Category Archives: धर्म और दर्शन

ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी

ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी

निर्जला एकादशी

बारह हिन्दी मासों में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की कुल मिलाकर चौबीस एकादशी आती हैं | अधिक मास होने पर इनकी संख्या छब्बीस भी हो जाती है | हिन्दू सम्प्रदाय में एकादशी व्रत का बहुत महत्त्व माना गया है | इनमें ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है | इस उपवास में जल भी ग्रहण न करने का संकल्प लिया जाता है इसीलिए इसे निर्जला एकादशी कहते हैं | पद्म पुराण में प्रसंग आता है कि महर्षि वेदव्यास ने जब पाँचों पाण्डवों को चतुर्विध पुरुषार्थधर्मअर्थकाममोक्षका फल देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया तो भीम ने कहापितामह, आप पक्ष में एक बार भोजन त्यागने की बात कहते हैं, किन्तु मैं तो एक दिन क्या, एक समय भी भोजन किये बिना नहीं रह सकता | मेरे उदर में स्थितवृकाग्निको शान्त रखने के लिए मुझे दिन में कई बार भोजन करना पड़ता है | तो मैं भला ये व्रत कैसे कर पाऊँगा ? और यदि यह व्रत नहीं करूँगा तो इसके पुण्य से वंचित रह जाऊँगा |”

पितामह महाबुद्धे कथयामि तवाग्रतः, एकभक्तेनशक्नोमिउपवासेकुतःप्रभो

वृको हि नाम यो वह्नि: स सदा जठरे मम, अतिबेलं यदाSश्नामितदासमुपशाम्यति

नैकं शक्नोम्यहं कर्तुमुपवासं महामुने || – पद्मपुराण उत्तरखण्ड 52 / 16-18

तब मुनि वेदव्यास ने भीम का मनोबल बढ़ाते हुए उन्हें समझाया किहे कुन्ती पुत्र ! धर्म की यही विशेषता होती है कि वह केवल सबका धारण ही नहीं करता अपितु व्रतउपवास के नियमों को सबके द्वारा सरलता से पालन करने योग्य भी बनाता है | तुम केवल एक ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में जब सूर्य वृषभ अथवा मिथुन राशिगत हो उस समय की एकादशी का व्रत पालन करो और वह भी निर्जल | केवल इसी व्रत के पालन से तुम्हें समस्त एकादशी के व्रत का फल प्राप्त हो जाएगा |”

वृषस्थे मिथुनस्थे वा यदा चैकादाशी भवेत्, ज्येष्ठमासे प्रयत्नेन सोपोष्योदकवर्जिता  पद्मपुराण 52 / 20

इस वर्ष गुरुवार 5 जून को अर्द्धरात्र्योत्तर 2:15 (6 जून को सूर्योदय से पूर्व 2:15) पर मीन लग्न, वणिज करण और व्यातिपत योग में एकादशी तिथि का आगमन हो रहा हाई, जो 7 जून को सूर्योदय से पूर्व 4:47 तक रहेगी, अतः 6 जून को निर्जला एकादशी का व्रत किया जाएगा |

गायत्री जयन्ती भी इसी दिन है | गायत्री मन्त्र में चारों वेदों का सार निहित होने के कारण भगवती गायत्री को वेदों की जननीवेदमाताभी कहा जाता है | मान्यता है कि ब्रह्मा के सभी असाधारण तथा दृश्य धर्मगुणभावलक्षणों का प्रत्यक्ष स्वरूप माता गायत्री हैंइसीलिए जो व्यक्ति गायत्री मन्त्र के पुरुश्चरण कर लेता है उसे सभी मन्त्र सरलता से सिद्ध हो जाते हैं | यह भी माना जाता है कि गायत्री भगवती सरस्वती, देवी पार्वती और देवी लक्ष्मी का एक मिश्रित मूर्त रूप है | त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी इनकी उपासना करते हैं | कुछ स्थानों पर श्रावण मास की पूर्णिमा को भी गायत्री जयन्ती मनाई जाती है और यह प्रायः उपाकर्म के साथ आती है | पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना आरम्भ की तब गायत्री मन्त्र का प्राकट्य हुआ | उन्होंने ही सर्वप्रथम गायत्री का आह्वान किया और अपने मुख से गायत्री मन्त्र की व्याख्या कीजिनसे बाद में चारों वेदों की उत्पत्ति हुई | गायत्री मन्त्र का जाप जिस भी उद्देश्य से किया जाता है वह कार्य निश्चित रूप से पूर्ण होता है | इसके विषय में भी एक कथा उपलब्ध होती है, जिसके अनुसार ब्रह्मा जी को एक यज्ञ में प्रवृत्त होना था, किन्तु उनकी पत्नी सावित्री वहाँ उपस्थित नहीं थीं | कोई भी यज्ञ अथवा धार्मिक कृत्य तब तक सफल नहीं होता जब तक पतिपत्नी साथ मिलकर उसे न करें | तब ब्रह्मा जी ने गायत्री से विवाह कर लिया और इस प्रकार उनका यज्ञ सफल हुआ | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र के जाप को समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला मन्त्र माना जाता है |

पद्म पुराण में वर्णित भीमसेन के वृत्तान्त के ही कारण इस एकादशी को भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है | इसी अध्याय में आगे कहा गया है

ज्येष्ठे मासि तु वै भीम ! याशुक्लैकादशीशुभा

निर्जला समुपोष्यात्र जल्कुम्भान्सशर्कारान् |

प्रदायविप्रमुखेभ्योमोदतेविष्णुसन्निधौ

ततः कुम्भा: प्रदातव्या ब्राह्मणानां च भक्तित: || – पद्मपुराण 52 / 61,62

अर्थात निर्जला एकादशी के दिन जल और शर्करा से युक्त घट का दान करने से भगवान विष्णु का सान्निध्य प्राप्त होता है | इसी प्रकार के अन्य पौराणिक उपाख्यानों के कारण हिन्दू समाज में मान्यता आज तक भी विद्यमान है कि यदि हमॐ नमो भगवते वासुदेवायका जाप करते हुए निर्जला एकादशी के व्रत का पालन करेंगे और गऊ, वस्त्र, छत्र, फल, मीठा शरबत तथा कलश इत्यादि का दान करेंगे तो हमें भगवान विष्णु का सान्निध्य प्राप्त होगा | हर गली मोहल्ले के चोराहे पर, घरों के दरवाजों पर, सोसायटीज़ के गेट्स पर इस दिन लोग तरह तरह के शर्बतों से भरे बर्तन रख कर या तरबूज़ आदि लेकर हर राहगीर की प्यास बुझाते मिल जाएँगे |

ज्येष्ठ मास की तपती दोपहर में शीतलता प्रदान करने वाली वस्तुएँ दान करना वास्तव में एक स्वस्थ प्रथा है | लेकिन क्या इसका पालन केवल एक ही दिन होना चाहिएवह भी इस भावना से कि ऐसा करके हमें पुण्य प्राप्त होगा ? क्या ही अच्छा हो यदि ये समस्त कार्य हम धर्म के भय या मोक्ष अथवा ईश्वर प्राप्ति के लालच से न करके मानवता के नाते करेंक्योंकि हर जीव ईश्वर का ही तो प्रतिरूप हैजब भी ऐसा हो जाएगा तोनिर्जला एकादशीकेवल एक दिन का पर्व भर बनकर नहीं रह जाएगीहर दिन हर दीन हीन को गर्मी से राहत दिलाने के लिए शीतल पेय दान के रूप में उपलब्ध हो सकेगा

प्राचीन काल में तो ज्येष्ठ मास की तपती दोपहरी में भी अधिकाँश लोग पैदल अथवा खुली बैलगाड़ियों, ऊँट आदि के माध्यम से यात्रा किया करते थे | थक जाने पर मार्ग में खड़े घने वृक्षों की छाया में कुछ पल विश्राम कर लिया करते थे | साथ में मिट्टी के घड़ों में जल लेकर चलते थे | वह भी गर्मी में समाप्त हो जाता था | ऐसे में जहाँ रुके वहाँ आस पास कहीं जलाशय हुआ तो वहाँ पुनः घड़ों में जल भर लिए और हाथ मुँह धोकर साथ लाए फल आदि ग्रहण कर लिए और फिर आगे अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चले | उन राहगीरों की सहायता के लिए मार्ग में स्थित ग्रामवासी भी दौड़े चले आते थे जल से पूर्ण पात्र और फलादि लेकर ताकि उन राहगीरों की भूख प्यास बुझा सकें | और ऐसा मात्र एकादशी के दिन ही नहीं होता था, दिन प्रतिदिन का यही नियम था |

निर्जला एकादशी के दिन निर्जल व्रत रखने के पीछे एक यह भी कारण हो सकता है कि इस दिन गर्मी अपने चरम पर होती है जिसके कारण जल का महत्त्व और भी बढ़ जाता है | सम्भवतः इसीलिए जन साधारण को जल का महत्त्व समझाने के लिए तथा उसके प्रति जन मानस में सम्मान का भाव बनाए रखने के लिए हमारे मनीषियों ने यह विधान बनाया हो कि इस दिन जो व्यक्ति स्वयं निर्जल रहकर दूसरों को जल का दान करेगा वह पुण्य का भागी होगा | क्योंकि धर्म के साथ जिस भाव को जोड़ दिया जाता है जन साधारण पूर्ण निष्ठा के साथ उसका पालन करता है | आज इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि नदियों का जलस्तर धीरे धीरे घट रहा है | इसके बाद भी हम लोग जल का अपव्यय करते हैं | आवश्यक कार्यों के लिए तथा पीने के लिए जल का प्रयोग आवश्यक है | किन्तु हम लोग अपनी असावधानियों के चलते नलकों को खुला छोड़कर न जाने कितना पानी व्यर्थ बहा देते हैं | यदि हम निर्जला एकादशी के दिन जल को संरक्षित करने का संकल्प ले लें, और वर्षा के जल को भी संग्रहण करने का प्रयास करने लग जाएँ तो यह भी निर्जला एकादशी के व्रत की ही भाँति पुण्य प्रदान करने वाला कार्य होगा, क्योंकि ऐसा करके भविष्य में होने वाले जल के अभाव से बहुत सीमा तक मुक्ति प्राप्त की जा सकती हैसभी स्वस्थ रहें यही ईश्वर से प्रार्थना है

गंगा दशहरा 2025

गंगा दशहरा 2025

जलाशयों के सम्मान का पर्व

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी यानी बुधवार पाँच जून को गंगा दशहरा का पर्व हैजिसे गंगावतरण भी कहा जाता है, और उसके दूसरे दिन निर्जला एकादशी हैजिसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है | गंगा दशहरा वास्तव में दश दिवसीय पर्व है जो ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को सम्पन्न होता है | इस वर्ष 28 मई से गंगा दशहरा का पर्व आरम्भ हुआ है और 5 जून को अर्द्धरात्र्योत्तर 2:15 (6 जून को सूर्योदय से पूर्व 2:15) तक रहेगी | पाँच जून को सूर्योदय से पूर्व 3:35 से 6 जून को प्रातः 6:34 तक हस्त नक्षत्र भी रहेगा | अतः पाँच जून को गंगा दशहरा के व्रतोपवास का पालन किया जाएगा | मान्यता है कि महाराज भगीरथ के अखण्ड तप से प्रसन्न होकर इसी दिन माँ गंगा पृथिवी पर उतरी थीं और अपने साथ स्वर्ग का अमृत भी लेकर आई थीं | इससे पूर्व गंगा ब्रह्मा के कमण्डल में निवास कर रही थींइसके दूसरे ही दिन आता है निर्जला एकादशी का व्रत, जिसमें जल भी ग्रहण करने का संकल्प लिया जाता है इसीलिए इसे निर्जला एकादशी कहते हैं

हम सभी इस तथ्य से भली भाँति परिचित हैं कि भारत के जन मानस की धार्मिक आस्था इतनी विशाल है कि हर जड़ चेतन को सम्मान की दृष्टि से देखती है | और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे ऋषि मुनियों से सृष्टि के आरम्भिक काल में जिस प्रकार से प्रकृति में परिवर्तन देखे होंगे तो एक ओर उन्हें आश्चर्य हुआ होगा और दूसरी ओर उन्होंने उन परिवर्तनों के लाभ हानि का विचार किया होगाजन साधारण पर उनके अनुकूल और प्रतिकूल प्रभावों को देखकर कभी भय के कारण तो कभी श्रद्धा के वशीभूत होकर उनके मस्तक प्रकृति के कण कण के प्रति नत हुए होंगे और उनके सम्मान में उनके मुख से पवित्र ऋचाएँ फूट उठी होंगी | गंगा तथा अन्य नदियों की पूजा और अर्चना को भी हम उसी रूप में देख सकते हैं | साथ ही इस सत्य का भी भान होता है कि उस समय में लोग पर्यावरण के प्रति कितने अधिक सचेत थे | इसी हेतु गंगा दशहरा हमारे लिए जलाशयों के सम्मान का पर्व है |

गंगा का जल इतना पवित्र माना गया है कि वर्षों तक भी उसका उपयोग किया जा सकता है | जहाँ से गंगा नदी का उद्गम होता है वहाँ चूने की पहाड़ियाँ हैं, देवदार और अन्य औषधि के गुणों से युक्त वनस्पतियाँ यहाँ उपलब्ध होती हैं | गंगा नदी विश्व भर में अपनी शुद्धीकरण क्षमता के कारण प्रसिद्ध है | लम्बे समय से प्रचलित इसकी शुद्धीकरण की मान्यता का वैज्ञानिक आधार भी है | माना जाता है कि इस नदी के जल में कुछ इस प्रकार के तत्व होते हैं जो किसी प्रकार के हानिकारक सूक्ष्म जीवों को जीवित ही नहीं रहने देते | साथ ही इसके जल में प्राणवायु यानी ऑक्सीजन की मात्रा को बनाए रखने की भी असाधारण क्षमता है | सम्भवतः इसीलिए इसका जल वर्षों तक घरों में रखने के बाद भी उपयोगी बना रहता है और अमृततुल्य माना जाता है | माँ के समान गंगा नदी और उसकी अन्य सहायक नदियाँ हमारा सिंचन और पोषण करती हुई हमें तुष्टि प्रदान करती हैं |

इसके साथ ही आर्थिक, सामाजिक, कृषि आदि के स्तर पर भी इसका विशेष महत्त्व है | प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर तटों वाली गंगा नदी का जल अनादि काल से कृषि में तो महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता ही रहा है, अपनी सहायक नदियों सहित बहुत बड़े क्षेत्र के लिए वर्ष भर सिचाई का कभी समाप्त होने वाला स्रोत भी बना हुआ है |

धार्मिक दृष्टि से यदि देखें तो अनेक धार्मिक अवधारणाओं में गंगा नदी को देवी के रूप में निरूपित किया गया है | अनेक तीर्थ स्थल इसी नदी के किनारे बसे हुए हैं | सम्भवतः इसी कारण हिन्दू मान्यता में व्यक्ति के अन्तिम समय में गंगाजल उसके मुँह में डालने की तथा गंगा के पवित्र जल में अस्थियों को प्रवाहित करने की प्रथा चली आ रही है | कुम्भ जैसा महान और विशाल पर्व तो पूर्ण रूप से गंगा से ही जुड़ा हुआ है |

जो नदी हमारे लिए इतनी उपयोगी है कि उसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती, भला उसके प्रति जन मानस श्रद्धा से नत क्यों नहीं होगा ? साथ ही, पूर्ण श्रद्धा और आस्था के साथ जिस भी किसी वस्तु अथवा व्यक्ति की पूजा अर्चना की जाएगी उसे किसी प्रकार का कष्ट पहुँचानेउसे प्रदूषित करने का विचार भी मन कैसे आ पाएगा ? किन्तु समस्या यही है कि हम अपनी नदियों के प्रति उसी आस्था और श्रद्धा को भुला बैठे हैं और उनके स्वच्छन्द गति से प्रवाहित होते अमृततुल्य जल को प्रदूषित करने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं | यद्यपि कोरोना काल में लॉक डाउन के समय जिन नदियों के जल को हमारी सरकारें करोड़ों रूपये खर्च करके भी साफ़ नहीं कर पाई थींनदियों का वही जल इस स्वतः ही कहीं हीरे तो कहीं पन्ने जैसे दमक उठा था | क्योंकि गंगा जैसी पवित्र नदियों के घाटों पर जहाँ करोड़ों लोगों का मेला सा लगा रहता था और वे अपना सारा कचरा उन नदियों के जल में फेंकने में कोई संकोच नहीं करते थे, लॉक डाउन के कारण लोगों का वहाँ जाना बन्द हो गया था और गंगा आदि नदियों के जल को स्वतः ही पुनः अपने वास्तविक रूप में आने का अवसर प्राप्त हो गया थासंसार को जीवन दान देने वाली नदियों के जल को एक प्रकार से पुनर्जीवन प्राप्त हो गया था | किन्तु अब पुनः वही स्थिति है |

गंगा दशहरा के पावन पर्व पर दान पुण्य करने के साथ क्यों न हम सब संकल्प लें कि अब अपनी प्रकृति कोअमृततुल्य दुग्ध के रूप में अपने हृदय के अमृत से हमें पुष्ट और बलिष्ठ बनाने वाली माँ के समान हमें अपने अमृत जल से सींचने वाली नदियों को हम फिर से मैला नहीं होने देंगेऔर साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नदी का सम्मान नारी का सम्मान हैयह संकल्प आज हमने ले लिया और दृढ़ता के साथ इसका पालन किया तब ही गंगा दशहरा के अवसर पर माँ गंगा के लिए समर्पित हमारी अर्चना सार्थक होगी

रसपूर्ण, दीप्तिमती तथा पवित्र करने वाली नदियाँ माता के समान हमारी रक्षा करें और हमें तुष्टि पुष्टि प्रदान करें, इसी भावना के साथ सभी को गंगा दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ

समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः |
इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||

या आपो दिव्या उत वा स्रवन्ति खनित्रिमा उत वा याः स्वयंजाः |
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् |
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वे देवा यासूर्जं मदन्ति |
वैश्वानरो यास्वग्निः प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु || – ऋग्वेद 7/49/1-7/49/4

वट सावित्री अमावस्या

वट सावित्री अमावस्या और पूर्णिमा 2025

प्रकृति की उपासना के पर्व

सौभाग्यवती महिलाएँ अपने सौभाग्य तथा परिवार की मंगलकामना से सोमवार 26 मई को वट सावित्री अमावस्या के व्रत का पालन करेंगीसाथ ही मंगलवार दस जून को दक्षिण भारत, महाराष्ट्र और गुजरात में वट सावित्री पूर्णिमा के व्रत का पालन करेंगीसर्वप्रथम सभी बहनों को वट सावित्री अमावस्या और पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँ

अमावस्या तिथि का आगमन गुरुवार 26 मई को दिन में 12:11 के लगभग सिंह लग्न, चतुष्पद करण और अति गण्ड  योग में होगा, जो 27 मई को प्रातः 8:31 तक रहेगी | अतः वट सावित्री अमावस्या व्रत 26 मई को किया जाएगा | कुछ विद्वानों की मान्यता है कि वट सावित्री अमावस्या का व्रत 27 मई को किया जाना चाहिए उदया तिथि के अनुसार | किन्तु अमावस्या का व्रत उस दिन किया जाता है जिस दिन व्रत के पारायण के समय अमावस्या तिथि हो, और 27 तारीख़ को प्रातः 8:31 तक ही अमावस्या है उसके बाद प्रतिपदा जाएगी, तो प्रतिपदा में तो अमावस्या का पारायण नहीं किया जा सकता | अतः 26 मई को ही वट अमावस्या का व्रत किया जाएगा | इस दिन सूर्य रोहिणी तथा चन्द्रमा  कृत्तिका नक्षत्र पर आरूढ़ होंगे | पूर्णिमा तिथि का आगमन दस जून को प्रातः 11:35 के लगभग सिंह लग्न, विष्टि करण और सिद्ध योग में होगा और चन्द्र दर्शन के समय पूर्णिमा तिथि का होना आवश्यक है, तथा सूर्य और चन्द्र क्रमशः मृगशिर और अनुराधा नक्षत्र पर रहेंगे | ग्यारह जून को दिन में 1:13 तक पूर्णिमा रहेगीअतः दस जून को पूर्णिमा व्रत का पालन किया जाएगा |

वट सावित्री अमावस्या का व्रत सौभाग्य को देने वाला और सन्तान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है | भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का भी प्रतीक बन चुका है | इस व्रत की तिथि को लेकर अनेक मत हैं | जैसे स्कन्द पुराण और भविष्योत्तर पुराण में ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है | किन्तु कुछ पुराणों में ज्येष्ठ मास की अमावस्या को यह व्रत किया जाता है | अधिकाँश में अमावस्या वाला मत ही प्रचार में है | वट सावित्री व्रत चाहे अमावस्या को किया जाए या पूर्णिमा कोउद्देश्य एक ही हैअखण्ड सौभाग्य की कामना | इस दिन सौभाग्यवती महिलाएँ पूजन सामग्री वट वृक्ष के दोने अथवा टोकरी में रखकर वट वृक्ष के नीचे बैठकर अवैधव्यं सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते | पुत्रान्‌ पौत्रांश्च सौख्यं गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तुते ||” मन्त्र से वट वृक्ष की पूजा करती हैं और वृक्ष की सात बार परिक्रमा करते हुए तथा यम की गायत्री सूर्यपुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि | तन्नो यम: प्रचोदयात् का जाप करते हुए कच्चा सूत उसके चारों ओर मौली की भाँति बाँधती हैंमौली अर्थात रक्षा सूत्र | साथ ही यम, सावित्री, सत्यव्रत, ब्रह्मा जी, नारद और माँ सरस्वती की प्रार्थना करते हुए जल समर्पित किया जाता है

ब्रह्मणा सहितां देवीं सावित्रीं लोकमातरम् |

सत्यव्रतं च सावित्रीं यमं च पूज्याम्हम ||

पद्मपत्रसमासीनं ब्रह्माणं च चतुर्मुखम् |

उपवीतधरं देवं साक्षसूत्रकमण्डलुम् ||

वामोत्सङ्गगता तस्य सावित्री ब्रह्मण: प्रिया |

आदित्यवर्णां धर्मज्ञां साक्षमालाकरां तथा ||

चिन्तयामि च देवेशं सर्वप्राणिहिताय वै |

वीणां दधानं देवर्षिं नारदं चिन्तयाम्यहम्‌ ||

सभी जानते हैं कि वट सावित्री व्रत मेंवटवृक्ष का विशिष्ट महत्व हैइसी कारण से इसेवटसावित्री अमावस्या और पूर्णिमा कहा जाता हैज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में अमावस्या से पन्द्रह दिनों के बाद पूर्णिमा को इस व्रत का पालन किया जाता है और इसेवट सावित्री पूर्णिमाके नाम से जाना जाता हैपूजा इत्यादि की लगभग प्रक्रिया यही रहती हैजिस प्रकार हिन्दू मान्यता में पीपल के वृक्ष का महत्त्व माना जाता है उसी प्रकार वट अर्थात बरगद के वृक्ष का भी महत्त्व माना जाता है | वटवृक्ष केवल अपनी विशालता और घनत्व के कारण ही प्रसिद्ध नहीं है | मान्यता है कि इसके अग्रभाग में भगवान शंकर, मध्य में विष्णु तथा मूल में ब्रह्मा का वास होता है | इस प्रकार सृष्टि की रचना, पालन और संहार तीनों का क्रम इस वृक्ष में विद्यमान है | साथ ही प्राचीन काल में जब तो मार्ग ही इतने अच्छे थे और ही आवागमन के साधन थेकहीं आने जाने के लिए बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी या खच्चर आदि ही प्रयोग में लाए जाते थे | या फिर पैदल यात्रा की जाती थी | इस स्थिति में ज्येष्ठ की तपती दोपहरी में वटवृक्ष की घनी छाया में पल भर विश्राम करके जब पथिक आगे अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करेगा तब भला क्यों वह उस वृक्ष को धन्यवाद देगा ? सम्भवतः इन्हीं समस्त कारणों से वटवृक्ष की पूजा का विधान ज्येष्ठ मास में किया गया होगा |

वैदिक ग्रन्थों से लेकर उपनिषद ब्राह्मण तथा अन्य पौराणिक ग्रन्थों में वट वृक्ष को अक्षय वट कहा गया है | इस वृक्ष के सभी अंग किसी किसी रूप में मनुष्य के लिए अत्यन्त उपयोगी होते हैं | कफ, पित्त, ज्वर, मूर्च्छा इत्यादि में वैद्य लोग इस वृक्ष की छाल, पत्तों इत्यादि का उपयोग करने का सुझाव देते हैं | इसके समस्त अवयवों से लेकर इसकी छाया तक को केवल मनुष्यों अपितु समूची प्रकृति और जीव जन्तुओं तक के लिए जीवन रक्षक माना गया है | अर्थात इसका औषधि के रूप में भी महत्त्व है | दार्शनिक दृष्टि से यदि देखें तो वटवृक्ष दीर्घायु अमरत्वबोध के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है | ज्ञान तथा निर्वाण का प्रतीक भी वटवृक्ष को माना जाता है | सर्व विदित है कि भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था | भगवान श्री राम ने भी जब वन के लिए प्रस्थान किया तो कुछ समय प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि के आश्रम में विश्राम किया थाउस समय भारद्वाज ऋषि ने उन्हें इसी अक्षय वट की पूजा करने का सुझाव दिया था | गोकुल में कंस के दूत प्रलम्बासुर ने जब प्रदूषित अग्नि का ताण्डव रचाना आरम्भ किया तब श्री कृष्ण ने इसी अक्षय वट अर्थात वट वृक्ष पर चढ़कर उसका वध किया था |

वटवृक्ष की इन्हीं समस्त विशेषताओं के कारण सम्भवतः इस वृक्ष की सुरक्षा की बात मनीषियों के मन में आई होगी और इस वृक्ष की पूजा अर्चना आरम्भ हुई होगी | मनुष्य स्वभाव से धर्मभीरु है, और जब किसी कार्य को धर्म के साथ जोड़ दिया जाता है तो उस कार्य को साधारण जन पूर्ण श्रद्धा और आस्था के साथ सम्पन्न करते हैं | इसीलिए वटवृक्ष की पूजा अर्चना को भी सत्यवान और सावित्री की कथा के साथ जोड़ा गया | भारत में तो वैसे भी वृक्षों तथा पर्यावरण की सुरक्षा के लिए वृक्षों की पूजा अर्चना का विधान अनादि काल से रहा है | वृक्षों के बीज बोने या पौधा आरोपित करने से लेकर उनके पूरे जीवनकाल में उसी प्रकार संस्कार किये जाते थे जिस प्रकार किसी बच्चे के जन्म से लेकर पूरा जीवन किसी व्यक्ति के संस्कार किये जाते हैं | जिस वृक्ष को व्यक्ति बच्चे के सामान पाल पोस कर बड़ा करता है, परिवार के मुखिया के समान जिसके समक्ष श्रद्धानत रहता है, देवताओं के समान जिसकी उपासना करता है उस वृक्ष को किसी प्रकार की हानि पहुँचाने का विचार किसके मन में आएगा ? इसीलिए वटवृक्ष जैसे विशाल और छायादार तथा मनुष्य के जीवन के लिए उपयोगी वृक्ष की उपासना को भी सत्यवान सावित्री की अमर कथा के साथ सम्बद्ध करना वास्तव में समझने योग्य बात है |

कारण और कथाएँ चाहें जो भी हों, वट सावित्री अमावस्या जैसे पर्व हमें प्रकृति का सम्मान करना सिखाते हैं तथा पर्यावरण की सुरक्षा की दिशा में इस प्रकार के पर्वों का बहुत बड़ा योगदान होता है

पारम्परिक रूप से षोडशोपचार पूर्वक वट सावित्री व्रत की पूजन सामग्री में बहुत सारी वस्तुएँ एकत्र करने की सलाह दी जाती है | साथ ही पूजन के उपरान्त परिवार की बुजुर्ग महिलाओं को वस्त्र दक्षिणा आदि बायने के रूप में देने का भी विधान है | किन्तु, जैसा हम पूर्व में भी लिखते आए है, वास्तविक उद्देश्य है ईश्वराधन के साथ साथ प्रकृति की आराधना | अतः कुछ भी सामग्री यदि उपलब्ध हो सके तो केवल मन में संकल्प लेकर भी कोई भी व्रत उपवास पूजा आदि किया जा सकता हैऔर यदि मन में आस्था होगीदृढ़ संकल्प होगातो सूक्ष्म विधि से की गई पूजा अर्चना भी स्वीकार्य होगी |

एक बार पुनः सभी को वट सावित्री अमावस्या और पन्द्रह दिनों बाद पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँइस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब संकल्प लें कि केवल इस एक ही दिन नहीं, अपितु हम सदा पर्यावरण की सुरक्षा की अपनी संस्कृति को याद रखते हुए केवल वट अथवा पीपल आदि वृक्षों का ही नहीं अपितु समस्त वृक्षों और प्रकृति का सम्मान करने के प्रति दृढ़ संकल्पित रहें और इस दिशा में निरन्तर प्रयासरत रहेंक्योंकि प्रकृति का यदि सम्मान करेंगे तभी वह अपने समस्त वसुओं की धारा से हमें पुष्टि प्रदान करेगी

सभी बहनों को वट सावित्री अमावस्या और पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएँइस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब संकल्प लें कि केवल आज के ही दिन नहीं, हम सदा पर्यावरण की सुरक्षा की अपनी संस्कृति को याद रखते हुए केवल वट अथवा पीपल आदि वृक्षों का ही नहीं अपितु समस्त वृक्षों और प्रकृति का सम्मान करने के प्रति दृढ़ संकल्पित रहें इस ओर निरन्तर प्रयासरत रहेंक्योंकि प्रकृति का यदि सम्मान करेंगे तभी वह अपने समस्त वसुओं की धारा से हमें पुष्टि प्रदान करेगी

गुरु की दृष्टियाँ

गुरु की दृष्टियाँ

पिछले दिनों शनि के राशि परिवर्तन के सिलसिले में हमने देवगुरु बृहस्पति के विषय में बात की थी | आज गुरुदेव की तीन दृष्टियों के विषय में बात करते हैं | जैसा पहले भी बताया हैसभी ग्रहों की सप्तम दृष्टि होती हैयानी जिस भाव में उनकी स्थिति होती है उसके सामने वाले भाव यानी सप्तम भाव पर प्रत्येक ग्रह की दृष्टि होती हैइसे सम दृष्टि भी कहा जाता है | किन्तु गुरु, शनि और मंगल को तीन तीन दृष्टियाँ प्राप्त हैं और ये तीनों ग्रह जिस भाव में स्थित होते हैं उसके साथ साथ तीन अन्य भावों को भी प्रभावित करते हैं | शनि की दृष्टियों के विषय में हम पूर्व में लिख चुके हैं | आज गुरु की दृष्टियों के विषय में बात करते हैं | गुरु को तीन भावों पर दृष्टियाँ प्राप्त हैंजिस भाव में गुरु की स्थिति होती है उस भाव से पञ्चम भाव पर पञ्चम दृष्टि, सप्तम भाव पर सप्तम दृष्टि और नवम भाव  पर नवम दृष्टि |

गुरु की दृष्टियों के विषय में एक लोककथा भी प्रचलित है कि एक बार देवगुरु बृहस्पति ने देखा कि पृथिवी पर असंख्य लोग उचित दिशा निर्देश न मिलने के कारण दुःखी हैं | उन्होंने, सभी पृथिवीवासियों की मनोकामनाएँ पूर्ण हों और सुख शान्ति रहे इसके लिए भगवान विष्णु से निवेदन किया | तब भगवान विष्णु ने उनके दयापूर्ण हृदय को जानकर उन्हें दो अतिरिक्त दृष्टियाँ प्रदान कर दीं और उन्होंने अपने स्थान से पञ्चम, सप्तम तथा नवम भावों को देखना आरम्भ कर दिया और जिसका लाभ जान साधारण को होने लगा | बृहस्पति ने देखा कि बहुत सारे किसान उदास बैठे हैं |  उन्होंने उन्हें पञ्चम दृष्टि से देखा तो उन किसानों ने अपनी बुद्धि, विवेक और ज्ञान से खेती की नवीन तकनीक विकसित कीं और नवीन फ़सलें उगानी आरम्भ कर दीं | किसानों समृद्ध हो गए | इसी प्रकार की कथाएँ शेष दोनों दृष्टियों के विषय में भी हैं | ये एक जनश्रुति अथवा कोई उत्तर पौराणिक काल की कथा हो सकती है, किन्तु गुरुदेव की इन तीनों ही दृष्टियों में तथ्य निहित है | आज इसी पर बात करेंगे |

काल पुरुष की कुण्डली में पञ्चम भाव सन्तान सुख, शिक्षा, ज्ञान, साहस, रचनात्मकता, उच्च शिक्षा तथा इनसे प्राप्त होने वाले यश, पद, प्रसिद्धि के साथ ही प्रेम और रोमांस आदि की बुद्धि के लिए देखा जाता है | व्यक्ति के ज्ञान और समझ में जब वृद्धि होगी तभी वह उचित दिशा में प्रयास करेगा | पञ्चम भाव के ग्रह की दशा अन्तर्दशा में विवाह के योग भी बनते हैं क्योंकि जातक की बुद्धि और भावना उस ओर जाती है |

सप्तम भाव प्रतिनिधित्व करता है विवाह का, जीवन साथी के स्वभाव इत्यादि का, वैवाहिक जीवन किस प्रकार का रहेगाइस बात का, तथा किसी भी तरह की व्यावसायिक तथा सामाजिक पार्टनरशिप का | इसके अतिरिक्त राज्य सत्ता के सुख के लिए भी इस भाव को देखा जाता है |

नवम भाव भाग्य का और धर्म का भाव कहाँ जाता है | साथ ही व्यक्ति के पिता, उच्च शिक्षा, कार्य में सफलता, धार्मिक गतिविधियों, पौत्र, पूर्व जन्म के अर्जित कर्मों तथा पद प्रतिष्ठा और लम्बी यात्राओं के लिए भी नवम भाव को देखा जाता है |

अब, जिस जिस भाव पर भी गुरु की ये तीनों दृष्टियाँ पड़ेंगीनिश्चित रूप से उस भाव से सम्बन्धित शुभ फलों में वृद्धि ही होगी, क्योंकि गुरु की दृष्टियों को गंगाजल की भाँति  पवित्र माना जाता है | मान लीजिए गुरुदेव जातक की कुण्डली में लग्न में विराजमान हैं, तो वहाँ से उनकी पञ्चम दृष्टि पञ्चम भाव पर पड़ेगी | इस अवस्था में व्यक्ति के ज्ञान विज्ञान में वृद्धि होगी, जिसके परिणाम स्वरूप वह अपने क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने में सक्षम रहेगा | और जब अपने प्रोफेशन में उसे सफलता प्राप्त हो जाएगी तो वह शान्त चित्त हो घर गृहस्थी के विषय में भी सोचेगा और विवाह का प्रयास करेगा | ऐसा भी सम्भव है कि वह पार्टनरशिप में कोई कार्य आरम्भ कर दे और उस कारण से उसकी आर्थिक स्थिति दृढ़ हो जाए | इन दोनों ही बातों में गुरु की सप्तम भाव पर सप्तम दृष्टि से बल मिलेगा | इसके बाद वह सन्तान के लिए प्रयास करेगायहाँ पुनः पञ्चम दृष्टि काम आएगी | विवाह हो गया, कार्य में सफलता भी प्राप्त हो गई, अच्छी सन्तान भी प्राप्त हो गईतो अब वह अध्यात्म के मार्ग पर प्रवृत्त होने का प्रयास करेगा और धर्म कर्म में उसकी रुचि में वृद्धि होगीयहाँ नवम भाव पर नवम दृष्टि की भूमिका आती है | इसी प्रकार से समस्त भावों के लिए समझना चाहिए |

एक और उदाहरण प्रस्तुत करते हैं | मान लीजिए गुरुदेव जातक की कुण्डली में तृतीय भाव में विराजमान हैं | तृतीय भाव पराक्रम का भाव है, भाई बहनों का भाव, हाथ की कारीगरी का भाव है | तो यहाँ बैठकर गुरुदेव जातक के पराक्रम में वृद्धि कर रहे हैं | यहाँ से उनकी पञ्चम दृष्टि जाती है सप्तम भाव पर, सप्तम दृष्टि नवम भाव पर तथा नवम दृष्टि लाभ स्थान पर | तो सप्तम भाव के जो भी फल हैं उनमें वृद्धि होगी और जातक पूर्ण निष्ठा के साथ अपना कार्य करते हुए सफलता प्राप्त करके आगे बढ़ेगा | नवम भाव के फल यानी धर्म कार्यों में उसकी रुचि बढ़ेगी तथा उसे पिता का सहयोग और आशीर्वाद भी प्राप्त होगा | अपने पराक्रम तथा धार्मिक स्वभाव और व्यवहार कुशलता के कारण तथा उसकी सहायक प्रवृत्ति के कारण उसे अपने छोटे बड़े भाई बहनों और अधिकारी वर्ग का सहयोग प्राप्त होगा और उसे अपने व्यवसाय में लाभ प्राप्त होगा अथवा उसकी पदोन्नति होगीयदि वह किसी नौकरी में है तोक्योंकि लाभ स्थान बड़े भाई बहनों, अधिकारी वर्ग, तथा कार्य में आर्थिक लाभ आदि के लिए देखा जाता है |

इसी प्रकार समस्त भावों के लिए समझना चाहिए | यहाँ एक बात और स्पष्ट करना चाहेंगे कि यद्यपि गुरु की दृष्टियाँ सदैव शुभ ही होती हैं, किन्तु गुरु यदि अपनी नीच की राशि मकर में विद्यमान है तो उसके शुभ फल नहीं प्राप्त होंगे | इसके अतिरिक्त, यदि राहु केतु के मध्य है तो व गुरु चाण्डाल योग बनाता है, अस्त है अथवा बहुत कम अंशों यानी शैशवावस्था में है अथवा वृद्ध है अर्थात् बहुत अधिक अंशों में है तो इन सभी परिस्थितियों में उसके पूर्ण फल या तो प्राप्त नहीं होंगे अथवा बहुत प्रयासों के बाद, बहुत सारी बाधाओं को पार करके शुभ फल प्राप्त होंगे | क्योंकि राहुकेतु उसे पूर्ण रूप से कार्य नहीं करने देंगे, बच्चा अथवा वृद्ध तो वैसे ही उतने अधिक शक्तिशाली नहीं होते, और अस्त होने पर तो उसमें सामर्थ्य ही नहीं रहेगी | यही कारण है कि जब गुरु अस्त होता है तो विवाह आदि माँगलिक कार्य नहीं किए जाते |

किन्तु अन्त में वही बात पुनः दोहराएँगे कि ग्रहों के प्रभाव जान जीवन पर पड़ते हैं, किन्तु केवल उन्हीं के भरोसे नहीं बैठ रहना चाहिए | जब तक प्रयास नहीं करेंगे तब तक कैसे शुभ परिणाम प्राप्त होंगे | सबसे प्रमुख तो व्यक्ति के अपने कर्म होते हैंअन्यथा तो सामने चाय का कप रखा रहता हैलेकिन जब तक आप हाथ बढ़ाकर उसे उठाकर अपने होठों तक नहीं ले जाएँगे तब तक चाय का आनन्द नहीं ले सकेंगे | अतः भाग्यवादी न बनकर कर्मशील बनें यही कामना है

अक्षय पर्व और भगवान परशुराम

अक्षय पर्व और भगवान परशुराम

ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः

ॐ जमदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात

कल यानी बुधवार 30 मई को वैशाख शुक्ल तृतीय अर्थात अक्षय तृतीया का अक्षय पर्व है, जिसे भगवान् विष्णु के छठे अवतार परशुराम के जन्मदिवस के रूप में भी मनाया जाता है – यद्यपि इस वर्ष आज मनाई जा रही है परशुराम जयन्ती | इस विषय पर आगे बात करेंगे |

आज कन्या लग्न में सायं 5:32 पर तृतीया तिथि का उदय होगा, जो कल यानी 30 मई को दोपहर 2:12 तक रहेगी | तिथ्योदय के समय सूर्य अपनी उच्च राशि में हैं और गुरु तथा शुक्र का राशि परिवर्तन एक बहुत शुभ योग बना रहा है | उधर कन्या लग्न से नवम भाव में उच्च के चन्द्रमा के साथ गुरुदेव गजकेसरी योग बना रहे हैं । यानी अक्षय तृतीया तो होती ही अबूझ है, लेकिन उसके साथ ही आरम्भ से ही अत्यन्त भाग्यवर्द्धक योग बना रही है | अस्तु, सभी के लिए सौभाग्य कामना से सर्वप्रथम सभी को अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ…

यों तो हर माह की दोनों ही पक्षों की तृतीया जया तिथि होने के कारण शुभ मानी जाती है, किन्तु वैशाख शुक्ल तृतीया स्वयंसिद्ध तिथि मानी जाती है | पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं उनका अक्षत अर्थात कभी न समाप्त होने वाला शुभ फल प्राप्त होता है | भविष्य पुराण तथा अन्य पुराणों की मान्यता है कि भारतीय काल गणना के सिद्धान्त से अक्षय तृतीया के दिन ही सतयुग और त्रेतायुग का आरम्भ हुआ था जिसके कारण इस तिथि को युगादि तिथि – युग के आरम्भ की तिथि – माना जाता है |

साथ ही पद्मपुराण के अनुसार यह तिथि मध्याह्न के आरम्भ से लेकर प्रदोष काल तक अत्यन्त शुभ मानी जाती है | इसका कारण भी सम्भवतः यह रहा होगा कि पुराणों के अनुसार भगवान् परशुराम का जन्म प्रदोष काल में हुआ था | परशुराम के अतिरिक्त भगवान् विष्णु ने नर-नारायण और हयग्रीव के रूप में अवतार भी इसी दिन लिया था | ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतार भी इसी दिन माना जाता है | पवित्र नदी गंगा का धरती पर अवतरण भी इसी दिन माना जाता है | माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने पाण्डवों को वनवास की अवधि में अक्षत पात्र भी इसी दिन दिया था – जिसमें अन्न कभी समाप्त नहीं होता था | माना जाता है कि महाभारत के युद्ध और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था तथा महर्षि वेदव्यास ने इसी दिन महान ऐतिहासिक महाकाव्य महाभारत की रचना आरम्भ की थी |

जैन धर्म में भी अक्षय तृतीया का महत्त्व माना जाता है | प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को उनके वर्षीतप के सम्पन्न होने पर उनके पौत्र श्रेयाँस ने इसी दिन गन्ने के रस के रूप में प्रथम आहार दिया था | श्री आदिनाथ भगवान ने सत्य व अहिंसा का प्रचार करने एवं अपने कर्म बन्धनों को तोड़ने के लिए संसार के भौतिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर जैन वैराग्य अंगीकार किया था | सत्य और अहिंसा के प्रचार करते करते आदिनाथ हस्तिनापुर पहुँचे जहाँ इनके पौत्र सोमयश का शासन था | वहाँ सोमयश के पुत्र श्रेयाँस ने इन्हें पहचान लिया और शुद्ध आहार के रूप में गन्ने का रस पिलाकर इनके व्रत का पारायण कराया | गन्ने को इक्षु कहते हैं इसलिए इस तिथि को इक्षु तृतीया अर्थात अक्षय तृतीया कहा जाने लगा | आज भी बहुत से जैन धर्मावलम्बी वर्षीतप की आराधना करते हैं जो कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ होकर दूसरे वर्ष वैशाख शुक्ल तृतीया को सम्पन्न होती है और इस अवधि में प्रत्येक माह की चतुर्दशी को उपवास रखा जाता है | इस प्रकार यह साधना लगभग तेरह मास में सम्पन्न होती है |

इस प्रकार विभिन्न पौराणिक तथा लोक मान्यताओं के अनुसार इस तिथि को इतने सारे महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुए इसीलिए सम्भवतः इस तिथि को सर्वार्थसिद्ध तिथि माना जाता है | किसी भी शुभ कार्य के लिए अक्षय तृतीया को सबसे अधिक शुभ तिथि माना जाता है : “अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तम्, तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया | उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यै:, तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव ||”

सांस्कृतिक दृष्टि से इस दिन विवाह आदि माँगलिक कार्यों का आरम्भ किया जाता है | कृषक लोग एक स्थल पर एकत्र होकर कृषि के शगुन देखते हैं साथ ही अच्छी वर्षा के लिए पूजा पाठ आदि का आयोजन करते हैं | ऐसी भी मान्यता है इस दिन यदि कृषि कार्य का आरम्भ किया जाए जो किसानों को समृद्धि प्राप्त होती है | इस प्रकार प्रायः पूरे देश में इस पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है | साथ ही, माना जाता है कि इस दिन जो भी कार्य किया जाए अथवा जो भी वस्तु खरीदी जाए उसका कभी ह्रास नहीं होता | किन्तु, वास्तविकता तो यह है कि यह समस्त संसार ही क्षणभंगुर है | ऐसी स्थिति में हम यह कैसे मान सकते हैं कि किसी भौतिक और मर्त्य पदार्थ का कभी क्षय नहीं होगा ? पञ्चतत्वों से निर्मित यह शरीर नाशवान है और अन्त में इसे उन्हीं पाँच तत्वों में मिल जाना है | तो कितनी भी धन सम्पत्ति हम एकत्र कर लें सब यहीं रह जानी है | अभी पहलगाम की आतंकी घटना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है | इसीलिए यह सोचना भी वास्तव में निरर्थक है कि अक्षय तृतीया पर हम जितना स्वर्ण खरीदेंगे वह हमारे लिए शुभ रहेगा, अथवा हम जो भी कार्य आरम्भ करेंगे उसमें दिन दूनी रात चौगुनी तरक्क़ी होगी |

जिस समय हमारे मनीषियों ने इस प्रकार कथन किये थे उस समय का समाज तथा उस समय की आर्थिक परिस्थितियाँ भिन्न थीं | उस समय भी अर्थ तथा भौतिक सुख सुविधाओं को महत्त्व दिया जाता था, किन्तु चारित्रिक नैतिक आदर्शों के मूल्य पर नहीं | यही कारण था कि परस्पर सद्भाव तथा लोक कल्याण की भावना हर व्यक्ति की होती थी | इसलिए हमारे मनीषियों के कथन का तात्पर्य सम्भवतः यही रहा होगा कि हमारे कर्म सकारात्मक तथा लोक कल्याण की भावना से निहित हों, जिनके करने से समस्त प्राणिमात्र में आनन्द और प्रेम की सरिता प्रवाहित होने लगे तो उस उपक्रम का कभी क्षय नहीं होता अपितु उसके शुभ फलों में दिन प्रतिदिन वृद्धि ही होती है – और यही तो है जीवन का वास्तविक स्वर्ण | किन्तु परवर्ती जन समुदाय ने – विशेषकर व्यापारी वर्ग ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इसे भौतिक वस्तुओं – विशेष रूप से स्वर्ण – के साथ जोड़ लिया | अभी हम देखते हैं कि अक्षय तृतीया से कुछ दिन पूर्व से ही हमारे विद्वान् ज्योतिषी अक्षय तृतीया पर स्वर्ण खरीदने का मुहूर्त बताने में लग जाते हैं | लोग अपने आनन्द के लिए प्रत्येक पर्व पर कुछ न कुछ नई वस्तु खरीदते हैं तो वे ऐसा कर सकते हैं, किन्तु वास्तविकता तो यही है कि इस पर्व का स्वर्ण की ख़रीदारी से कोई सम्बन्ध नहीं है |

एक अन्य महत्त्व इस पर्व का है | यह पर्व ऐसे समय आता है जो वसन्त ऋतु के समापन और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के कारण दोनों ऋतुओं का सन्धिकाल होता है | इस मौसम में गर्मी और उमस वातावरण में व्याप्त होती है | सम्भवतः इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए इस दिन सत्तू, खरबूजा, तरबूज, खीरा तथा जल से भरे मिट्टी के पात्र आदि दान देने की परम्परा है अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है | साथ ही यज्ञ की आहुतियों से वातावरण स्वच्छ हो जाता है और इस मौसम में जन्म लेने वाले रोग फैलाने वाले बहुत से कीटाणु तथा मच्छर आदि नष्ट हो जाते हैं – सम्भवतः इसीलिए इस दिन यज्ञ करने की भी परम्परा है |

जहाँ तक एक दिन पूर्व परशुराम जयन्ती मनाने का प्रश्न है तो ऐसा इसलिए कि भगवान परशुराम का जन्म प्रदोषकाल में हुआ था | कल दोपहर में ही तृतीया तिथि समाप्त हो जाएगी इसलिए आज प्रदोषकाल में भगवान परशुराम की पूजा अर्चना की जाएगी | किन्तु उदया तिथि के अनुसार अक्षय तृतीया का व्रत कल ही होगा | भगवान परशुराम की कथाएँ जन साधारण को ज्ञात हैं अतः उनके विषय में लिखना पुनरावृत्ति ही होगी | फिर भी कुछ महत्वपूर्ण तथ्य…

भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को विश्ववन्द्य महाबाहु परशुराम का जन्म हुआ था | वे भगवान विष्णु के छठे अवतार है | उनका मूल नाम राम है, भगवान शिव ने जब उन्हें परशु अस्त्र प्रदान किया तब उनका नाम परशुराम पड़ा | जमदग्नि ऋषि की सन्तान होने के कारण वे जामदग्न्य कहलाए | जन्म से ब्राह्मण किन्तु कर्म से क्षत्रिय परशुराम भृगु वंश के कारण भार्गव भी कहलाए जाते हैं | उन्होंने केवल ब्राह्मणों को ही शस्त्र शिक्षा प्रदान की – भीष्म और कर्ण इसके अपवाद हैं | भविष्य में भी कल्कि अवतार के समय वे ही कल्कि भगवान को अस्त्र शस्त्र की शिक्षा प्रदान करेंगे ऐसी पौराणिक मान्यता है | भगवान परशुराम एक समाज सुधारक के रूप में भी सामने आते हैं | उन्होंने अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य मुनि की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी जागृति अभियान का संचालन भी किया था | उन्होंने 21 बार अहंकारी और धृष्ट हैहेय वंश के क्षत्रियों का संहार करके धरा को उनके आतंक से मुक्त किया | वैदिक संस्कृति के प्रचार प्रसार में उनका अतुलनीय योगदान रहा | माना जाता है कि कोंकण, गोवा और केरल के अधिकांश ग्राम उन्होंने ही बसाए थे |

अस्तु, कथाएँ और दन्त कथाएँ अनेकों हैं, लेकिन…

ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्,

ऊँ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात्…

श्री लक्ष्मी-नारायण की उपासना के पर्व अक्षय तृतीया तथा परशुराम जयन्ती की सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ… सभी के जीवन में सुख-समृद्धि-सौभाग्य-ज्ञान-उत्तम स्वास्थ्य की वृद्धि होती रहे तथा हर कार्य में सफलता प्राप्त होती रहे… यही कामना है…

परशुराम ने हैहय वंश का नाश 21 बार किया था | जब उन्होंने देखा कि हैहेय वंश के राजा सहस्रार्जुन के ऋषियों और ब्राह्मणों पर अत्याचार रुक नहीं रहे, यहाँ तक कि उनके पिता के आश्रम पर आक्रमण कर उनका भी वध कर दिया – तब उन्होंने सम्पूर्ण हैहेय वंश के क्षत्रियों का समूल नाश करने की सौगन्ध ली और 21 बार पृथिवी को क्षत्रियविहीन किया | एजेस तरह पड़ोसी देश के आतंकी हमारे देश के भोले भाले नागरिकों का इतनी निर्ममता से क्रूरता से वध कर रहे हैं तो हर परिवार से एक परशुराम निकलने की आवश्यकता है |

—– कात्यायनी

यौगिक चक्र और नवरात्र उपासना

यौगिक चक्र और नवरात्र उपासना

चक्र साधना योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । चक्रों को समझकर उन्हें सन्तुलित करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है, और जब शारीरिक तथा मानसिक स्तर पर मनुष्य स्वस्थ रहेगा तो अपने सांसारिक कर्तव्य कर्मों का पूर्ण निष्ठा के साथ निर्वहन करते हुए भी आध्यात्म की दिशा में भी अग्रसर होने में उसे सरलता का अनुभव होगा । चक्र ऊर्जा के केन्द्र माने जाते हैं, और ऊर्जा के सुचारू रूप से प्रवाहित होने के लिए चक्रों का सन्तुलित होना अत्यन्त आवश्यक है । साथ ही चक्रों को यदि समझ लिया जाए तो स्वयं के प्रति जागरूकता में वृद्धि होती है और व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति और सामर्थ्य को पहचानना आरम्भ कर देता है । मुख्य रूप से सात चक्र होते हैं

  • मूलाधार चक्रनाम से ही स्पष्ट है मूल आधार – मेरुदण्ड के सबसे नीचे के भाग में गूदा तथा जननेन्द्रिय के मध्य इसकी स्थिति मानी गई है यह पृथ्वी तत्व से सम्बद्ध होता है तथा यह स्थिरता, सुरक्षा और आधार प्रदान करता है । इसी से स्पष्ट होता है कि ध्यान अथवा अन्य किसी भी कार्य में प्रगति के लिए आधार को स्थिर करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है ।
  • स्वाधिष्ठान चक्रस्व अर्थात् स्वयं का अधिष्ठानमूलाधार के ऊपर तथा जननेन्द्रिय के पीछे इसकी स्थिति मानी गई है । इसका सम्बन्ध जल तत्व से होता है तथा सम्भवतः इसी कारण से कहा जाता है कि इसके सन्तुलन से रचनात्मकता, भावनात्मकता तथा आनन्द में वृद्धि होती है । 
  • मणिपूर चक्रयह चक्र नाभि के पीछे मेरुदण्ड पर होता है । अग्नि तत्व से इसका सम्बन्ध होने के कारण ही इसके सन्तुलन से व्यक्तिगत शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है । साथ ही आत्म शक्ति, इच्छा शक्ति तथा पाचन तन्त्र से भी इसका सम्बन्ध माना जाता है ।
  • अनाहत चक्रहृदय के बीच में वक्ष के मध्य भाग में इसकी स्थिति होती है । यह चक्र वायु तत्व से सम्बन्ध रखता है तथा इसके सन्तुलन से प्रेम, करुणा तथा भावनात्मक सन्तुलन स्थापित होता है ।
  • विशुद्ध चक्रयह चक्र कण्ठ के केन्द्र में स्थित होता है । आकाश तत्व से इसका सम्बन्ध होने के कारण ही संचार, अभिव्यक्ति तथा सत्य से इसका सम्बन्ध होता है ।
  • आज्ञा चक्रदोनों भवों के मध्य मस्तक के केन्द्र में इसकी स्थिति मानी गई है । सभी पाँच तत्वों से ऊपर जो ज्ञान की अवस्था हैजिसे तृतीय नेत्र भी कहा जाता हैउस तत्व से इसका सम्बन्ध होता है तथा ज्ञान, अन्तर्ज्ञान, ध्यान और धारणा शक्ति से इसका सम्बन्ध होता है ।
  • सहस्रार चक्रसिर के सबसे ऊपरी भाग में अर्थात् मूर्धन्य में इसकी स्थिति होती है । सहस्र दल पद्म खिलने जैसा अनुभव योगियों को इसके जागरण से होता है और इसीलिए इस चक्र का सम्बन्ध चेतना, ज्ञान तथा आध्यात्मिक जागृति से होता है ।

यहाँ ध्यान देने की बात है कि ये जो चक्रों की शरीर में स्थिति बताई जाती है यह शरीर के अंगों के रूप में नहीं होते हैंअर्थात् इन्हें देखा अथवा इनका स्पर्श नहीं किया जा सकता है शरीर एक अन्य अवयवों की भाँति, किन्तु इनमें से जो भी चक्र जागृत हो जाते हैं उनके अनुभव साधक को होते हैं । नवरात्रों में भगवती के नौ रूपों की यदि पूर्ण श्रद्धा भक्ति और पूर्ण ध्यान के अभ्यास के साथ उपासना की जाए तो इन चक्रों को जागृत किया जा सकता है ऐसा हमारे मनीषियों का मानना हैक्योंकि नवरात्र के पूरे नौ दिनों में साधक का मन अलग अलग चक्रों में क्रमशः अवस्थित होता जाता है । किन्तु इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए गहन साधना की आवश्यकता होती हैऔर यही सबसे कठिन कार्य है सांसारिक बन्धनों में बद्ध व्यक्ति के लिएक्योंकि हम लोग तोव्रत और उपवासके दिन भी साधना के स्थान पर उत्तम प्रकार केफलाहारबनाने और उनके सेवन में व्यतीत कर देते हैं । फिर भी, अपनी अल्प बुद्धि से और ग्रन्थों के अध्ययन से जैसा समझ आया वैसा ही यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं कि नवरात्रों के नौ दिन साधक का मन किस किस चक्र पर अवस्थित होता है ।

  • नवरात्रों के प्रथम दिन भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना की जाती है । नवरात्रों से पूर्व योग ध्यान आदि के गहन अभ्यास के द्वारा साधक अनुभव अथवा भावनाओं के उस शिखर तक पहुँच जाता है जहाँ उसे दिव्य चेतना का अनुभव होता है तथा उसका मन हिमालय की भाँति स्थित हो जाता है । यही है शैलपुत्री का वास्तविक अर्थ । और यह स्थिरता तभी सम्भव है जब मूलाधार चक्र को जागृत कर लिया जाए । भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना के माध्यम से हम वास्तव में इस मूलाधार चक्र को ही जागृत करने का प्रयास करते हैं ताकि हमारी व्यक्तिगत क्षमताओं में वृद्धि हो सके और हमारा मन स्थिर होकर हमारी सुरक्षा की भावना भी प्रबल हो सके ।
  • द्वितीय नवरात्र समर्पित होता है भगवती के ब्रह्मचारिणी रूप को । ब्रह्मचारिणी का अर्थ ही है वह जो ब्रह्माण्ड अर्थात् असीम मेंअनन्त में विद्यमान होगतिमान है । एक ऐसी ऊर्जा हो जो जड़ न होकर अनन्त में विचरण करती हो । यही कारण है कि इनकी आराधना से सम्भावनाओं के अनन्त आकाश समक्ष उपस्थित हो सकते हैं । माता का यह स्वरूप ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक तापसी का रूप हैब्रह्म अर्थात तप और चारिणी अर्थात् आचरण करने वाली । हम सभी अपने जीवन में किसी ना किसी तप का पालन करते हैंअपने कार्यक्षेत्र की कठिनाइयाँ हों, कार्य में सफलता प्राप्त करनी हो, दिन प्रतिदिन की जीवन की चुनौतियाँ होंहर संघर्ष एक तपस्या ही है । ऐसे में यदि स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हो जाए तो व्यक्ति की रचनात्मकता और भावनात्मकता में वृद्धि होगी और उसे अपनी समस्याओं का निर्भीकता से सामना करते हुए उनके निराकरण का उपाय खोजने में दिशा प्राप्त होगी । इसीलिए ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना से हम अपना स्वाधिष्ठान चक्र जागृत कर सकते हैं ।
  • चन्द्रघण्टा अर्थात् चन्द्रमा के समान दैदीप्यमान और आकर्षकतथा, चन्द्र हो घण्टा में जिसकेचन्द्रमा जिसे अत्यन्त निर्मल और धवल माना जाता है । शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता है । आज जीवन जिस तेज़ गति से भाग रहा है उस स्थिति में मन को शान्त, स्थिर और शीतल रखना अत्यन्त आवश्यक है । मन जब शान्त और स्थिर रहेगा तभी नकारात्मक विचार नष्ट होकर व्यक्ति की आत्म शक्ति और इच्छा शक्ति को बल मिलेगा, और इसी के लिए मणिपुर चक्र को जागृत किया जाता है । भगवती के चन्द्रघण्टा रूप की उपासना के द्वारा इसी मणिपुर चक्र को जागृत किया जाता है । जिससे व्यक्ति को सन्तोष की अनुभूति होती है और उसकी नेतृत्व शक्ति में विकास होता है ।
  • चतुर्थ नवरात्र को भगवती के कूष्माण्डा रूप की उपासना की जाती है । माँ कूष्माण्डा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का स्रोत हैं ।इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है तथा इसके सन्तुलन से प्रेम, करुणा और भावनात्मक सन्तुलन स्थापित होता है । इस सन्तुलन से जीवमात्र के प्रति हमारा समभाव स्थापित होने के कारण हमारा मिलन अपनी स्वयं की आत्मा से होता है । क्योंकि व्यक्ति को समझ आ जाता है कि पिण्डे सो ब्रह्माण्डे अर्थात् जो ब्रह्माण्ड में है वही हमारे शरीर में भी है और इस प्रकार ब्रह्माण्ड के सभी जीवों में एक ही आत्मा का वास है ।
  • पञ्चम नवरात्र समर्पित है भगवती के स्कन्द माता रूप कोजिन्हें कार्तिकेय अर्थात् स्कन्द की जननी होने के कारण  जनन की देवी भी कहा जाता हैफिर चाहे वह प्रकृति हो, मनुष्य हो अथवा अन्य कोई भी प्राणी हो । जन्म ज्ञान शक्ति और कर्म शक्ति के मिलन का परिणाम होता है अतः स्कन्दमाता इन दोनों शक्तियों के मिलन स्वरूप ऐसी दिव्य शक्ति हो जाती हैं जो ज्ञान सेसत्य सत्य से दर्शन कराती हैंक्योंकि यह समस्त दृश्य प्रपञ्च मिथ्या होते हुए भी प्रत्यक्ष होने के कारण सत्य ही प्रतीत होता है । पञ्चम नवरात्र को साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित हो जाता हैजिसके जागृत होने से ईश्वर की सत्ता का अनुभव होने लगता है तथा इस चक्र के आकाश तत्व होने के कारण साधक उस सत्य की अभिव्यक्ति भी कुशलता से कर सकता है ।
  • छठा नवरात्र समर्पित होता है भगवती के कात्यायनी रूप को । इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में अवस्थित हो जात है जिसके कारण साधक को तत्व का बोध होता है, आत्मज्ञान प्राप्त होता है और इसी कारण अज्ञात भय से मुक्ति प्राप्त होती है तथा ध्यान और धारणा शक्ति के प्रबल हो जाने के कारण व्यक्ति में क्षमा भावना का विकास हो जाता है । आज्ञा चक्र सत् चित् और आनन्द के केन्द्र होता है और इसके जागृत हो जाने से नैतिक तर्क शक्ति तथा विवेक में वृद्धि के साथ ही वाक्सिद्धि भी सम्भव हो जाती है ।
  • सप्तमनवरात्रकोभगवतीकेकालरात्रिरूपकीउपासनाकीजातीहैतथाअष्टमनवरात्रकोमहागौरीरूपकी।इनदोनोंरूपोंकीउपासनासेसहस्रारचक्रजागृतहोताहै।प्रथमनवरात्रसेमूलाधारकोजागृतकरतेहुएसाधकऊर्ध्वकीओरअग्रसरहोताहुआआध्यात्मऔरयोगकेअत्यन्तमहत्त्वपूर्णचक्रसहस्रारचक्रकेअधोभागपरपहुँचजाताहैजहाँसेसहस्रदलकमलप्रस्फुटितहोनेजैसाअनुभवहोनेलगताहै।इसेआज्ञाचक्रकाउच्चतमबलभीकहाजाताहै।यहीकारणहैकिअष्टमनवरात्रकोजबभगवतीकेमहागौरीरूपकीउपासनासाधककरताहैतोउसकीएकाग्रताअपनेचरमपरहोतीहैतथाउसेआलस्यसेमुक्तिप्राप्तहोतीहै।
  • नवम दिन भगवती के सिद्धिदात्री रूप की उपासना की जाती है । नाम से ही स्पष्ट हैसिद्धि प्रदान करने वालामोक्ष प्रदान करने वाला रूप है यह । अथक साधना के फलस्वरूप इस दिन साधक का सहस्रार चक्र जागृत हो जाता है जो अन्तिम चक्र है तथा आत्मज्ञान और परम शान्ति का अनुभव कराता है । इसका सम्बन्ध चेतना, ज्ञान तथा आध्यात्मिक जागृति से होता है । यही कारण है इसके जागृत हो जाने से साधक योगी को अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्वऔरवशित्वआदिवेसमस्तसिद्धियाँप्राप्तहोजातीहैंजोदेवाधिदेवभगवानशिवकोइसउपासनासेप्राप्तहुईथीं।

किन्तु ध्यान रहे, ये सभी हमारे योगीजनों के अनुभवों के सत्य हैंसमय समय पर जिनका अध्ययन करने का सौभाग्य प्रायः हम सभी को प्राप्त होता रहता है । योग की विविध प्रक्रियाओं में निष्णात होने का बाद ही साधक में ऐसी सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि वह नवरात्रों के नौ दिनों तक मूलाधार चक्र से आरम्भ करके निरन्तर ऊर्ध्व की ओर अग्रसर होते हुए सहस्रार चक्र को जागृत करके सभी सिद्धियाँ प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकता हैऔर योगीजनों के लिए मोक्ष से अभिप्राय शरीर से मोक्ष नहीं है, अपितु परम ज्ञान की प्राप्ति होता है ।

होलाष्टक 2025

होलाष्टक 2025

इस वर्ष गुरुवार 6 मार्च को प्रातः 10:51 के लगभग विष्टि करण और विषकुम्भ योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ होगा जो सात मार्च को प्रातः 9:18 तक रहेगी | इस प्रकार उदया तिथि के अनुसार शुक्रवार सात मार्च से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे | 10 मार्च को रंग की एकादशी हैजो फाल्गुन एकादशी और आमलकी एकादशी भी कहलाती है | उसके बाद तेरह मार्च को फाल्गुन पूर्णिमा है जिसे वसन्त पूर्णिमा और छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है | इसी दिन होलिका दहन किया जाता है | और फिर 14 मार्च को प्रातः रंगों की बरसात के साथ ही होलाष्टक समाप्त हो जाएँगे | 

 

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक से ही होली के पर्व का आरम्भ हो जाता है | ज्योतिषी इसेहोलाष्टक दोषकी संज्ञा देते हैं और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | ज्योतिषियों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, मुण्डन, भवन निर्माण अथवा गृह प्रवेश आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |

इस विषय में एक कथा भी प्रचलित है कि सती के द्वारा उनके पिता दक्ष के यज्ञ में पति भगवान शंकर के अपमान  व्यथित होकर आत्माहुति देने के बाद जब भगवान् शंकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करके ध्यानावस्थित हो गए उस समय तारकासुर ने अपने उत्पात बढ़ा दिए | तारकासुर का वध केवल भगवान् शिव और पार्वती की सन्तान ही कर सकती थी | नारद के कहने पर पार्वती ने घोर तपस्या की शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए, लेकिन शिव का ध्यान भंग नहीं हुआ | जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थीभगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | 

वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से ही होलिका दहन के स्थान को स्वच्छ करके वहाँ होलिका और प्रह्लाद के प्रतीक स्वरूप दो दण्ड स्थापित कर दिए जाते थे और उनके मध्य में घास फूस उपलों तथा लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता था | लेकिन एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस अवसर पर भी इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि वृक्षों की कटाई न करनी पड़े, और इसके लिए वृक्षों से अपने आप हाई गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस को होलिका दहन के स्थान पर एकत्र किया जाता था | इससे विदित होता है कि उस समय प्रकृति का कितना सम्मान किया जाता था और अनावश्यक हाई वृक्षों की कटाई इत्यादि नहीं की जाती थी | 

कृष्ण भक्त इस पर्व को राधा कृष्ण की कथा से जोड़ते हैं | राधा जी की जन्मस्थली बरसाने में इस दिन लड्डू बाँटे जाते हैं और अष्टमी से रंगों का खेल आरम्भ हो जाता है | माना जाता है की इसी दिन भगवान् कृष्ण श्री राधा जी और उनके परिवारजनों से मिलने के लिए बरसाने पहुँचे थे |

काशी विश्वनाथ मन्दिर में भी होली का त्यौहार धूम धाम से मनाया जाता है | वहाँ रंग की एकादशी से इस पर्व का आरम्भ हो जाता है | मान्यता है कि इसी दिन भगवान् शंकर माता पार्वती को अपने घर लाने के लिए निकले थे |

मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | वास्तव में होली का पर्व प्रकृति का पर्व है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा व्याप्त होती है जो समस्त जड़ चेतन को मन्त्रमुग्ध करती प्रेम और उत्साह के रंगों से सराबोर कर देती है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में ब्याह शादी या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा

तो, क्यों न स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों और मान्यताओं के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ पूर्ण रूप से प्रकृति के सान्निध्य में व्यतीत किया जाए 

रंगों के पर्व की अभी से सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ

होलाष्टक 2025
होलाष्टक 2025

प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

माघ शुक्ल पञ्चमी अर्थात वसन्त पञ्चमी का वासन्ती पर्वजब माघ मास लगभग समाप्त होने को होता है तब ठण्ड की विदाई के साथ वसन्त ऋतु का आगमन होता है | फाल्गुन और चैत्र मास वसन्त ऋतु के मास माने जाते हैं | चैत्र वर्ष का प्रथम मास है और फाल्गुन अन्तिमकितना अद्भुत संयोग है कि वैदिक पञ्चांग के अनुसार वर्ष का आरम्भ और अन्त दोनों वसन्त की मादकता के साथ ही होते हैं | उस समय मानों ऋतुराज के स्वागत हेतु समस्त धरा अपने हरे घाघरे के साथ सरसों का पीला उत्तरीय और पलाश के पीत पुष्पों की चूनर ओढ़ लेती है | पलाश, जिसे टेसू भी कहा जाता है | और वृक्षों की टहनियों रूपी अपने हाथों में ढाक के श्वेत पुष्पों के चन्दन से ऋतुराज के माथे पर तिलक लगाकर लाल पुष्पों के दीपों से कामदेव के प्रिय मित्र का आरता उतारती है | वास्तव में अत्यन्त मनोहारी दृश्य होता है यह |

इस वर्ष माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि 2 फरवरी को प्रातः सवा नौ के लगभग बव करण और सिद्ध योग में आरम्भ हो रही है, जो तीन फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 6:52 तक रहेगी | अतः रविवार दो फरवरी को यानी कल सरस्वती और रतिकामदेव की पूजा के साथ वसन्त का उल्लास मनाया जाएगा |

कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और ऋतुसंहार तथा बाणभट्ट के कादम्बरी और हर्ष चरित जैसे अमर ग्रन्थों में वसन्त ऋतु का तथा प्रेम के इस मधुर पर्व का इतना सुरुचिपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है कि जहाँ या तो प्रेमीजन जीवन भर साथ रहने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं या फिर बिरहीजन अपने प्रिय के शीघ्र मिलन की कामना करते दिखाई देते हैंसंस्कृत ग्रन्थों में तो वसन्तोत्सव को मदनोत्सव ही कहा गया है जबकि वसन्त के श्रृंगार टेसू के पुष्पों से सजे वसन्त की मादकता देखकर तथा होली की मस्ती और फाग के गीतों की धुन पर हर मन मचल उठता थाइस मदनोत्सव में नर नारी एकत्र होकर चुन चुन कर पीले पुष्पों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते और एक दूसरे पर अबीर कुमकुम की बौछार करते हुए वसन्त की मादकता में डूबकर कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा करते थेयह पर्व Valentine’s Day की तरह केवल एक दिन के लिए ही प्रेमीजनों के दिलों की धड़कने बढ़ाकर शान्त नहीं हो जाता था, अपितु वसन्त पञ्चमी से लेकर होली तक सारा समय प्रेम के लिए समर्पित होता था

कालिदास को तो वसन्त ऋतु में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की टहनियाँ वन में धधक उठी दावानल की लपटों जैसी प्रतीत होती हैं और इनसे घिरी हुई धरा ऐसी प्रतीत होती है मानो रक्तिम वस्त्रों में लिपटी कोई वधूटी हो | साथ ही उन्हें वसन्त ऋतु सबसे अधिक चारुतर प्रतीत होती है, तभी तो ऋतुसंहार में बोल उठते हैं

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम स्त्रिय: सकामा: पवन: सुगन्धि: |

सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:, सर्व प्रिये चारुतरं वसन्ते ||

वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम् |चूतद्रुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसंत: ||

ऐसी मनभावन ऋतु आई

वृक्षों की हर डाली डाली पुष्पित है / प्रमुदित है मन में

प्रफुल्लित हैं पद्म हर एक जलाशय में

और प्रवाहित है सुगन्धित पवन हर दिशा दिशा में

दिवस सुरम्य / सुखकर सन्ध्या

ऐसा चारुतर है वसन्त / तभी तो प्रिय है सभी को

हर ओर एक आकर्षण / एक सम्मोहन

पहले से भी कहीं अधिक

जलाशयों के ठहरे हुए जल को / मणिखचित मेखलाओं को / कंगनों को

चन्द्रमा की चन्द्रिका को / सुकुमारियों की सुकुमारता को

और पुष्पाभूषणों से आभूषित आम्रवृक्षों को

दिया है दान सौन्दर्य का / सौभाग्य का

इसी वसन्त ने तो

तभी तो है इतना मोहक और आकर्षक

यही कालिदास विक्रमोर्वशीयं में दक्षिण दिशा से प्रवाहित होती पवन को वसन्त का सबसे प्रिय मित्र बताते हुए कहते हैं

वासार्थं हर संभृतं सुरभिणा पौष्पं रजो वीरुधांकिं कार्यं भवतो हृतेन दयितास्नेहस्वहस्तेन में |जानीते हि मनोविनोदनशतैरेवंविधैर्धारितंकामार्तं जनमज्जनां प्रति भवानालक्षितप्रार्थनः ||

स्वयं को करना चाहते हो सुवासित सुगन्धि से

तो क्यों नहीं उठा ले जाते वसन्त ऋतु में

वृक्षों की डालियों पर प्रफुल्लित पुष्पों का पराग…?

मेरी प्रियतमा के हाथ का लिखा हुआ ये पत्र

भला किस काम का तुम्हारे…?

तुम तो स्वयं प्रेम कर चुके हो अंजना से

तुम्हें क्या पता नहीं…?

मन के भावों को आनन्दित करते हैं यही प्रेम पत्र तो

देते हैं जीवनदान प्रेमियों को

ऐसी राग रंग रचाती ऋतु को ऋतुओं का राजा भला क्यों न कहा जाएगा…? वसन्तजिस ऋतु में चिर सुषमा की वंशी सदा गुंजायमान रहती होअपार यौवनअपार सुखअपार विलास के देवता कामदेव का पुत्रतभी तो आधार है नव सृजन काशस्य श्यामला वसुन्धरा में स्वर्णिम सौन्दर्यजहाँ भगवान भास्कर की रश्मियाँ पञ्चम का सुर आलापती कोयल तथा घनी अमराइयों में मँडराते भ्रमरों के गान पर थिरक उठती होंसंस्कृत साहित्य ही नहीं वरन रीतिकालीन हिन्दी काव्य से लेकर आज तक के सभी रचनाकारों को वसन्त प्रभावित किये बिना नहीं रहताकिसी को वसन्त के आते ही पुष्पों का खिल जानाभ्रमरों का गानकोयल की कुहुक सब कुछ प्राणिमात्र के लिए सुख तथा स्वास्थ्यकर लगता हैतो किसी को वसन्त की वासन्ती आभा विरह वेदना को और अधिक बढ़ाती जान पड़ती हैतभी तो कहते हैं इसे ऋतुओं का राजाआज भी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराँचल सहित देश के अनेक अंचलों में पीतवस्त्रों और पीतपुष्पों में सजे नरनारी बालवृद्ध एक साथ मिलकर माँ वाणी के वन्दन के साथ साथ प्रेम के इस देवता की भी उल्लासपूर्वक अर्चना करते हैं

इस पर्व के दौरान पीले वस्त्र धारण करने के एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि पीत वर्ण का सम्बन्ध जहाँ एक ओर सूर्य से माना जाता है, वहीं भगवान् विष्णु और माँ वाणी से सम्बद्ध माना जाता है | साथ ही पीला रंग सौभाग्य का प्रतीक भी माना जाता है तथा मन को स्थिरता प्रदान करने वाला, शान्ति प्रदान करने वाला माना जाता है | पीला रंग विचारों में सकारात्मकता, आशा तथा ताज़गी का प्रतीक माना जाने के कारण व्यक्ति को उसके व्यवसाय में उन्नति का सूचक भी माना जाता है | इन्हीं कारणों से भगवान् विष्णु और भगवती सरस्वती को पीले पुष्प अर्पित किये जाते हैं |

साथ ही यह तिथि प्रत्येक कार्य के लिए शुभ मानी जाती है इसलिए इसे अबूझ मुहूर्त भी कहा जाता हैअर्थात जब कोई भी शुभ मुहूर्त न मिल रहा हो तो इसके लिए मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहींबिना मुहूर्त देखे ही इस दिन समस्त शुभ तथा मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं | कितना विचित्र संयोग है कि इस दिन एक ओर जहाँ ज्ञान विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती को श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति को भी स्नेह सुमनों के हार से आभूषित किया जाता है

सर्दियों की विदाई के साथ ही प्रकृति स्वयं अपने समस्त बन्धन खोलकरअपनी समस्त सीमाएँ तोड़करप्रेम के मद में ऐसी मस्त हो जाती है कि मानो ऋतुराज को रिझाने के लिए ही वासन्ती परिधान धारण कर नव प्रस्फुटित कलिकाओं से स्वयं को सुसज्जित कर लेती हैजिनका अनछुआ नवयौवन लख चारों ओर मंडराते भँवरे गुन गुन करते वसन्त का राग आलापने लगते हैंआम बौरा जाते हैंवसन्त के परम मित्र कामदेव अपने धनुष पर स्नेह प्रेम के पुष्पों का बाण चढ़ा देते हैंऔर प्रकृति की इस रंग बिरंगी छटा को देखकर मगन हुई कोयल भी कुहू कुहू का गान सुनाती हर जड़ चेतन को प्रेम का नृत्य रचाने को विवश कर देती हैइसीलिए तो वसन्त को ऋतुओं का राजा कहा जाता हैवास्तव में बड़ी मदमस्त कर देने वाली होती है ये रुतवृक्षों की शाख़ों पर चहचहाते पक्षियों का कलरव ऐसा लगता है मानों पर्वतराज की सभा में मुख्य नर्तकी के आने से पूर्व उसके सम्मान में वृन्दगान चल रहा हो

वसन्त को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अपना ही एक रूप बताया है

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||

गीता अध्याय 10 श्लोक 35||

सारी श्रुतियों में मूर्धन्य

वह बृहत्साम मैं ही तो हूं 

वैदिक छन्दों का महच्छंद

गायत्री भी मैं ही तो हूं

द्वादश मासों में मार्गशीर्ष का

का अद्भुत मास भी मैं ही हूं

और षड ऋतुओं का राजा

सबका प्रिय वसन्त मैं ही तो हूं

हमें अक्सर याद आ जाता है कोटद्वार में अपने कार्यकाल के दौरान सिद्धबली मन्दिर के बाहर मुंडेर पर बैठ जाया करते थे अकेलेअपने आपमें खोए सेनीचे कल कल छल छल बहती खोह का मधुर संगीत मन को मोह लिया करता थामन्दिर के चारों ओर ऊपर नीचे देखते तो हरियाली की चादर ताने और रंग बिरंगे पुष्पों से ढकी ऊँची नीची पर्वत श्रृंखलाएँ ऐसी जान पड़तीं मानों अपने तने हुए उभरे कुचों पर बहुरंगी कंचुकियाँ कसेहरितवर्णी उत्तरीयों से अपनी कदलीजँघाओं को हल्के से आवृत कियेकोई काममुग्धा नर्तकी नायिकाप्रियतम को मौन निमन्त्रण दे रही होउसे अभी कहाँ होश पर्वतराज की सभा में जा नृत्य करने काअभी तो कामक्रीड़ा के पश्चात् कुछ अलसाना हैऔर उसके पश्चात्और अधिक पुष्पों की जननी बनना हैवसन्त के आगमन पर उसे स्वयं को पुष्पहारों से और भी अलंकृत करना हैताकि पिछली रात के सारे चिह्न विलुप्त हो जाएँऔर ऋतुराज वसन्त के लिये वो पुनः अनछुई कली जैसी बन जाएऐसा मदमस्त होता है वसन्त का मौसमऋतुओं का राजा

वसन्त की उत्पत्ति के विषय में भी एक रोचक कथा है | तारकासुर नामक राक्षस का वध केवल शिवपार्वती के पुत्र द्वारा ही सम्भव था | भोलेनाथ तो तपस्या में लीन बैठे थे तो उनका पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता था ? तब देवताओं ने कामदेव से उनकी तपस्या भंग करने के लिए सहायता माँगी | कामदेव जानते थे कि शंकर की तपस्या भंग करने का अर्थ है उनके कोप का भाजन बनना | किन्तु देवताओं का कार्य भी आवश्यक था | तब उन्होंने वसन्त को उत्पन्न किया और वसन्त ऋतु तथा कामदेव के बाणों से भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई | कामदेव को दण्ड स्वरूप भगवान शंकर ने भस्म कर दिया किन्तु फिर कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें छाया रूप में जीवित रहने का वरदान दे दिया | इसीलिए वसन्त को कामदेव का पुत्र भी कहा जाता है और मित्र भीयह कथा वास्तव में प्रतीक है इस तथ्य का कि वसन्त के आगमन पर जब भगवान भास्कर मुस्कुराते हुए रश्मिरथ पर सवार हो प्रकट होते हैं तो शीत का अन्धकार नष्ट हो जाता है | साथ ही पतझड़ के कारण जो प्रकृति का विकास एक प्रकार से बाधित सा हो जाता है वह पुनः आरम्भ हो जाता है | ऐसा प्रतीत होता है मानों रूप व सौन्दर्य के देवता कामदेव के घर में सन्तानोत्पत्ति का समाचार प्राप्त होते ही समूची प्रकृति आनन्द में झूम उठती है, वृक्ष उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, रंग बिरंगे पुष्प उसे वस्त्र पहनाते हैं, पवन झूला झुलाती है और कोयल पंचम की तान सुना उसका मन बहलाती है |साथ ही इस सत्य का प्रतीक भी है कि जिस प्रेम में लोक मंगल की भावना न होकर केवल काम वासना प्रमुख होती है वह प्रेम सम्बन्ध या तो स्वयं के ही प्रमाद के कारण अथवा ऋषि श्राप से भस्म हो जाता हैशिव पार्वती का विवाह किसी काम की भावनाके कारण नहीं हुआ था अपितु लोक मंगल की कामना से हुआ था

और संयोग देखिए कि वसन्त ही के दिन नूतन काव्य वधू का अपने गीतों के माध्यम से नूतन श्रृंगार रचने वाले प्रकृति नटी के चतुर चितेरे महाप्राण निराला का जन्मदिवस भी धूम धाम से मनाया जाता है | यों निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1899 यानी माघ शुक्ल एकादशी को हुआ था, किन्तु प्रकृति का यथार्थ और सुकुमार चित्र प्रस्तुत करने के कारण 1930 में वसन्त पंचमी के दिन उनका जन्मदिन मनाने की प्रथा उनके प्रशंसकों ने आरम्भ कर दी ।

वास्तव में वसन्त प्रकृति कापीत वर्ण कापर्व हैजब समस्त प्रकृति में नव जीवन का संचार होने लगता हैफसलें पकने लगती हैंसरसों के खेत समूची धरा को पीली चादर से ढक देते हैं | कडाके की ठण्ड के बाद प्रकृति एक बार पुनः अपने मूल रूप में आ जाती है | इसी सबका स्वागत करने के लिए मन्दिरों कोघरों को पीत पुष्पों से आभूषित किया जाता है और पीली मिठाइयाँ बनाकर उनका प्रसाद ग्रहण किया जाता है | पीले वस्त्र धारण किये जाते हैंअर्थात कण कण में प्रेम और समृद्धि का प्रतीक वासन्ती रंग घुला होता है |

धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व इस पर्व का यही है कि ज्ञान विज्ञान की देवी भगवती सरस्वती के साथ ही सूर्य, गंगा मैया तथा भू देवी की पूजा अर्चना के माध्यम से जन जन को सन्देश प्राप्त होता है कि जिस प्रकृति ने हमारे जीवन में इतने सारे रंग भरे हैं, हमें वृक्षों, वनस्पतियों, स्वच्छ वायु, जल, पशु पक्षियों आदि के रूप में जीवित रहने के समस्त साधन प्रदान किये हैंउस पञ्चभूतात्मिका प्रकृति को धन्यवाद दें और उसका सम्मान करना सीखें |

तो, वसन्त के मनमोहक संगीत के साथ सभी मित्रों को सरस्वती पूजन, निराला जयन्ती तथा प्रेम के मधुमय वासन्ती पर्व वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँइस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब ज्ञान प्राप्त करके समस्त भयों तथा सन्देहों से मोक्ष प्राप्त कर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकेंताकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करके उन्मुक्त भाव से प्रेम का राग आलाप सकें

—–कात्यायनी

माघ गुप्त नवरात्रि

माघ गुप्त नवरात्रि

गुरुवार तीस जनवरी, माघ शुक्ल प्रतिपदा से माघ नवरात्र आरम्भ हो रहे हैंजो सात फरवरी को माघ शुक्ल नवमी को सम्पन्न होंगे और जिन्हें गुप्त नवरात्र के नाम से जाना जाता है | गुप्त नवरात्र आषाढ़ और माघ दो मासों में आते हैं | इन्हें तन्त्र साधना के लिए उत्तम माना जाता है और दश महाविद्याओं की उपासना की जाती है | इस वर्ष माघ शुक्ल प्रतिपदा का आरम्भ 29 जनवरी को सायं छह बजकर छह मिनट के लगभग किंस्तुघ्न करण और सिद्धि योग में हो रहा है | तीस जनवरी को सूर्योदय सात बजकर दस मिनट पर होगा इसलिए इसी दिन से नवरात्रों का आरम्भ होगा तथा सात फ़रवरी को इनका समापन होगा | घट स्थापना का मुहूर्त मीन लग्न में प्रातः 9:27 से 10:50 तक बव करण और व्यतिपत योग में रहेगा | इसके अतिरिक्त दिन में 12:13 से 12:56 तक अभिजित मुहूर्त में भी घट स्थापना की जा सकती है |

शाक्त सम्प्रदाय ने इस विश्वास को पोषित किया कि सर्वशक्तिमान केवल एक नारी ही है | वास्तव में शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही सत्य है तथा शक्ति सर्वत्र व्याप्त भी है | फिर चाहे वह नवदुर्गा के नौ रूपों में प्रतिबिम्बित होती हो अथवा दशमहाविद्याओं के रूप में | दशमहाविद्याओं की साधना यद्यपि तान्त्रिक साधना है, किन्तु यदि साधारण साधक भी इनकी सामान्य रूप से उपासना करें तो उनके लिए भी ये शुभ फलदायी होती हैं |

हिन्दू धर्म की तीन अन्तःप्रवाहित तथा परस्पर विरोधी धाराएँ हैंजिनमें वैष्णव भगवान् विष्णु की उपासना करते हैं, शैव भगवान् शिव की पूजा अर्चना करते हैं तथा शाक्त माँ भगवती के शक्ति रूप की उपासना करते हैंजो भगवान् विष्णु और शिव दोनों की ही अन्तःकरण की शक्ति हैं तथा वे ही प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय की कारणभूता भी हैं | शिव यदि शिव अर्थात मंगल हैं तो शक्ति स्वयं प्रकाश है, और शिव तथा शक्ति के सम्मिलन से ही संसार की रचना होती है तथा रचना करना शक्ति का मूलभूत धर्म है | वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सत्य प्रतीत होता है |

शाक्त विचारधारा के अनुसार भगवती दुर्गा ही पराशक्ति हैं | यही कारण है कि श्री दुर्गा भागवत पुराणजिसका एक अंग श्री दुर्गा सप्तशती भी हैको शाक्त पुराण भी कहा जाता है | अन्य सभी सम्प्रदायों के ही सामान शाक्त सम्प्रदाय का भी उद्देश्य मोक्ष प्राप्तिपरमतत्व की प्राप्तिपरम ज्ञान की प्राप्ति ही है | इसके लिए एकनिष्ठ साधना द्वारा उपलब्ध एक विशेष प्रकार की शक्ति की आवश्यकता होती है | अतः शाक्त सम्प्रदाय के लोग सशक्त बनने अर्थात सिद्धियाँ प्राप्त के लिए अनेक प्रकार से योग साधना तथा तन्त्र साधना करते हैं | इस क्रम में वे दश महाविद्याओं की उपासना करते हैं | इनके अनुसार शक्ति के इस दश रूपों में एक सत्य समाहित हैमहाविद्यामहान ज्ञानजिसके अन्तर्गत माँ भगवती के दश लौकिक व्यक्तित्वों की व्याख्या होती है | शक्ति के ये दश व्यक्तित्व हैं :-

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी |

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ||

बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका |

एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्रकीर्तिता ||

काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला ये दश महाविद्याएँ साधक को सिद्धि प्रदान करने वाली कही गई हैं |

देवी भागवत के अनुसार शिव और सती के विवाह से सती के पिता दक्ष अप्रसन्न थे | उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया और शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से उन्हें आमन्त्रित नहीं किया | किन्तु सती अपने पिता के घर यज्ञ में जाना चाहती थीं | शिव ने उन्हें रोकना चाहा तब सती ने स्वयं को महाकाली के भयानक रूप में परिवर्तित कर लिया | शिव घबराकर वहाँ से भागने लगे तो वे जिस भी दिशा में जाते उसी दिशा में उन्हें सती किसी न किसी रूप में मार्ग रोके खड़ी मिलतीं | अन्त में शिव ने उन्हें जाने दिया जहाँ दक्ष के द्वारा शिव की निन्दा किये जाने पर सती ने यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहुति देकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया | इस प्रकार दशों दिशाओं में जो उनके दश रूप प्रकट हुए वे ही दश महाविद्या के नाम से जाने जाते हैं |

शिव पुराण के अनुसार माँ दुर्गा ने दश रूप धारण करके उनकी सहायता से दुर्गम दैत्य का वध किया थाये ही देवी के दश रूप दश महाविद्या कहलाए | दश महाविद्याओं का यह समन्वित रूप इस तथ्य को भी सिद्ध करता है कि नारी वास्तव में सर्वशक्तिमान है | शाक्त दर्शन इन दश महाविद्याओं को भगवान विष्णु के दश अवतारों से भी सम्बद्ध करता है और साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि महाविद्याओं के ये दशों रूप चाहे भयानक हों अथवा सौम्यजगज्जननी जगदम्बिका के रूप में पूज्यमान हैं |

इनके विषय में विस्तार से भविष्य में कभी

ये दशों महाविद्याएँ समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाने वाली तथा सर्वार्थ का साधन करने वाली हैं, किन्तु इनकी उपासना की विधियाँ प्रायः तान्त्रिक हैं तथा बहुत कठिन हैं | और हमारा ऐसा मानना है कि गृहस्थी लोगों को इस प्रकार की तान्त्रिक उपासनाओं से प्रायः बचना चाहिए | यदि उपासना में थोड़ी सी भी चूक हो जाए तो न केवल साधक पर बल्कि उसके परिवार के लिए भी घातक सिद्ध हो सकती है |

देवी के सभी रूप समस्त संसार का कल्याण करें यही कामना है

——-कात्यायनी

कुम्भ पर्व का माहात्म्य 

कुम्भ पर्व का माहात्म्य 

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च | 

लक्षप्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत् फलम् ||

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |

चतुःस्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले ||

विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे |

सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम् ||

कुम्भ पर्व चल रहा हैऔर इस वर्ष तो महाकुम्भ है | दो शाही स्नानप्रथम स्नान पौष पूर्णिमा को और दूसरा मकर संक्रान्ति परहो चुके हैं | शाही स्नान की तिथियों और कुम्भ कितने प्रकार के होते हैं इस विषय में हम पूर्व में लिख चुके हैं, आज बात करते हैं कुम्भ के ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व की |

कुभि पूरणेधातु से निष्पन्न कुम्भ शब्द का तात्पर्य– ‘कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत् पिपासादि द्वन्द्वजालम् निर्वंतयति इति कुम्भःअर्थात् जो पर्व अमृतमय जल से पूर्ण होकर हमें क्षुत् पिपासादि अनेक द्वन्द्वों से निवृत्त करता है, उसे कुम्भ कहते हैं | इसी कारण से कुम्भ का शाब्दिक अर्थ भी घट ही हैघट के जल से जीव मात्र की तृषा शान्त होती है | साथ ही घट ईशोपनिषद कीॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते | |” की भावना का भी पोषक है कि घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें अथवा घट को सागर में डालेंहर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है | यह समस्त ब्रह्माण्ड भी घट स्वरूप है और इसका कारक तथा नियन्ता सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है | यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है | इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है | यही कारण है कि भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है कि वे समस्त तीर्थों के सहित, समस्त नदियों के सहित तथा समस्त देवों के सहित आकार घट में निवास करें |

कुम्भ पर्व की यदि बात करें तो इसका पौराणिक, आध्यात्मिक और धार्मिक महत्त्व होने के साथ ही सामाजिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी है | कुम्भ के विषय में प्रचलित पौराणिक आख्यान तो सभी को विदित हैं जिनके अनुसार समुद्र मन्थन के समय जब भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो देवताओं और दानवों के मध्य अमृत पान करने के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया था | देवराज इन्द्र के पुत्र जयन्त ने जब अमृत कुम्भ को लेकर भागने की चेष्टा की और दैत्यों ने उनसे वह घट छीनने का प्रयत्न किया और उस आपा धापी में उस अमृत घट से चार स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं | यह स्थान पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक हैं | उसी घटना की स्मृति में प्रत्येक 12 वर्ष में कुम्भ का आयोजन इन चारों स्थानों में होता है | माना जाता है कि इन प्रत्येक 12 वर्ष बाद इन विशेष नदियों का जल अमृत के समान हो जाता है | कुम्भ मेले के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | यों ऋग्वेद ऋग्वेद में कुम्भ शब्द उपलब्ध होता है किन्तु वह इन्द्र के अर्थ में है – “जघानं वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पूरो अरदत्र सिन्धून् | विभेद गिरं नवमित्र कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुतस्व युग्भि: | |” (ऋग्वेद 10/89/7) इसके अतिरिक्त ऋग्वेद के ही दशम मण्डल के 75 वें सूक्त में गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम का भी उल्लेख है जो प्रयागराज के संगम की ओर इंगित करता है | किन्तु कुम्भ मेले का उल्लेख नहीं है | उसके परवर्ती वेद अथर्ववेद के चतुर्थ मण्डल के चौंतीसवें में पूर्ण कुम्भ का उल्लेख है और उसे समय का प्रतीक माना गया है | प्रयागराज का उल्लेख महाभारत तथा अन्य पुराणों में भी उपलब्ध होता है जहाँ माघ मास में संगम में स्नान को पुण्य कारक बताया गया है | साथ ही माघ मेले के विवरण प्राप्त होते हैं, किन्तु आज की भाँति सुव्यवस्थित रूप से मेला उस समय नहीं था | कुछ विद्वान गुप्तकाल से इसका संगठित स्वरूप मानते हैं तो कुछ शिलादित्य हर्षवर्धन के समय से |

किन्तु कुम्भ पर्व का महत्त्व केवल इन आख्यानों के कारण ही नहीं है, अपितु वास्तव में कुम्भ पर्व का महत्त्व देवगुरु बृहस्पति के विशेष राशियों में सूर्य और चन्द्र के साथ युति के कारण है | अमृत कलश के संरक्षण में सूर्य, चन्द्र और देवगुरु बृहस्पति का विशेष योगदान रहा और इन तीनों ग्रहों के उन्हीं विशिष्ट योगों में आने से, जिन योगों में अमृत संरक्षित हुआ था, कुम्भ पर्व का योग बनता है | मान्यता है कि, 

 सूर्येन्दुगुरु संयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे |

सुधा कुंभ प्लवे भूमो कुंभो भवतिनान्यथा ||

 इस प्रमाण के अनुसार अमृत बिंदु पतन के समय जिन राशियों में सूर्यचन्द्रगुरु की स्थिति थी उन्हीं राशियों में इन तीनों ग्रहों का संयोग जब जब होता है तब तब कुम्भ पर्व का आयोजन किया जाता है | ‘कुंभोभवति नान्यथाकहकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इन योगों के अभाव में कुम्भ पर्व नहीं मनाया जा सकता है | सूर्य हर महीने अपनी राशि बदलता है और चन्द्रमा लगभग सवा दो दिन एक राशि में रहता है | किन्तु देवगुरु बृहस्पति को एक राशि से दूसरी राशि पर जाने में लगभग बारह वर्षों का समय लग जाता है इसीलिए पूर्ण कुम्भ लगभग प्रत्येक बारह वर्षों के अन्तराल पर आता है |

देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यै द्वादश वत्सरे: |

जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया | |

 तत्राध्रुतात्तयेनूपांचत्वरों भुवि भारते |

अष्टौलोकान्तरे प्रोक्तादेवैर्गम्यानचेतरै: | |

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |

विष्णु द्वारे तीर्थराजेवन्त्यां गोदावरी तटे,

सुधा बिंदु विनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति विश्रुत: | |

 अर्थात देवताओं के 12 दिन और मनुष्यों के 12 वर्ष में कुल 12 कुम्भ पर्व आते हैं | पृथ्वी पर मनुष्यों के चार कुम्भ तथा शेष आठ कुम्भ पर्व देवताओं के होते हैं | क्योंकि ये आठ कुम्भ पृथिवी पर नहीं होते अतः इनका भान भी नहीं होता | जब गुरु और सूर्य चन्द्र सिंह राशि में होते हैं तब कुम्भ मेला नासिक में आयोजित होता है | गुरु के सिंह राशि और सूर्य के मेष राशि में होने पर कुम्भ मेला उज्जैन में आयोजित किया जाता है | गुरु के सिंह राशि में होने के कारण इन कुम्भ मेलों को सिंहस्थ भी कहा जाता है | सूर्य मेष राशि और गुरु कुम्भ  राशि में होते हैं तब उत्तराखण्ड के चार धामों – बद्रीनाथकेदारनाथगंगोत्रीयमुनोत्री – के प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन होता है | माना जाता है कि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने कुम्भ मेले का आयोजन आरम्भ कराया था | वैसे तो हर 12 वर्ष में कुम्भ का मेला लगता हैकिन्तु छह वर्षों की अवधि में भी कुम्भ का आयोजन किया जाता है जो प्रयागराज और हरिद्वार में दो पूर्ण कुम्भ मेलों के मध्य की अवधि में होता है |

किन्तु पूरे बारह वर्षों के बाद कुम्भ मेले का आयोजन होता है ऐसा भी नहीं है | ज्योतिषीय परिभाषाओं के अनुसार बारह मास के एक वर्ष और तीस दिन का एक मास होता है | किन्तु साथ ही दो पूर्णिमा के मध्य कभी 29, तो कभी 30 और कभी 31 दिन तक की अवधि लग जाती है | सूर्य तथा चन्द्र के इस अन्तर को पूर्ण करने के लिए क्षय तथा अधिक मास का विधान भी किया गया है उसी प्रकार जैसे अँग्रेज़ी कैलेण्डर में हर चौथे वर्ष लीप ईयर माना गया है और फरवरी को 28 के स्थान पर 29 दिन का कर दिया गया है | अतः इस क्षय तथा अधिक मास के कारण बृहस्पति कभी कभीवैदिक गणितज्ञों के अनुसार लगभग ग्यारह वर्ष ग्यारह महीने और 27 दिनों मेंबारह राशियों में भ्रमण करके पुनः उसी राशि पर आ जाता है | और यही कारण है कि लगभग हर सप्तम और अष्टम कुम्भ के मध्य बारह वर्षों के स्थान पर ग्यारह वर्षों का भी अन्तराल आ जाता है | उदाहरण के लिए प्रयागराज के 2010 के कुम्भ के ग्यारह महीनों के बाद 2021 में हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन हुआ था |  

 कुम्भ मेले के आधुनिक स्वरूप का प्रवर्तक जगद्गुरु आड़ शंकराचार्य को माना जाता है जिन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सौहार्द और एकता को बढ़ाने के उद्देश्य से दशनामी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की थी और कुम्भ मेले को संगठित स्वरूप प्रदान किया था | उन्होंने ही नागा साधुओं को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देकर उनके अखाड़ों की स्थापना की तथा इन नागा साधुओं को धार्मिक स्थलों, धार्मिक ग्रन्थों और आध्यात्मिक ज्ञान की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा | 1857 की क्रान्ति के समय तो क्रान्तिकारी साधु सन्तों के वेष में कुम्भ मेले में प्रयागराज पहुँचे हुए थे जिससे अँग्रेज़ भयभीत हो गाए थे और उन्होंने उस वर्ष मेले में जन साधारण के जाने पर रोक लगा दी थी | 1915 के हरिद्वार के कुम्भ में महामना मदन मोहन मालवीय जी और गाँधी जी भी पहुँचे थे ऐसे उल्लेख बहुत स्थानों पर उपलब्ध होते हैं | मदन मोहन मालवीय जी ने इसी कुम्भ में अखिल भारतीय हिन्दू सभा की नींव रखी थी | और गाँधी जी दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद दो दिनों तक स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ कैम्प में रहे थे और वहाँ उपस्थित जन साधारण को आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास किया था |

बहुत सी कथाएँ कुम्भ मेले के विषय में हैंपौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक | किन्तु वास्तव में कुम्भ का मेला एक ऐसा आयोजन होता है जो खगोल विज्ञानज्योतिषआध्यात्मअनुष्ठान तथा कर्मकाण्ड की परम्पराओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों और प्रथाओं को स्वयं में समाहित किए होने के कारण अत्यन्त समृद्ध होता है | इनमें सभी धर्मों के लोग आते हैं | आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग की साधना करने वाले साधु तथा नागा साधु भी इनमें सम्मिलित होते हैं, नागा साधुओं ने ही महारानी लक्ष्मीबाई की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी | सन्यासी अपना एकान्तवास छोड़कर जान साधारण के मध्य इस अवधि में पहुँच जाते हैं | साथ ही धार्मिक भावनाओं से ओत प्रोत जन साधारण तो इस अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान कर तथा इन साधु सन्तों के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करते ही हैं | इस सबके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के आयोजन इन मेलों में होते हैं जैसे – हाथी घोड़ों और रथों पर पारम्परिक अखाड़ों के जुलूस जिन्हें “पेशवाई” कहा जाता हैशाही स्नान के समय नागा साधुओं की रस्में तथा अन्य अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम सदा से इन कुम्भ मेलों का आकर्षण सदा से रहे हैं, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे | हमारे देश की महान संस्कृति और धार्मिक तथा आध्यात्मिक आस्थाओं और विचारों को देखने सुनने तथा उनसे कुछ सीखने के लिए और पवित्र नदियों में विशिष्ट ग्रह योगों में स्नान करके पुण्य लाभ के लिए लाखों करोड़ों की संख्या में लोग न केवल भारत के विभिन्न शहरों क़स्बों से इस कुम्भ मेले में आते हैं बल्कि संसार के बहुत से देशों से भी श्रद्धालु इस अमृत पर्व में उमड़े पड़ते हैं, और यही है महानता इस पर्व की

हम सब भी यदि कुम्भ मेले में नहीं भी जा सकते हैं तो भी अपने हृदय रूपी घट में कुछ पलों के लिए पैठकर आत्मावलोकन का प्रयास अवश्य करें इसी कामना के साथ कुम्भ पर्व की शुभकामनाएँ