Category Archives: धर्म और दर्शन

करवाचौथ व्रत 2024

करवाचौथ व्रत 2024

हम सभी परिचित हैं कि भारत के उत्तरी और पश्चिमी अंचलों में कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को करवाचौथ व्रत अथवा करक चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है | करक का अर्थ होता है मिट्टी का पात्र और इसीलिए इस दिन मिट्टी के पात्र से चन्द्रमा को अर्घ्य देने की प्रथा है | इस वर्ष रविवार बीस अक्तूबर को पति, सन्तान तथा परिवार के सभी सदस्यों की दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य की कामना से महिलाएँ करवाचौथ के व्रत का पालन करेंगी | करवाचौथ के व्रत का पारायण उस समय किया जाता है जब चन्द्र दर्शन के समय चतुर्थी तिथि रहे | इसीलिए यदि प्रातःकाल से चतुर्थी तिथि नहीं भी हो तो प्रायः तृतीया में व्रत रखकर तृतीयाचतुर्थी के सन्धिकालप्रदोष कालमें पूजा अर्चना का विधान है | कुछ स्थानों पर निशीथ कालमध्य रात्रिमें भी करवा चौथ की पूजा अर्चना की जाती है |

इस अवसर पर अन्य देवी देवताओं के साथ शिव परिवार की पूजा अर्चना की जाती है | सबसे पहले अखण्ड सौभाग्यवती माता पार्वती की पूजा की जाती है और फिर उनके पश्चात् श्री गणेश तथा शेष शिव परिवार की अर्चना की जाती है | चतुर्थी तिथि वैसे भी विघ्नहर्ता गणपति के लिए समर्पित होती है | करक चतुर्थी को प्रातःकाल सरगी लेने से पूर्व स्नानादि से निवृत्त होकर महिलाएँ संकल्प लेती हैंमम सुखसौभाग्यपुत्रपौत्रादि सुस्थिरश्रीप्राप्तये करकचतुर्थीव्रतमहं करिष्ये…” अर्थात अपने पति पुत्र पौत्रादि के सुख सौभाग्य की कामना से तथा स्थिर लक्ष्मी प्राप्त करने के उद्देश्य से मैं ये करक चतुर्थी का व्रत कर रही हूँ | इसके पश्चात माता पार्वती की पूजानमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं सन्ततिशुभाम्‌प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे ||” मन्त्र से की जाती है | तत्पश्चात गणेश, शंकर, कार्तिकेय आदि की पूजा करने के बाद दुग्ध अथवा जल से पूर्ण करक यानी करवे में कुछ दक्षिणा डालकर परिवार की बुज़ुर्ग महिलाओं अथवा अन्य किसी भी सम्माननीय महिला को दान किया जाता है | करवा दान करते समयकरकं क्षीरसम्पूर्णं तोयपूर्णमथापि वाददामि रत्नसंयुक्तं चिरञ्जीवतु मे पतिः ||” जिसका अर्थ है कि हे शंकरप्रिया, मैं अपने पति की दीर्घायु की कामना से रत्न (अथवा दक्षिणा) सहित दुग्ध अथवा जल से परिपूर्ण करवा यानी मिट्टी का पात्र दान कर रही हूँऔर फिर अन्त में चन्द्र दर्शन करके व्रत का पारायण किया जाता है |

इस वर्ष करवाचौथ के मुहूर्त:

चतुर्थी तिथि का आरम्भरविवार 20 अक्तूबर प्रातः 6:46 पर

चतुर्थी तिथि समाप्त सोमवार 21 अक्तूबर सूर्योदय से पूर्व 4:16 पर

20 अक्तूबर को सूर्योदय – 6:25 पर, सरगी – 6:25 तकबवकरणऔरव्यातिपतयोगमें

सायंकालीन पूजा का मुहूर्तसायं 5:46 से 7:02 तक मेष लग्न, बालवकरणऔरवरीयानयोगमें

अभिजित मुहूर्त मेंप्रातः 11:43 से 12:28 तक

चन्द्र दर्शन दिल्ली और उत्तराखण्ड तथा उसके आस पास के क्षेत्रों में रात्रि 7:54 के लगभग सम्भव है | शेष शहरों में वहाँ के पञ्चांग के अनुसार देखा जाएगा | चन्द्र दर्शन के समय वृषभ लग्न में चन्द्रमा भी अपनी उच्च राशि में रोहिणी नक्षत्र पर विचरण करेगा, साथ ही गुरुदेव के साथ मिलकर गज केसरी योग भी बना रहा है |

सरगी की प्रथा आरम्भ होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि पहले छोटी आयु की बच्चियों के विवाह हो जाया करते थे | ऐसे में परिवार के लोगों को लगता था कि सारा दिन इतनी छोटी बच्ची के लिए भूखा प्यासा रहना कठिन होगाजिस कारण से एक ऐसा नियम ही बना दिया गया कि बच्चियाँ सूर्योदय से पूर्व कुछ हल्का भोजन जैसे फल इत्यादि ग्रहण कर लें ताकि सारा दिन उन्हें इस भोजन का पोषण उपलब्ध होता रहे | आज की भाँति अन्न से बने किसी खाद्य पदार्थ का भोजन नहीं किया जाता था क्योंकि ऐसा भोजन इस समय करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, साथ ही अन्न आलस्य का कारण भी होता है और व्रत उपवास में आलस्य के लिए कोई स्थान नहीं होता |

ऐसी मान्यता है कि सती ने अपने पति शिव के अपमान का बदला लेने के लिए अपने पिता दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने हेतु उनके यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था | उसके बाद वे महाराज हिमालय की पुत्री के रूप में उनकी पत्नी मैना के गर्भ से पार्वती के रूप में उत्पन्न हुईं | उस समय भगवान शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए बहुत से अन्य उपवासों के साथ इस व्रत का भी पालन किया था | अतः यह व्रत और इसकी पूजा शिवपार्वती को समर्पित होती है |

करवाचौथ एक आँचलिक पर्व है और उन अंचलों में इसके सम्बन्ध में बहुत सी कथाएँ प्रचलित हैं, व्रत के दौरान जिनका श्रवण सौभाग्यवती महिलाएँ करती हैं | उन सबमें महाभारत की एक कथा हमें विशेष रूप से आकर्षित करती है | इसके अनुसार अर्जुन शक्तिशाली अस्त्र प्राप्त करने के उद्देश्य से पर्वतों में तपस्या करने चले गए और बहुत समय तक वापस नहीं लौटे | द्रौपदी इस बात से बहुत चिन्तित थीं | तब भगवान कृष्ण ने उन्हें पार्वती के व्रत की कथा सुनाकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थी का व्रत करने की सलाह दी थी |

करवाचौथ का पालन उत्तर भारत में प्रायः सभी विवाहित हिन्दू महिलाएँ चिर सौभाग्य की कामना से करती हैं | कुछ स्थानों पर उन लड़कियों से भी यह व्रत कराया जाता है जो विवाह योग्य होती हैं अथवा जिनका विवाह तय हो चुका है | यह व्रत पारिवारिक परम्पराओं तथा स्थानीय रीति रिवाज़ के अनुसार किया जाता है | व्रत की कहानियाँ भी पारिवारिक मान्यताओं के ही अनुसार अलग अलग हैं | लेकिन कहानी कोई भी हो, एक बात हर कहानी में समान है कि बहन को व्रत में भूखा प्यासा देख भाइयों ने नकली चाँद दिखाकर बहन को व्रत का पारायण करा दिया, जिसके फलस्वरूप उसके पति के साथ अशुभ घटना घट गई |

कथा एक लोक कथा ही है | किन्तु इस लोक कथा में इस विशेष दुर्घटना का चित्र खींचकर एक बात पर विशेष रूप से बल दिया गया है कि जिस दिन व्यक्ति नियम संयम और धैर्य का पालन करना छोड़ देगा उसी दिन से उसके कार्यों में बाधा पड़नी आरम्भ हो जाएगी | नियमों का धैर्य के साथ पालन करते हुए यदि कार्यरत रहे तो समय अनुकूल बना रह सकता है | वैसे भी यदि व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तोसौभाग्यशब्द से तात्पर्य केवलअखण्ड सुहागसे ही नहीं है, अपितु सौभाग्य का अर्थ है अच्छा भाग्य. .. जो प्राप्त होता है अच्छे तथा पूर्ण संकल्प से किये गए कर्मों सेअतः हम सभी नियम संयम की डोर को मज़बूती से थामे हुए सोच विचार कर हर कार्य करते हुए आगे बढ़ते रहें, इसी कामना के साथ सभी महिलाओं को करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएँ

——-कात्यायनी

शरद पूर्णिमा – 2024

शरद पूर्णिमा – 2024

बुधवार 16 अक्तूबर को आश्विन मास की पूर्णिमा, जिसे शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है का मोहक पर्व है | और इसके साथ ही पन्द्रह दिनों बाद आने वाले दीपोत्सव की चहल पहल आरम्भ हो जाएगी | 16 अक्टूबर को रात्रि 8:41 के लगभग विष्टि करण और व्याघात योग में पूर्णिमा तिथि का आगमन होगा जो 17 तारीख़ को सायं 4:55 तक रहेगी | देश के अलग अलग भागों में इस पर्व की धूम रहती है और इसे रास पूर्णिमा, कोजागरी पूर्णिमा, नवान्न पूर्णिमा, कुमुद्वती तथा कुमार पूर्णिमा आदि अनेकों नामों से जाना जाता है | आज ही के दिन महर्षि वाल्मीकि का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है | सभी को शरद पूर्णिमा तथा वाल्मीकि जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ इस आशा के साथ कि हम सभी का जीवन शरद पूर्णिमा के चाँद जैसा प्रफुल्लित रहे…

यों हिन्दू मान्यता के अनुसार हर माह की पूर्णिमा महत्त्वपूर्ण होती हैं | लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्त्व इस मान्यता के कारण और अधिक बढ़ जाता है कि आज के दिन चन्द्रमा पृथिवी के इतने अधिक निकट होता है कि उसकी किरणों के सारे जीवन रक्षक पौष्टिक तत्व पृथिवीवासियों को उपलब्ध हो जाते हैं | एक ओर तो वर्षा ऋतु बीत जाती है | मेघराज भी अपनी टोली के साथ इन्द्रलोक को वापस लौट जाते हैं | उनके साथ ही उनकी प्रेयसि नृत्यांगना दामिनी भी अपने बरखा की बूँदों के घुँघरूओं को झनकाती फिर से वापस लौटने का वादा कर अपने महल की ओर प्रस्थान कर जाती हैं | शरद ऋतु के स्वागत में धवल चन्द्रिका की शीतल प्रकाश गंगा में डुबकी लगाकर चन्द्रकिरणों की अठखेलियों से रोमांचित हुआ आकाश पूर्ण रूप से स्वच्छ और विशाल दिखाई देने लगता है | निश्चित रूप से आज की रात चन्द्रदेव अपनी समस्त पौष्टिकता अपनी किरणों के माध्यम से समस्त जड़ चेतन पर लुटाने को तत्पर रहते हैं | इसीलिए आज की रात अधिकाँश लोग घरों के आँगन में या कहीं भी खुले स्थान में रात बिताना अधिक पसन्द करते हैं – ताकि चन्द्रमा की उन पौष्टिक किरणों में अच्छी तरह स्नान करके स्वयं को पुनः ऊर्जावान अनुभव कर सकें |

इसीलिए तो ऐसी लोकमान्यताएँ हैं कि आज के दिन चन्द्रमा को एकटक कुछ देर के लिए निहारते रहने से नेत्रज्योति में वृद्धि होती है | हमारी आयु के लोगों को अपना बचपन भी याद अवश्य होगा जब हममें से अधिकाँश घरों में माताएँ हम सबके हाथों में सुई धागा पकड़ा कर आँगन में चन्दा की चाँदनी में बैठा दिया करती थीं सुई में धागा डालने के लिए और हमसे कहा जाता था कि आज के दिन चन्द्रमा के प्रकाश में सुई में धागा डालोगे तो आँखों की रोशनी अच्छी बनी रहेगी | और वास्तव में इतना स्पष्ट और आँखों के रास्ते मन में उतर कर समूचे व्यक्तित्व को आह्लाद की सरिता में स्नान कराके रोमांचित कर देने वाला प्रकाश शरद पूर्णिमा के उजले चाँद का होता था कि अन्य किसी भी प्रकाश की आवश्यकता ही नहीं होती थी | बड़े आराम से चाँद के शीतल प्रकाश की चादर में लिपटे सुई में धागा डाल देते थे और काफ़ी समय तक यही खेल चलता रहता था – जब तक कि माँ की मीठी झिडकियाँ कानों में सुनाई देनी आरम्भ नहीं हो जाती थीं “अरे अब चलकर सो जाओ | मैंने खेल करने को नहीं कहा था, बस एक बार धागा डालना था और बस – पर तुम लोगों को तो हर काम में खेल चाहिए | चलो सोने के लिए जाओ – सुबह उठकर पढ़ाई नहीं करनी क्या ?” उत्सव की रुत में पढ़ाई का नाम सुनकर वैसे ही बच्चों को खुन्दक आ जाती थी – सो बेमन से जाकर लेट जाते थे अपने बिस्तरों पर – आँखों में शीतल चाँदनी लुटाते उस धवल मनोहारी शरद के पूर्ण चन्द्र की छवि को बसाए |

प्रातः दैनिक कर्मों से निवृत्त होने के बाद घर भर को दूध में भीगे चोले (पोहा) प्रसाद के रूप में नाश्ते में दिए जाते थे | रात को माँ दूध में चोले भिगाकर बाहर आँगन में चाँद की चाँदनी के नीचे छींके पर लटका दिया करती थीं | प्रायः हर घर में ऐसा होता था | माना जाता था कि आज रात की चाँद की किरणों के समस्त पौष्टिक तत्व इन चोलों में घुल मिल जाएँगे | और वास्तव में सुबह जब हम उन्हें खाते थे तो इतने शीतल और अमृततुल्य स्वाद से युक्त होते थे कि मन ही नहीं भरता था | इन सभी मान्यताओं में सम्भव है कहीं न कहीं कुछ न कुछ वैज्ञानिक तथ्य अवश्य रहा होगा |

ये तो थी शरद पूर्णिमा के पर्व से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत से लोक रिवाज़ों की बात | कृष्ण भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा की रात्रि का कितना अधिक और विशेष महत्त्व है ये सभी जानते हैं | आज रात को ही भगवान कृष्ण अपनी महाशक्ति राधा सहित समस्त गोपियों के साथ महारास रचाते हैं | कितना आकर्षक दृश्य रहा होगा जब हर गोपी को उसके प्यारे कन्हाई अपने साथ नृत्य करते जान पड़े होंगे | लेकिन ये रास केवल एक युग का ही रास नहीं है, अनन्त युगों से चला आ रहा है और युगों युगों तक चलता रहेगा |

जो लोग कृष्ण को केवल रास रचैया भर मानते हैं वास्तव में वे लोग रास के अर्थ तथा मर्म को ही भली भाँति नहीं समझ पाए हैं | कृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य करना कोई साधारण घटना नहीं है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है – वैष्णव परम्पराओं से लेकर जैन परम्पराओं तक समस्त चिन्तन परम्पराओं में ज्ञान का आलोक लेकर आया | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरुष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है । उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरुष तत्व है और गोपियाँ प्रकृति तत्व । इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरुष का महानृत्य है । विराट प्रकृति और विराट पुरुष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं । सांसारिक दृष्टि से यह रास नृत्य मनोरंजन मात्र हो सकता है, किन्तु यह नृत्य पूर्ण रूप से पारमार्थिक नृत्य है | इस महारास के द्वारा यही सिखाने का प्रयास श्री कृष्ण का रहा कि प्रेम न तो वासना है न ही किसी का एकाधिकार, वरन प्रेम का कालुष्यरहित सामूहिक विकास आवश्यक है, और प्रेमियों के मध्य किसी प्रकार का आवरण – किसी प्रकार का रहस्य नहीं रहता – वहाँ होती है केवल विचारों की – भावों की – स्पष्टता और समर्पण | रासलीला कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम का वह चरम उत्कर्ष बिन्दु है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं है | राग योग की इस दशा में बृहदारण्यक का यह कथन सत्य सिद्ध होता है “जैसे पुरुष को अपने आलिंगनकाल में बाहर भीतर की कोई सुध नहीं रहती उसी प्रकार जब उपासक प्राज्ञ द्वारा आलिंगित होता है तब वह अपनी सुध बुध खो बैठता है |”

तो विराट प्रकृति और विराट पुरुष के महारास के साक्षी और प्रतीक तथा अपनी ज्योति किरणों द्वारा समस्त चराचर को नवजीवन का सुधापान कराते शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र को नमन करते हुए सभी को शरद पूर्णिमा के उल्लासमय अमृतमय पर्व की एक बार पुनः हार्दिक शुभकामनाएँ…

सर्वपितृ अमावस्या और महालया 2024

सर्वपितृ अमावस्या और महालया 2024

आश्विनअमावस्याअर्थातबुधवार 2 अक्टूबर को पितृविसर्जनी अमावस्या है, समस्त हिन्दू धर्मावलम्बी इस दिन पितृपक्ष का समापन करेंगे और उसके दूसरे दिन अर्थात अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को घट स्थापना के साथ शारदीय अथवा आश्विन नवरात्रों का आरम्भ हो जाएगा | कैसा सुखद संयोग है कि पितृपक्ष के समापन के साथ ही आरम्भ हो जाती है नवरात्रों की चहल पहल | इसे महालया भी कहा जाता है | महालया शब्द का अर्थ ही होता है महान आलय अर्थात आवासएक ही दिन पितरों के विसर्जन और महालया का भाव ही यह है कि समस्त पितृगण अपने महान अर्थात शाश्वत आवास के लिए प्रस्थान करें और माँ भगवती अपने नौ रूपों के साथ अपने महान आवास से पृथिवी पर विराजित होंयही कारण है कि नवरात्रों के लिए दुर्गा प्रतिमा बनाते समय महालया के ही दिन देवी की आँखें बनाई जाती हैं और पितरों को विसर्जित करके धूम धाम से उत्सव मनाया जाता है

भारतमेंपूर्वजपूजाकीप्रथाअत्यन्तप्राचीनहै | वैदिक काल से ही यह प्रथा चली आ रही है | विभिन्न देवी देवताओं के सम्बोधन तथा सम्मान के लिए उच्चरित बहुत सी वैदिक ऋचाओं में से अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं | पितरों का आह्वाहन किया जाता है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके अपराधों के लिए उन्हें क्षमा करें तथा अपने वंशजों को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें | साथ ही अग्निदेव से प्रार्थना की जाती है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो | अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर दिवंगत आत्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें | ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है | स्वर्ग के आवास में पितृगण परम शक्तिमान एवं आनन्दमय रूप धारण करें तथा पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि का अनुभव करें इसी हेतु पिंडदान तथा आहुतियाँ आदि देने की प्रथा है | दिवंगत पूर्वजों के प्रति सम्मान के कारण ही पितृपक्ष को समस्त हिन्दू समाज एक उत्सव के रूप में मनाता है और इसे श्राद्ध पर्व का नाम दिया जाता है |

दार्शनिकदृष्टिकोणसेदेखाजाएतोसमस्तभारतीयदर्शनमनुष्यमेंआध्यात्मिकतत्वकीअमरताकापक्षधरहै | आत्मा किसी शारीरिक आकार में प्रतिष्ठित होती है और इस आकार के माध्यम से ही आत्मा का संसरण अर्थात मोक्ष भी सम्भव है, क्योंकि कर्म तो शरीर के माध्यम से ही किया जा सकता है, फिर चाहे वह किसी भी योनि में हो | असंख्य जन्म और मरण के पश्चात आत्मा पुनरावृत्ति से मुक्त हो जाती है | यद्यपि आत्मा के संसरण का मार्ग पूर्व कर्मों द्वारा निश्चित होता है तथापि वंशजों द्वारा सम्पन्न श्राद्धकर्म का इसमें बहुत बड़ा योगदान माना गया है | बौद्ध धर्म में दो जन्मों के बीच एक अन्तःस्थायी अवस्था की कल्पना की गई है जिसमें आत्मा के संसरण का रूप पूर्वकर्मानुसार निर्धारित होता हैपुनर्जन्म में विश्वास हिन्दूबौद्ध तथा जैन तीनों चिन्तन प्रणालियों में पाया जाता है | हिन्दू दर्शन की चार्वाक पद्धति को इसका अपवाद कहा जा सकता है |

इससबकोलिखनेकाएकमात्रअभिप्राययहीहैकिपितृकर्मतथापिण्डदानऔरतर्पणआदिक्रियाएँवैदिककालसेहिन्दुओंकेदैनिककर्मकाण्डकाअंगरहीहैं | हाँ, इस विषय में बहुत सी पौराणिक कथाएँ और मान्यताएँ उपलब्ध हैं, क्योंकि जन साधारण को इन समस्त क्रियाओं का महत्त्व समझाने के लिए इन कथाओं को दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत करने की अत्यन्त आवश्यकता थी |

जैसा कि सभी जानते हैं, अनन्त चतुर्दशीजिसमें भगवान विष्णु के ही एक रूप अनन्त भगवान की पूजा अर्चना की जाती हैके बाद भाद्रपद पूर्णिमा से श्राद्ध पक्ष का आरम्भ हो जाता है | यों तो आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से पितृपक्ष का आरम्भ माना जाता है, किन्तु जिनके प्रियजन पूर्णिमा को परलोकगामी हुए हैं उनका श्राद्ध एक दिन पूर्व अर्थात भाद्रपद पूर्णिमा को करने का विधान है | इस प्रकार इन सोलह दिवसों तक लगभग समस्त हिन्दू समुदाय अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित करता है | उनकी स्मृति में भोज कराए जाते हैंऔर ये भोज केवल मानव मात्र के निमित्त ही नहीं किये जाते, अपितु पृथिवी पर निवास कर रहे समस्त जीव जन्तुओं के लिए भी ग्रास निकालने की प्रथा इस अवसर पर हैचाहे वह काग हो, गौ हो, चींटी इत्यादि अन्य प्रकार के कीड़े मकोड़े होंसभी के लिए ग्रास निकाले जाते हैं | साथ ही दिवंगत पूर्वजों के निमित्त अग्नि में आहुति दी जाती है | कितनी उदात्त भावना रही होगी हमारे ऋषि मुनियों कीहमारे पूर्वजों कीकि वर्ष का पूरा एक पक्ष ही पितृगणों के लिये समर्पित कर दिया | इन पन्द्रह दिनों में कोई अन्य कार्य न करके केवल विधि विधान पूर्वक श्राद्धकर्म किया जाता है |

शास्त्रोंकेअनुसारश्राद्धकर्मकरनेकाअधिकारीकौनहै, विधान क्या है आदि चर्चा में हम नहीं पड़ना चाहते, इस कार्य के लिये पण्डित पुरोहित हैं | पण्डित लोगों का तो कहना है और शास्त्रों में भी लिखा हुआ है कि श्राद्ध कर्म पुत्र द्वारा किया जाना चाहिये | प्राचीन काल में पुत्र की कामना ही इसलिये की जाती थी कि अन्य अनेक बातों के साथ साथ वह श्राद्ध कर्म द्वारा माता पिता को मुक्ति प्रदान कराने वाला माना जाता था “पुमान् तारयतीति पुत्र:” | लेकिन जिन लोगों के पुत्र नहीं हैं उनकी क्या मुक्ति नहीं होगी, या उनके समस्त कर्म नहीं किये जाएँगे ? तो इस प्रकार का तर्क वितर्क हमारा विषय नहीं है | हम तो बात कर रहे हैं इस श्राद्ध पर्व की मूलभूत भावना श्रद्धा कीजो भारतीय संस्कृति की नींव में ही निहित है |

वास्तवमेंश्राद्धप्रतीकहैपूर्वजोंकेप्रतिसच्चीश्रद्धाका | हिन्दू मान्यता के अनुसार प्रत्येक शुभ कर्म के आरम्भ में माता पिता तथा पूर्वजों को प्रणाम करना चाहिये | यद्यपि अपने पूर्वजों को कोई विस्मृत नहीं कर सकता, किन्तु फिर भी दैनिक जीवन में अनेक समस्याओं और व्यस्तताओं के चलते इस कार्य में भूल हो सकती है | इसीलिये हमारे ऋषि मुनियों ने वर्ष में पूरा एक पक्ष इस निमित्त रखा हुआ है |

श्राद्धशब्दकासामान्यअर्थहैश्रद्धापूर्वककियागयाकर्म – “संपादन: श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम् |” जिस कर्म के द्वारा मनुष्यअहंअर्थातमैंका त्याग करके समर्पण भाव सेपरकी चेतना से युक्त होने का प्रयास करता है वही वास्तव में श्रद्धा का आचरण है | श्रद्धा का आचरण करता हुआ व्यक्ति समष्टि भाव को प्राप्त हो जाता है तथा समस्त भूतों में अपनी आत्मा को देखता है | श्रद्धावान व्यक्ति उदारमना, करुणाशील, मैत्री तथा कृतज्ञता के भाव से युक्त तथा दानशील होता है | और यही कारण है कि ऐसे व्यक्ति की भावना समस्त जीवों के प्रति आत्मौपम्य की हो जाती हैअर्थात उसे हर प्राणी मेंहर जीव मेंअपनी आत्मा ही जान पड़ती है | अपने पूर्वजों के प्रति इसी प्रकार की श्रद्धा के साथ दिया गया दान श्राद्ध कहलाता है – “श्रद्धया दीयते यस्मात्तस्माच्छ्राद्धम् निगद्यते |” इस प्रकार श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है और यही कारण है कि श्रद्धा और श्राद्ध में घनिष्ठ सम्बन्ध है | वैसे भी देखा जाए तो श्रद्धा रहित कोई भी कर्म करने से दम्भ में वृद्धि होती है तथा कर्म में कुशलता का अभाव रहता है | अतः श्रद्धा तो दैनिक जीवन की मुख्य आवश्यकता है | माता पिता के प्रति श्रद्धा हमें विनम्र बनाती है तो गुरु के प्रति श्रद्धा हमें ज्ञानवान बनाती हैक्योंकि तब हम संशय रहित और समर्पण भाव से गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं | समस्त चराचर सृष्टि के प्रति यदि श्रद्धा का भाव मन में दृढ़ हो जाए तो मनुष्य किसी भी प्रकार के अनाचार अन्य जीव के साथ कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी श्रद्धा उसे अन्य जीवों के प्रति उदारमना बना देती है | गीता में कहा गया है “श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रिय:, ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति | अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति, नायंलोकोsस्ति न पारो न सुखं संशयात्मनः ||” (4/39,40) – अर्थात आरम्भ में तो दूसरों के अनुभव से श्रद्धा प्राप्त करके मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उस ज्ञान को आचरण में लाने में तत्पर हो जाता है तो उसे श्रद्धाजन्य शान्ति से भी बढ़कर साक्षात्कारजन्य शान्ति का अनुभव होता है | किन्तु दूसरी ओर श्रद्धा रहित और संशय से युक्त पुरुष नाश को प्राप्त होता है | उसके लिये न इस लोक में सुख होता है और न परलोक में |

इसप्रकारश्रद्धावानहोनाचारित्रिकउत्थानका, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे का एक प्रमुख सोपान है | और जिस राष्ट्र के परिवार तथा समाज की नींव सुदृढ़ होगी उस राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता | साथ ही, पितृजनों के प्रति श्रद्धायुत होकर दान करने से तो निश्चित रूप से अपार शान्ति का अनुभव होता है तथा शास्त्रों की मान्यता के अनुसार लोक परलोक संवर जाता है | इसलिये इस श्राद्धपक्ष का इतना महत्व हिन्दू मान्यता में है | और इस श्राद्धपक्ष के समापन अर्थात पितृ विसर्जन के साथ ही आरम्भ हो जाता है माँ दुर्गा की उपासना का पर्व नवरात्र | जैसा पूर्व में भी लिखा है, इस दिन को महालया के नाम से भी जाना जाता हैपितृपक्ष का अन्तिम दिन अर्थात् पितरों को विदा करके माँ दुर्गा के आह्वाहन का दिन | एक ओर अन्तिम श्राद्ध और दूसरी ओर माँ दुर्गा की पूजा अर्चना का आरम्भ | पितरों को श्रद्धा सहित अन्तिम तर्पण करके उन्हें विदा किया जाता है और इसी के साथ आरम्भ हो जाती है महिषासुरमर्दिनी के मन्त्रोच्चार के साथ नवरात्रों में माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना | आश्विन नवरात्रों की धूम मच जाती है | जगह जगह देवी के पण्डाल सजते हैं जहाँ दिन दिन भर और देर रात तक माँ दुर्गा की पूजा का उत्सव चलता रहता है नौ दिनों तक, जिसका समापन दसवें दिन धूम धाम से देवी की प्रतिमा विसर्जन के साथ किया जाता है |

अस्तु, आश्विन अमावस्याजिसे पितृविसर्जनी अमावस्या भी कहा जाता हैअर्थात महालया के अवसर परगायत्री मन्त्र के साथ

ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वेयतः स्थानादुपागताः |

सर्वे ते हृष्टमनसःसवार्न् कामान् ददन्तु मे ||

ये लोकाः दानशीलानांये लोकाः पुण्यकर्मणां |

सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तुतान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ||

इहास्माकं शिवं शान्तिःआयुरारोगयसम्पदः |

वृद्धिः सन्तानवगर्स्यजायतामुत्तरोत्तरा ||

इनमन्त्रोंकाइसभावनाकेसाथकिहमारेनिमन्त्रणपरहमारेपूर्वजजिसभीलोकसेपधारेथेहमारे स्वागत सत्कार से प्रसन्न होने के उपरान्त अब अपने उन्हीं लोकों को वापस जाएँ और सदा हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रहेंश्रद्धापूर्वक जाप करते हुए हम सभी अपने पूर्वजों को विदा करें और महालया के साथ देवी के आगमन के उत्सव का आरम्भ करें

गंगा दशहरा आपः देवता

गंगा दशहरा आपः देवता

आज दस दिन से चले आ रहे गंगा पूजन के पर्व का समापब है – गंगा  दशहरा के रूप में | बहुत से लोगों ने पुण्य प्राप्ति के लिए गंगा के पवित्र जल में स्नान किया होगा | होना भी चाहिए, क्योंकि जल जीवन की अनिवार्य आवश्यकता होने के साथ ही प्रगति का संवाहक भी है | वैदिक साहित्य में जितने अधिक मन्त्र और स्तुतियाँ किसी न किसी रूप में जल के लिए उपलब्ध होती हैं उतनी सम्भवतः किसी अन्य देवता के लिए नहीं उपलब्ध होतीं | जल के देवता मित्र और वरुण को भाई माना गया है तथा ये द्वादश आदित्यों (मित्रावरुणौ – देवमाता अदिति के पुत्र) में गिने जाते हैं |

व्यावहारिक दृष्टि से भी देखें तो जल का सबसे अधिक उपयोग होता है क्योंकि इसके द्वारा जीवन को ऊर्जा और गति प्राप्त होती है | यदि मनुष्य को पौष्टिक और कर्मठ बने रहना है तो उसे शुद्ध जल का अधिकाधिक सेवन करने की सलाह दी जाती है | क्योंकि जल का मुख्य गुण है नमी और शीतलता प्रदान करते हुए दोषों को समाप्त करना | जल ही विद्युत् के रूप में प्रकाश देता है तो भाप बनकर पुनः पृथिवी को सिंचित करके प्राणीमात्र के लिए भोज्य पदार्थों, वनस्पतियों तथा औषधियों आदि की उत्पत्ति का कारण बनता है | जल तत्व के ही कारण मन भावमय है, वाणी सरस है तथा नेत्रों में आर्द्रता और तेज विद्यमान है | अथर्ववेद में जल के गुणों का विस्तार से वर्णन मिलता है | यजुर्वेद में भी कहा गया है कि जल को दूषित करना तथा वनस्पतियों को हानि पहुँचाना जीवन के लिए हानिकारक है | ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में प्राथना है कि हमें शुद्ध जल तथा औषधियाँ उपलब्ध हों | वेदों में जल को “आप: देवता” कहा गया है और पूरे चार सूक्त इसी “आप: देवता” के लिए समर्पित हैं | अस्तु, गंगा दशहरा के पावन पर्व पर प्रस्तुत है इसी आपः सूक्त के कुछ अंश उनके हिन्दी पद्य भावानुवाद सहित…

अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम् || पृञ्चतीर्मधुना पयः ||
अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह || ता नो हिन्वन्त्वध्वरम् ||
अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः || सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः ||
अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये || देवा भवत वाजिनः ||
अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा ||
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः ||
आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वेSमम || ज्योक् च सूर्यं दृशे ||
इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि ||
यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम् ||
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि ||
पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा || (प्रथम मण्डल सूक्त 23/16/23)

याज्ञिकों को मातृ वत है, पुष्ट करता है यही जल |
सूर्य किरणों से समाहित जल, सदा उपलब्ध हों ||
है प्रवाहित अंतरिक्षों में, धरा पर भी प्रवाहित |
धेनु जिससे हैं पयस्विनि, जल समर्पित यज्ञ में हों ||
भेषजीय सोमयुत इस जल की, अनुशंसा करें हम |
जिनसे उत्साहित सभी वे, स्वर्ग के हर देवता हों ||
ऊर्जा से युत जलों से, तन सदा को हो निरोगी |
सूर्य के दर्शन करें सब, शरद शत, दीर्घायु हों ||
हों प्रवाहित मनुज के अज्ञान उससे दूर सारे |
द्रोह यद्वा क्रोध अथवा दुरित जो व्यवहार हों ||
पैठ कर इस मधुर जल में, हों रसाप्लावित सभी |
दें हमें वर्चस्व जल, हम नत सदा श्रद्धा से हों ||

आपो यं वः प्रथमं देवयन्त इन्द्रानमूर्मिमकृण्वतेल: |
तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतेप्रुषं मधुमन्तं वनेम ||
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोSपां नपादवत्वा शुहेमा |यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य ||
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः |ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत ||
याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।।
तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः || (सप्तम मण्डल सूक्त 47/1-4)

हे जलदेवता !
मिश्रित है मधुर प्रवाह सोमरस में आपका |
कर रहे अर्पित जिसे हम इन्द्र को इस यज्ञ में ||
हों सभी सोमप्रिय, मिल जाए तृप्ति जीव को |
और हमारे यज्ञ सब, निर्विघ्न ही सम्पन्न हों ||
रश्मियों से सूर्य की ये जल प्रवाहित हों सदा |
सुख समृद्धि धन धान्य से पूरित सकल संसार हो ||
हों प्रवाहित सतत, जल से पूर्ण आशय जल के हों |
मनुज का कल्याण हो, हे सिन्धु ये आशीष दो ||

समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः |
इन्द्रो या वज्री वृषभोरराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः |
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् |
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ||
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा या सूर्जं मदन्ति |
वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु || (सप्तम मण्डल सूक्त 49/1-4)

समुद्र जिनमें ज्येष्ठ हैं
जो दिव्य जल हमें प्राप्त होते हैं आकाश से
रूप में वर्षा के…
जो प्रवाहित होते निरन्तर
नदी तड़ाग कूप और स्रोतों में
और करते हुए पवित्र समस्त जड़ चेतन को
समा जाते हैं अपने शाश्वत धाम
उस महा समुद्र में…
इन्द्र दिखलाते हैं मार्ग जिनको
सत्यासत्य के साक्षी वरुण देवता हैं जिनके…
स्वयं वरुण-सोम-अग्नि
करते हैं निवास जिनमें
करने को व्यवस्थित समस्त विश्व को…
और जिनके द्वारा प्रदत्त अन्नादिक से
प्रसन्न होते हैं समस्त देवता ये…
वे रसपूर्ण, दीप्तिमती नदियाँ
जो करती हैं पवित्र समस्त चराचर को
रक्षा करें हमारी भी…

वैदिक ऋषि की इसी मंगलकामना के साथ सभी को आज गंगा दशहरा और कल निर्जला एकादशी की हार्दिक शुभकामनाएँ…
—–कात्यायनी

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

गंगा सप्तमी और गंगा दशहरा

आज वैशाख शुक्ल सप्तमी – यानी पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज माँ गंगा का जन्मोत्सव है – गंगा सप्तमी | कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने राक्षसों के उत्पात से मुक्ति के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हुए उनका पद प्रक्षालन किया और उस जल को अपने कमण्डल में भर लिया, जिससे बाद में गंगा जी की उत्पत्ति हुई | ऐसी भी मान्यता है कि गंगा सप्तमी के दिन माँ गंगा ने भगवान विष्णु के चरण प्रक्षालित करके उनके चरणों में स्थान प्राप्त किया था | राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों को श्राप से मुक्त करने के लिए गंगा जी को पृथिवी पर लाने हेतु कठोर तपस्या की जिसके परिणामस्वरूप गंगा सप्तमी के दिन ब्रह्मा जी ने गंगा जी को अपने कमण्डल से मुक्त किया और माँ गंगा नीचे की ओर तीव्र वेग से दौड़ पड़ीं | क्योंकि बहुत समय से कमण्डल के भीतर बन्द थीं और अब उन्हें कुछ स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी तो उनके भीतर बहुत अधिक उद्वेग था – बहुत अधिक आवेग था – बहुत अधिक उमंग थी – और उसी के कारण उनसे प्रमाद हो गया और वे तीव्र वेग से नीचे आने लगीं | उनका प्रवाह इतना अधिक तीव्र था कि मार्ग में आने वाली हर वस्तु को अपने साथ बहा लिए जा रही थीं | जब भगवान ने यह सब देखा तो उन्होंने गंगा को शान्त करने के लिए अपनी जटाओं में जकड़ लिया और गंगा दशहरा अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तक गंगा जी वहीं बन्द रहीं | भगीरथ अब चिन्तित हो गाए और पुनः उन्होंने भगवान शंकर से प्रार्थना की कि अब तो उन्हें अपनी जटाओं के बन्धन से मुक्त करें | गंगा जी शंकर जी की जटाओं में शनैः शनैः शान्त होने लगी थीं और शंकर भगवान ने भगीरथ की प्रार्थना से प्रसन्न होकर गंगा जी को अपनी जटाओं से मुक्त कर दिया |

जब वे शंकर जी की जटाओं से मुक्त हुईं तो उनमें पुनः वही आवेग आदि आ गया कि मैं तो अब मुक्त हूँ और कुछ भी कर सकती हूँ | और पुनः उसी तीव्र वेग से नीचे उतरती हुई वे अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को – हर प्राणी को अपने प्रवाह के साथ बहाती आगे बढ़ने लगीं | मार्ग में जानू ऋषि का आश्रम पड़ता था | उन्होंने उनका सारा आश्रम भी ध्वस्त कर दिया | जानू ऋषि को क्रोध आया और उन्होंने गंगा का सारा जल पीकर उन्हें सुखा दिया | अब तो सारी पृथिवी पर – सारे लोकों में हाहाकार मच गया | धरा व्याकुल हो गई कि उनकी बहन उनसे मिलने के लिए – उन्हें रसापलावित करने के लिए – नीचे आ रही थी – लेकिन उन्हें पहले तो शंकर भगवान ने उन्हें जटाओं में बाँध लिया, फिर जानू ऋषि ने उनका सारा जल सुखा दिया | अब मैं कैसी मिलूँगी अपनी भगिनी से | तब सारे देवों ने – समस्त लोकों के प्राणियों ने मिलकर जानू ऋषि से प्रार्थना की तब उन्होंने अपने एक कान से गंगा जी को छोड़ा एक पतली धारा के रूप में ताकि उनका प्रवाह नियंत्रित रहे | अब तक उन्हें शिक्षा मिल चुकी थी की मुझे उन्माद में नहीं आना है और वे पूरे शान्त भाव से नीचे उतर आईं |

ये समस्त कथाएँ या तो पौराणिक हैं अथवा लोक मान्यताओं पर आधारित हैं | किन्तु जैसा कि हम प्रायः कहते हैं कि भारतवर्ष का कोई भी पर्व अथवा त्यौहार ऐसा नहीं है जो अकारण हो अथवा जिसमें कोई सन्देश न निहित हो | यहाँ इस पूरे कथानक को देखें समझें तो ज्ञात होता है कि यह सब प्रतीकात्मक है | जल की अधोगति होती है ऊर्ध्व गति नहीं होती – सदा नीचे की ओर ही प्रवाहित होता है | नर्मदा को छोड़कर शेष सारी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं | तो पहली समस्या तो है जल की अधोगति – अधोगति होने पर किसी भी प्रकार का प्रमाद सम्भव है – अथवा ऐसे भी क़ाह सकते हैं कि जब व्यक्ति प्रमाद स्वरूप अपने कर्तव्य कर्म को भुला बैठता हाँ और आवेग अथवा अहंकार में आ जाता है तो उसकी अधोगति निश्चित है | किन्तु वही जब पुनः अपने मार्ग पर लौट आता है शान्त भाव से तो स्वयं स्थिर रहते हुए अन्य जनों को भी स्थिरता और शान्ति प्रदान करता है |

उसके बाद इस कहानी से जो तथ्य स्पष्ट होता है वह यह कि गंगा जी यदि जानू तक अर्थात् घुटने तक रहें तब तक तो ठीक है, लेकिन जितना अधिक वे तीव्र बहाव के साथ चढ़ती जाएँगी और आगे बढ़ती जाएँगी तो वे प्रलय का – बाढ़ का कारण बन जाएँगी | घुटनों तक रहने का अभिप्राय है विनम्रता का भाव रहना | अतः मनुष्य में विनम्रता का भाव सदैव विद्यमान रहना चाहिए | साथ ही एक शिक्षा भी, कि माना वो जन कल्याण के लिए नीचे आ रही थीं, अपनी भगिनी वसुधा से मिलने के लिए नीचे आ रही थीं, बहुत समय बाद उनसे मिल रही थीं तो मन में एक उत्साह था, उमंग थी, भगिनी का प्रेम था, किन्तु प्रेम में यदि उन्माद आ जाए, प्रेम में यदि प्रमाद आ जाए, प्रेम में यदि अहंकार आ जाए, आवेग आ जाए, तो वह प्रेम या तो शकुन्तला के प्रेम की भाँति ऋषि श्राप से विस्मृत कर दिया जाता है अथवा बार बार बंधनों में जकड़ जाता है या उसके रस को सुखा दिया जाता है – भस्म कर दिया जाता है | स्वतन्त्रता का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि मनुष्य अपनी मर्यादा भूल जाए | अतः हमें अपनी मर्यादा नहीं भूलनी चाहिए – अपनी सीमाओं का ध्यान सदैव रखना चाहिए – तभी हम पथ भ्रष्ट होने से बच सकते हैं तथा बहुत सी समस्याओं से मुक्त रह सकते हैं | गंगा नदी अपने तीव्र वेग के कारण इतने सारे व्यवधानों को पार करके शान्त भाव से धरा पर उतरीं तभी तो उनके अमृत तुल्य जल में स्नान करने से – उसका आचमन करने से – त्रिविध तापों से मुक्ति प्राप्त होती है, समस्त प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक पापों से मुक्ति प्राप्त होती है |

गंगा सप्तमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…

अष्ट वसु

अष्ट वसु

हमारी एक मित्र ने हमसे वसुओं के विषय में प्रश्न किया था । व्यस्तताओं के कारण समय पर इस विषय में कुछ नहीं लिख सके । अष्ट वसुओं के विषय में कुछ लिख पाना इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि अनेकों पौराणिक सन्दर्भ और मान्यताएं इस विषय में हैं और इनके पृथक पृथक नाम पृथक पृथक पुराणों में उपलब्ध होते हैं । बहरहाल, विषय पर आगे बढ़ते हैं ।

वसु – जिनके कारण पृथिवी वसुधा, वसुन्धरा, वसुमती इत्यादि नामों से पुकारी जाती है । तो सबसे पहले हमें वसु शब्द की निष्पत्ति और उसके भाव को समझने की आवश्यकता है । सामान्यतः वसु का अर्थ धन सम्पदा आदि से किया जाता है – जो बहुत सीमा तक उचित भी है । धरती माता की कोख में अमूल्य निधियाँ भरी हैं, जिनके कारण वह वसुन्धरा कहलाती है । लाखो, करोड़ों वर्षो से अनेक प्रकार की धातुओं को, रत्नादिकों को पृथ्वी के गर्भ में पोषण मिला है । और सबसे महान तथा जीवनदायी रत्न तो वसुधा से प्राप्त अन्न, जल, वनस्पतियां ही हैं – जिनके अभाव में जीवन का कोई अस्तित्व ही नहीं । यहां जिन वसुओं के विषय में प्रश्न है वे आठ मौलिक देवता हैं जिन्हें “अष्ट-वसु” कहा जाता है और ये आठों वसु प्रकृति के आठ तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं – ब्रह्माण्डीय प्राकृतिक घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और तैंतीस देवी देवताओं में गिने जाते हैं । वसु का अर्थ है निवास करने वाला और यह शब्द वस धातु में उप प्रत्यय लगाकर बना है । इस प्रकार रत्नगर्भा के हृदय में निवास करने वाली रत्नराशि वसु कहलाई ।

ये वसु तैंतीस देवताओं में से आठ हैं । वेदों में तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के देवी देवता उनके रूप गुण धर्मादि के आधार पर बताए गए हैं, जिन्हें हमारे विद्वानों ने तैंतीस करोड़ बना दिया है । ये तैंतीस देवी देवता हैं – 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु, इन्द्र और प्रजापति । कुछ स्थानों पर प्रजापति के स्थान पर अश्विनी कुमारों का उल्लेख भी मिलता है । प्रजापति ब्रह्मा के लिए कहा गया है । 12 आदित्यों में एक विष्णु स्वयं हैं और 11 रुद्रों में एक शिव भी हैं । इन सभी को उस परम सत्ता ने ब्रह्माण्ड के सुचारू रूप से संचालन के लिए अलग अलग कार्य सौंपे हुए हैं ।

यहां हम बात कर रहे हैं अष्ट वसुओं की । आठ पदार्थों की ही भांति इन आठ वसुओं को भी समझा जाना चाहिए । इन सभी का जन्म दक्ष की पुत्री तथा धर्म की पत्नी अदिति के गर्भ से हुआ था जो भगवान शिव की पत्नी सती की बहिन थीं । जैसा कि ऊपर लिखा है, इन आठों वसुओं के अलग अलग पौराणिक ग्रन्थों में अलग अलग नाम उपलब्ध होते हैं । उदाहरण के लिए स्कन्द, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में आठ वसुओं के नाम हैं:- आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष । भागवत पुराण के अनुसार द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, द्यौ, वसु और विभावसु नाम हैं । महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है । ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं ।

इनके मानव रूप में जन्म के विषय में भी पृथक पृथक पौराणिक ग्रन्थों में पृथक पृथक कथाएँ उपलब्ध होती हैं । जिनमें प्रसिद्ध कथा है कि पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर बारह वर्षों तक घोर तपस्या की । तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया । तत्पश्चात वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । एक अन्य कथा के अनुसार वसुओं में सबसे छोटे वसु द्यौ ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था । वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया । वसुओं के क्षमा मांगने पर महर्षि ने सात वसुओं के तो श्राप की अवधि केवल एक वर्ष कर दी, किन्तु द्यौ नाम के वसु ने क्योंकि उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में निसंतान रहने के साथ ही महान विद्वान और वीर होने के साथ साथ स्त्री के भोग का त्याग करने का भी श्राप दिया । इसी श्राप के कारण इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ । सात पुत्रों को गंगा ने जल में फेंक दिया था, किन्तु आठवें भीष्म को बचा लिया गया था ।

नाम चाहे जो भी हों और मान्यताएँ तथा कथाएँ चाहे जितनी भी प्रचलित हों, इतना अवश्य माना जाता है कि इन सबका प्रकृति और पञ्च महाभूतों से सम्बन्ध है – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र । जैसे :

धर अर्थात धारण करने के गुण धर्म के कारण अर्थात पृथिवी । उनकी पत्नी द्यौ हैं जिनका सम्बन्ध आकाश से है । धरा है तब ही प्राणी मात्र का अस्तित्व और आश्रय है । जो धारण करती है । कुछ भी धारण करने की सामर्थ्य – वह कोई वस्तु भी हो सकती है और विचार भी हो सकता है ।

आप अर्थात जल की वर्षा अन्तरिक्ष से होती है जो नदियों से होता हुआ समुद्र में पहुँचता है और पुनः वाष्पीकृत होकर बरसने के लिए तत्पर हो जाता है । जीवन के लिए अमृत यह जल ही है । जल न हो तो जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसी के कारण मानव शरीर के सारे रस बनते हैं और यही समूची प्रकृति को – समूची धरा को – समस्त वसुओं की जननी बनाता है ।

अनल का अर्थ ही है अग्नि – ऊर्जा । जब हम अग्नि में आहुति देते हैं तो यह माना जाता है कि यह अग्नि के माध्यम से भगवान तक पहुंचता है और बुराई को अच्छाई में बदल देता है और उदारतापूर्वक आशीर्वाद भी देता है । जीवन का आधार यही ऊर्जा है । अग्नि तत्व थोड़ा भी बिगड़ जाए तो शरीर के अंग समुचित रूप से कार्य नहीं कर सकते ।

अनिल का अर्थ भी सर्व विदित है – वायु और अन्तरिक्ष के देव हैं । इन्हें दिशाओं का रक्षक माना जाता है । इसी से हमें जीवित रहने के लिए प्राणवायु प्राप्त होती है । क्योंकि यह तत्व हमारी चेतना को – हमारी विचार शक्ति को प्रभावित करता है इसी कारण से यह हमारी स्मरण शक्ति को भी प्रभावित करता है | यदि यह तत्व विकृत हो जाए तो भ्रम और द्विविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है व्यक्ति के लिए |

द्यौ का अर्थ भी सर्व विदित है – आकाश और इनका एक नाम प्रभाष भी है । अन्तरिक्ष की दिव्य उपस्थिति सर्वव्यापी है और वह सुनिश्चित करती है कि मन की शान्ति, आनन्द और समृद्धि बनी रहे । ये आकाश के पिता और देवी पृथ्वी की पत्नी माने गए हैं और इसीलिए इन्हें सम्मिलित रूप से द्यावापृथ्वी कहा जाता है । वह वर्षा के देवता इन्द्र के भी पिता माने जाते हैं ।

सोम अपने नाम के अनुरूप ही अपनी किरणों से अमृत की वर्षा करने वाले चन्द्र देव हैं । ये सभी प्रकार की भावनाओं अर्थात मन को नियंत्रित करते हैं तथा व्यक्तित्व निर्मित करते हैं । जिस प्रकार चन्द्र सूर्य के प्रकाश से भासित होता है उसी प्रकार मन भी चेतना के प्रकाश से ही प्रकाशित अर्थात् एकाग्र होता है ।

ध्रुव अटल होने के कारण नक्षत्रों के देव हैं । किसी भी विचार को केन्द्रित करने के लिए इसी अटल भाव की आवश्यकता होती है । किसी भी ऊर्जा के प्रवाह का केन्द्र बिन्दु ।

प्रत्यूष अथवा आदित्य सूर्य देव हैं जो प्रकाश तथा ऊर्जा और प्राण अर्थात जीवनी शक्ति के दाता हैं । यह वसु नेतृत्व के गुण प्रदान करते हैं, एक उज्ज्वल भविष्य और अचल सम्पत्ति प्रदान करने वाले माने जाते हैं ।

मान्यताएं और कथाएं चाहे जितनी भी हों, इतना सत्य है कि प्रकृति की ये शक्तियां मनुष्य के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये ऐसी ऊर्जाएं हैं जो हमारे जीवन को सुचारू और संतुलित रूप से सञ्चालन में और हमारे जीवन तथा विचारों को सकारात्मकता प्रदान करने के लिए हमारे साथ निरन्तर “वास” करती हैं ।
—– कात्यायनी

 

चैत्र नवरात्र 2024 की तिथियाँ

चैत्र नवरात्र 2024 की तिथियाँ

इस वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी मंगलवार नौ अप्रैल से पिंगल नामक विक्रम सम्वत 2081 तथा क्रोधी नामक शक सम्वत 1946 आरम्भ हो जाएगा | यद्यपि जो लोग कृष्ण प्रतिपदा से मासारम्भ मानते हैं उनके अनुसार विक्रम सम्वत् 2081 चैत्र कृष्ण प्रतिपदा अर्थात् 26 मार्च से आरम्भ हो चुका है | किन्तु अधिकांश भारत में शुक्ल प्रतिपदा से मासारम्भ माना जाता है अतः चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी नौ अप्रैल से विक्रम सम्वत् 2081 आरम्भ होगा | इसी दिन घट स्थापना करके माँ दुर्गा के प्रथम स्वरूप “शैलपुत्री” की उपासना के साथ ही चैत्र नवरात्र – जिन्हें वासन्तिक और साम्वत्सरिक नवरात्र भी कहा जाता है – के रूप में माँ भवानी के नवरूपों की पूजा अर्चना आरम्भ हो जाएगी जो बुधवार 17 अप्रैल को भगवान श्री राम के जन्मदिवस रामनवमी और कन्या पूजन के साथ सम्पन्न होगी | इसी दिन उगडी और गुडी पर्व भी है | सर्वप्रथम सभी को उगडी और गुडी पर्व, हिन्दू नव वर्ष तथा साम्वत्सरिक नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ…

प्रतिपदा तिथि आठ अप्रैल को रात्रि 11:50 पर आरम्भ होकर नौ अप्रैल को रात्रि 8:30 पर समाप्त होगी | नौ अप्रैल को सूर्योदय छः बजकर एक मिनट पर वैधृति योग, किंस्तुघ्न करण तथा मीन लग्न में है अतः कलश स्थापना का मुहूर्त भी 6:01 से 10:16 तक रहेगा | इसके अतिरिक्त जो लोग कुछ विलम्ब से घट स्थापना करना चाहते हैं वे अभिजित मुहूर्त में प्रातः 11:57 से 12:48 तक भी कर सकते हैं | किन्तु साथ ही व्यक्तिगत रूप से घट स्थापना का मुहूर्त जानने के लिए अपने ज्योतिषी से अपनी कुण्डली के अनुसार मुहूर्त ज्ञात करना होगा |

जिस प्रकार किसी भी देश की सरकार के कार्य को विधिवत नियन्त्रित करने के लिए मन्त्रीमण्डल की आवश्यकता होती है उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी नवग्रहों का मन्त्रीमण्डल समस्त ग्रह नक्षत्रों की गतिविधियों को नियन्त्रित करता है | जिस वार से सम्वत्सर का आरम्भ माना जाता है उसी ग्रह को उस वर्ष का आधिपत्य प्राप्त होता है | इस प्रकार विद्वानों की मानें तो इस वर्ष का राजा तथा वित्त मन्त्री मंगल तथा मन्त्री का पद शनिदेव को दिया गया है | इसके अतिरिक्त रक्षा मन्त्रालय तथा जल मन्त्रालय यानी दुर्गेश और मेघेश भी शनि महाराज ही होंगे | धान्येश यानी कृषि मन्त्रालय चन्द्रमा के पास होगा तथा रसेश गुरुदेव होंगे | मंगल के राजा होने के कारण अग्नि आदि का भय रह सकता है तथा सम्भव है वर्षा में भी कमी देखी जाए जिस कारण कृषि व्यवस्था प्रभावित हो सकती है तथा प्रजा के समक्ष कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं | मेघेश शनि होने के कारण भी यह स्थिति प्रतीत होती है | शनि दुर्गेश भी हैं अतः दुर्गों अर्थात् राष्ट्रों के मध्य तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है | सम्भवतः वैश्विक स्तर पर उग्रता की स्थिति दृष्टिगत हो सकती है |

इस वर्ष भगवती का आगमन भी अश्व पर हो रहा है, और हम देख रहे हैं पिछले कुछ वर्षों से माता के नवरात्रि में आगमन तथा प्रस्थान के वाहन का भी विचार किया जाता है । पहले यज्ञ के समय अग्नि के वास पर तो विचार किया जाता था किन्तु माता के वाहन को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता था – क्योंकि वाहन के अतिरिक्त और बहुत से महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर विचार किया जाता है | फिर भी जन साधारण की उत्सुकता निवारण हेतु बता दें कि इस वर्ष माता का आगमन मंगल को हो रहा है अतः अश्व पर सवार होकर आएँगी, जो बहुत शुभ नहीं माना जाता – इसके पीछे सम्भवतः धारणा यह रही होगी कि अश्व पर सवार होकर प्रायः युद्ध यज्ञ में जाया जाता था | यही कारण है कि माता का वाहन यदि अश्व हो तो उसे सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में उथल पुथल का संकेत तथा प्राकृतिक आपदाओं का संकेत माना जाता है | किन्तु ध्यान देने योग्य है कि राजनीतिक उठा पटक तो समस्त विश्व के पटल पर निरन्तर होती ही रहती है, और भारत में तो चुनावों का मौसम है तो निश्चित रूप से राजनीतिक उथल पुथल का समय है | और चुनावों के समय समाज पर भी पूरा प्रभाव पड़ता ही है | रही प्राकृतिक आपदाओं की बात – तो वे भी निरन्तर कहीं न कहीं घटित होती ही रहती हैं | अतः हमारे विचार से इस विषय में चिन्ता की आवश्यकता नहीं है | वैसे भी अश्व की सवारी का एक सकारात्मक पक्ष भी तो है – अश्व पर विजयी जन सवार होते हैं, अश्व तीव्र गति का प्रतीक है – अर्थात तीव्र गति से सुख समृद्धि में वृद्धि भी तो हो सकती है | अश्व उपलब्धियों का, शक्ति का, ऊर्जा का तथा शान्ति का प्रतीक होते हैं | फिर भी यदि आप माता के आगमन के वाहन से चिन्तित हैं तो उसकी आवश्यकता नहीं है – क्योंकि जाते जाते भगवती अच्छी बारिश, सुख समृद्धि तथा हर क्षेत्र में उन्नति का आशीर्वाद देकर जाएँगी – क्योंकि बुधवार 17 अप्रैल को नवरात्रि के समापन पर देवी गज पर आरूढ़ होकर प्रस्थान करेंगी | साथ ही इस वर्ष के ब्रह्माण्ड की संसद में रसेश गुरु और कृषि मन्त्रालय चन्द्रमा के पास होने के कारण परिस्थितियाँ उतनी विकट नहीं होंगी | देवगुरु और चन्द्रमा मिलकर परिस्थियों में सुधार भी कर सकते हैं और बहुत सारी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उथल पुथल के चलते हुए भी सभी प्रकार के खाद्यान्नों और फसलों के उत्पादन में वृद्धि दृष्टिगत हो सकती है | सरकार अनेक लोक कल्याण के कार्य कर सकती है | साथ ही आम जन में धार्मिक आस्था में भी वृद्धि की सम्भावना की जा सकती है | साथ ही इस वर्ष जिस दिन नवरात्र आरम्भ हो रहे हैं उस दिन चन्द्रमा भी अश्वनी नक्षत्र पर है – और मंगलवार को यदि चन्द्रमा अश्वनी नक्षत्र पर आरूढ़ हो तो अमृत सिद्धि योग बनता है – यह भी एक शुभ संकेत जानना चाहिए | साथ ही पिंगल सम्वत्सर का देवता इन्द्र है जो निश्चित रूप से वर्षा को प्रभावित कर सकता है |

नवरात्रि के महत्त्व के विषय में विशिष्ट विवरण मार्कंडेय पुराण, वामन पुराण, वाराह पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण और देवी भागवत आदि पुराणों में उपलब्ध होता है | इन पुराणों में देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के मर्दन का उल्लेख उपलब्ध होता है | महिषासुर मर्दन की इस कथा को “दुर्गा सप्तशती” के रूप में देवी माहात्मय के नाम से जाना जाता है | नवरात्रि के दिनों में इसी माहात्मय का पाठ किया जाता है और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है | जिसमें 537 चरणों में सप्तशत यानी 700 मन्त्रों के द्वारा देवी के माहात्मय का जाप किया जाता है | इसमें देवी के तीन मुख्य रूपों – काली अर्थात बल, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा के द्वारा देवी के तीन चरित्रों – मधुकैटभ वध, महिषासुर वध तथा शुम्भ निशुम्भ वध का वर्णन किया जाता है |

इस वर्ष नवरात्रों की तिथियाँ इस प्रकार हैं…

मंगलवार 9 अप्रैल – चैत्र शुक्ल प्रतिपदा / साम्वत्सरिक नवरात्र आरम्भ / आठ अप्रैल रात्रि 11:50 से नौ अप्रैल को रात्रि 8:30 तक प्रतिपदा तिथि – घट स्थापना मुहूर्त नौ अप्रैल को द्विस्वभाव मीन लग्न में प्रातः छः बजकर एक मिनट से – वैधृति योग, किंस्तुघ्न करण / भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना / गुड़ी पड़वा / युगादि

बुधवार 10 अप्रैल – चैत्र शुक्ल द्वितीया / भगवती के ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना / मत्स्य जयन्ती

गुरुवार 11 अप्रैल – चैत्र शुक्ल तृतीया / भगवती के चन्द्रघंटा रूप की उपासना / गणगौर पूजा / मत्स्य जयन्ती

शुक्रवार 12 अप्रैल – चैत्र शुक्ल चतुर्थी / भगवती के कूष्माण्डा रूप की उपासना / लक्ष्मी पञ्चमी

शनिवार 13 अप्रैल – चैत्र शुक्ल पञ्चमी / भगवती के स्कन्दमाता रूप की उपासना / मेष संक्रान्ति – सूर्य का मेष राशि में संक्रमण रात्रि 9:15 पर / बैसाखी

रविवार 14 अप्रैल – चैत्र शुक्ल षष्ठी / भगवती के कात्यायनी रूप की उपासना / विशु / यमुना षष्ठी

सोमवार 15 अप्रैल – चैत्र शुक्ल सप्तमी / भगवती के कालरात्रि रूप की उपासना / पोहिला बैसाख

मंगलवार 16 अप्रैल – चैत्र शुक्ल अष्टमी / भगवती के महागौरी रूप की उपासना

बुधवार 17 अप्रैल – चैत्र शुक्ल नवमी / भगवती के सिद्धिदात्री रूप की उपासना / रामनवमी / स्वामी नारायण जयन्ती

माँ भगवती अपने नवरूपों में सभी का कल्याण करें… सभी को नव सम्वत्सर तथा नवरात्र की अग्रिम रूप से हार्दिक शुभकामनाएँ…

 

 

शीतला सप्तमी और अष्टमी 2024

शीतला सप्तमी और अष्टमी 2024

चैत्र कृष्ण सप्तमी और अष्टमी को उत्तर भारत में – विशेष रूप से राजस्थान और उत्तर प्रदेश में – शीतला माता की पूजा की जाती है | कुछ स्थानों पर यह पूजा सप्तमी को होती है और कुछ स्थानों पर अष्टमी को | वैसे शीतला देवी की पूजा अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समय की जाती है | उदाहरण के लिए बंगाली समाज में माघ शुक्ल पँचमी को सरस्वती पूजा के बाद दूसरे दिन यानी माघ शुक्ल षष्ठी को शीतला षष्ठी मनाई जाती है | इस दिन 6 प्रकार की सब्जियों को एक साथ उबालकर खाने का नियम है | शीतला षष्ठी के नाम से सरस्वती पूजा के दिन इस खाने को पकाया जाता है और अगले दिन ठण्डा करके खाया जाता है | आप इसे बासी भोजन कह सकते हैं | अधिकतर बंगाली पर‍िवारों में उस दिन चूल्‍हा नहीं जलता | यहां तक क‍ि‍ सिलबट्टा पर भी कोई चीज पीसी नहीं जा सकती | इस दिन प्रातःकाल विधि-विधान के साथ घरों में सील लोढ़ा (सिलबट्टे) और चूल्हे की भी पूजा की जाती है | ऐसी मान्यता है कि क्योंकि यह यह शीतल षष्ठी होती है, इसलिए गर्म भोजन नहीं, बल्‍क‍ि एक दिन पहले पका हुआ शीतल भोजन ग्रहण करना चाहिए | कहीं वैशाख कृष्ण अष्टमी को तो कहीं चैत्र कृष्ण सप्तमी-अष्टमी को इस पर्व को मनाया जाता है | कुछ स्थानों पर होली के बाद प्रथम सोमवार अथवा बुधवार को शीतला माता की पूजा का विधान है | गुजरात में श्री कृष्ण जन्माष्टमी से एक दिन पूर्व “शीतला सतम” नाम से इस पर्व को मनाया जाता है | किन्तु चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को शीतला पूजा का विशेष महत्त्व है |

इस वर्ष रविवार 31 मार्च को रात्रि 9:31 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और व्यातिपत योग में सप्तमी तिथि का आगमन हो रहा है जो सोमवार पहली अप्रैल को रात्रि नौ बजकर नौ मिनट तक रहेगी और उसके बाद अष्टमी तिथि लग जाएगी जो मंगलवार रात्रि आठ बजकर आठ मिनट तक रहेगी | गुरूवार को सूर्योदय 6:20 पर तथा सूर्यास्त 6:34 पर हो रहा है | अतः इस मध्य किसी भी समय शीतला सप्तमी की पूजा की जा सकती है | जो लोग अष्टमी को शीतला देवी की पूजा करते हैं वे भी शुक्रवार को प्रातः 6:20 से 6:34 के मध्य किसी भी समय शीतला अष्टमी की पूजा कर सकते हैं | इस प्रकार उदया तिथि होने के कारण सप्तमी को शीतला माता की पूजा सोमवार पहली अप्रैल को की जाएगी और अष्टमी को जो लोग शीतला माता की पूजा करते हैं वे मंगलवार को करेंगे |

हमें स्मरण है कि हमारे श्वसुरालय ऋषिकेश और पैतृक नगर नजीबाबाद में शीतला माता के मन्दिर हैं | जब वहाँ होली के बाद आने वाली शीतलाष्टमी को शीतला माता के मन्दिर पर मेला भरा करता था तथा वहाँ मन्दिर में जो कुछ भी माता को अर्पित किया जाता था वह सफ़ाई कर्मचारी को सम्मानपूर्वक दिया जाता था तथा उनका आशीर्वाद भी लिया जाता था | ये सब एक सामाजिक समभाव की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया तो थी ही, साथ ही यह मेला बड़ों के लिए एक ओर जहाँ शीतला माता की पूजा अर्चना का स्थान होता था वहीं हम बच्चों के लिए मनोरंजन का माध्यम होता था |

शीतला माता का उल्लेख स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | इसके लिए पहले दिन सायंकाल के समय भोजन बनाकर रख दिया जाता है और अगले दिन उस बासी भोजन का ही देवी को भोग लगाया जाता है और उसी को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है | इसका कारण सम्भवतः यही रहा होगा कि इसके बाद ऐसा मौसम आ जाता है जब भोजन बासी बचने पर खराब हो जाता है और उसे फिर से उपयोग में नहीं लाया जा सकता | और इसी कारण से कुछ स्थानों पर इसे “बासडा” अथवा “बसौड़ा” भी कहा जाता है | इस दिन लोग लाल वस्त्र, कुमकुम, दही, गंगाजल, कच्चे अनाज, लाल धागे तथा बासी भोजन से माता की पूजा करते हैं | शीतला देवी की पूजा मुख्य रूप से ऐसे समय में होती है जब वसन्त के साथ साथ ग्रीष्म का आगमन हो रहा होता है | चेचक आदि के संक्रमण का भी मुख्य रूप से ऋतु परिवर्तन का यही समय होता है |

शीतला माता का वाहन गर्दभ को माना जाता है तथा इनके हाथों में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते रहते हैं | इन सबका भी सम्भवतः यही प्रतीकात्मक महत्त्व रहा होगा कि इस ऋतु में प्रायः व्यक्तियों को चेचक खसरा जैसी व्याधियाँ हो जाती थीं | रोगी तीव्र ज्वर से पीड़ित रहता था और उस समय रोगी की हवा करने के लिए सूप ही उपलब्ध रहा होगा | नीम के पत्तों के औषधीय गुण तो सभी जानते हैं – उनके कारण रोगी के छालों को शीतलता प्राप्त होती होगी तथा उनमें किसी प्रकार के इन्फेक्शन से भी बचाव हो जाता होगा | स्कन्द पुराण में शीतला माता की पूजा के लिए शीतलाष्टक भी उपलब्ध होता है | वैसे शीतला देवी की पूजा करते समय निम्न मन्त्र का जाप किया जाता है:

वन्देsहम् शीतलां देवीं रासभस्थान्दिगम्बराम् |

मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम् ||

अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश और मस्तक पर सूप का मुकुट धारण करने वाली भगवती शीतला की हम वन्दना करते हैं | इस मन्त्र से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि शीतला देवी स्वच्छता की प्रतीक हैं – हाथ में झाडू तथा सफ़ाई कर्मचारियों का सम्मान और उन्हें मन्दिर के पुजारी के समान पूजा की वस्तुएँ समर्पित करना इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि एक ओर तो हम सबको स्वच्छता के प्रति जागरूक और कटिबद्ध होना चाहिए, क्योंकि चेचक, खसरा तथा अन्य भी सभी प्रकार के संक्रमणों का मुख्य कारण तो गन्दगी ही है, तो वहीं दूसरी ओर पुरुष सूक्त की इस भावना की भी पुष्टि करता है कि सभी मनुष्य ईश्वर का अंश हैं, उनकी सामर्थ्य के अनुसार वे संसार के सकुशल संचालन में अपना अपना योगदान देते हैं अतः सभी एक समान सम्मान के अधिकारी हैं | साथ ही, समुद्रमन्थन से उद्भूत हाथों में कलश लिए आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरी की ही भाँति शीतला माता के हाथों में भी कलश होता है, सम्भवतः इस सबका अभिप्राय यही रहा होगा कि स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति जन साधारण को जागरूक किया जाए, क्योंकि जहाँ स्वच्छता होगी वहाँ स्वास्थ्य उत्तम रहेगा, और स्वास्थ्य उत्तम रहेगा तो समृद्धि भी बनी रहेगी | सूप का भी यही तात्पर्य है कि परिवार धन धान्य से परिपूर्ण रहे |

देवी का नाम भी सम्भवतः इसी लोकमान्यता के कारण शीतला पड़ा होगा कि शीतला देवी की उपासना से दाहज्वर, पीतज्वर, फोड़े फुन्सी तथा चेचक और खसरा जैसे रक्त और त्वचा सम्बन्धी विकारों तथा नेत्रों के इन्फेक्शन जैसी व्याधियों में शीतलता प्राप्त होती है और ये व्याधियाँ निकट भी नहीं आने पातीं | आज के युग में भी शीतला देवी की उपासना स्वच्छता की प्रेरणा तथा उत्तम स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और सामाजिक समभाव के दृष्टिकोण से सर्वथा प्रासंगिक प्रतीत होती है… अतः हम सभी अपने चारों ओर स्वच्छता का ध्यान रखें, स्वस्थ रहें तथा सभी प्रकार के ऊँच नीच के भेद को दूर कर सबको एक समान समझें… यही कामना है…

 

माघी मौनी अमावस्या

माघी मौनी अमावस्या

प्रत्येक माह में एक अमावस्या आती है | जो लोग पूर्णिमा के बाद कृष्ण प्रतिपदा को माह की प्रथम तिथि मानते हैं, अर्थात माह को पूर्णिमान्त मानते हैं, उनके लिए अमावस्या पन्द्रहवीं तिथि होती है और पूर्णिमा माह की अन्तिम तिथि होती है | और जो लोग अमावस्या के बाद शुक्ल प्रतिपदा से माह का आरम्भ मानते हैं, अर्थात माह को अमान्त मानते हैं, उनके लिए अमावस्या माह की अन्तिम तिथि होती है | वर्ष में बारह मासों की मिलाकर बारह अमावास्याएँ होती हैं और हर अमावस्या का अपना महत्त्व होता है | साथ ही अमावस्या को शिव तथा विष्णु दोनों की उपासना का विधान है |

इनमें से माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है | इस दिन पवित्र नदियों के संगम में स्नान करना तथा जप तप और दान धर्म करना पुण्य का कार्य माना जाता है | माघ मास का महत्त्व कार्तिक मास के सामान ही माना जाता है | माना जाता है कि इस दिन सभी देवतागण पवित्र नदियों में स्नान करने आते हैं और इसीलिए इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है ऐसी भी मान्यता है । सृष्टि के संचालक मनु का जन्म भी इसी दिन माना जाता है और इसलिए भी इस अमावस्या को मौनी कहा जाता है ।

इस दिन मौन व्रत का पालन करते हुए मन ही मन ईश्वर के नाम स्मरण का बहुत महत्त्व है | मन की गति बहुत तीव्र मानी गई है | उसे वश में करने के लिए मौन रहकर नाम स्मरण करना मन को साधने की एक प्रकार की योगिक क्रिया भी है | इस प्रकार मौनी अमावस्या का सम्बन्ध एक ओर जहाँ पौराणिक सन्दर्भ समुद्र मन्थन के साथ जुड़ता है वहीं योग शास्त्र के साथ भी इसका सम्बन्ध बनता है | साथ ही एक विशिष्ट तिथि होने के कारण वैदिक ज्योतिष के साथ भी इसका सम्बन्ध बनता है | ज्योतिष शास्त्र तथा लोक मान्यताओं के अनुसार यदि यह अमावस्या सोमवती अथवा भौमवती हो – यानी सोमवार या मंगलवार को पड़े तो अत्यन्त पुण्यकारी होती है | इस वर्ष शुक्रवार नौ फरवरी को प्रातः आठ बजकर दो मिनट के लगभग चतुष्पद करण और व्यातिपत योग में अमावस्या तिथि का उदय होगा जो दस फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 4:28 के लगभग समाप्त हो जाएगी | अतः नौ फ़रवरी को अमावस्या के व्रत का पालन किया जाएगा | स्नान का शुभ मुहूर्त सूर्योदय पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में 5:21 से ही आरम्भ हो जाएगा जो 6:13 तक रहेगा |

मुनि शब्द से मौनी शब्द की व्युत्पत्ति हुई है इस प्रकार वास्तविक मुनि वही होता है जो मौन व्रत का पालन करे | मौन व्रत का पालन केवल मौन रहना ही नहीं कहलाता, अपितु छल कपट लोभ मोह आदि जितने भी प्रकार के दुर्भाव होते हैं उन सबको मौन कर देना – उन सबसे मुक्त हो जाना – ही वास्तव में मौन का साधन होता है | तो क्यों न इस मौनी अमावस्या को हम सभी संकल्प लें कि अपने भीतर के समस्त दुर्गुणों को – समस्त दुर्भावों को मौन करने का – समाप्त करने का प्रयास करेंगे | यदि ऐसा सम्भव हो सका तो वास्तव में धरती पर ही स्वर्ग उतर आएगा…
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया: |
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत् ||

मौनी अमावस्या के बाद ही 14 फरवरी को वसन्त का उल्लासमय पर्व तथा माँ वाणी का अवतरण दिवस भी मनाया जाएगा | सभी को माघी अमावस्या, वसन्त पँचमी की अनेकश: हार्दिक शुभकामनाएँ, इस भावना के साथ कि समस्त ज्ञान विज्ञान की दात्री माँ वाणी हम सबके जीवन को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करें… और हमारी वाणी में मधुर सत्य की स्थापना करें…
हर मन भीतर खिल उठे वसन्त
उत्साहों का उल्लासों का |
और प्रेम भरे मधुहासों संग
हर मन नर्तन कर झूम उठे ||
—–कात्यायनी

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा

कल समूचा राष्ट्र एक महान और गौरवशाली घटना का साक्षी बनने जा रहा है – भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा – जिसके बाद वह प्रस्तर प्रतिमा “विग्रह” बन जाएगी | लगभग हर व्यक्ति अपनी अपनी सामर्थ्य और योग्यता इत्यादि के अनुसार इस आनन्द का अनुभव कर रहा है | ऐसे ही कुछ लोग तरह तरह से भगवान श्री राम के चित्र, रंगोली, मूर्तियाँ इत्यादि भी गढ़ कर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं | आज ही एक मूर्ति सोशल मीडिया पर वायरल हुई जिसमें एक लड़की ने घर में उपलब्ध टीन के कनस्तर इत्यादि से बड़ी ख़ूबसूरती से भगवान श्री राम की मूर्ति बनाकर पोस्ट की और उस पर कुछ लोगों ने उस लड़की की आलोचना भी आरम्भ कर दी कि ऐसा करना भगवान का अपमान करना है और इसकी पूजा नहीं की जा सकती | तो सर्वप्रथम तो हम उन आलोचकों से निवेदन करना चाहेंगे कि वह मूर्ति उस लड़की ने केवल अपने आनन्द की अभिव्यक्ति के लिए बनाई थी और उसकी पूजा करना उसका उद्देश्य था ही नहीं | क्योंकि किसी भी मूर्ति को यदि पूजा अर्चना के लिए उपयुक्त बनाना है तो पहले उसमें प्राण प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता होती है – जिसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि के मार्ग पर चलने की आवश्यकता होती है – जिस प्रकार इन दिनों हमारे आदरणीय प्रधानमन्त्री जी यम नियम का पालन कर रहे हैं | किसी ने सुझाव दिया इस विषय पर कुछ लिखने का, तो आइए आज इसी विषय पर बात करते हैं | आगे बढ़ने से पूर्व एक बात स्पष्ट कर दें कि इस लेख की लेखिका मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के विधान की ज्ञाता नहीं है, केवल अपने पिताजी और विद्वज्जनों से जो कुछ ज्ञात हुआ है उसे ही यहाँ लिखने का प्रयास कर रही है, अतः यदि कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो तो उसके लिए आरम्भ में ही क्षमा याचना करते हैं… |

प्राण प्रतिष्ठा केवल एक रीति अथवा आडम्बर मात्र नहीं है, अपितु यह एक अत्यन्त प्रभावशाली कार्य है क्योंकि प्रतिष्ठा करने वाला व्यक्ति उस मूर्ति में मन्त्र जाप इत्यादि के माध्यम से इतनी अधिक ऊर्जा उत्पन्न कर देता है – यहाँ तक कि अपने प्राणों की ऊर्जा तक उसमें प्रेषित कर देता है कि जब यह अनुष्ठान पूर्ण होता है तो मूर्ति से निसृत ऊर्जा प्रतिष्ठा करने वाले व्यक्ति तथा वहाँ उपस्थित समस्त जन समूह को भी प्रभावित कर देती है | हम जब दुर्गा पूजा अथवा गणपति पूजा के समय अपने घरों में मूर्ति लेकर आते हैं पूजा के लिए तो अनुष्ठान के आरम्भ में यज्ञ में आहुति समर्पित करते हुए मंत्रोच्चार किया जाता है “मनो जूतिर्जुषतामज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं, तनोत्वरितष्टं यज्ञSघ्वँ समिम दधातु विश्वेदेवास इह मादयन्तामोSम्प्रतिष्ठ ||” (यजुर्वेद 2/13 ) अर्थात्, ही सविता देव आपका वेगमान मन इस आज्य अर्थात् घृत का सेवन करे, बृहस्पति देव इस यज्ञ को सभी प्रकार के अनिष्ट से रहित करते हुए इसका विस्तार करें और इसे धारण करें तथा सभी दिव्य शक्तियाँ प्रतिष्ठित होकर आनन्दित और सन्तुष्ट हों | तथा, “अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च | अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन ||” अर्थात्, इस देव प्रतिमा के प्राण यहाँ प्रतिष्ठित हों, इसमें नित्य प्राणों का सँचार होता रहे, अर्चना हेतु इसके दैवत्व कि महानता को कम नहीं समझना चाहिए – यह बहुत महान है | इत्यादि मन्त्र बोलकर सर्व प्रथाम उस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है ताकि सम्बन्धित देवता की मूर्ति में इतनी ऊर्जा उत्पन्न हो जाए कि वह अनुष्ठान निर्विघ्न सम्पन्न हो सके | और आपने देखा भी होगा कि अनुष्ठान की उस अवधि में साधक के तन मन में ऊर्जा का पूर्ण प्रवाह बना रहता है | और ऐसा केवल मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा तक ही सीमित नहीं है – जब एक गुरु अपने शिष्य को कोई मन्त्र इत्यादि देता है तो उस गुरु और शिष्य को भी उसी प्रकार यम नियम आदि का पालन करना आवश्यक होता है – शिष्य को मन्त्र देते समय गुरु अपनी स्वयं की ऊर्जा भी शिष्य में प्रेषित करता है ताकि वह निर्विघ्न रूप से उस मन्त्र को सिद्ध कर सके | भारत में तो लगभग हर हिन्दू परिवार में और मन्दिरों इत्यादि में इस प्रकार के अनुष्ठान अनादि काल से सम्पन्न होते आ रहे हैं और यही कारण है कि कितनी भी समस्याएँ राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हो जाएँ – कितनी भी आपदाएँ उपस्थित हो जाएँ – यहाँ का जन मानस इतना सबल और दृढ़ निश्चयी है कि उन सभी से मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है और हमारा देश उसी दृढ़ता के साथ पुनः उठ खड़ा होता है |

प्राण-प्रतिष्ठा के पीछे वैदिक विज्ञान समाहित है | यह समस्त संसार – समस्त प्राणी – पँच महाभूतों से निर्मित हैं | ये पँच महाभूत समस्त सृष्टि के कण कण में विद्यमान हैं | जल, वायु, प्रकाश अर्थात् अग्नि, ध्वनि अर्थात् आकाश तथा पृथिवी अर्थात् मृत्तिका सर्वत्र व्याप्त हैं | ब्रह्माण्ड में व्याप्त इन समस्त ईश्वरीय तत्वों को जब एक स्थान पर एकत्र करके पूर्ण विधि विधान से एक मूर्ति में समाहित कर दिया जाता है तो निश्चित रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा उस ऊरती में सन्निहित हो जाती है और वह मूर्ति एक प्रकार से जीवन्त हो जाती है | कई बार पौरातत्विक धरोहर के रूप में आरक्षित किसी मन्दिर में जाने पर एक विचित्र प्रकार का आध्यात्मिक अनुभव होता होता है, जबकि वहाँ पूजा अर्चना का भी नहीं हो रही होती है, और जब हम वहाँ से बाहर निकलते हैं तो कुछ समय तक कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं होते हैं | इसका कारण यही है कि सदियों पूर्व ऋषि मुनियों ने वहाँ की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की थी जिनका प्रभाव वर्तमान समय तक भी विद्यमान है – क्योंकि पँच महाभूतों का जो संगम वहाँ ऋषि मुनियों ने कराया उसका प्रभाव तो कभी नष्ट हो नहीं सकता |

जब हम किसी स्थान पर प्राण प्रतिष्ठा करते हैं तो वहाँ की ऊर्जा इतनी तीव्र हो जाती है कि उससे एक प्रकार का अदृश्य कम्पन सा उत्पन्न होता है और जब हम उस स्थान पर जाते हैं तो उसी ऊर्जा का प्रवाह हमारे शरीर के निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर स्वाभाविक रूप से होना आरम्भ हो जाता है | समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य भी यही है कि साधक ऊर्जा को निम्नतर चक्रों से उच्चतर चक्रों की ओर ले जाए | यही कारण है कि प्राण प्रतिष्ठा एक असाधारण तथा अद्भुत कार्य है और हर कोई इस कार्य को करने और कराने में सक्षम नहीं होता | अन्यथा तो मूर्ति क्या है – एक चट्टान का टुकड़ा भर ही न | और एक बात, प्राण प्रतिष्ठा के द्वारा किसी प्रस्तर प्रतिमा को जीवित मनुष्य नहीं बनाया जाता अपितु उसके जागृत होने का – उसके सिद्ध होने का अनुभव किया जाता है | इस प्रक्रिया में मूर्ति के कई अधिवास कराए जाते हैं – कई अभिषेकों के द्वारा उसके दोषों का शमन किया जाता है, वेदिक मन्त्रों तथा शंख आदि की ध्वनियों का नाद किया जाता है – और जब यह नाद शून्य अर्थात् आकाश में विद्यमान नाद से जाकर मिल जाता है तो वह मूर्ति और वह स्थान समस्त ब्रह्माण्ड की ऊर्जा से सम्पन्न हो जाता है – और यही होता है मूर्ति का जागृत होना | यह अनुष्ठान इतना कठिन होता है कि इसके लिए अनेक प्रकार के यम नियम आदि का भी पालन करने की आवश्यकता होती है |

शास्त्रों के अनुसार अष्टांग योग के आठ भाग है, जिसमें आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, भजन, समाधि, यम और नियम होते हैं | यम नियम में अन्न और बिस्तर पर सोने का त्याग और प्रतिदिन स्नान करना आवश्यक तथा मन्त्र आदि का जाप करना होता है | विद्वज्जनों और शास्त्रों के अनुसार मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के मुख्य यजमान को मूर्ति स्थापना से पूर्व इन समस्त यम नियमों का पालन करके स्वयं को मूर्ति से निसृत ऊर्जा के योग्य बनाने की आवश्यकता होती है | यही कारण है मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा के समय उसके नेत्रों पर वस्त्र बाँध दिया जाता है और एक शीशे को सामने रखकर ही वस्त्र हटाया जाता है | अन्यथा इतने अधिक मन्त्र जाप, अधिवास और तान्त्रिक अनुष्ठान आदि के कारण जो ऊर्जा उत्पन्न होती है उसका प्रवाह इतना तीव्र होता है कि साधारण मनुष्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है | ऊर्जा के वेग से कई बार वह शीशा भी टूट कर बिखर जाता है – जिसे एक शुभ संकेत माना जाता है |

और भगवान श्री राम की मूर्ति का तो निर्माण ही एक बहुत प्रभावशाली शिला “शालिग्राम” से हुआ है – जो वास्तव में एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है, जिसके विषय में प्रायः सभी को ज्ञात होगा कि जीवाश्म पौधों और जानवरों के संरक्षित अवशेष होते हैं जिनके शरीर प्राचीन समुद्रों, झीलों और नदियों के नीचे रेत और मिट्टी जैसी तलछट में दबे हुए पाए जाते हैं और प्रायः लाखों करोड़ों वर्ष पुराने होते हैं | भगवान श्री राम की प्रतिमा जिस शालिग्राम से गढ़ी गई है वह भी लगभग 60 करोड़ वर्ष पुराना है | शालिग्राम का प्रयोग परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है | प्रायः घरों में गोल अथवा अंडाकार रूप में शालिग्राम का अभिषेक किया जाता है | पद्मपुराण के अनुसार – गण्डकी (नेपाल) अर्थात नारायणी नदी के एक प्रदेश में शालिग्राम स्थल नाम का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँ से निकलनेवाले पत्थर को शालिग्राम कहते हैं | ऐसी मान्यता है कि इसके स्पर्श मात्र से जन्म जन्मान्तर पाप नष्ट हो जाते हैं | ऐसे प्रभावशाली पत्थर से जिस मूर्ति का निर्माण हुआ हो उसमें जब प्राण प्रतिष्ठा के विधान से ब्रह्मांडीय ऊर्जा समाहित होगी तो सोचने की बात है वह कितनी अधिक तीव्र होगी |

अस्तु, इस विग्रह से निसृत ऊर्जा समस्त जन मानस के मनों को भी चैतन्यता प्रदान करे, इसी कामना के साथ – जय श्री राम…