर आक्रमण कर उनका भी वध कर दिया – तब उन्होंने सम्पूर्ण हैहेय वंश के क्षत्रियों का समूल नाश करने की सौगन्ध ली और 21 बार पृथिवी को क्षत्रियविहीन किया | एजेस तरह पड़ोसी देश के आतंकी हमारे देश के भोले भाले नागरिकों का इतनी निर्ममता से क्रूरता से वध कर रहे हैं तो हर परिवार से एक परशुराम निकलने की आवश्यकता है |

—– कात्यायनी

श्री हनुमान जन्मोत्सव सँवत् 2082

श्री हनुमान जन्मोत्सव सँवत् 2082

शनिवार 12 अप्रैल को चैत्र पूर्णिमा है – श्री हनुमान जन्मोत्सवजिसे पूरा हिन्दू समाज पूर्ण भक्ति भाव से हर्षोल्लास के साथ मनाता है | विघ्नहर्ता मंगल कर्ता हनुमान जीजिन्हें अन्जनापुत्र होने के कारण आंजनेय भी कहा जाता हैजो लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर करने के लिए संजीवनी बूटी का पूरा पर्वत ही उठाकर ले आए थेजिनकी महिमा का कोई पार नहीं है | शनिवार को सूर्योदय से पूर्व तीन बजकर इक्कीस मिनट के लगभग कुम्भ लग्न, विष्टि (भद्रा) करण और व्याघात योग में पूर्णिमा तिथि का आगमन होगा जो रविवार को सूर्योदय से पूर्व 5:51 तक रहेगी | इस प्रकार उदया तिथि होने के कारण शनिवार 12 अप्रैल को हनुमान जयन्ती मनाई जाएगी | पूर्णिमा के सम्पन्न होने के साथ ही चैत्र मास समाप्त होकर वैशाख आरम्भ हो जाएगा | मान्यता है की हनुमान जी का जन्म सूर्योदय काल में हुआ थाअतः सूर्योदय काल में 5:58 से ही पूजा का शुभ मुहूर्त आरम्भ हो जाएगा तो दिन भर रहेगा | अस्तु, सर्वप्रथम सभी को श्री रामदूत हनुमान जी की जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँइस भावना के साथ कि जिस प्रकार पग पग पर भगवान श्री राम के मार्ग की बाधाएँ उन्होंने दूर कींजिस प्रकार लक्ष्मण को पुनर्जीवन प्राप्त करने में सहायक हुएउसी प्रकार आज भी समस्त संसार को कष्टों से मुक्त होने में सहायता करें

हनुमान जी को वानर का रूप माना जाता है | किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो वानर एक जनजाति उस समय हुआ करती थी जो वनवासियों का समूह होता था और जिन्होंने भगवान श्री राम की सहायता की | वानर शब्द का अर्थ ही है वन + नर अर्थात्वह मनुष्य जो वन में निवास करे” | वानर सम्भवतः एक अत्यन्त शक्तिशाली क़बीला हुआ करता था जिसके ध्वज पर वानर का चित्र अंकित होता था | इस जनजाति के लोग वानरों की ही भाँति अत्यन्त सक्रिय, फुर्तीले, साहसी, निडर भाव से कहीं भी पहुँच जाने वाले, ईमानदार और दयालु होते थे | ऐसा भी सम्भव है कि इनकी  मुखाकृति वानरों यानी बन्दरों से मिलती जुलती होती हो | कालान्तर में वानर शब्द को केवलमात्र बन्दरों का पर्याय बनाकर छोड़ दिया गया | बहुत से विद्वानों की ऐसी भी मान्यता हैजो हमें भी तथ्यात्मक प्रतीत होती हैकि पूँछ सम्भवतः इनके पुरुषों के परिधान का एक अंग था, क्योंकि महिला वानरों के साथ पूँछ को नहीं जोड़ा गया है |

हनुमान जयन्ती का भी यदि देखें तो भिन्न भिन्न प्रान्तों में उनकी मान्यताओं और कैलेण्डर के अनुसार अलग अलग तिथियों समय पर हनुमान जयन्ती मनाते हैं | जैसे आन्ध्र और तेलंगाना में चैत्र पूर्णिमा से आरम्भ होकर वैशाख कृष्ण दशमी तक 41 दिनों तक हनुमान जन्मोत्सव मनाया जाता है और वैशाख कृष्ण दशमी को इसका समापन किया जाता है | तमिलनाडु में मार्गशीर्ष अमावस्या कोहनुमथ जयन्तीआती है | कर्नाटक में इसेहनुमान व्रतंनाम से मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को मनाया जाता है |

श्री राम कथा पर सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को सायंकाल के समय मेष लग्न में हुआ था | उस समय स्वाति नक्षत्र था अर्थात चन्द्रमा स्वाति नक्षत्र में था और सूर्य तुला लग्न में में | माना जाता है कि अग्नि तत्व मेष लग्न तथा सूर्य के तुला में होने कारण ही उनमें कष्टों को भस्म कर देने की सामर्थ्य थी | उन्होंने ही श्री गोस्वामी तुलसीदास जी को श्री राम कथा सुनाई थी | चैत्र पूर्णिमा को हनुमान जी का जन्म महोत्सव मनाए जाने के पीछे एक अन्य कथा भी उपलब्ध होती है कि उन्होंने एक बार सूर्य को गेंद समझकर निगल लिया था | उस समय इन्द्र ने अपने वज्र से उन पर प्रहार किया जो उनकी थोड़ी पर जाकर लगा और वे अचेत हो गए | इन्द्र के इस व्यवहार से कुपित होकर हनुमान जी के पिता पवनदेव ने वायु का प्रवाह अवरुद्ध कर दिया | जब हनुमान जी की चेतना लौटी तब देवताओं की प्रार्थना पर पवनदेव ने पुनः वायु का प्रवाह आरम्भ किया | जिस दिन हनुमान जी चेतन हुए उस दिन चैत्र शुक्ल पूर्णिमा थी और इसी तिथि को उनका पुनर्जन्म मानकर हनुमान जयन्ती मनाई जाने लगी | कथाएँ और किम्वदन्तियाँ तथा मान्यताएँ जितनी भी होंहनुमान जी सदा कष्टों का हरण करते हैंऔर इसी निमित्त से इस अवसर प्रस्तुत है श्री हनुमान स्तुति अर्थ सहित

बुद्धिर्बलं यशो धैर्यं निर्भयत्वमरोगता |

अजाड्यं वाक्पटुत्वं च हनूमत्स्मरणाद्भवेत् ||

हनुमान जी का स्मरण करने से हमारी बुद्धि, बल, यश, धैर्य, निर्भयता, आरोग्य, विवेक और वाक्पटुता में वृद्धि हो |

मनोजवं मारुततुल्यवेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् |

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं, श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये ||

हम उन वायुपुत्र श्री हनुमान के शरणागत हैं जिनकी गति का वेग मन तथा मरुत के समान है, जो जितेन्द्रिय हैं, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, वानरों की सेना के सेनापति हैं तथा भगवान् श्री राम के दूत हैं |

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् |

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ||

अत्यन्त बलशाली, स्वर्ण पर्वत के समान शरीर से युक्त, राक्षसों के काल, ज्ञानियों में अग्रगण्य, समस्त गुणों के भण्डार, समस्त वानर कुल के स्वामी तथा रघुपति के प्रिय भक्त वायुपुत्र हनुमान को हम नमन करते हैं |

हनुमानद्द्रजनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः, रामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम: |

उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः, लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ||

एवं द्वादशनामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः,

स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत्‌ |

तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्‌ ||

हनुमान, अंजनिपुत्र, वायुपुत्र, महाबली, रामप्रिय, अर्जुन (फाल्गुन) के मित्र, पिंगाक्षभूरे नेत्र वाले, अमित विक्रम अर्थात महान प्रतापी, उदधिक्रमण: – समुद्र को लाँघने वाले, सीता जी के शोक को नष्ट करने वाले, लक्ष्मण को जीवन दान देने वाले तथा रावण के घमण्ड को चूर्ण करने वालेये कपीन्द्र के बारह नाम हैं | रात्रि को शयन करने से पूर्व, प्रातः निद्रा से जागने पर तथा यात्रा आदि के समय जो व्यक्ति हनुमान जी के इन बारह नामों का पाठ करता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता तथा विजय प्राप्त होती है |

आज जबकि हर ओर वैश्विक स्तर पर एक अराजकता कायुद्ध कावातावरण बना हुआ हैस्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ हैंऔर भी अनेक प्रकार की समस्याओं से मनुष्यों का सामना हो रहा हैहमारी यही कामना है की बजरंगबली सबकी रक्षा करेंइसी भावना के साथ सभी को श्री हनुमान जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ

यौगिक चक्र और नवरात्र उपासना

यौगिक चक्र और नवरात्र उपासना

चक्र साधना योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । चक्रों को समझकर उन्हें सन्तुलित करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है, और जब शारीरिक तथा मानसिक स्तर पर मनुष्य स्वस्थ रहेगा तो अपने सांसारिक कर्तव्य कर्मों का पूर्ण निष्ठा के साथ निर्वहन करते हुए भी आध्यात्म की दिशा में भी अग्रसर होने में उसे सरलता का अनुभव होगा । चक्र ऊर्जा के केन्द्र माने जाते हैं, और ऊर्जा के सुचारू रूप से प्रवाहित होने के लिए चक्रों का सन्तुलित होना अत्यन्त आवश्यक है । साथ ही चक्रों को यदि समझ लिया जाए तो स्वयं के प्रति जागरूकता में वृद्धि होती है और व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति और सामर्थ्य को पहचानना आरम्भ कर देता है । मुख्य रूप से सात चक्र होते हैं

  • मूलाधार चक्रनाम से ही स्पष्ट है मूल आधार – मेरुदण्ड के सबसे नीचे के भाग में गूदा तथा जननेन्द्रिय के मध्य इसकी स्थिति मानी गई है यह पृथ्वी तत्व से सम्बद्ध होता है तथा यह स्थिरता, सुरक्षा और आधार प्रदान करता है । इसी से स्पष्ट होता है कि ध्यान अथवा अन्य किसी भी कार्य में प्रगति के लिए आधार को स्थिर करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है ।
  • स्वाधिष्ठान चक्रस्व अर्थात् स्वयं का अधिष्ठानमूलाधार के ऊपर तथा जननेन्द्रिय के पीछे इसकी स्थिति मानी गई है । इसका सम्बन्ध जल तत्व से होता है तथा सम्भवतः इसी कारण से कहा जाता है कि इसके सन्तुलन से रचनात्मकता, भावनात्मकता तथा आनन्द में वृद्धि होती है । 
  • मणिपूर चक्रयह चक्र नाभि के पीछे मेरुदण्ड पर होता है । अग्नि तत्व से इसका सम्बन्ध होने के कारण ही इसके सन्तुलन से व्यक्तिगत शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है । साथ ही आत्म शक्ति, इच्छा शक्ति तथा पाचन तन्त्र से भी इसका सम्बन्ध माना जाता है ।
  • अनाहत चक्रहृदय के बीच में वक्ष के मध्य भाग में इसकी स्थिति होती है । यह चक्र वायु तत्व से सम्बन्ध रखता है तथा इसके सन्तुलन से प्रेम, करुणा तथा भावनात्मक सन्तुलन स्थापित होता है ।
  • विशुद्ध चक्रयह चक्र कण्ठ के केन्द्र में स्थित होता है । आकाश तत्व से इसका सम्बन्ध होने के कारण ही संचार, अभिव्यक्ति तथा सत्य से इसका सम्बन्ध होता है ।
  • आज्ञा चक्रदोनों भवों के मध्य मस्तक के केन्द्र में इसकी स्थिति मानी गई है । सभी पाँच तत्वों से ऊपर जो ज्ञान की अवस्था हैजिसे तृतीय नेत्र भी कहा जाता हैउस तत्व से इसका सम्बन्ध होता है तथा ज्ञान, अन्तर्ज्ञान, ध्यान और धारणा शक्ति से इसका सम्बन्ध होता है ।
  • सहस्रार चक्रसिर के सबसे ऊपरी भाग में अर्थात् मूर्धन्य में इसकी स्थिति होती है । सहस्र दल पद्म खिलने जैसा अनुभव योगियों को इसके जागरण से होता है और इसीलिए इस चक्र का सम्बन्ध चेतना, ज्ञान तथा आध्यात्मिक जागृति से होता है ।

यहाँ ध्यान देने की बात है कि ये जो चक्रों की शरीर में स्थिति बताई जाती है यह शरीर के अंगों के रूप में नहीं होते हैंअर्थात् इन्हें देखा अथवा इनका स्पर्श नहीं किया जा सकता है शरीर एक अन्य अवयवों की भाँति, किन्तु इनमें से जो भी चक्र जागृत हो जाते हैं उनके अनुभव साधक को होते हैं । नवरात्रों में भगवती के नौ रूपों की यदि पूर्ण श्रद्धा भक्ति और पूर्ण ध्यान के अभ्यास के साथ उपासना की जाए तो इन चक्रों को जागृत किया जा सकता है ऐसा हमारे मनीषियों का मानना हैक्योंकि नवरात्र के पूरे नौ दिनों में साधक का मन अलग अलग चक्रों में क्रमशः अवस्थित होता जाता है । किन्तु इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए गहन साधना की आवश्यकता होती हैऔर यही सबसे कठिन कार्य है सांसारिक बन्धनों में बद्ध व्यक्ति के लिएक्योंकि हम लोग तोव्रत और उपवासके दिन भी साधना के स्थान पर उत्तम प्रकार केफलाहारबनाने और उनके सेवन में व्यतीत कर देते हैं । फिर भी, अपनी अल्प बुद्धि से और ग्रन्थों के अध्ययन से जैसा समझ आया वैसा ही यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं कि नवरात्रों के नौ दिन साधक का मन किस किस चक्र पर अवस्थित होता है ।

  • नवरात्रों के प्रथम दिन भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना की जाती है । नवरात्रों से पूर्व योग ध्यान आदि के गहन अभ्यास के द्वारा साधक अनुभव अथवा भावनाओं के उस शिखर तक पहुँच जाता है जहाँ उसे दिव्य चेतना का अनुभव होता है तथा उसका मन हिमालय की भाँति स्थित हो जाता है । यही है शैलपुत्री का वास्तविक अर्थ । और यह स्थिरता तभी सम्भव है जब मूलाधार चक्र को जागृत कर लिया जाए । भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना के माध्यम से हम वास्तव में इस मूलाधार चक्र को ही जागृत करने का प्रयास करते हैं ताकि हमारी व्यक्तिगत क्षमताओं में वृद्धि हो सके और हमारा मन स्थिर होकर हमारी सुरक्षा की भावना भी प्रबल हो सके ।
  • द्वितीय नवरात्र समर्पित होता है भगवती के ब्रह्मचारिणी रूप को । ब्रह्मचारिणी का अर्थ ही है वह जो ब्रह्माण्ड अर्थात् असीम मेंअनन्त में विद्यमान होगतिमान है । एक ऐसी ऊर्जा हो जो जड़ न होकर अनन्त में विचरण करती हो । यही कारण है कि इनकी आराधना से सम्भावनाओं के अनन्त आकाश समक्ष उपस्थित हो सकते हैं । माता का यह स्वरूप ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक तापसी का रूप हैब्रह्म अर्थात तप और चारिणी अर्थात् आचरण करने वाली । हम सभी अपने जीवन में किसी ना किसी तप का पालन करते हैंअपने कार्यक्षेत्र की कठिनाइयाँ हों, कार्य में सफलता प्राप्त करनी हो, दिन प्रतिदिन की जीवन की चुनौतियाँ होंहर संघर्ष एक तपस्या ही है । ऐसे में यदि स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हो जाए तो व्यक्ति की रचनात्मकता और भावनात्मकता में वृद्धि होगी और उसे अपनी समस्याओं का निर्भीकता से सामना करते हुए उनके निराकरण का उपाय खोजने में दिशा प्राप्त होगी । इसीलिए ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना से हम अपना स्वाधिष्ठान चक्र जागृत कर सकते हैं ।
  • चन्द्रघण्टा अर्थात् चन्द्रमा के समान दैदीप्यमान और आकर्षकतथा, चन्द्र हो घण्टा में जिसकेचन्द्रमा जिसे अत्यन्त निर्मल और धवल माना जाता है । शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता है । आज जीवन जिस तेज़ गति से भाग रहा है उस स्थिति में मन को शान्त, स्थिर और शीतल रखना अत्यन्त आवश्यक है । मन जब शान्त और स्थिर रहेगा तभी नकारात्मक विचार नष्ट होकर व्यक्ति की आत्म शक्ति और इच्छा शक्ति को बल मिलेगा, और इसी के लिए मणिपुर चक्र को जागृत किया जाता है । भगवती के चन्द्रघण्टा रूप की उपासना के द्वारा इसी मणिपुर चक्र को जागृत किया जाता है । जिससे व्यक्ति को सन्तोष की अनुभूति होती है और उसकी नेतृत्व शक्ति में विकास होता है ।
  • चतुर्थ नवरात्र को भगवती के कूष्माण्डा रूप की उपासना की जाती है । माँ कूष्माण्डा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का स्रोत हैं ।इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है तथा इसके सन्तुलन से प्रेम, करुणा और भावनात्मक सन्तुलन स्थापित होता है । इस सन्तुलन से जीवमात्र के प्रति हमारा समभाव स्थापित होने के कारण हमारा मिलन अपनी स्वयं की आत्मा से होता है । क्योंकि व्यक्ति को समझ आ जाता है कि पिण्डे सो ब्रह्माण्डे अर्थात् जो ब्रह्माण्ड में है वही हमारे शरीर में भी है और इस प्रकार ब्रह्माण्ड के सभी जीवों में एक ही आत्मा का वास है ।
  • पञ्चम नवरात्र समर्पित है भगवती के स्कन्द माता रूप कोजिन्हें कार्तिकेय अर्थात् स्कन्द की जननी होने के कारण  जनन की देवी भी कहा जाता हैफिर चाहे वह प्रकृति हो, मनुष्य हो अथवा अन्य कोई भी प्राणी हो । जन्म ज्ञान शक्ति और कर्म शक्ति के मिलन का परिणाम होता है अतः स्कन्दमाता इन दोनों शक्तियों के मिलन स्वरूप ऐसी दिव्य शक्ति हो जाती हैं जो ज्ञान सेसत्य सत्य से दर्शन कराती हैंक्योंकि यह समस्त दृश्य प्रपञ्च मिथ्या होते हुए भी प्रत्यक्ष होने के कारण सत्य ही प्रतीत होता है । पञ्चम नवरात्र को साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित हो जाता हैजिसके जागृत होने से ईश्वर की सत्ता का अनुभव होने लगता है तथा इस चक्र के आकाश तत्व होने के कारण साधक उस सत्य की अभिव्यक्ति भी कुशलता से कर सकता है ।
  • छठा नवरात्र समर्पित होता है भगवती के कात्यायनी रूप को । इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में अवस्थित हो जात है जिसके कारण साधक को तत्व का बोध होता है, आत्मज्ञान प्राप्त होता है और इसी कारण अज्ञात भय से मुक्ति प्राप्त होती है तथा ध्यान और धारणा शक्ति के प्रबल हो जाने के कारण व्यक्ति में क्षमा भावना का विकास हो जाता है । आज्ञा चक्र सत् चित् और आनन्द के केन्द्र होता है और इसके जागृत हो जाने से नैतिक तर्क शक्ति तथा विवेक में वृद्धि के साथ ही वाक्सिद्धि भी सम्भव हो जाती है ।
  • सप्तमनवरात्रकोभगवतीकेकालरात्रिरूपकीउपासनाकीजातीहैतथाअष्टमनवरात्रकोमहागौरीरूपकी।इनदोनोंरूपोंकीउपासनासेसहस्रारचक्रजागृतहोताहै।प्रथमनवरात्रसेमूलाधारकोजागृतकरतेहुएसाधकऊर्ध्वकीओरअग्रसरहोताहुआआध्यात्मऔरयोगकेअत्यन्तमहत्त्वपूर्णचक्रसहस्रारचक्रकेअधोभागपरपहुँचजाताहैजहाँसेसहस्रदलकमलप्रस्फुटितहोनेजैसाअनुभवहोनेलगताहै।इसेआज्ञाचक्रकाउच्चतमबलभीकहाजाताहै।यहीकारणहैकिअष्टमनवरात्रकोजबभगवतीकेमहागौरीरूपकीउपासनासाधककरताहैतोउसकीएकाग्रताअपनेचरमपरहोतीहैतथाउसेआलस्यसेमुक्तिप्राप्तहोतीहै।
  • नवम दिन भगवती के सिद्धिदात्री रूप की उपासना की जाती है । नाम से ही स्पष्ट हैसिद्धि प्रदान करने वालामोक्ष प्रदान करने वाला रूप है यह । अथक साधना के फलस्वरूप इस दिन साधक का सहस्रार चक्र जागृत हो जाता है जो अन्तिम चक्र है तथा आत्मज्ञान और परम शान्ति का अनुभव कराता है । इसका सम्बन्ध चेतना, ज्ञान तथा आध्यात्मिक जागृति से होता है । यही कारण है इसके जागृत हो जाने से साधक योगी को अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्वऔरवशित्वआदिवेसमस्तसिद्धियाँप्राप्तहोजातीहैंजोदेवाधिदेवभगवानशिवकोइसउपासनासेप्राप्तहुईथीं।

किन्तु ध्यान रहे, ये सभी हमारे योगीजनों के अनुभवों के सत्य हैंसमय समय पर जिनका अध्ययन करने का सौभाग्य प्रायः हम सभी को प्राप्त होता रहता है । योग की विविध प्रक्रियाओं में निष्णात होने का बाद ही साधक में ऐसी सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि वह नवरात्रों के नौ दिनों तक मूलाधार चक्र से आरम्भ करके निरन्तर ऊर्ध्व की ओर अग्रसर होते हुए सहस्रार चक्र को जागृत करके सभी सिद्धियाँ प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकता हैऔर योगीजनों के लिए मोक्ष से अभिप्राय शरीर से मोक्ष नहीं है, अपितु परम ज्ञान की प्राप्ति होता है ।

माघ गुप्त नवरात्रि

माघ गुप्त नवरात्रि

गुरुवार तीस जनवरी, माघ शुक्ल प्रतिपदा से माघ नवरात्र आरम्भ हो रहे हैंजो सात फरवरी को माघ शुक्ल नवमी को सम्पन्न होंगे और जिन्हें गुप्त नवरात्र के नाम से जाना जाता है | गुप्त नवरात्र आषाढ़ और माघ दो मासों में आते हैं | इन्हें तन्त्र साधना के लिए उत्तम माना जाता है और दश महाविद्याओं की उपासना की जाती है | इस वर्ष माघ शुक्ल प्रतिपदा का आरम्भ 29 जनवरी को सायं छह बजकर छह मिनट के लगभग किंस्तुघ्न करण और सिद्धि योग में हो रहा है | तीस जनवरी को सूर्योदय सात बजकर दस मिनट पर होगा इसलिए इसी दिन से नवरात्रों का आरम्भ होगा तथा सात फ़रवरी को इनका समापन होगा | घट स्थापना का मुहूर्त मीन लग्न में प्रातः 9:27 से 10:50 तक बव करण और व्यतिपत योग में रहेगा | इसके अतिरिक्त दिन में 12:13 से 12:56 तक अभिजित मुहूर्त में भी घट स्थापना की जा सकती है |

शाक्त सम्प्रदाय ने इस विश्वास को पोषित किया कि सर्वशक्तिमान केवल एक नारी ही है | वास्तव में शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही सत्य है तथा शक्ति सर्वत्र व्याप्त भी है | फिर चाहे वह नवदुर्गा के नौ रूपों में प्रतिबिम्बित होती हो अथवा दशमहाविद्याओं के रूप में | दशमहाविद्याओं की साधना यद्यपि तान्त्रिक साधना है, किन्तु यदि साधारण साधक भी इनकी सामान्य रूप से उपासना करें तो उनके लिए भी ये शुभ फलदायी होती हैं |

हिन्दू धर्म की तीन अन्तःप्रवाहित तथा परस्पर विरोधी धाराएँ हैंजिनमें वैष्णव भगवान् विष्णु की उपासना करते हैं, शैव भगवान् शिव की पूजा अर्चना करते हैं तथा शाक्त माँ भगवती के शक्ति रूप की उपासना करते हैंजो भगवान् विष्णु और शिव दोनों की ही अन्तःकरण की शक्ति हैं तथा वे ही प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय की कारणभूता भी हैं | शिव यदि शिव अर्थात मंगल हैं तो शक्ति स्वयं प्रकाश है, और शिव तथा शक्ति के सम्मिलन से ही संसार की रचना होती है तथा रचना करना शक्ति का मूलभूत धर्म है | वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सत्य प्रतीत होता है |

शाक्त विचारधारा के अनुसार भगवती दुर्गा ही पराशक्ति हैं | यही कारण है कि श्री दुर्गा भागवत पुराणजिसका एक अंग श्री दुर्गा सप्तशती भी हैको शाक्त पुराण भी कहा जाता है | अन्य सभी सम्प्रदायों के ही सामान शाक्त सम्प्रदाय का भी उद्देश्य मोक्ष प्राप्तिपरमतत्व की प्राप्तिपरम ज्ञान की प्राप्ति ही है | इसके लिए एकनिष्ठ साधना द्वारा उपलब्ध एक विशेष प्रकार की शक्ति की आवश्यकता होती है | अतः शाक्त सम्प्रदाय के लोग सशक्त बनने अर्थात सिद्धियाँ प्राप्त के लिए अनेक प्रकार से योग साधना तथा तन्त्र साधना करते हैं | इस क्रम में वे दश महाविद्याओं की उपासना करते हैं | इनके अनुसार शक्ति के इस दश रूपों में एक सत्य समाहित हैमहाविद्यामहान ज्ञानजिसके अन्तर्गत माँ भगवती के दश लौकिक व्यक्तित्वों की व्याख्या होती है | शक्ति के ये दश व्यक्तित्व हैं :-

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी |

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ||

बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका |

एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्रकीर्तिता ||

काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला ये दश महाविद्याएँ साधक को सिद्धि प्रदान करने वाली कही गई हैं |

देवी भागवत के अनुसार शिव और सती के विवाह से सती के पिता दक्ष अप्रसन्न थे | उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया और शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से उन्हें आमन्त्रित नहीं किया | किन्तु सती अपने पिता के घर यज्ञ में जाना चाहती थीं | शिव ने उन्हें रोकना चाहा तब सती ने स्वयं को महाकाली के भयानक रूप में परिवर्तित कर लिया | शिव घबराकर वहाँ से भागने लगे तो वे जिस भी दिशा में जाते उसी दिशा में उन्हें सती किसी न किसी रूप में मार्ग रोके खड़ी मिलतीं | अन्त में शिव ने उन्हें जाने दिया जहाँ दक्ष के द्वारा शिव की निन्दा किये जाने पर सती ने यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहुति देकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया | इस प्रकार दशों दिशाओं में जो उनके दश रूप प्रकट हुए वे ही दश महाविद्या के नाम से जाने जाते हैं |

शिव पुराण के अनुसार माँ दुर्गा ने दश रूप धारण करके उनकी सहायता से दुर्गम दैत्य का वध किया थाये ही देवी के दश रूप दश महाविद्या कहलाए | दश महाविद्याओं का यह समन्वित रूप इस तथ्य को भी सिद्ध करता है कि नारी वास्तव में सर्वशक्तिमान है | शाक्त दर्शन इन दश महाविद्याओं को भगवान विष्णु के दश अवतारों से भी सम्बद्ध करता है और साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि महाविद्याओं के ये दशों रूप चाहे भयानक हों अथवा सौम्यजगज्जननी जगदम्बिका के रूप में पूज्यमान हैं |

इनके विषय में विस्तार से भविष्य में कभी

ये दशों महाविद्याएँ समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाने वाली तथा सर्वार्थ का साधन करने वाली हैं, किन्तु इनकी उपासना की विधियाँ प्रायः तान्त्रिक हैं तथा बहुत कठिन हैं | और हमारा ऐसा मानना है कि गृहस्थी लोगों को इस प्रकार की तान्त्रिक उपासनाओं से प्रायः बचना चाहिए | यदि उपासना में थोड़ी सी भी चूक हो जाए तो न केवल साधक पर बल्कि उसके परिवार के लिए भी घातक सिद्ध हो सकती है |

देवी के सभी रूप समस्त संसार का कल्याण करें यही कामना है

——-कात्यायनी

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

आज वैशाख शुक्ल सप्तमी – यानी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज माँ गंगा का जन्मोत्सव है – गंगा सप्तमी | कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने राक्षसों के उत्पात से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हुए उनका पद प्रक्षालन किया और उस जल को अपने कमण्डल में भर लिया, जिससे बाद में गंगा जी की उत्पत्ति हुई | ऐसी भी मान्यता है कि गंगा सप्तमी के दिन माँ गंगा ने भगवान विष्णु के चरण प्रक्षालित करके उनके चरणों में स्थान प्राप्त किया था | राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्त करने के लिए गंगा जी को पृथिवी पर लाने हेतु कठोर तपस्या की जिसके परिणामस्वरूप गंगा सप्तमी के दिन ब्रह्मा जी ने गंगा जी को अपने कमण्डल से मुक्त किया और माँ गंगा नीचे की ओर तीव्र वेग से दौड़ पड़ीं | क्योंकि बहुत समय से कमण्डल के भीतर बन्द थीं और अब उन्हें कुछ स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी तो उनके भीतर बहुत अधिक उद्वेग था – बहुत अधिक आवेग था – बहुत अधिक उमंग थी – और उसी के कारण उनसे प्रमाद हो गया और वे तीव्र वेग से नीचे आने लगीं | उनका प्रवाह इतना अधिक तीव्र था कि मार्ग में आने वाली हर वस्तु को अपने साथ बहा लिए जा रही थीं | जब भगवान ने यह सब देखा तो उन्होंने गंगा को शान्त करने के लिए अपनी जटाओं में जकड़ लिया और गंगा दशहरा अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तक गंगा जी वहीं बन्द रहीं | भगीरथ अब चिन्तित हो गाए और पुनः उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की कि अब तो उन्हें अपनी जटाओं के बन्धन से मुक्त करें | गंगा जी शंकर जी की जटाओं में शनैः शनैः शान्त होने लगी थीं और शंकर भगवान ने भगीरथ की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गंगा जी को अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया |

जब वे शंकर जी की जटाओं से मुक्त हुईं तो उनमें पुनः वही आवेग आदि आ गया कि मैं तो अब मुक्त हूँ और कुछ भी कर सकती हूँ | और पुनः उसी तीव्र वेग से नीचे उतरती हुई वे अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को – हर प्राणी को अपने प्रवाह के साथ बहाती आगे बढ़ने लगीं | मार्ग में जानू ऋषि का आश्रम पड़ता था | उन्होंने उनका सारा आश्रम भी ध्वस्त कर दिया | जानू ऋषि को क्रोध आया और उन्होंने गंगा का सारा जल पीकर उन्हें सुखा दिया | अब तो सारी पृथिवी पर – सारे लोकों में हाहाकार मच गया | धरा व्याकुल हो गई कि उनकी बहन उनसे मिलने के लिए – उन्हें रसापलावित करने के लिए – नीचे आ रही थी – लेकिन उन्हें पहले तो शंकर भगवान ने उन्हें जटाओं में बाँध लिया, फिर जानू ऋषि ने उनका सारा जल सुखा दिया | अब मैं कैसी मिलूँगी अपनी भगिनी से | तब सारे देवों ने – समस्त लोकों के प्राणियों ने मिलकर जानू ऋषि से प्रार्थना की तब उन्होंने अपने एक कान से गंगा जी को छोड़ा एक पतली धारा के रूप में ताकि उनका प्रवाह नियंत्रित रहे | अब तक उन्हें शिक्षा मिल चुकी थी की मुझे उन्माद में नहीं आना है और वे पूरे शान्त भाव से नीचे उतर आईं |

ये समस्त कथाएँ या तो पौराणिक हैं अथवा लोक मान्यताओं पर आधारित हैं | किन्तु जैसा कि हम प्रायः कहते हैं कि भारतवर्ष का कोई भी पर्व अथवा त्यौहार ऐसा नहीं है जो अकारण हो अथवा जिसमें कोई सन्देश न निहित हो | यहाँ इस पूरे कथानक को देखें समझें तो ज्ञात होता है कि यह सब प्रतीकात्मक है | जल की अधोगति होती है ऊर्ध्व गति नहीं होती – सदा नीचे की ओर ही प्रवाहित होता है | नर्मदा को छोड़कर शेष सारी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं | तो पहली समस्या तो है जल की अधोगति – अधोगति होने पर किसी भी प्रकार का प्रमाद सम्भव है – अथवा ऐसे भी क़ाह सकते हैं कि जब व्यक्ति प्रमाद स्वरूप अपने कर्तव्य कर्म को भुला बैठता हाँ और आवेग अथवा अहंकार में आ जाता है तो उसकी अधोगति निश्चित है | किन्तु वही जब पुनः अपने मार्ग पर लौट आता है शान्त भाव से तो स्वयं स्थिर रहते हुए अन्य जनों को भी स्थिरता और शान्ति प्रदान करता है |

उसके बाद इस कहानी से जो तथ्य स्पष्ट होता है वह यह कि गंगा जी यदि जानू तक अर्थात् घुटने तक रहें तब तक तो ठीक है, लेकिन जितना अधिक वे तीव्र बहाव के साथ चढ़ती जाएँगी और आगे बढ़ती जाएँगी तो वे प्रलय का – बाढ़ का कारण बन जाएँगी | घुटनों तक रहने का अभिप्राय है विनम्रता का भाव रहना | अतः मनुष्य में विनम्रता का भाव सदैव विद्यमान रहना चाहिए | साथ ही एक शिक्षा भी, कि माना वो जन कल्याण के लिए नीचे आ रही थीं, अपनी भगिनी वसुधा से मिलने के लिए नीचे आ रही थीं, बहुत समय बाद उनसे मिल रही थीं तो मन में एक उत्साह था, उमंग थी, भगिनी का प्रेम था, किन्तु प्रेम में यदि उन्माद आ जाए, प्रेम में यदि प्रमाद आ जाए, प्रेम में यदि अहंकार आ जाए, आवेग आ जाए, तो वह प्रेम या तो शकुन्तला के प्रेम की भाँति ऋषि श्राप से विस्मृत कर दिया जाता है अथवा बार बार बंधनों में जकड़ जाता है या उसके रस को सुखा दिया जाता है – भस्म कर दिया जाता है | स्वतन्त्रता का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि मनुष्य अपनी मर्यादा भूल जाए | अतः हमें अपनी मर्यादा नहीं भूलनी चाहिए – अपनी सीमाओं का ध्यान सदैव रखना चाहिए – तभी हम पथ भ्रष्ट होने से बच सकते हैं तथा बहुत सी समस्याओं से मुक्त रह सकते हैं | गंगा नदी अपने तीव्र वेग के कारण इतने सारे व्यवधानों को पार करके शान्त भाव से धरा पर उतरीं तभी तो उनके अमृत तुल्य जल में स्नान करने से – उसका आचमन करने से – त्रिविध तापों से मुक्ति प्राप्त होती है, समस्त प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक पापों से मुक्ति प्राप्त होती है |

गंगा सप्तमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

कल समूचा राष्ट्र एक महान और गौरवशाली घटना का साक्षी बनने जा रहा है – भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा – जिसके बाद वह प्रस्तर प्रतिमा “विग्रह” बन जाएगी | लगभग हर व्यक्ति अपनी अपनी सामर्थ्य और योग्यता इत्यादि के अनुसार इस आनन्द का अनुभव कर रहा है | ऐसे ही कुछ लोग तरह तरह से भगवान श्री राम के चित्र, रंगोली, मूर्तियाँ इत्यादि भी गढ़ कर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं | आज ही एक मूर्ति सोशल मीडिया पर वायरल हुई जिसमें एक लड़की ने घर में उपलब्ध टीन के कनस्तर इत्यादि से बड़ी ख़ूबसूरती से भगवान श्री राम की मूर्ति बनाकर पोस्ट की और उस पर कुछ लोगों ने उस लड़की की आलोचना भी आरम्भ कर दी कि ऐसा करना भगवान का अपमान करना है और इसकी पूजा नहीं की जा सकती | तो सर्वप्रथम तो हम उन आलोचकों से निवेदन करना चाहेंगे कि वह मूर्ति उस लड़की ने केवल अपने आनन्द की अभिव्यक्ति के लिए बनाई थी और उसकी पूजा करना उसका उद्देश्य था ही नहीं | क्योंकि किसी भी मूर्ति को यदि पूजा अर्चना के लिए उपयुक्त बनाना है तो पहले उसमें प्राण प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता होती है – जिसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि के मार्ग पर चलने की आवश्यकता होती है – जिस प्रकार इन दिनों हमारे आदरणीय प्रधानमन्त्री जी यम नियम का पालन कर रहे हैं | किसी ने सुझाव दिया इस विषय पर कुछ लिखने का, तो आइए आज इसी विषय पर बात करते हैं | आगे बढ़ने से पूर्व एक बात स्पष्ट कर दें कि इस लेख की लेखिका मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के विधान की ज्ञाता नहीं है, केवल अपने पिताजी और विद्वज्जनों से जो कुछ ज्ञात हुआ है उसे ही यहाँ लिखने का प्रयास कर रही है, अतः यदि कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए आरम्भ में ही क्षमा याचना करते हैं… |

प्राण प्रतिष्ठा केवल एक रीति अथवा आडम्बर मात्र नहीं है, अपितु यह एक अत्यन्त प्रभावशाली कार्य है क्योंकि प्रतिष्ठा करने वाला व्यक्ति उस मूर्ति में मन्त्र जाप इत्यादि के माध्यम से इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न कर देता है – यहाँ तक कि अपने प्राणों की ऊर्जा तक उसमें प्रेषित कर देता है कि जब यह अनुष्ठान पूर्ण होता है तो मूर्ति से निसृत ऊर्जा प्रतिष्ठा करने वाले व्यक्ति तथा वहाँ उपस्थित समस्त जन समूह को भी प्रभावित कर देती है | हम जब दुर्गा पूजा अथवा गणपति पूजा के समय अपने घरों में मूर्ति लेकर आते हैं पूजा के लिए तो अनुष्ठान के आरम्भ में यज्ञ में आहुति समर्पित करते हुए मंत्रोच्चार किया जाता है “मनो जूतिर्जुषतामज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं, तनोत्वरितष्टं यज्ञSघ्वँ समिम दधातु विश्वेदेवास इह मादयन्तामोSम्प्रतिष्ठ ||” (यजुर्वेद 2/13 ) अर्थात्, ही सविता देव आपका वेगमान मन इस आज्य अर्थात् घृत का सेवन करे, बृहस्पति देव इस यज्ञ को सभी प्रकार के अनिष्ट से रहित करते हुए इसका विस्तार करें और इसे धारण करें तथा सभी दिव्य शक्तियाँ प्रतिष्ठित होकर आनन्दित और सन्तुष्ट हों | तथा, “अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च | अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ||” अर्थात्, इस देव प्रतिमा के प्राण यहाँ प्रतिष्ठित हों, इसमें नित्य प्राणों का सँचार होता रहे, अर्चना हेतु इसके दैवत्व कि महानता को कम नहीं समझना चाहिए – यह बहुत महान है | इत्यादि मन्त्र बोलकर सर्व प्रथाम उस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है ताकि सम्बन्धित देवता की मूर्ति में इतनी ऊर्जा उत्पन्न हो जाए कि वह अनुष्ठान निर्विघ्न सम्पन्न हो सके | और आपने देखा भी होगा कि अनुष्ठान की उस अवधि में साधक के तन मन में ऊर्जा का पूर्ण प्रवाह बना रहता है | और ऐसा केवल मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा तक ही सीमित नहीं है – जब एक गुरु अपने शिष्य को कोई मन्त्र इत्यादि देता है तो उस गुरु और शिष्य को भी उसी प्रकार यम नियम आदि का पालन करना आवश्यक होता है – शिष्य को मन्त्र देते समय गुरु अपनी स्वयं की ऊर्जा भी शिष्य में प्रेषित करता है ताकि वह निर्विघ्न रूप से उस मन्त्र को सिद्ध कर सके | भारत में तो लगभग हर हिन्दू परिवार में और मन्दिरों इत्यादि में इस प्रकार के अनुष्ठान अनादि काल से सम्पन्न होते आ रहे हैं और यही कारण है कि कितनी भी समस्याएँ राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हो जाएँ – कितनी भी आपदाएँ उपस्थित हो जाएँ – यहाँ का जन मानस इतना सबल और दृढ़ निश्चयी है कि उन सभी से मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है और हमारा देश उसी दृढ़ता के साथ पुनः उठ खड़ा होता है |

प्राण-प्रतिष्ठा के पीछे वैदिक विज्ञान समाहित है | यह समस्त संसार – समस्त प्राणी – पँच महाभूतों से निर्मित हैं | ये पँच महाभूत समस्त सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं | जल, वायु, प्रकाश अर्थात् अग्नि, ध्वनि अर्थात् आकाश तथा पृथिवी अर्थात् मृत्तिका सर्वत्र व्याप्त हैं | ब्रह्माण्ड में व्याप्त इन समस्त ईश्वरीय तत्वों को जब एक स्थान पर एकत्र करके पूर्ण विधि विधान से एक मूर्ति में समाहित कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा उस ऊरती में सन्निहित हो जाती है और वह मूर्ति एक प्रकार से जीवन्त हो जाती है | कई बार पौरातत्विक धरोहर के रूप में आरक्षित किसी मन्दिर में जाने पर एक विचित्र प्रकार का आध्यात्मिक अनुभव होता होता है, जबकि वहाँ पूजा अर्चना का भी नहीं हो रही होती है, और जब हम वहाँ से बाहर निकलते हैं तो कुछ समय तक कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं होते हैं | इसका कारण यही है कि सदियों पूर्व ऋषि मुनियों ने वहाँ की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की थी जिनका प्रभाव वर्तमान समय तक भी विद्यमान है – क्योंकि पँच महाभूतों का जो संगम वहाँ ऋषि मुनियों ने कराया उसका प्रभाव तो कभी नष्ट हो नहीं सकता |

जब हम किसी स्थान पर प्राण प्रतिष्ठा करते हैं तो वहाँ की ऊर्जा इतनी तीव्र हो जाती है कि उससे एक प्रकार का अदृश्य कम्पन सा उत्पन्न होता है और जब हम उस स्थान पर जाते हैं तो उसी ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर के निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर स्वाभाविक रूप से होना आरम्भ हो जाता है | समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य भी यही है कि साधक ऊर्जा को निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर ले जाए | यही कारण है कि प्राण प्रतिष्ठा एक असाधारण तथा अद्भुत कार्य है और हर कोई इस कार्य को करने और कराने में सक्षम नहीं होता | अन्यथा तो मूर्ति क्या है – एक चट्टान का टुकड़ा भर ही न | और एक बात, प्राण प्रतिष्ठा के द्वारा किसी प्रस्तर प्रतिमा को जीवित मनुष्य नहीं बनाया जाता अपितु उसके जागृत होने का – उसके सिद्ध होने का अनुभव किया जाता है | इस प्रक्रिया में मूर्ति के कई अधिवास कराए जाते हैं – कई अभिषेकों के द्वारा उसके दोषों का शमन किया जाता है, वेदिक मन्त्रों तथा शंख आदि की ध्वनियों का नाद किया जाता है – और जब यह नाद शून्य अर्थात् आकाश में विद्यमान नाद से जाकर मिल जाता है तो वह मूर्ति और वह स्थान समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा से सम्पन्न हो जाता है – और यही होता है मूर्ति का जागृत होना | यह अनुष्ठान इतना कठिन होता है कि इसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि का भी पालन करने की आवश्यकता होती है |

शास्त्रों के अनुसार अष्टांग योग के आठ भाग है, जिसमें आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, भजन, समाधि, यम और नियम होते हैं | यम नियम में अन्न और बिस्तर पर सोने का त्याग और प्रतिदिन स्नान करना आवश्यक तथा मन्त्र आदि का जाप करना होता है | विद्वज्जनों और शास्त्रों के अनुसार मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के मुख्य यजमान को मूर्ति स्थापना से पूर्व इन समस्त यम नियमों का पालन करके स्वयं को मूर्ति से निसृत ऊर्जा के योग्य बनाने की आवश्यकता होती है | यही कारण है मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा के समय उसके नेत्रों पर वस्त्र बाँध दिया जाता है और एक शीशे को सामने रखकर ही वस्त्र हटाया जाता है | अन्यथा इतने अधिक मन्त्र जाप, अधिवास और तान्त्रिक अनुष्ठान आदि के कारण जो ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका प्रवाह इतना तीव्र होता है कि साधारण मनुष्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है | ऊर्जा के वेग से कई बार वह शीशा भी टूट कर बिखर जाता है – जिसे एक शुभ संकेत माना जाता है |

और भगवान श्री राम की मूर्ति का तो निर्माण ही एक बहुत प्रभावशाली शिला “शालिग्राम” से हुआ है – जो वास्तव में एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है, जिसके विषय में प्रायः सभी को ज्ञात होगा कि जीवाश्म पौधों और जानवरों के संरक्षित अवशेष होते हैं जिनके शरीर प्राचीन समुद्रों, झीलों और नदियों के नीचे रेत और मिट्टी जैसी तलछट में दबे हुए पाए जाते हैं और प्रायः लाखों करोड़ों वर्ष पुराने होते हैं | भगवान श्री राम की प्रतिमा जिस शालिग्राम से गढ़ी गई है वह भी लगभग 60 करोड़ वर्ष पुराना है | शालिग्राम का प्रयोग परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है | प्रायः घरों में गोल अथवा अंडाकार रूप में शालिग्राम का अभिषेक किया जाता है | पद्मपुराण के अनुसार – गण्डकी (नेपाल) अर्थात नारायणी नदी के एक प्रदेश में शालिग्राम स्थल नाम का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँ से निकलनेवाले पत्थर को शालिग्राम कहते हैं | ऐसी मान्यता है कि इसके स्पर्श मात्र से जन्म जन्मान्तर पाप नष्ट हो जाते हैं | ऐसे प्रभावशाली पत्थर से जिस मूर्ति का निर्माण हुआ हो उसमें जब प्राण प्रतिष्ठा के विधान से ब्रह्मांडीय ऊर्जा समाहित होगी तो सोचने की बात है वह कितनी अधिक तीव्र होगी |

अस्तु, इस विग्रह से निसृत ऊर्जा समस्त जन मानस के मनों को भी चैतन्यता प्रदान करे, इसी कामना के साथ – जय श्री राम…

 

वर्ष 2024 मे पञ्चक

वर्ष 2024 मे पञ्चक

नमस्कार मित्रों ! वर्ष 2023 को विदा करके वर्ष 2024 आने वाला है… सर्वप्रथम सभी को वर्ष 2024 के लिये अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ… हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी नूतन वर्ष के आरम्भ से पूर्व प्रस्तुत है वर्ष 2024 में आने वाले पञ्चकों की एक तालिका… किन्तु तालिका प्रस्तुत करने से पूर्व आइये जानते हैं कि पञ्चक वास्तव में होते क्या हैं |

पञ्चकों का निर्णय चन्द्रमा की स्थिति से होता है | घनिष्ठा से रेवती तक पाँच नक्षत्र पञ्चक समूह में आते हैं | अर्थात घनिष्ठा, शतभिषज, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती नक्षत्रों में जब चन्द्रमा होता है तब यह स्थिति नक्षत्र पञ्चक – पाँच विशिष्ट नक्षत्रों का समूह – कहलाती है | इनमें दो नक्षत्र – पूर्वा भाद्रपद और रेवती – सात्विक नक्षत्र हैं, तथा शेष तीन – शतभिषज धनिष्ठा और उत्तरभाद्रपद – तामसी नक्षत्र हैं | इन पाँचों नक्षत्रों में चन्द्रमा क्रमशः कुम्भ और मीन राशियों पर भ्रमण करता है | अर्थात चन्द्रमा के मेष राशि में आ जाने पर पञ्चक समाप्त हो जाते हैं | इस प्रकार वर्ष भर में कई बार पञ्चकों का समय आता है |

वास्तव में तो धनिष्ठा के तृतीय चरण से लेकर रेवती के अन्त तक का समय पञ्चक का समय माना जाता है – यानी धनिष्ठा के दो पाद, शतभिषज, दोनों भाद्रपद और रेवती के चारों पाद पञ्चक समूह में आते हैं | पञ्चकों को प्रायः किसी भी शुभ कार्य के लिए अशुभ माना गया है | इस अवधि में बच्चे का नामकरण तो नितान्त ही वर्जित है | ऐसी भी मान्यता है कि पञ्चक में यदि किसी का स्वर्गवास हो जाए तो पञ्चकों के समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए और उसकी समस्त क्रियाएँ पञ्चकों की समाप्ति पर कुछ शान्ति उपायों के साथ सम्पन्न करनी चाहियें | अर्थात पञ्चक काल में शव का दाह संस्कार नहीं करना चाहिए अन्यथा परिवार के लिए शुभ नहीं होता |

पञ्चकों के अलग अलग वार के अनुसार अलग अलग फल होते हैं | जैसे सोमवार को यदि पञ्चकों का आरम्भ हो तो उन्हें राज पञ्चक कहा जाता है जो शुभ माना जाता है | यदि “राज पञ्चक” की मान्यता को मानें तो इसका अर्थ यह हुआ कि इस अवधि में कोई शुभ कार्य भी किया जा सकता है | इसके अतिरिक्त रविवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को रोग पञ्चक माना जाता है, शुक्रवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को चोर पञ्चक और मंगलवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को अग्नि पञ्चक माना जाता है | नाम से ही स्पष्ट है कि मान्यता के अनुसार इन पञ्चकों में रोग, आग लगने अथवा चोरी आदि का भय हो सकता है | जैसे धनिष्ठा नक्षत्र में कोई कार्य आरम्भ करने से अग्नि का भय हो सकता है, शतभिषज में क्लेश का भय, पूर्वाभाद्रपद रोगकारक, उत्तर भाद्रपद में दण्ड का भय तथा रेवती नक्षत्र में कोई कार्य आरम्भ करने पर धनहानि का भय माना जाता है | इनके अतिरिक्त गुरुवार और बुधवार को आरम्भ होने वाले पञ्चकों को सदा शुभ माना जाता है |

कुछ अन्य कार्यों की भी मनाही पञ्चकों के दौरान होती है – जैसे दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए | लेकिन आज के प्रतियोगिता के युग में यदि किसी व्यक्ति का नौकरी के लिए इन्टरव्यू उसी दिन हो और उसे दक्षिण दिशा की ही यात्रा करनी पड़ जाए तो वह कैसे इस नियम का पालन कर सकता है ? यदि पञ्चकों के भय से वह इन्टरव्यू देने नहीं जाएगा तो जो कार्य उसे मिलने की सम्भावना हो सकती थी वह कार्य उसके हाथ से निकल कर किसी और को मिल सकता है |

एक और मान्यता है कि पञ्चकों के एक विशेष नक्षत्र में लकड़ी इत्यादि इकट्ठा करने का या छत आदि डलवाने का कार्य नहीं करना चाहिए | लेकिन आज जिस प्रकार की व्यस्तताओं में हर व्यक्ति घिरा हुआ है उसके चलते ऐसा भी तो हो सकता है कि व्यक्ति को उसी दिन अपने ऑफिस से अवकाश मिला हो और उसी दिन उसे वह कार्य सम्पन्न करना हो ?

ऐसी भी मान्यता है कि इस अवधि में किया कोई भी कार्य पाँचगुना फल देता है | इस स्थिति में तो इस अवधि में किये गए शुभ कार्यों का फल भी पाँच गुना प्राप्त होना चाहिए – केवल अशुभ कार्यों का ही फल पाँच गुणा क्यों हो ? सम्भवतः इसी विचार के चलते कुछ लोगों ने ऐसा विचार किया कि पञ्चक केवल अशुभ ही नहीं होते, शुभ भी हो सकते हैं | इसीलिए पञ्चकों में सगाई, विवाह आदि शुभ कार्य करना अच्छा माना जाता है | पञ्चक के अन्तर्गत आने वाले तीन नक्षत्र – पूर्वा भाद्रपद, उत्तर भाद्रपद और रेवती – में से कोई यदि रविवार को आए तो वह बहुत शुभ योग तथा कार्य में सफलता प्रदान करने वाला माना जाता है |

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हमारी ऐसी मान्यता है कि ज्योतिष के प्राचीन सूत्रों को – प्राचीन मान्यताओं को – आज की परिस्थितियों के अनुकूल उन पर शोध कार्य करके यदि संशोधित नहीं किया जाएगा तो उनका वास्तविक लाभ उठाने से हम वंचित रह सकते हैं | वैसे भी ज्योतिष के आधार पर कुण्डली का फल कथन करते समय भी देश-काल-व्यक्ति का ध्यान रखना आवश्यक होता है | तो फिर विशिष्ट शुभाशुभ कालों पर भी इन सब बातों पर विचार करना चाहिए | साथ ही हर बात का उपाय होता है | किसी भी बात से भयभीत होने की अपेक्षा यदि उसके उपायों पर ध्यान दिया जाए तो उस निषिद्ध समय का भी सदुपयोग किया जा सकता है |

तोअपने कर्तव्य कर्मों का पालन करते हुए हम सभी का जीवन मंगलमय रहे और सब सुखी रहें… इसी भावना के साथ प्रस्तुत है वर्ष 2024 में आने वाले पञ्चकों की एक तालिका…

शनिवार 13 जनवरी रात्रि 11:35  से गुरूवार 18 जनवरी अर्धरात्रयोत्तर 03:33 तक – मृत्यु पञ्चक

शनिवार 10 फ़रवरी प्रातः 10:02 से बुधवार 14 फ़रवरी प्रातः 10:43 तक – मृत्यु पञ्चक

शुक्रवार 08 मार्च रात्रि 9:20 से मंगलवार 12 मार्च रात्रि 8:29 तक – चोर पञ्चक

शुक्रवार 05 अप्रैल प्रातः 07:12 से मंगलवार 09 अप्रैल प्रातः 07:32 तक – चोर पञ्चक

गुरूवार 02 मई दिन में 2:32 से सोमवार 06 मई सायं 5:43 तक

बुधवार 29 मई रात्रि 8:06 से सोमवार 03 जून अर्ध रात्रि में 01:40 तक

बुधवार 26 जून अर्ध रात्रि में 01:49 से रविवार 30 जून प्रातः 07:34 तक

मंगलवार 23 जुलाई प्रातः 09:20 से शनिवार 27 जुलाई दिन में 1 बजे तक – अग्नि पञ्चक

सोमवार 19 अगस्त रात्रि 7 बजे से शुक्रवार 23 अगस्त रात्रि 7:54 तक – राज पञ्चक

सोमवार 16 सितम्बर प्रातः 05:44 से शुक्रवार 20 सितम्बर प्रातः 05:15 तक – राज पञ्चक

रविवार 13 अक्टूबर अपराह्न 3:44 से गुरूवार 17 अक्टूबर सायं 4:20 तक – रोग पञ्चक

शनिवार 09 नवम्बर रात्रि 11:27 से गुरूवार 14 नवम्बर अर्धरात्रयोत्तर  03:11 तक – मृत्यु पञ्चक

शनिवार 07 दिसम्बर प्रातः 05:07 से बुधवार 11 दिसम्बर प्रातः 11:48 तक – मृत्यु पञ्चक

अन्त में इतना हीकि ज्योतिष के प्राचीन सूत्रों को – प्राचीन मान्यताओं को – आज की परिस्थितियों के अनुकूल उन पर शोध कार्य करके यदि संशोधित नहीं किया जाएगा तो उनका वास्तविक लाभ उठाने से हम वंचित रह सकते हैं | वैसे भी ज्योतिष के आधार पर कुण्डली का फल कथन करते समय भी देश-काल-व्यक्ति का ध्यान रखना आवश्यक होता है | तो फिर विशिष्ट शुभाशुभ काल निर्णय के लिए भी इन सब बातों पर विचार करना चाहिए | साथ ही हर बात का उपाय होता है |

अन्त में यही कहेंगे कि किसी भी प्रकार के अन्धविश्वास से भयभीत होने की अपेक्षा अपने कर्म पर बल देना चाहिए… इसी भावना के साथ वर्ष 2024 की सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ…

 

एकादशी व्रत 2024

एकादशी व्रत 2024

नमस्कार मित्रों ! वर्ष 2023 को विदा करके वर्ष 2024 आने वाला है… सर्वप्रथम सभी को आने वाले वर्ष के लिए अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ… हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी नूतन वर्ष के आरम्भ से पूर्व प्रस्तुत है वर्ष 2024 में आने वाले सभी एकादशी व्रतों की एक तालिका… वर्ष 2024 का आरम्भ ही एकादशी व्रत के साथ हो रहा है… प्रथम एकादशी होगी पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी – जिसे पुत्रदा एकादशी कहा जाता है…

सभी जानते हैं कि हिन्दू धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्त्व है | पद्मपुराण के अनुसार भगवान् श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को एकादशी व्रत का आदेश दिया था और इस व्रत का माहात्म्य बताया था | प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशी होती है, और अधिमास हो जाने पर ये छब्बीस हो जाती हैं | किस एकादशी के व्रत का क्या महत्त्व है तथा किस प्रकार इस व्रत को करना चाहिए इस सबके विषय में विशेष रूप से पद्मपुराण में विस्तार से उल्लेख मिलता है | यदि दो दिन एकादशी तिथि हो तो स्मार्त (गृहस्थ) लोग पहले दिन व्रत रख कर उसी दिन पारायण कर सकते हैं, किन्तु वैष्णवों के लिए एकादशी का पारायण दूसरे दिन द्वादशी तिथि में ही करने की प्रथा है | हाँ, यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पूर्व समाप्त होकर त्रयोदशी तिथि आ रही हो तो पहले दिन ही उन्हें भी पारायण करने का विधान है | सभी जानते हैं कि एकादशी को भगवान् विष्णु के साथ त्रिदेवों की पूजा अर्चना की जाती है | यों तो सभी एकादशी महत्त्वपूर्ण होती हैं, किन्तु कुछ एकादशी जैसे षटतिला, निर्जला, देवशयनी, देवोत्थान, तथा मोक्षदा एकादशी का व्रत प्रायः वे लोग भी करते हैं जो अन्य किसी एकादशी का व्रत नहीं करते | इन सभी एकादशी के विषय में हम समय समय पर लिखते रहे हैं | वर्ष 2024 की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत है सन् 2024 के लिए एकादशी की तारीखों की एक तालिका – उनके नामों तथा जिस हिन्दी माह में वे आती हैं उनके नाम सहित… वर्ष 2024 में प्रथम एकादशी होगी पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी – जिसे पुत्रदा एकादशी कहा जाता है

  • रविवार 7 जनवरी – पौष कृष्ण सफला एकादशी
  • रविवार 21 जनवरी – पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशी
  • मंगलवार 6 फ़रवरी – माघ कृष्ण षटतिला एकादशी
  • मंगलवार 20 फरवरी – माघ शुक्ल जया एकादशी
  • बुधवार 6 मार्च – फाल्गुन कृष्ण विजया एकादशी
  • बुधवार 20 मार्च – फाल्गुन शुक्ल आमलकी एकादशी
  • शुक्रवार 5 अप्रैल – चैत्र कृष्ण पापमोचिनी एकादशी
  • शुक्रवार 19 अप्रैल – चैत्र शुक्ल कामदा एकादशी
  • शनिवार 4 मई – वैशाख कृष्ण बरूथिनी एकादशी
  • रविवार 19 मई – वैशाख शुक्ल मोहिनी एकादशी
  • रविवार 2 जून – ज्येष्ठ कृष्ण अपरा एकादशी स्मार्त
  • सोमवार 3 जून – ज्येष्ठ कृष्ण अपरा एकादशी वैष्णव
  • मंगलवार 18 जून – ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी
  • मंगलवार 2 जुलाई – आषाढ़ कृष्ण योगिनी एकादशी
  • बुधवार 17 जुलाई – आषाढ़ शुक्ल देवशयनी एकादशी
  • बुधवार 31 जुलाई – श्रावण कृष्ण कामिका एकादशी
  • शुक्रवार 16 अगस्त – श्रावण शुक्ल पुत्रदा एकादशी
  • गुरुवार 29 अगस्त – भाद्रपद कृष्ण अजा एकादशी
  • शनिवार 14 सितम्बर – भाद्रपद शुक्ल परिवर्तिनी एकादशी
  • शनिवार 28 सितम्बर – आश्विन कृष्ण इन्दिरा एकादशी
  • रविवार 13 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल पापांकुशा एकादशी स्मार्त
  • सोमवार 14 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल पापांकुशा एकादशी वैष्णव
  • रविवार 27 अक्टूबर – कार्तिक कृष्ण रमा एकादशी स्मार्त
  • सोमवार 28 अक्टूबर – कार्तिक कृष्ण रमा एकादशी वैष्णव
  • मंगलवार 12 नवम्बर – कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी
  • मंगलवार 26 नवम्बर – मार्गशीर्ष कृष्ण उत्पन्ना एकादशी
  • बुधवार 11 दिसम्बर – मार्गशीर्ष शुक्ल मोक्षदा एकादशी
  • गुरुवार 26 दिसम्बर – पौष शुक्ल सफला एकादशी

त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की कृपादृष्टि समस्त जगत पर बनी रहे और सभी स्वस्थ व सुखी रहें, इसी भावना के साथ सभी को वर्ष 2023 की हार्दिक शुभकामनाएँ वर्ष 2023 का हर दिनहर तिथिहर पर्व आपके लिए मंगलमय हो यही कामना है

—–कात्यायनी

शारदीय नवरात्र 2023 की तिथियाँ 

शारदीय नवरात्र 2023 की तिथियाँ 

शनिवार 14 अक्तूबर को महालया के साथ ही हमारे पूर्वज अपने शाश्वत धाम को वापस लौट जाएँगे और उसके दूसरे दिन यानी रविवार 15 अक्तूबर आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र आरम्भ हो जाएँगे |

प्रायः लोग देवी के वाहन के विषय में बात करते हैं, तो इसके विषय में देवी भागवत महापुराण में कहा गया है :

शशि सूर्य गजरुढा शनिभौमै तुरंगमे, गुरौशुक्रे च दोलायां बुधे नौकाप्रकीर्तिता

अर्थात नवरात्र का आरम्भ यदि सोमवार या रविवार से हो तो भगवती का वाहन हाथी होता है, शनिवार या मंगलवार को हो तो अश्व, शुक्रवार या गुरूवार को हो तो डोली तथा बुधवार को हो तो नौका भगवती का वाहन होता है | इस वर्ष क्योंकि रविवार से नवरात्र आरम्भ हो रहे हैं अतः भगवती का वाहन हाथी है | भगवती का वाहन यदि हाथी हो तो वह अत्यन्त शुभ माना जाता है और माना जाता है कि उस वर्ष वर्षा उत्तम होने के कारण फसल अच्छी होती है तथा देश में अन्न के भण्डार भरे रहते हैं और सम्पन्नता बनी रहती है | इसी प्रकार भगवती के प्रस्थान के वाहन के भी विद्वज्जन कुछ संकेत मानते हैं, यथा : रविवार और सोमवार को भगवती का वाहन भैंसा होता है, जो शुभ नहीं माना जाता | शनिवार और मंगलवार को मुर्गे की सवारी मानी जाती है जो वाहन कष्ट का संकेत देती है | बुधवार और शुक्रवार को हाथी – जो सम्पन्नता का प्रतीक है | गुरुवार का वाहन मनुष्य स्वयं है – जो सुख समृद्धि का द्योतक है | इस वर्ष नवमी को जो लोग विसर्जन करते हैं उनके लिए सोमवार होने के कारण देवी भैंसे पर जाएँगी और दशमी को मंगलवार होने के कारण मुर्गे पर जाएँगी – जो दोनों ही शुभ नहीं माने जाते |

किन्तु इस विषय में हमारी स्वयं की मान्यता है कि जब भगवती का आगमन शुभ योगों में हो रहा है तो जन साधारण के लिए वर्ष भर शुभत्व ही रहना चाहिए | साथ ही, पूर्ण भक्ति भावना की गई उपासना किसी भी मुहूर्त में की जाए – अनुकूल फल ही प्रदान करेगी | अतः किसी प्रकार के भ्रम की आवश्यकता नहीं है |

इस वर्ष प्रतिपदा तिथि का आरम्भ चौदह अक्तूबर को रात्रि 11:24 के लगभग होगा जो पन्द्रह अक्तूबर को अर्धरात्रि में 12:32 तक रहेगी | चौदह अक्तूबर को ही सायं 4:24 से चित्रा नक्षत्र आरम्भ हो जाएगा जो पन्द्रह को सायं 6:13 तक रहेगा | विद्वानों की मानें तो घट स्थापना में चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग का यथासम्भव त्याग करना नहीं चाहिए, किन्तु इन्हें वर्जित नहीं किया गया है | यदि कोई अन्य शुभ मुहूर्त न मिल रहा हो तो चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग में भी घट स्थापना की जा सकती है – के मध्य घट स्थापना का शुभ मुहूर्त है | विशेष मुहूर्त के लिए तो आपको अपने ज्योतिषी से ही मुहूर्त निकलवाना होगा | किसी भी अन्य मुहूर्त से बढ़कर द्विस्वभाव लग्न होनी आवश्यक है | पन्द्रह को सूर्योदय काल में लगभग सत्रह मिनट कन्या लग्न के शेष हैं – अतः इस समय यदि घट स्थापना कर सकें तो अत्युत्तम है | माँ भगवती के चरणों में ध्यान लगाते हुए सूर्योदय से लेकर कभी भी घट स्थापना कर सकते हैं |

तो प्रस्तुत है इस वर्ष के नवरात्रों की तिथियों की तालिका

रविवार 15  अक्टूबर – आश्विन शुक्ल प्रतिपदा तिथि – घट स्थापना मुहूर्त के विषय में ऊपर लिख दिया है / शारदीय नवरात्र आरम्भ / प्रथम नवरात्र / भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना /महाराजा अग्रसेन जयन्ती

सोमवार 16 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल द्वितीया / द्वितीय नवरात्र / भगवती के ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना

मंगलवार 17 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल तृतीया / तृतीय नवरात्र / भगवती के चन्द्रघंटा रूप की उपासना

बुधवार 18 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल चतुर्थी / चतुर्थ नवरात्र / भगवती के कूष्माण्डा रूप की उपासना

गुरुवार 19 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल पञ्चमी / पञ्चम नवरात्र / भगवती के स्कन्दमाता रूप की उपासना

शुक्रवार 20 अक्टूबर – आश्विन शुक्ल षष्ठी / षष्टं नवरात्र / भगवती के कात्यायनी रूप की उपासना / सरस्वती आह्वाहन पूजा

शनिवार 21 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल सप्तमी / सप्तम नवरात्र / भगवती के कालरात्रि रूप की उपासना / सरस्वती पूजा

रविवार 22 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल अष्टमी / अष्टम नवरात्र / भगवती के महागौरी रूप की उपासना / सरस्वती बलिदान

सोमवार 23 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल नवमी / नवम नवरात्र / भगवती के सिद्धिदात्री रूप की उपासना / सरस्वती विसर्जन

मंगलवार 24 अक्तूबर – आश्विन शुक्ल दशमी / विजया दशमी / प्रतिमा विसर्जन / अपराजिता देवी की उपासना / विद्यारम्भ / माधवाचार्य जयन्ती

तो आइये, माँ भगवती अपने सभी रूपों में समस्त जगत का कल्याण करें इसी कामना के साथ आह्वाहन-स्थापन करें भगवती का और व्यतीत करें कुछ समय उनके सान्निध्य में…

माँ भगवती की उपासना का पर्व

माँ भगवती की उपासना का पर्व

शारदीय नवरात्र

आश्विन और चैत्र माह की शुक्ल प्रतिपदा से माँ भगवती की उपासना के नवदिवसीय पर्व नवरात्र आरम्भ हो जाते हैं और घट स्थापना के साथ समूचा देश माँ भगवती की आस्था में तल्लीन हो जाता है | आश्विन मास के नवरात्र – जिन्हें शारदीय नवरात्र भी कहा जाता है – महालया और पितृ विसर्जिनी अमावस्या के दूसरे दिन से आरम्भ होते हैं |

ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः |

सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे ||

ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां |

सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||

इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः |

वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ||

समस्त पितृगण हमारे द्वारा किये गए तर्पण से प्रसन्न होकर अपनी सन्तानों को सौभाग्य का आशीष प्रदान कर अपने अपने लोकों को वापस जाएँ – कल भाद्रपद अमावस्या – यानी पितृपक्ष का अन्तिम श्राद्ध – महालया को – गायत्री मन्त्र के साथ इन उपरोक्त मन्त्रों का श्रद्धापूर्वक जाप करते हुए पितृगणों को ससम्मान विदा किया जाता है और उसके साथ ही आरम्भ हो जाता है नवरात्रों का उल्लासमय पर्व | कितनी विचित्र बात है कि एक ओर पितरों को सम्मान के साथ विदा किया जाता है तो दूसरी ओर माँ दुर्गा का आगमन होता है और उनके स्वागत के रूप में आरम्भ हो जाती है महिषासुरमर्दिनी के मन्त्रों के मधुर उच्चारण के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना और इसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ होता है | एक ओर मृतात्माओं के प्रति श्रद्धा का पर्व श्राद्धपक्ष के रूप में और दूसरी ओर उसके तुरन्त बाद नवजीवन के रूप में देवी भगवती की उपासना का पर्व नवरात्र के रूप में – मृत्यु और नवजीवन का कितना अनूठा संगम है ये – और ऐसा केवल भारतीय संस्कृति में ही सम्भव है |

महालया अर्थात पितृविसर्जनी अमावस्या को श्राद्ध पक्ष का समापन हो जाता है | महालया का अर्थ ही है महान आलय अर्थात महान आवास – अन्तिम आवास – शाश्वत आवास | श्राद्ध पक्ष के इन पन्द्रह दिनों में अपने पूर्वजों का आह्वान करते हैं कि हमारे असत् आवास अर्थात पञ्चभूतात्मिका पृथिवी पर आकर हमारा आतिथ्य स्वीकार करें, और महालया के दिन पुनः अपने अस्तित्व में विलीन हो अपने शाश्वत धाम को प्रस्थान करें | और उसी दिन से आरम्भ हो जाता है अज्ञान रूपी महिष का वध करने वाली महिषासुरमर्दिनी की उपासना का उत्साहमय पर्व शारदीय नवरात्र | इस समय माँ भगवती से भी प्रार्थना की जाती है कि वे अपने महान अर्थात शाश्वत आवास अर्थात आलय को कुछ समय के लिए छोड़कर पृथिवी पर आएँ और हमारा आतिथ्य स्वीकार करें तथा नवरात्रों के अन्तिम दिन हम उन्हें ससम्मान उनके शाश्वत आलय के लिए उन्हें विदा करेंगे अगले बरस पुनः हमारा आतिथ्य स्वीकार करने की प्रार्थना के साथ | यही कारण है कि नवरात्रों के लिए दुर्गा प्रतिमा बनाने वाले कारीगर महालया के दिन धूम धाम से उत्सव मनाकर भगवती के नेत्रों को आकार देते हैं | वर्तमान का तो नहीं मालूम, लेकिन हमारी पीढ़ी के लोगों को ज्ञात होगा कि महालया यानी पितृविसर्जनी अमावस्या के दिन प्रातः चार बजे से आकाशवाणी पर श्री वीरेन्द्र कृष्ण भद्र के गाए महिषासुरमर्दिनी का प्रसारण किया जाता था और सभी केन्द्र इसे रिले करते थे | हम सभी भोर में ही रेडियो ट्रांजिस्टर ऑन करके बैठ जाते थे और पूरे भक्ति भाव से उस पाठ को सुना करते थे |

वह देवी ही समस्त प्राणियों में चेतन आत्मा कहलाती है और वही सम्पूर्ण जगत को चैतन्य रूप से व्याप्त करके स्थित है | इस प्रकार अज्ञान का नाश होकर जीव का पुनर्जन्म – आत्मा का शुद्धीकरण होता है – ताकि आत्मा जब दूसरी देह में प्रविष्ट हो तो सत्वशीला हो…

“या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः |
चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्वाप्य स्थित जगत्, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||” (श्री दुर्गा सप्तशती पञ्चम अध्याय)

अस्तु, सर्वप्रथम तो, माँ भगवती सभी का कल्याण करें और सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें, इस आशय के साथ सभी को शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ…

इस वर्ष रविवार 15 अक्तूबर से शारदीय नवरात्र आरम्भ हो रहे हैं | वास्तव में लौकिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो हर माँ शक्तिस्वरूपा माँ भगवती का ही प्रतिनिधित्व करती है – जो अपनी सन्तान को जन्म देती है, उसका भली भाँति पालन पोषण करती है और किसी भी विपत्ति का सामना करके उसे परास्त करने के लिए सन्तान को भावनात्मक और शारीरिक बल प्रदान करती है, उसे शिक्षा दीक्षा प्रदान करके परिवार – समाज और देश की सेवा के योग्य बनाती है – और इस सबके साथ ही किसी भी विपत्ति से उसकी रक्षा भी करती है | इस प्रकार सृष्टि में जो भी जीवन है वह सब माँ भगवती की कृपा के बिना सम्भव ही नहीं | इस प्रकार भारत जैसे देश में जहाँ नारी को भोग्या नहीं वरन एक सम्माननीय व्यक्तित्व माना जाता है वहाँ नवरात्रों में भगवती की उपासना के रूप में उन्हीं आदर्शों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाता है |

इसी क्रम में यदि आरोग्य की दृष्टि से देखें तो दोनों ही नवरात्र ऋतु परिवर्तन के समय आते हैं | चैत्र नवरात्र में सर्दी को विदा करके गर्मी का आगमन हो रहा होता है और शारदीय नवरात्रों में गर्मी को विदा करके सर्दी के स्वागत की तैयारी की जाती है | वातावरण के इस परिवर्तन का प्रभाव मानव शरीर और मन पर पड़ना स्वाभाविक ही है | अतः हमारे पूर्वजों ने व्रत उपवास आदि के द्वारा शरीर और मन को संयमित करने की सलाह दी ताकि हमारे शरीर आने वाले मौसम के अभ्यस्त हो जाएँ और ऋतु परिवर्तन से सम्बन्धित रोगों से उनका बचाव हो सके तथा हमारे मन सकारात्मक विचारों से प्रफुल्लित रह सकें |

आध्यात्मिक दृष्टि से नवरात्र के दौरान किये जाने वाले व्रत उपवास आदि प्रतीक है समस्त गुणों पर विजय प्राप्त करके मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होने के | माना जाता है कि नवरात्रों के प्रथम तीन दिन मनुष्य अपने भीतर के तमस से मुक्ति पाने का प्रयास करता है, उसके बाद के तीन दिन मानव मात्र का प्रयास होता है अपने भीतर के रजस से मुक्ति प्राप्त करने का और अन्तिम तीन दिन पूर्ण रूप से सत्व के प्रति समर्पित होते हैं ताकि मन के पूर्ण रूप से शुद्ध हो जाने पर हम अपनी अन्तरात्मा से साक्षात्कार का प्रयास करें – क्योंकि वास्तविक मुक्ति तो वही है |

इस प्रक्रिया में प्रथम तीन दिन दुर्गा के रूप में माँ भगवती के शक्ति रूप को जागृत करने का प्रयास किया जाता है ताकि हमारे भीतर बहुत गहराई तक बैठे हुए तमस अथवा नकारात्मकता को नष्ट किया जा सके | उसके बाद के तीन दिनों में देवी की लक्ष्मी के रूप में उपासना की जाती है कि वे हमारे भीतर के भौतिक रजस को नष्ट करके जीवन के आदर्श रूपी धन को हमें प्रदान करें जिससे कि हम अपने मन को पवित्र करके उसका उदात्त विचारों एक साथ पोषण कर सकें | और जब हमारा मन पूर्ण रूप से तम और रज से मुक्त हो जाता है तो अन्तिम तीन दिन माता सरस्वती का आह्वाहन किया जाता है कि वे हमारे मनों को ज्ञान के उच्चतम प्रकाश से आलोकित करें ताकि हम अपने वास्तविक स्वरूप – अपनी अन्तरात्मा – से साक्षात्कार कर सकें |

नवरात्रि के महत्त्व के विषय में विवरण मार्कंडेय पुराण, वामन पुराण, वाराह पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में उपलब्ध होता है | इन पुराणों में देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के मर्दन का उल्लेख उपलब्ध होता है | महिषासुर मर्दन की इस कथा को “दुर्गा सप्तशती” के रूप में देवी माहात्म्य के नाम से जाना जाता है | नवरात्रि के दिनों में इसी माहात्म्य का पाठ किया जाता है और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है | जिसमें 537 चरणों में 700 मन्त्रों के द्वारा देवी के माहात्म्य का जाप किया जाता है | इसमें देवी के तीन मुख्य रूपों – काली अर्थात बल, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा के द्वारा देवी के तीन चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध तथा शुम्भ निशुम्भ वध का वर्णन किया जाता है | पितृ पक्ष की अमावस्या को महालया के दिन पितृ तर्पण के बाद से आरम्भ होकर नवमी तक चलने वाले इस महान अनुष्ठान का समापन दशमी को प्रतिमा विसर्जन के साथ होता है | इन नौ दिनों में दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है | ये नौ रूप सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं |

“प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी, तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् |

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ||

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता:, उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ||

अस्तु, माँ भगवती को नमन करते हुए सभी को शारदीय नवरात्र – आश्विन नवरात्र – की हार्दिक शुभकामनाएँ…

जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोSतु ते…