Category Archives: सम सामयिक

श्री हनुमान जन्मोत्सव सँवत् 2082

श्री हनुमान जन्मोत्सव सँवत् 2082

शनिवार 12 अप्रैल को चैत्र पूर्णिमा है – श्री हनुमान जन्मोत्सवजिसे पूरा हिन्दू समाज पूर्ण भक्ति भाव से हर्षोल्लास के साथ मनाता है | विघ्नहर्ता मंगल कर्ता हनुमान जीजिन्हें अन्जनापुत्र होने के कारण आंजनेय भी कहा जाता हैजो लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर करने के लिए संजीवनी बूटी का पूरा पर्वत ही उठाकर ले आए थेजिनकी महिमा का कोई पार नहीं है | शनिवार को सूर्योदय से पूर्व तीन बजकर इक्कीस मिनट के लगभग कुम्भ लग्न, विष्टि (भद्रा) करण और व्याघात योग में पूर्णिमा तिथि का आगमन होगा जो रविवार को सूर्योदय से पूर्व 5:51 तक रहेगी | इस प्रकार उदया तिथि होने के कारण शनिवार 12 अप्रैल को हनुमान जयन्ती मनाई जाएगी | पूर्णिमा के सम्पन्न होने के साथ ही चैत्र मास समाप्त होकर वैशाख आरम्भ हो जाएगा | मान्यता है की हनुमान जी का जन्म सूर्योदय काल में हुआ थाअतः सूर्योदय काल में 5:58 से ही पूजा का शुभ मुहूर्त आरम्भ हो जाएगा तो दिन भर रहेगा | अस्तु, सर्वप्रथम सभी को श्री रामदूत हनुमान जी की जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँइस भावना के साथ कि जिस प्रकार पग पग पर भगवान श्री राम के मार्ग की बाधाएँ उन्होंने दूर कींजिस प्रकार लक्ष्मण को पुनर्जीवन प्राप्त करने में सहायक हुएउसी प्रकार आज भी समस्त संसार को कष्टों से मुक्त होने में सहायता करें

हनुमान जी को वानर का रूप माना जाता है | किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो वानर एक जनजाति उस समय हुआ करती थी जो वनवासियों का समूह होता था और जिन्होंने भगवान श्री राम की सहायता की | वानर शब्द का अर्थ ही है वन + नर अर्थात्वह मनुष्य जो वन में निवास करे” | वानर सम्भवतः एक अत्यन्त शक्तिशाली क़बीला हुआ करता था जिसके ध्वज पर वानर का चित्र अंकित होता था | इस जनजाति के लोग वानरों की ही भाँति अत्यन्त सक्रिय, फुर्तीले, साहसी, निडर भाव से कहीं भी पहुँच जाने वाले, ईमानदार और दयालु होते थे | ऐसा भी सम्भव है कि इनकी  मुखाकृति वानरों यानी बन्दरों से मिलती जुलती होती हो | कालान्तर में वानर शब्द को केवलमात्र बन्दरों का पर्याय बनाकर छोड़ दिया गया | बहुत से विद्वानों की ऐसी भी मान्यता हैजो हमें भी तथ्यात्मक प्रतीत होती हैकि पूँछ सम्भवतः इनके पुरुषों के परिधान का एक अंग था, क्योंकि महिला वानरों के साथ पूँछ को नहीं जोड़ा गया है |

हनुमान जयन्ती का भी यदि देखें तो भिन्न भिन्न प्रान्तों में उनकी मान्यताओं और कैलेण्डर के अनुसार अलग अलग तिथियों समय पर हनुमान जयन्ती मनाते हैं | जैसे आन्ध्र और तेलंगाना में चैत्र पूर्णिमा से आरम्भ होकर वैशाख कृष्ण दशमी तक 41 दिनों तक हनुमान जन्मोत्सव मनाया जाता है और वैशाख कृष्ण दशमी को इसका समापन किया जाता है | तमिलनाडु में मार्गशीर्ष अमावस्या कोहनुमथ जयन्तीआती है | कर्नाटक में इसेहनुमान व्रतंनाम से मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को मनाया जाता है |

श्री राम कथा पर सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को सायंकाल के समय मेष लग्न में हुआ था | उस समय स्वाति नक्षत्र था अर्थात चन्द्रमा स्वाति नक्षत्र में था और सूर्य तुला लग्न में में | माना जाता है कि अग्नि तत्व मेष लग्न तथा सूर्य के तुला में होने कारण ही उनमें कष्टों को भस्म कर देने की सामर्थ्य थी | उन्होंने ही श्री गोस्वामी तुलसीदास जी को श्री राम कथा सुनाई थी | चैत्र पूर्णिमा को हनुमान जी का जन्म महोत्सव मनाए जाने के पीछे एक अन्य कथा भी उपलब्ध होती है कि उन्होंने एक बार सूर्य को गेंद समझकर निगल लिया था | उस समय इन्द्र ने अपने वज्र से उन पर प्रहार किया जो उनकी थोड़ी पर जाकर लगा और वे अचेत हो गए | इन्द्र के इस व्यवहार से कुपित होकर हनुमान जी के पिता पवनदेव ने वायु का प्रवाह अवरुद्ध कर दिया | जब हनुमान जी की चेतना लौटी तब देवताओं की प्रार्थना पर पवनदेव ने पुनः वायु का प्रवाह आरम्भ किया | जिस दिन हनुमान जी चेतन हुए उस दिन चैत्र शुक्ल पूर्णिमा थी और इसी तिथि को उनका पुनर्जन्म मानकर हनुमान जयन्ती मनाई जाने लगी | कथाएँ और किम्वदन्तियाँ तथा मान्यताएँ जितनी भी होंहनुमान जी सदा कष्टों का हरण करते हैंऔर इसी निमित्त से इस अवसर प्रस्तुत है श्री हनुमान स्तुति अर्थ सहित

बुद्धिर्बलं यशो धैर्यं निर्भयत्वमरोगता |

अजाड्यं वाक्पटुत्वं च हनूमत्स्मरणाद्भवेत् ||

हनुमान जी का स्मरण करने से हमारी बुद्धि, बल, यश, धैर्य, निर्भयता, आरोग्य, विवेक और वाक्पटुता में वृद्धि हो |

मनोजवं मारुततुल्यवेगम्, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् |

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं, श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये ||

हम उन वायुपुत्र श्री हनुमान के शरणागत हैं जिनकी गति का वेग मन तथा मरुत के समान है, जो जितेन्द्रिय हैं, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, वानरों की सेना के सेनापति हैं तथा भगवान् श्री राम के दूत हैं |

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् |

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ||

अत्यन्त बलशाली, स्वर्ण पर्वत के समान शरीर से युक्त, राक्षसों के काल, ज्ञानियों में अग्रगण्य, समस्त गुणों के भण्डार, समस्त वानर कुल के स्वामी तथा रघुपति के प्रिय भक्त वायुपुत्र हनुमान को हम नमन करते हैं |

हनुमानद्द्रजनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः, रामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रम: |

उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः, लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा ||

एवं द्वादशनामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः,

स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत्‌ |

तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्‌ ||

हनुमान, अंजनिपुत्र, वायुपुत्र, महाबली, रामप्रिय, अर्जुन (फाल्गुन) के मित्र, पिंगाक्षभूरे नेत्र वाले, अमित विक्रम अर्थात महान प्रतापी, उदधिक्रमण: – समुद्र को लाँघने वाले, सीता जी के शोक को नष्ट करने वाले, लक्ष्मण को जीवन दान देने वाले तथा रावण के घमण्ड को चूर्ण करने वालेये कपीन्द्र के बारह नाम हैं | रात्रि को शयन करने से पूर्व, प्रातः निद्रा से जागने पर तथा यात्रा आदि के समय जो व्यक्ति हनुमान जी के इन बारह नामों का पाठ करता है उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता तथा विजय प्राप्त होती है |

आज जबकि हर ओर वैश्विक स्तर पर एक अराजकता कायुद्ध कावातावरण बना हुआ हैस्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ हैंऔर भी अनेक प्रकार की समस्याओं से मनुष्यों का सामना हो रहा हैहमारी यही कामना है की बजरंगबली सबकी रक्षा करेंइसी भावना के साथ सभी को श्री हनुमान जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ

होलाष्टक 2025

होलाष्टक 2025

इस वर्ष गुरुवार 6 मार्च को प्रातः 10:51 के लगभग विष्टि करण और विषकुम्भ योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ होगा जो सात मार्च को प्रातः 9:18 तक रहेगी | इस प्रकार उदया तिथि के अनुसार शुक्रवार सात मार्च से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे | 10 मार्च को रंग की एकादशी हैजो फाल्गुन एकादशी और आमलकी एकादशी भी कहलाती है | उसके बाद तेरह मार्च को फाल्गुन पूर्णिमा है जिसे वसन्त पूर्णिमा और छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है | इसी दिन होलिका दहन किया जाता है | और फिर 14 मार्च को प्रातः रंगों की बरसात के साथ ही होलाष्टक समाप्त हो जाएँगे | 

 

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक से ही होली के पर्व का आरम्भ हो जाता है | ज्योतिषी इसेहोलाष्टक दोषकी संज्ञा देते हैं और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | ज्योतिषियों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, मुण्डन, भवन निर्माण अथवा गृह प्रवेश आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |

इस विषय में एक कथा भी प्रचलित है कि सती के द्वारा उनके पिता दक्ष के यज्ञ में पति भगवान शंकर के अपमान  व्यथित होकर आत्माहुति देने के बाद जब भगवान् शंकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करके ध्यानावस्थित हो गए उस समय तारकासुर ने अपने उत्पात बढ़ा दिए | तारकासुर का वध केवल भगवान् शिव और पार्वती की सन्तान ही कर सकती थी | नारद के कहने पर पार्वती ने घोर तपस्या की शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए, लेकिन शिव का ध्यान भंग नहीं हुआ | जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थीभगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | 

वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से ही होलिका दहन के स्थान को स्वच्छ करके वहाँ होलिका और प्रह्लाद के प्रतीक स्वरूप दो दण्ड स्थापित कर दिए जाते थे और उनके मध्य में घास फूस उपलों तथा लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता था | लेकिन एक बात ध्यान देने योग्य है कि इस अवसर पर भी इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि वृक्षों की कटाई न करनी पड़े, और इसके लिए वृक्षों से अपने आप हाई गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस को होलिका दहन के स्थान पर एकत्र किया जाता था | इससे विदित होता है कि उस समय प्रकृति का कितना सम्मान किया जाता था और अनावश्यक हाई वृक्षों की कटाई इत्यादि नहीं की जाती थी | 

कृष्ण भक्त इस पर्व को राधा कृष्ण की कथा से जोड़ते हैं | राधा जी की जन्मस्थली बरसाने में इस दिन लड्डू बाँटे जाते हैं और अष्टमी से रंगों का खेल आरम्भ हो जाता है | माना जाता है की इसी दिन भगवान् कृष्ण श्री राधा जी और उनके परिवारजनों से मिलने के लिए बरसाने पहुँचे थे |

काशी विश्वनाथ मन्दिर में भी होली का त्यौहार धूम धाम से मनाया जाता है | वहाँ रंग की एकादशी से इस पर्व का आरम्भ हो जाता है | मान्यता है कि इसी दिन भगवान् शंकर माता पार्वती को अपने घर लाने के लिए निकले थे |

मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | वास्तव में होली का पर्व प्रकृति का पर्व है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा व्याप्त होती है जो समस्त जड़ चेतन को मन्त्रमुग्ध करती प्रेम और उत्साह के रंगों से सराबोर कर देती है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में ब्याह शादी या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा

तो, क्यों न स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों और मान्यताओं के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ पूर्ण रूप से प्रकृति के सान्निध्य में व्यतीत किया जाए 

रंगों के पर्व की अभी से सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ

होलाष्टक 2025
होलाष्टक 2025

प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

माघ शुक्ल पञ्चमी अर्थात वसन्त पञ्चमी का वासन्ती पर्वजब माघ मास लगभग समाप्त होने को होता है तब ठण्ड की विदाई के साथ वसन्त ऋतु का आगमन होता है | फाल्गुन और चैत्र मास वसन्त ऋतु के मास माने जाते हैं | चैत्र वर्ष का प्रथम मास है और फाल्गुन अन्तिमकितना अद्भुत संयोग है कि वैदिक पञ्चांग के अनुसार वर्ष का आरम्भ और अन्त दोनों वसन्त की मादकता के साथ ही होते हैं | उस समय मानों ऋतुराज के स्वागत हेतु समस्त धरा अपने हरे घाघरे के साथ सरसों का पीला उत्तरीय और पलाश के पीत पुष्पों की चूनर ओढ़ लेती है | पलाश, जिसे टेसू भी कहा जाता है | और वृक्षों की टहनियों रूपी अपने हाथों में ढाक के श्वेत पुष्पों के चन्दन से ऋतुराज के माथे पर तिलक लगाकर लाल पुष्पों के दीपों से कामदेव के प्रिय मित्र का आरता उतारती है | वास्तव में अत्यन्त मनोहारी दृश्य होता है यह |

इस वर्ष माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि 2 फरवरी को प्रातः सवा नौ के लगभग बव करण और सिद्ध योग में आरम्भ हो रही है, जो तीन फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 6:52 तक रहेगी | अतः रविवार दो फरवरी को यानी कल सरस्वती और रतिकामदेव की पूजा के साथ वसन्त का उल्लास मनाया जाएगा |

कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और ऋतुसंहार तथा बाणभट्ट के कादम्बरी और हर्ष चरित जैसे अमर ग्रन्थों में वसन्त ऋतु का तथा प्रेम के इस मधुर पर्व का इतना सुरुचिपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है कि जहाँ या तो प्रेमीजन जीवन भर साथ रहने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं या फिर बिरहीजन अपने प्रिय के शीघ्र मिलन की कामना करते दिखाई देते हैंसंस्कृत ग्रन्थों में तो वसन्तोत्सव को मदनोत्सव ही कहा गया है जबकि वसन्त के श्रृंगार टेसू के पुष्पों से सजे वसन्त की मादकता देखकर तथा होली की मस्ती और फाग के गीतों की धुन पर हर मन मचल उठता थाइस मदनोत्सव में नर नारी एकत्र होकर चुन चुन कर पीले पुष्पों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते और एक दूसरे पर अबीर कुमकुम की बौछार करते हुए वसन्त की मादकता में डूबकर कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा करते थेयह पर्व Valentine’s Day की तरह केवल एक दिन के लिए ही प्रेमीजनों के दिलों की धड़कने बढ़ाकर शान्त नहीं हो जाता था, अपितु वसन्त पञ्चमी से लेकर होली तक सारा समय प्रेम के लिए समर्पित होता था

कालिदास को तो वसन्त ऋतु में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की टहनियाँ वन में धधक उठी दावानल की लपटों जैसी प्रतीत होती हैं और इनसे घिरी हुई धरा ऐसी प्रतीत होती है मानो रक्तिम वस्त्रों में लिपटी कोई वधूटी हो | साथ ही उन्हें वसन्त ऋतु सबसे अधिक चारुतर प्रतीत होती है, तभी तो ऋतुसंहार में बोल उठते हैं

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम स्त्रिय: सकामा: पवन: सुगन्धि: |

सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:, सर्व प्रिये चारुतरं वसन्ते ||

वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम् |चूतद्रुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसंत: ||

ऐसी मनभावन ऋतु आई

वृक्षों की हर डाली डाली पुष्पित है / प्रमुदित है मन में

प्रफुल्लित हैं पद्म हर एक जलाशय में

और प्रवाहित है सुगन्धित पवन हर दिशा दिशा में

दिवस सुरम्य / सुखकर सन्ध्या

ऐसा चारुतर है वसन्त / तभी तो प्रिय है सभी को

हर ओर एक आकर्षण / एक सम्मोहन

पहले से भी कहीं अधिक

जलाशयों के ठहरे हुए जल को / मणिखचित मेखलाओं को / कंगनों को

चन्द्रमा की चन्द्रिका को / सुकुमारियों की सुकुमारता को

और पुष्पाभूषणों से आभूषित आम्रवृक्षों को

दिया है दान सौन्दर्य का / सौभाग्य का

इसी वसन्त ने तो

तभी तो है इतना मोहक और आकर्षक

यही कालिदास विक्रमोर्वशीयं में दक्षिण दिशा से प्रवाहित होती पवन को वसन्त का सबसे प्रिय मित्र बताते हुए कहते हैं

वासार्थं हर संभृतं सुरभिणा पौष्पं रजो वीरुधांकिं कार्यं भवतो हृतेन दयितास्नेहस्वहस्तेन में |जानीते हि मनोविनोदनशतैरेवंविधैर्धारितंकामार्तं जनमज्जनां प्रति भवानालक्षितप्रार्थनः ||

स्वयं को करना चाहते हो सुवासित सुगन्धि से

तो क्यों नहीं उठा ले जाते वसन्त ऋतु में

वृक्षों की डालियों पर प्रफुल्लित पुष्पों का पराग…?

मेरी प्रियतमा के हाथ का लिखा हुआ ये पत्र

भला किस काम का तुम्हारे…?

तुम तो स्वयं प्रेम कर चुके हो अंजना से

तुम्हें क्या पता नहीं…?

मन के भावों को आनन्दित करते हैं यही प्रेम पत्र तो

देते हैं जीवनदान प्रेमियों को

ऐसी राग रंग रचाती ऋतु को ऋतुओं का राजा भला क्यों न कहा जाएगा…? वसन्तजिस ऋतु में चिर सुषमा की वंशी सदा गुंजायमान रहती होअपार यौवनअपार सुखअपार विलास के देवता कामदेव का पुत्रतभी तो आधार है नव सृजन काशस्य श्यामला वसुन्धरा में स्वर्णिम सौन्दर्यजहाँ भगवान भास्कर की रश्मियाँ पञ्चम का सुर आलापती कोयल तथा घनी अमराइयों में मँडराते भ्रमरों के गान पर थिरक उठती होंसंस्कृत साहित्य ही नहीं वरन रीतिकालीन हिन्दी काव्य से लेकर आज तक के सभी रचनाकारों को वसन्त प्रभावित किये बिना नहीं रहताकिसी को वसन्त के आते ही पुष्पों का खिल जानाभ्रमरों का गानकोयल की कुहुक सब कुछ प्राणिमात्र के लिए सुख तथा स्वास्थ्यकर लगता हैतो किसी को वसन्त की वासन्ती आभा विरह वेदना को और अधिक बढ़ाती जान पड़ती हैतभी तो कहते हैं इसे ऋतुओं का राजाआज भी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराँचल सहित देश के अनेक अंचलों में पीतवस्त्रों और पीतपुष्पों में सजे नरनारी बालवृद्ध एक साथ मिलकर माँ वाणी के वन्दन के साथ साथ प्रेम के इस देवता की भी उल्लासपूर्वक अर्चना करते हैं

इस पर्व के दौरान पीले वस्त्र धारण करने के एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि पीत वर्ण का सम्बन्ध जहाँ एक ओर सूर्य से माना जाता है, वहीं भगवान् विष्णु और माँ वाणी से सम्बद्ध माना जाता है | साथ ही पीला रंग सौभाग्य का प्रतीक भी माना जाता है तथा मन को स्थिरता प्रदान करने वाला, शान्ति प्रदान करने वाला माना जाता है | पीला रंग विचारों में सकारात्मकता, आशा तथा ताज़गी का प्रतीक माना जाने के कारण व्यक्ति को उसके व्यवसाय में उन्नति का सूचक भी माना जाता है | इन्हीं कारणों से भगवान् विष्णु और भगवती सरस्वती को पीले पुष्प अर्पित किये जाते हैं |

साथ ही यह तिथि प्रत्येक कार्य के लिए शुभ मानी जाती है इसलिए इसे अबूझ मुहूर्त भी कहा जाता हैअर्थात जब कोई भी शुभ मुहूर्त न मिल रहा हो तो इसके लिए मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहींबिना मुहूर्त देखे ही इस दिन समस्त शुभ तथा मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं | कितना विचित्र संयोग है कि इस दिन एक ओर जहाँ ज्ञान विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती को श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति को भी स्नेह सुमनों के हार से आभूषित किया जाता है

सर्दियों की विदाई के साथ ही प्रकृति स्वयं अपने समस्त बन्धन खोलकरअपनी समस्त सीमाएँ तोड़करप्रेम के मद में ऐसी मस्त हो जाती है कि मानो ऋतुराज को रिझाने के लिए ही वासन्ती परिधान धारण कर नव प्रस्फुटित कलिकाओं से स्वयं को सुसज्जित कर लेती हैजिनका अनछुआ नवयौवन लख चारों ओर मंडराते भँवरे गुन गुन करते वसन्त का राग आलापने लगते हैंआम बौरा जाते हैंवसन्त के परम मित्र कामदेव अपने धनुष पर स्नेह प्रेम के पुष्पों का बाण चढ़ा देते हैंऔर प्रकृति की इस रंग बिरंगी छटा को देखकर मगन हुई कोयल भी कुहू कुहू का गान सुनाती हर जड़ चेतन को प्रेम का नृत्य रचाने को विवश कर देती हैइसीलिए तो वसन्त को ऋतुओं का राजा कहा जाता हैवास्तव में बड़ी मदमस्त कर देने वाली होती है ये रुतवृक्षों की शाख़ों पर चहचहाते पक्षियों का कलरव ऐसा लगता है मानों पर्वतराज की सभा में मुख्य नर्तकी के आने से पूर्व उसके सम्मान में वृन्दगान चल रहा हो

वसन्त को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अपना ही एक रूप बताया है

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||

गीता अध्याय 10 श्लोक 35||

सारी श्रुतियों में मूर्धन्य

वह बृहत्साम मैं ही तो हूं 

वैदिक छन्दों का महच्छंद

गायत्री भी मैं ही तो हूं

द्वादश मासों में मार्गशीर्ष का

का अद्भुत मास भी मैं ही हूं

और षड ऋतुओं का राजा

सबका प्रिय वसन्त मैं ही तो हूं

हमें अक्सर याद आ जाता है कोटद्वार में अपने कार्यकाल के दौरान सिद्धबली मन्दिर के बाहर मुंडेर पर बैठ जाया करते थे अकेलेअपने आपमें खोए सेनीचे कल कल छल छल बहती खोह का मधुर संगीत मन को मोह लिया करता थामन्दिर के चारों ओर ऊपर नीचे देखते तो हरियाली की चादर ताने और रंग बिरंगे पुष्पों से ढकी ऊँची नीची पर्वत श्रृंखलाएँ ऐसी जान पड़तीं मानों अपने तने हुए उभरे कुचों पर बहुरंगी कंचुकियाँ कसेहरितवर्णी उत्तरीयों से अपनी कदलीजँघाओं को हल्के से आवृत कियेकोई काममुग्धा नर्तकी नायिकाप्रियतम को मौन निमन्त्रण दे रही होउसे अभी कहाँ होश पर्वतराज की सभा में जा नृत्य करने काअभी तो कामक्रीड़ा के पश्चात् कुछ अलसाना हैऔर उसके पश्चात्और अधिक पुष्पों की जननी बनना हैवसन्त के आगमन पर उसे स्वयं को पुष्पहारों से और भी अलंकृत करना हैताकि पिछली रात के सारे चिह्न विलुप्त हो जाएँऔर ऋतुराज वसन्त के लिये वो पुनः अनछुई कली जैसी बन जाएऐसा मदमस्त होता है वसन्त का मौसमऋतुओं का राजा

वसन्त की उत्पत्ति के विषय में भी एक रोचक कथा है | तारकासुर नामक राक्षस का वध केवल शिवपार्वती के पुत्र द्वारा ही सम्भव था | भोलेनाथ तो तपस्या में लीन बैठे थे तो उनका पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता था ? तब देवताओं ने कामदेव से उनकी तपस्या भंग करने के लिए सहायता माँगी | कामदेव जानते थे कि शंकर की तपस्या भंग करने का अर्थ है उनके कोप का भाजन बनना | किन्तु देवताओं का कार्य भी आवश्यक था | तब उन्होंने वसन्त को उत्पन्न किया और वसन्त ऋतु तथा कामदेव के बाणों से भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई | कामदेव को दण्ड स्वरूप भगवान शंकर ने भस्म कर दिया किन्तु फिर कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें छाया रूप में जीवित रहने का वरदान दे दिया | इसीलिए वसन्त को कामदेव का पुत्र भी कहा जाता है और मित्र भीयह कथा वास्तव में प्रतीक है इस तथ्य का कि वसन्त के आगमन पर जब भगवान भास्कर मुस्कुराते हुए रश्मिरथ पर सवार हो प्रकट होते हैं तो शीत का अन्धकार नष्ट हो जाता है | साथ ही पतझड़ के कारण जो प्रकृति का विकास एक प्रकार से बाधित सा हो जाता है वह पुनः आरम्भ हो जाता है | ऐसा प्रतीत होता है मानों रूप व सौन्दर्य के देवता कामदेव के घर में सन्तानोत्पत्ति का समाचार प्राप्त होते ही समूची प्रकृति आनन्द में झूम उठती है, वृक्ष उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, रंग बिरंगे पुष्प उसे वस्त्र पहनाते हैं, पवन झूला झुलाती है और कोयल पंचम की तान सुना उसका मन बहलाती है |साथ ही इस सत्य का प्रतीक भी है कि जिस प्रेम में लोक मंगल की भावना न होकर केवल काम वासना प्रमुख होती है वह प्रेम सम्बन्ध या तो स्वयं के ही प्रमाद के कारण अथवा ऋषि श्राप से भस्म हो जाता हैशिव पार्वती का विवाह किसी काम की भावनाके कारण नहीं हुआ था अपितु लोक मंगल की कामना से हुआ था

और संयोग देखिए कि वसन्त ही के दिन नूतन काव्य वधू का अपने गीतों के माध्यम से नूतन श्रृंगार रचने वाले प्रकृति नटी के चतुर चितेरे महाप्राण निराला का जन्मदिवस भी धूम धाम से मनाया जाता है | यों निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1899 यानी माघ शुक्ल एकादशी को हुआ था, किन्तु प्रकृति का यथार्थ और सुकुमार चित्र प्रस्तुत करने के कारण 1930 में वसन्त पंचमी के दिन उनका जन्मदिन मनाने की प्रथा उनके प्रशंसकों ने आरम्भ कर दी ।

वास्तव में वसन्त प्रकृति कापीत वर्ण कापर्व हैजब समस्त प्रकृति में नव जीवन का संचार होने लगता हैफसलें पकने लगती हैंसरसों के खेत समूची धरा को पीली चादर से ढक देते हैं | कडाके की ठण्ड के बाद प्रकृति एक बार पुनः अपने मूल रूप में आ जाती है | इसी सबका स्वागत करने के लिए मन्दिरों कोघरों को पीत पुष्पों से आभूषित किया जाता है और पीली मिठाइयाँ बनाकर उनका प्रसाद ग्रहण किया जाता है | पीले वस्त्र धारण किये जाते हैंअर्थात कण कण में प्रेम और समृद्धि का प्रतीक वासन्ती रंग घुला होता है |

धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व इस पर्व का यही है कि ज्ञान विज्ञान की देवी भगवती सरस्वती के साथ ही सूर्य, गंगा मैया तथा भू देवी की पूजा अर्चना के माध्यम से जन जन को सन्देश प्राप्त होता है कि जिस प्रकृति ने हमारे जीवन में इतने सारे रंग भरे हैं, हमें वृक्षों, वनस्पतियों, स्वच्छ वायु, जल, पशु पक्षियों आदि के रूप में जीवित रहने के समस्त साधन प्रदान किये हैंउस पञ्चभूतात्मिका प्रकृति को धन्यवाद दें और उसका सम्मान करना सीखें |

तो, वसन्त के मनमोहक संगीत के साथ सभी मित्रों को सरस्वती पूजन, निराला जयन्ती तथा प्रेम के मधुमय वासन्ती पर्व वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँइस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब ज्ञान प्राप्त करके समस्त भयों तथा सन्देहों से मोक्ष प्राप्त कर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकेंताकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करके उन्मुक्त भाव से प्रेम का राग आलाप सकें

—–कात्यायनी

महाकुम्भ प्रयागराज

महाकुम्भ प्रयागराज

कुम्भ पर्व हिन्दू धर्मं का एक महत्वपूर्ण पर्व है | प्रयागराज में सोमवार13 जनवरी 2025 पौष पूर्णिमा से आरम्भ होकर बुधवार 26 फरवरी 2025 फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी यानी महाशिवरात्रि तक महाकुम्भ का आयोजन किया जाएगा | हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में हर बारहवें वर्ष इस पर्व का आयोजन किया जाता है | हरिद्वार और प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के मध्य छः वर्ष के अंतराल पर एक अर्धकुम्भ भी होता है | माना जाता है कि पवित्र गंगा और यमुना के मिलन स्थल पर आर्यों ने प्रयाग तीर्थ की स्थापना की थी | साथ ही माना जाता है कि यहाँ सरस्वती नदी भी गुप्त रूप में गंगा और यमुना से मिलती है | संगम तट पर, जहाँ कुम्भ मेले के आयोजन होता है वहीं भारद्वाज ऋषि का प्राचीन आश्रम भी है | इसे विष्णु नगरी भी कहा जाता है और महाभारत के अनुसार माना जाता है कि सृष्टि की रचना के पश्चात यहीं पर ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ भी किया था | कुम्भ पर्व का आयोजन समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से सम्बद्ध है, जब देव दानवों द्वारा समुद्र मंथन से अमृत कुम्भ प्राप्त हुआ | अमृत कुम्भ दानव भी हड़प कर जाना चाहते थे | बारह दिनों तक दैत्य और दानवों में उस कलश के लिये युद्ध होता रहा | इस युद्ध के कारण कलश से अमृत की कुछ बूँदें पृथिवी पर प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में छलक गईं | उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से अमृत की रक्षा की, सूर्य ने घट को फूटने से बचाया, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से बचाया और शनि ने इन्द्र के भय से कुम्भ की रक्षा की | अन्त में भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर यथाधिकार सबके मध्य उस अमृत का बँटवारा किया तब युद्ध शान्त हुआ | अमृत की खींचा तानी के समय चन्द्रमा ने अमृत को बहने से बचाया | गुरूदेव बृहस्पति ने कलश को छुपा कर रखा | भगवान भास्कर ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से रक्षा की | अतः ये समस्त ग्रह जब एक विशिष्ट स्थिति में आते हैं तो कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है |

वास्तव में भचक्र में सभी ग्रह हर क्षण गतिमान रहते हैं और प्रत्येक ग्रह का गोचर एक राशि से दूसरी राशि में समय समय पर होता रहता है | इनमें देवगुरु बृहस्पति की गति गोचर का कुम्भ के आयोजन में बहुत बड़ा योगदान है | साथ ही जब सभी राशि नक्षत्रों पर भ्रमण करता हुआ चन्द्रमा भगवान भास्कर के सान्निध्य में आता है तो धरा पर एक विशेष प्रकार की ऊर्जा का संचार होता है जिसे जान साधारण अनुभव भी करता है | यह ऊर्जा प्राणी मात्र के कल्याण का कारक होती है | और यही ऊर्जा अमृत घट की वे बूँदें हैं जो पृथिवी पर समुद्र मन्थन के बाद चार नगरों में गिरी थीं | अतः सूर्य चन्द्र गुरु तथा शनि की विशेष स्थितियों में विशेष संयोगों में इन सभी कुम्भ मेलों का आयोजन किया जाता है |

कुम्भ मेला हर बारह वर्ष में आता है यह तो सभी जानते हैं | कुम्भ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चन्द्र, गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है | इस वर्ष मौनी अमावस्या 29 जनवरी को सायं छह बजकर छह मिनट के लगभग सूर्य और चन्द्र मकर राशि में समान अंशों में होंगे तथा देवगुरु बृहस्पति वृषभ राशि में चल ही रहे हैं | उस दिन महाकुम्भ का महास्नान होगा | जब गुरु और सूर्य चन्द्र सिंह राशि में होते हैं तब कुम्भ मेला नासिक में आयोजित होता है | गुरु के सिंह राशि और सूर्य के मेष राशि में होने पर कुम्भ मेला उज्जैन में आयोजित किया जाता है | गुरु के सिंह राशि में होने के कारण इन कुम्भ मेलों को सिंहस्थ भी कहा जाता है | सूर्य मेष राशि और गुरु कुम्भ  राशि में होते हैं तब उत्तराखण्ड के चार धामोंबद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्रीके प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन होता है | माना जाता है कि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने कुम्भ मेले का आयोजन आरम्भ कराया था | वैसे तो हर 12 वर्ष में कुम्भ का मेला लगता है, किन्तु छह वर्षों की अवधि में भी कुम्भ का आयोजन किया जाता है | कुम्भ मेले को तीन वर्गों में बाँटा गया है

पूर्ण कुम्भ मेलाजिसे केवल कुम्भ मेला भी कहा जाता है और यह प्रत्येक बारह वर्षों में प्रयागराज में संगम के तट पर, नासिक में गोदावरी के तट पर, उज्जैन में क्षिप्रा के तट पर तथा हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर आयोजित किया जाता है |

अर्ध कुम्भ मेलाअर्थ से ही स्पष्ट हैअर्ध अर्थात आधाप्रयागराज और हरिद्वार में दो पूर्ण कुम्भ मेलों के मध्य में लगभग प्रत्येक छह वर्षों में अर्ध कुम्भ मेले आयोजन किया जाता है |

महाकुम्भजो इस वर्ष यानी 2025 में प्रयागराज में आयोजित किया जा रहा है और यह बारह पूर्ण कुम्भ मेलों के बाद आता है |

चारों तीर्थ नगरों में आने वाले कुम्भ की स्थिति विशेष होती है | एक ओर जहाँ नासिक और उज्जैन के कुम्भ को प्रायः सिंहस्थ कहा जाता है वहीं दूसरी ओर हरिद्वार और प्रयागराज के कुम्भ को अर्ध कुम्भ, पूर्ण कुम्भ और महाकुम्भ कहा जाता है |

वास्तव में कुम्भ का मेला एक ऐसा आयोजन होता है जो खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्म, अनुष्ठान तथा कर्मकाण्ड की परम्पराओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों और प्रथाओं को स्वयं में समाहित किए होने के कारण अत्यन्त समृद्ध होता है | इनमें सभी धर्मों के लोग आते हैं | आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग की साधना करने वाले साधु तथा नागा साधु भी इनमें सम्मिलित होते हैं | सन्यासी अपना एकान्तवास छोड़कर जान साधारण के मध्य इस अवधि में पहुँच जाते हैं | साथ ही धार्मिक भावनाओं से ओत प्रोत जन साधारण तो इस अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान कर तथा इन साधु सन्तों के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करते ही हैं | इस सबके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के आयोजन इन मेलों में होते हैं जैसेहाथी घोड़ों और रथों पर पारम्परिक अखाड़ों के जुलूस जिन्हेंपेशवाईकहा जाता है, शाही स्नान के समय नागा साधुओं की रस्में तथा अन्य अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम सदा से इन कुम्भ मेलों का आकर्षण रहे हैं |

2025 के महाकुम्भ मेले में विशिष्ट स्नान की तिथियाँ इस प्रकार हैं

  1. सोमवार 13 जनवरीपौषपूर्णिमा
  2. मंगलवार 14 जनवरीमकरसंक्रान्ति
  3. बुधवार 29 जनवरीमौनीअमावस्या
  4. सोमवार 3 फरवरीवसन्तपञ्चमी
  5. बुधवार 12 फरवरीमाघीपूर्णिमा
  6. बुधवार 26 फरवरीमहाशिवरात्रि

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

शनिवार 16 मार्च को रात्रि 9:39 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और आयुष्मान योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ हो रहा है जो 17 मार्च को रात्रि 9:53 तक रहेगी | अतः 17 मार्च से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे जो रविवार 24 मार्च को होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाएँगे | पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 24 मार्च को प्रातः 9:55 पर विष्टि करण और गण्ड योग में होगा और 25 मार्च दिन में 12:29 पर समाप्त हो जाएगी और फिर रंगों की बरसात करती होली – धुलहाँडी – आ जाएगी | 24 मार्च को पूर्णिमा के उदय के साथ ही विष्टि करण यानी भद्रा का भी उदय हो रहा है जो रात्रि 11:13 तक रहेगी |

देखा जाए तो प्रत्येक वर्ष या दो वर्ष के अन्तराल में भद्रा होलिका दहन की अवधि में आती ही है | प्रश्न यह है कि भद्रा को कितना महत्त्व दिया जाना चाहिए | विद्वानों का मानना है कि भद्रा काल में यद्यपि होलिका दहन निषिद्ध माना जाता है, किन्तु फिर भी यदि अर्द्ध रात्रि के बाद भी भद्रा रहे और दूसरे दिन दोपहर तक ही प्रतिपदा तिथि आ जाए तो पूर्णिमा तिथि रहते हुए भद्रा पुच्छ काल में ही होलिका दहन कर दिया जाता है – भद्रा मुख में नहीं किया जाता – निशीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव | भद्रा को भगवान सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहन माना गया तथा अत्यन्त उग्र स्वभाव माना गया है | साथ ही यह भी विचार करना आवश्यक है कि चन्द्रमा उस समय किस राशि में विचरण कर रहा है | यदि चन्द्रमा का संचरण कन्या, तुला अथवा धनु राशि में हो रहा हो तो वह भद्रा पाताल में वास करती है तथा धन धान्य और प्रगति प्रदान करती है, अर्थात् मंगलकारी होती है | 24 मार्च को सूर्यास्त 6:34 पर है अतः उससे 45 मिनट पूर्व से 45 मिनट बाद का समय प्रदोष काल है – अर्थात् सायं 5:49 से 6:45 तक का समय प्रदोष काल है और भद्रा का पुच्छ काल है | साथ ही दोपहर 2:21 से चन्द्रमा का संचार भी कन्या राशि में हो जाएगा | इसके अतिरिक्त 25 मार्च को दिन में 12:29 पर प्रतिपदा तिथि आएगी | अतः प्रदोष काल में भद्रा पुच्छ के साथ होलिका दहन किया जाएगा | और यदि भद्रा मुक्त काल में होलिका दहन करना है तो भद्रा की समाप्ति पर रात्रि ग्यारह बजकर तेरह मिनट से लेकर वृश्चिक लग्न की समाप्ति – अर्ध रात्रि में बारह बजकर 39 मिनट तक – रहेगा |

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक आरम्भ होने के साथ ही होली के पर्व का भी आरम्भ हो जाता है | इसे “होलाष्टक दोष” की संज्ञा भी दी जाती है और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | विद्वान् पण्डितों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, भवन निर्माण आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |

फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को होलिका दहन के स्थान को गंगाजल से पवित्र करके होलिका दहन के लिए दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों की कटाई न करनी पड़े | इस प्रकार देखा जाए तो होलाष्टक होली के रंग पर्व के आगमन के सूचक भी होते हैं |

पौराणिक मान्यता ऐसी भी है कि तारकासुर नामक असुर ने जब देवताओं पर अत्याचार बढ़ा दिए तब उसके वध का एक ही उपाय ब्रह्मा जी ने बताया, और वो ये था कि भगवान शिव और पार्वती की सन्तान ही उसका वध करने में समर्थ हो सकती है | तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए घोर तप का आरम्भ कर दिया | किन्तु शिव तो दक्ष के यज्ञ में सती के आत्मदाह के पश्चात ध्यान में लीन हो गए थे | पार्वती से उनकी भेंट कराने के लिए उनका उस ध्यान की अवस्था से बाहर आना आवश्यक था | समस्या यह थी कि जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का दुस्साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थी – भगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | इसी के प्रतीक स्वरूप होलाष्टक के दिनों में कोई शुभ कार्य करने की मनाही होती है |

वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |

अतः, मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा तो व्याप्त होती ही है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में चारों ओर से पड़ रही रंगों की बौछारों को भूलकर ब्याह शादी, भवन निर्माण या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा…

इन सभी मान्यताओं का कोई वैदिक, ज्योतिषीय अथवा आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है, केवल धार्मिक आस्थाएँ और लौकिक मान्यताएँ ही इस सबका आधार हैं – और इनका पालन करना सामाजिक जीवन के लिए – सामाजिक सम्बन्धों के लिए – अनुकूल होता ही है | तो क्यों न होलाष्टक की इन आठ दिनों की अवधि में स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ व्यतीत किया जाए…

रंगों के पर्व की अभी से रंग और उल्लास से भरी हार्दिक शुभकामनाएँ…

शरद पूर्णिमा – 2023

शरद पूर्णिमा – 2023

शनिवार 28 अक्तूबर को आश्विन मास की पूर्णिमा, जिसे शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है का मोहक पर्व है | और इसके साथ ही पन्द्रह दिनों बाद आने वाले दीपोत्सव की चहल पहल आरम्भ हो जाएगी | काल सूर्योदय से पूर्व 4:18 विष्टि करण और वज्र योग में पूर्णिमा तिथि आरम्भ होगी जो अर्द्धरात्र्योत्तर 1:53  तक रहेगी | देश के अलग अलग भागों में इस पर्व की धूम रहती है और इसे रास पूर्णिमा, कोजागरी पूर्णिमा, नवान्न पूर्णिमा, कुमुद्वती तथा कुमार पूर्णिमा आदि अनेकों नामों से जाना जाता है | आज ही के दिन महर्षि वाल्मीकि का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है | सभी को शरद पूर्णिमा तथा वाल्मीकि जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ इस आशा के साथ कि हम सभी का जीवन शरद पूर्णिमा के चाँद जैसा प्रफुल्लित रहे…

कल अर्धरात्रयोत्तर 1:05 से 2:24 तक खण्ड ग्रास चन्द्र ग्रहण भी है | नौ घण्टे पूर्व से चन्द्र ग्रहण का सूतक ज्योतिषियों के अनुसार माना जाता है अतः सायं 4 बजे का लगभग से सूतक आरम्भ हो जाएगा | कुछ मित्रों ने पूछा कि ऐसे में पूजा कैसे करेंगे और शरद के चन्द्रमा की चाँदनी में खीर कैसे रखेंगे | तो हमने वही उत्तर दिया जो हम स्वयं करते हैं | हम चतुर्दशी की रात में खीर चाँदनी में रखते हैं और पूर्णिमा को प्रातः उसका भोग लगाते है – क्योंकि पूजा तो वैसे भी प्रातःकाल में ही की जाती है | ग्रहण के विषय में हमारी स्वयं की मान्यता है कि यह एक अत्यन्त आकर्षक खगोलीय घटना है अतः इससे भयभीत होने की अपेक्षा – अथवा किसी अन्धविश्वास को मानने की अपेक्षा इसे देखकर इसका आनन्द उठाना चाहिए और प्रकृति की इस मनोहारी लीला में स्वयं को डुबोकर मन हाई मन शरद का महारास रचाना चाहिए उस परमात्मा के साथ |

यों हिन्दू मान्यता के अनुसार हर माह की पूर्णिमा महत्त्वपूर्ण होती हैं | लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्त्व इस मान्यता के कारण और अधिक बढ़ जाता है कि आज के दिन चन्द्रमा पृथिवी के इतने अधिक निकट होता है कि उसकी किरणों के सारे जीवन रक्षक पौष्टिक तत्व पृथिवीवासियों को उपलब्ध हो जाते हैं | एक ओर तो वर्षा ऋतु बीत जाती है | मेघराज भी अपनी टोली के साथ इन्द्रलोक को वापस लौट जाते हैं | उनके साथ ही उनकी प्रेयसि नृत्यांगना दामिनी भी अपने बरखा की बूँदों के घुँघरूओं को झनकाती फिर से वापस लौटने का वादा कर अपने महल की ओर प्रस्थान कर जाती हैं | शरद ऋतु के स्वागत में धवल चन्द्रिका की शीतल प्रकाश गंगा में डुबकी लगाकर चन्द्रकिरणों की अठखेलियों से रोमांचित हुआ आकाश पूर्ण रूप से स्वच्छ और विशाल दिखाई देने लगता है | निश्चित रूप से आज की रात चन्द्रदेव अपनी समस्त पौष्टिकता अपनी किरणों के माध्यम से समस्त जड़ चेतन पर लुटाने को तत्पर रहते हैं | इसीलिए आज की रात अधिकाँश लोग घरों के आँगन में या कहीं भी खुले स्थान में रात बिताना अधिक पसन्द करते हैं – ताकि चन्द्रमा की उन पौष्टिक किरणों में अच्छी तरह स्नान करके स्वयं को पुनः ऊर्जावान अनुभव कर सकें |

इसीलिए तो ऐसी लोकमान्यताएँ हैं कि आज के दिन चन्द्रमा को एकटक कुछ देर के लिए निहारते रहने से नेत्रज्योति में वृद्धि होती है | हमारी आयु के लोगों को अपना बचपन भी याद अवश्य होगा जब हममें से अधिकाँश घरों में माताएँ हम सबके हाथों में सुई धागा पकड़ा कर आँगन में चन्दा की चाँदनी में बैठा दिया करती थीं सुई में धागा डालने के लिए और हमसे कहा जाता था कि आज के दिन चन्द्रमा के प्रकाश में सुई में धागा डालोगे तो आँखों की रोशनी अच्छी बनी रहेगी | और वास्तव में इतना स्पष्ट और आँखों के रास्ते मन में उतर कर समूचे व्यक्तित्व को आह्लाद की सरिता में स्नान कराके रोमांचित कर देने वाला प्रकाश शरद पूर्णिमा के उजले चाँद का होता था कि अन्य किसी भी प्रकाश की आवश्यकता ही नहीं होती थी | बड़े आराम से चाँद के शीतल प्रकाश की चादर में लिपटे सुई में धागा डाल देते थे और काफ़ी समय तक यही खेल चलता रहता था – जब तक कि माँ की मीठी झिडकियाँ कानों में सुनाई देनी आरम्भ नहीं हो जाती थीं “अरे अब चलकर सो जाओ | मैंने खेल करने को नहीं कहा था, बस एक बार धागा डालना था और बस – पर तुम लोगों को तो हर काम में खेल चाहिए | चलो सोने के लिए जाओ – सुबह उठकर पढ़ाई नहीं करनी क्या ?” उत्सव की रुत में पढ़ाई का नाम सुनकर वैसे ही बच्चों को खुन्दक आ जाती थी – सो बेमन से जाकर लेट जाते थे अपने बिस्तरों पर – आँखों में शीतल चाँदनी लुटाते उस धवल मनोहारी शरद के पूर्ण चन्द्र की छवि को बसाए |

प्रातः दैनिक कर्मों से निवृत्त होने के बाद घर भर को दूध में भीगे चोले (पोहा) प्रसाद के रूप में नाश्ते में दिए जाते थे | रात को माँ दूध में चोले भिगाकर बाहर आँगन में चाँद की चाँदनी के नीचे छींके पर लटका दिया करती थीं | प्रायः हर घर में ऐसा होता था | माना जाता था कि आज रात की चाँद की किरणों के समस्त पौष्टिक तत्व इन चोलों में घुल मिल जाएँगे | और वास्तव में सुबह जब हम उन्हें खाते थे तो इतने शीतल और अमृततुल्य स्वाद से युक्त होते थे कि मन ही नहीं भरता था | इन सभी मान्यताओं में सम्भव है कहीं न कहीं कुछ न कुछ वैज्ञानिक तथ्य अवश्य रहा होगा |

ये तो थी शरद पूर्णिमा के पर्व से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत से लोक रिवाज़ों की बात | कृष्ण भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा की रात्रि का कितना अधिक और विशेष महत्त्व है ये सभी जानते हैं | आज रात को ही भगवान कृष्ण अपनी महाशक्ति राधा सहित समस्त गोपियों के साथ महारास रचाते हैं | कितना आकर्षक दृश्य रहा होगा जब हर गोपी को उसके प्यारे कन्हाई अपने साथ नृत्य करते जान पड़े होंगे | लेकिन ये रास केवल एक युग का ही रास नहीं है, अनन्त युगों से चला आ रहा है और युगों युगों तक चलता रहेगा |

जो लोग कृष्ण को केवल रास रचैया भर मानते हैं वास्तव में वे लोग रास के अर्थ तथा मर्म को ही भली भाँति नहीं समझ पाए हैं | कृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य करना कोई साधारण घटना नहीं है | भाव, ताल, नृत्य, छन्द, गीत, रूपक एवं लीलाभिनय से युक्त यह रास – जिसमें रस का उद्भव मन से होता है तथा जो पूर्ण रूप से अलौकिक और आध्यात्मिक है – वैष्णव परम्पराओं से लेकर जैन परम्पराओं तक समस्त चिन्तन परम्पराओं में ज्ञान का आलोक लेकर आया | समस्त ब्रह्माण्ड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरुष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की ही तो एक झलक है । उस रास में किसी प्रकार की काम भावना नहीं है | कृष्ण पुरुष तत्व है और गोपियाँ प्रकृति तत्व । इस प्रकार कृष्ण और गोपियों का नृत्य प्रकृति और पुरुष का महानृत्य है । विराट प्रकृति और विराट पुरुष का महारास है यह | तभी तो प्रत्येक गोपी यही अनुभव करती है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं । सांसारिक दृष्टि से यह रास नृत्य मनोरंजन मात्र हो सकता है, किन्तु यह नृत्य पूर्ण रूप से पारमार्थिक नृत्य है | इस महारास के द्वारा यही सिखाने का प्रयास श्री कृष्ण का रहा कि प्रेम न तो वासना है न ही किसी का एकाधिकार, वरन प्रेम का कालुष्यरहित सामूहिक विकास आवश्यक है, और प्रेमियों के मध्य किसी प्रकार का आवरण – किसी प्रकार का रहस्य नहीं रहता – वहाँ होती है केवल विचारों की – भावों की – स्पष्टता और समर्पण | रासलीला कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम का वह चरम उत्कर्ष बिन्दु है जहाँ किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक गोपनीयता अथवा रहस्य का आवरण नहीं है | राग योग की इस दशा में बृहदारण्यक का यह कथन सत्य सिद्ध होता है “जैसे पुरुष को अपने आलिंगनकाल में बाहर भीतर की कोई सुध नहीं रहती उसी प्रकार जब उपासक प्राज्ञ द्वारा आलिंगित होता है तब वह अपनी सुध बुध खो बैठता है |”

तो विराट प्रकृति और विराट पुरुष के महारास के साक्षी और प्रतीक तथा अपनी ज्योति किरणों द्वारा समस्त चराचर को नवजीवन का सुधापान कराते शरद पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्र को नमन करते हुए सभी को शरद पूर्णिमा के उल्लासमय अमृतमय पर्व की एक बार पुनः हार्दिक शुभकामनाएँ…

 

महिला आरक्षण विधेयक और वैदिक कालीन नारी

महिला आरक्षण विधेयक और वैदिक कालीन नारी

महिला आरक्षण बिल यानी नारी शक्ति वन्दन विधेयक लम्बी चर्चा के बाद लोक सभा और राज्य सभा दोनों में बहुमत से पास हो गया है – इसके लिए सभी महिलाओं को सबसे पहले तो हार्दिक बधाई – अब उनके लिए तैंतीस प्रतिशत का आरक्षण संसद और विधान सभाओं में सुरक्षित हो गया है | बहुत वर्षों से इस विधेयक को लाने का प्रयास किया जा रहा था जो अब माननीय प्रधानमन्त्री श्री मोदी जी के प्रयासों के कारण – उनके रात दिन के परिश्रम के कारण सम्भव हो पाया | इस ऐतिहासिक विधेयक के पास हो जाने के कारण अब राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि होगी | लेकिन प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जिस महान भारत देश की मान्यता है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”, जहाँ वैदिक संस्कृति का पालन किया जाता है, ऐसे विचारशील देश में इस विधेयक को लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी | कल इसी विषय पर यू ट्यूब के एन चन्द्रा पटल पर एक परिचर्चा में हमें भी आमन्त्रित किया गया था | उसी के लिए यह लेख लिखा था | तो सर्वप्रथम वैदिक काल में प्रत्येक क्षेत्र में नारी की स्थिति पर छोटी सी समीक्षा कर ली जाए…

वैदिक और उत्तर वैदिक युग की जब बात करते हैं तो एक ऐसे समाज का चित्र हमारी आँखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है जहाँ महिलाओं को पुरुषों के समान जीवन के हर क्षेत्र में अधिकार प्राप्त थे – चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो, धर्म का, राजनीति का, सम्पत्ति में उत्तराधिकार का क्षेत्र हो – हर क्षेत्र में नारी को पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त थे | और यही कारण है कि वह युग इतिहास का सबसे अधिक आदर्श और प्रगतिशील युग रहा है – स्वर्णिम युग रहा है | इस युग में महिलाओं ने अपने अधिकारों का पूर्णता से उपयोग किया था | अथर्ववेद में कहा गया है “सम्राज्योधि श्वशुरेषु सम्राज्युत देवृषु: नानान्दु: सम्राज्येधि सम्राज्युत श्वश्रुवा:” यानी हे नारी जिस घर में तुम वधु के रूप में जा रही हो वहाँ की तुम साम्राज्ञी हो,

सभा की नेत्री वैदिक कालीन नारी
सभा की नेत्री वैदिक कालीन नारी

तुम्हारे साम्राज्य में परिवार के सभी सदस्य आनन्द से रहें | इसी से स्पष्ट हो जाता ही कि कितनी उन्नत थी नारी की स्थिति उस समय | परिवार मातृ सत्तात्मक हुआ करते थे और इस कारण सभी क़बीलों की मुखिया महिलाएँ ही हुआ करती थीं और क़बीले का सारा प्रशासन सम्हालती थीं | आज भी बहुत से आदिवासी समाजों में स्त्रियों की प्रमुखता परिवार में देखने को मिलती है | सिन्धु घाटी सभ्यता और वैदिक काल के दौरान महिलाओं को समाज में पुरुषों के समान स्थान प्राप्त था | सभा समितियों में वे राजनीतिक रूप से भाग लेती थीं और सार्थक बहस करती थीं | उस समय की कुछ महत्त्वपूर्ण महिलाएँ जैसे घोषा, लोपामुद्रा, सुलभा, मैत्रेयी, गार्गी आदि इसका उदाहरण हैं |

इसके अतिरिक्त कुछ साम्राज्यों में नगरवधू की परम्परा भी थी | कुछ लोगों का मानना है कि इन नगर वधुओं का कार्य केवल नृत्य गान करना और दरबारियों को रिझाना ही हुआ करता था – क्योंकि हिन्दी सिनेमा में इस विषय को इसी रूप में प्रदर्शित किया गया है | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि महिलाओं के सम्मान के लिए नगरवधू की प्रतियोगिताएँ हुआ करती थीं | और ये प्रतियोगिताएँ सरल नहीं होती थीं – इनमें जहाँ इनके सौन्दर्य – इनके नृत्य गान लेखन आदि की परीक्षा ली

नगरवधू
नगरवधू

जाती थी वहीं इनके सामान्य ज्ञान, राजनीति, अर्थ आदि विषयों की कसौटी पर भी इन्हें परखा जाता था | इन नगरवधुओं का सम्मान करना सारी प्रजा और सम्राट से लेकर मन्त्री परिषद तक के लिए आवश्यक हुआ करता था | ये नगर वधुएँ एक ओर जहाँ बहुत अच्छी कलाकार हुआ करती थीं, बहुत अच्छी साहित्यकार हुआ करती थीं, अत्यन्त शिष्टाचारी हुआ करती थीं – यहाँ तक भी विवरण उपलब्ध होते हैं जब इनके पास राजकुमारों तथा अन्य सम्भ्रान्त परिवारों के युवक युवतियों को इनके पास राजनीति, अर्थशास्त्र, तथा शिष्टाचार जैसे विषयों की शिक्षा के लिए भेजा जाता था, वहीं उन्हें राज्य सभाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ करते थे | साथ ही राज्य की विदेश नीतियों में इनका बहुत बड़ा योगदान हुआ करता था और राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में किसी विवाद आदि की स्थिति में इनके साथ भी विचार विमर्श किया जाता था |

सामाजिक व्यवस्था की यदि बात करें तो उस समय बाल विवाह नहीं होते थे – अध्ययन पूर्ण कर लेने के बाद और बहुत सी कलाओं में निपुण हो जाने के बाद –

वैदिक कालीन नारी योद्धा के रूप में
वैदिक कालीन नारी योद्धा के रूप में

जिनमें युद्ध कला भी आती थी – परिपक्व अवस्था में लड़की का विवाह किया जाता था – वह भी उसकी अनुमति से और उसकी पसन्द के युवक के साथ | स्वयंवर इसी प्रथा का एक अंग था | वैदिक सभ्यता यद्यपि पुरुष प्रधान थी फिर भी महिलाएँ सैनिक की भूमिका में होती थीं, राज्य सलाहकार होती थीं, मन्त्री पद पर आसीन होती थीं, नेत्री यानी राजनेता होती थीं, पुरोहित होती थीं | जन प्रतिनिधि के रूप में बहस में हिस्सा लेती थीं | वेद नारी को घर की महारानी कहते हैं, उसे देश का शासक बनने का अधिकार देते हैं, यहाँ तक कि पृथिवी की महारानी यानी साम्राज्ञी मानते हैं | वीरता का जहाँ तक प्रश्न है तो कैकेयी से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है | वीरता के साथ ममत्व भी उनमें कूट कूट कर भरा होता था | भगवती का स्कन्द माता का रूप और आधुनिक समय में रानी लक्ष्मीबाई इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं, जब आतताइयों से लोहा भी लेना है, किन्तु सन्तान को कैसे पीछे छोड़कर जाएँ – चल पड़ीं सन्तान को पीठ से बांधकर शत्रु से लोहा लेने…

उस समय यद्यपि तलाक़ की व्यवस्था नहीं थी फिर भी नारी को इतना अधिकार अवश्य था कि यदि पति असाध्य रोग से पीड़ित है, परस्त्रीगामी है, गुरु अथवा देवता से शापित है, ईर्ष्यालु है अथवा पत्नी के सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता तो पत्नी उस पुरुष का त्याग करके एक वर्ष पश्चात् पुनर्विवाह कर सकती थी | साथ ही जो व्यक्ति अपनी सुशील, मृदुभाषिणी, गुणवती, सन्तानवती पत्नी का त्याग करेगा वह दण्ड का भागी होगा | इसी प्रकार स्त्रियों के साथ यदि कोई व्यभिचार करता है तो उसके लिये भी कठोर दण्ड का विधान था | पर्दा प्रथा उस समय नहीं थी क्योंकि माना जाता था कि पर्दा स्त्री के जीवन की बहुत बड़ी रुकावट होता है | अथर्ववेद और नारदीय मनु स्मृति जैसे ग्रन्थों में इन सन्दर्भों में अनेक श्लोक उपलब्ध होते हैं | उदाहरण के लिए, (श्लोक 9/72, 81) पुरुष या महिला को कपटपूर्ण विवाह या अपमानजनक विवाह से बाहर निकलने और पुनर्विवाह करने की अनुमति देता है और उसके लिए कानूनी साधन भी प्रदान करता है | अथर्ववेद में कई स्थान पर इसका संकेत मिलता है (अथर्व. 7/38/4, 12/4/46, 12/3/52) जिससे स्पष्ट होता है कि वैदिक युग में पुरुषों की भाँति राज्य की सभा व समितियों में स्त्रियाँ भाग ले सकती थीं | स्त्रियों के सभा समितियों में जाकर भाग लेने और बोलने का वर्णन आता है | उस समय की नारी प्रातः उठकर यही कहती थी कि सूर्योदय के साथ मेरा सौभाग्य भी ऊँचा उठता चला जाता है, मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूँ, मैंने अपने सभी शत्रु निःशेष कर दिये हैं | महिलाओं को यज्ञोपवीत धारण करने का भी अधिकार था |

अविवाहित बेटियों की अपने पिता की सम्पत्ति में हिस्सेदारी होती थी | किसी भी पुत्र की अनुपस्थिति में बेटी को अपने पिता की सम्पत्ति में पूर्ण कानूनी अधिकार प्राप्त थे | माँ की सम्पत्ति उनकी मृत्यु के बाद, बेटों और अविवाहित बेटियों में समान रूप से विभाजित होती थी | इन सब उच्चतम सामाजिक व्यवस्थाओं के अतिरिक्त महाभारत में हमें ऐसे उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं जहाँ महिलाएँ सभी प्रकार के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर पुरुषों को न केवल सलाह दिया करती थीं बल्कि उनके सुझावों को माना भी जाता था | कहने का अभिप्राय है कि तत्कालीन समाज के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में महिलाओं की प्रभावी भूमिका हुआ करती थी | मनु ने तो स्पष्ट रूप से स्त्री को राज्य संचालन के योग्य माना है | वेदों में स्त्री के लिए पुरन्धि शब्द उपलब्ध होता है जिसका अर्थ है वह स्त्री जो नगर की रक्षा और पोषण करे | “पुरं नगरं दधातीति पुरन्धि” | नगरों का प्रबन्धन, आन्तरिक सुरक्षा और साफ़ सफाई की व्यवस्था स्त्रियों के ही हाथों में होती थी |

वास्तव में किसी भी स्वस्थ और विकसित समाज के निर्माण और विकास में स्त्री पुरुष की सामान भागीदारी अत्यन्त आवश्यक है | राजनीतिक चेतना के विकास दिशा के सन्दर्भ में यही बात कही जाएगी | महिलाओं में राजनीतिक मुद्दों के प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़े, सक्रियता बढ़े, साथ ही विभिन्न संगठनों, निकायों और इकाइयों के माध्यम से वे इन समस्त मुद्दों को सामाजिक पटल पर रखने की तथा समस्याओं के समाधान की सामर्थ्य होनी आवश्यक है | और हमारे वैदिक तथा उत्तर वैदिक काल में ऐसी ही व्यवस्थाएँ थीं | फिर क्या कारण हुआ कि धीरे धीरे ये सब समाप्त होता चला गया और स्थिति यहाँ तक आ गई कि संसद में महिला आरक्षण विधेयक सरकार को लेकर आना पड़ा |

इसके लिए हमें काफ़ी पीछे जाना होगा | सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी के मध्य का समय जिसे मध्य युग माना जाता है उस समय बहुत बड़ी उथल पुथल हुई और महिलाओं से उनके अधिकार धीरे धीरे छीन लिए गए | समाज पितृ सत्तात्मक होता चला गया और नारी पुरुष के आधीन होने को विवश हो गई | दरबारी मानसिकता के कारण इस युग का आरम्भ ही इस अवधारणा के साथ हुआ कि नारी नरक का द्वार है | बचपन में पिता, युवावस्था में पति और उसके बाद पुत्रों के आधीन रहने को विवश कर दी गई | घर की चारदीवारी में क़ैद कर दी गई | बाल विवाह होने लगे | शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत अधिकार भी उससे छीन लिए गए | यद्यपि इस सबके लिए ज़िम्मेदार विदेशी आक्रमण और गुलामी थे | हालाँकि बीच बीच में समाज सुधार के प्रयासों के चलते नारी की स्थिति में सुधार के भी प्रयास किये जाते रहे – लेकिन अंग्रेजों का सहयोग नहीं मिला क्योंकि उनके लिए भारतीय महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखना उनके पक्ष में जाता था | जिस देश की नारी सशक्त नहीं होगी वह देश कभी न तो आज़ादी की कल्पना कर सकता है न ही तरक्की कर सकता है | रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती जैसी असंख्य महिलाओं के शौर्य की आँधी को देखकर अंग्रेज़ और भी अधिक डरे हुए थे | महारानी

महारानी अहिल्याबाई होल्कर
महारानी अहिल्याबाई होल्कर

अहिल्याबाई होल्कर जैसी महिलाओं ने न केवल राज्य की बागडोर सम्हाली बल्कि महिला शिक्षा, महिला जागृति और महिला उद्धार की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दिया | तो अंग्रेजों ने नारी सुधार के कार्यों को होने ही नहीं दिया | तो फिर भला राजनीतिक परिदृश्य में नारी को इतना अधिक महत्त्व कैसे प्राप्त होता | हालाँकि कुछ महिलाएँ विशेष रूप से प्रभावशाली रहीं जिनमें श्रीमती इन्दिरा गाँधी का नाम प्रमुखता से लिया जाएगा | उनके अतिरिक्त मारग्रेट अल्वा, श्रीमती सुषमा स्वराज जैसी बहुत सी महिलाएँ प्रभावशाली पदों पर रहीं | श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल देश की राष्ट्रपति रहीं और आज भी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति के रूप में देश की प्रगति में योगदान दे रही हैं तो श्रीमती स्मृति ईरानी जैसी कर्मठ सांसद भी हैं | किन्तु ये सब अपवाद स्वरूप ही रहा | साथ ही, जिस देश की लड़कियाँ पत्रकार हैं तो डाक्टर भी हैं, खगोलीय रहस्यों का पता लगाने अन्तरिक्ष में भी जा रही हैं तो पुलिस में भी बड़े बड़े ओहदों से लेकर सिपाही तक की भूमिका का निर्वाह कर रही हैं – उस देश में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम होना वास्तव में चिन्ता का विषय है | एक निश्चित संख्या में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी होनी चाहिए इस ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया | किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि योग्य महिलाएँ ही राजनीति में आएँ |

हालाँकि आज भी कुछ लोग इसके विरोध में खड़े हैं | लेकिन उनका कुछ नहीं किया जा सकता जिन्होंने केवल विरोध की ही ठान ली है – हर अच्छे कार्य का उन्हें विरोध करना ही है | वेदों और मनु स्मृति का अपनी सुविधा और अपने स्वार्थ के अनुसार मोड़ तोड़ कर अनुवाद करके उन्हें दलित और महिला विरोधी कहने वालों ने ही वास्तव में बहुत अधिक क्षति हिन्दू समाज को पहुँचाई है और अब भी पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं | ऐसे लोगों से और आशा भी क्या की जा सकती है जो भगवान श्री राम पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने एक धोबी के लांछन पर गर्भवती पत्नी को वन में छोड़ दिया था | सत्य है कि कुछ प्रजा जनों ने माता सीता के चरित्र पर सन्देह किया था, किन्तु जिन श्री राम ने माता कैकेयी को उनके अपराध के लिए क्षमा कर दिया, मन्थरा को क्षमादान दिया, स्वयं लंका में ही माता सीता के सतीत्व का प्रमाण सबको दिया – एक राज्य का संचालक होने के कारण जन साधारण के प्रति यह उनका कर्तव्य भी था – वही क्या इतना सब होने के बाद भी अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देते ? इन लोगों को वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड के बयालीसवें सर्ग के तीस से पैंतीस तक के श्लोक पढ़ने की आवश्यकता है जिनमें स्पष्ट लिखा है कि जब श्री राम ने सीता जी से पूछा कि इस समय तुम गर्भ से हो और मैं तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण करना चाहता हूँ – तो बताओ तुम क्या चाहती हो, इस पर सीता जी ने कहा की मैं पवित्र तपोवनों में रहकर यशस्वी ऋषि मुनियों की सेवा करना चाहती हूँ ताकि मेरी सन्तान क्षत्रिय तेज के साथ ब्रह्म तेज से भी युक्त हों | सीता जी स्वेच्छा से वनों में गई थीं, श्री राम ने उन्हें निष्कासित नहीं किया था | इसी तरह श्री कृष्ण पर आरोप लगाया जाता है कि उनकी सोलह हज़ार रानियाँ थीं, जबकि सत्य यह है कि जरासंध द्वारा बलपूर्वक कैद करके रखी गई सोलह हज़ार निराश्रित स्त्रियों को समाज में सर उठाकर जीने का अधिकार देने के लिए उस युग पुरुष ने ऐसा क़दम उठाया था |

तो अन्त में बस यही कहेंगे कि जिस समाज में नैतिक मूल्यों का इतना ह्रास हो चुका हो, जहाँ सनातन को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञाएँ की जाती हों, वहाँ तो फिर इस तरह के विधेयक लाकर ही विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है | एक बार पुनः इस विधेयक के पास हो जाने पर सभी महिलाओं को बधाई…

श्री गणपत्यथर्वशीर्ष का हिन्दी पद्य भावानुवाद

श्री गणपत्यथर्वशीर्ष का हिन्दी पद्य भावानुवाद

हम सभी जानते हैं कि वेद समस्त प्रकार के ज्ञाताज्ञात ज्ञान विज्ञान के स्रोत हैं | मानव मात्र के कल्याण के लिए सूक्त रूप में मन्त्रों के समूह हैं | उन्हीं सूक्तों – अर्थात उत्तम विधि से कही गई उक्तियाँ – में गणपति की प्रार्थना के लिए श्री गणपति सूक्त भी है – जिसे श्री गणपत्यथर्व सूक्त कहा जाता है… वर्तमान समय में मनुष्य की व्यस्तताओं में – उसकी जीवन यापन के संघर्ष की भाग दौड़ में वृद्धि के कारण बहुत सी विघ्न बाधाएँ भी उसके मार्ग में उपस्थित हो जाती हैं | श्री गणपत्यथर्व सूक्त के श्रवण अथवा पठान से समस्त विघ्न बाधाएँ दूर हो जाती हैं | वेदों में इन्हें ब्रह्मणस्पति कहा गया है | “ब्रह्मणस्पति” के रूप में वे ही सर्वज्ञाननिधि तथा समस्त वाङ्मय के अधिष्ठाता हैं |

विघ्नेश विधिमार्तण्डचन्द्रेन्द्रोपेन्द्रवन्दित |

नमो गणपते तुभ्यं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पते ||

ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र तथा विष्णु के द्वारा वन्दित हे विघ्नेश गणपति ! मन्त्रों के स्वामी ब्रह्मणस्पति ! आपको नमस्कार है |

सिद्धिबुद्धिपति वन्दे ब्रह्मणस्पतिसंज्ञितम् |

माङ्गल्येशं सर्वपूज्यं विघ्नानां नायकं परम् ||

समस्त मंगलों के स्वामी, सभी के परम पूज्य, सकल विघ्नों के परम नायक, ‘ब्रह्मणस्पति’ नाम से प्रसिद्ध सिद्धि-बुद्धि के पति गणपति को नमस्कार है |

समस्त मांगलिक कार्यों में गणपति-पूजन के बाद प्रार्थना के रूप में श्री गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ किया जाता है | तो सर्वप्रथम अथर्वशीर्ष के विषय में ही बात करते हैं | अथर्वशीर्ष शब्द अ+थर्व+शीर्ष को मिलाकर बना है | जिनमें अ अक्षर प्रतीक है अभाव का, थर्व का अर्थ है चंचल तथा शीर्ष का अर्थ होता है मस्तिष्क अर्थात मन | अर्थात जिस सूक्त का पाठ करके मन की चंचलता का अभाव हो जाए वह अथर्वशीर्ष है | मन में बहुत शक्ति होती है | वही समस्त जगत का संचालन करता है | वही समस्त के विषय में संकल्प विकल्प करता है – मनन करता है | मन का समाहित हो जाना ही परम योग कहलाता है | श्री गणपत्यथर्वशीर्ष के श्रवण पठान के द्वारा मन की क्रियाओं को शान्त करने का प्रयास किया जाता है |

अथर्वशीर्ष में दस ऋचाओं में मूलाधार चक्र में गणपति का निवास बताया गया है | मूलाधार चक्र ॐकारमय आत्मा का निवास भी माना जाता है | ध्यान केन्द्रित करने के अभ्यास का प्रथम सोपान भी यही है – जहाँ से आरम्भ करके समस्त चक्रों को शान्त करते हुए अन्त में सहस्रार चक्र में प्रविष्ट होना ध्यान का अन्तिम सोपान होता है |

आज श्री गणेश चतुर्थी के अवसर पर प्रस्तुत है इसी श्री गणपत्यथर्वशीर्ष का हिन्दी पद्यभावानुवाद…

ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि | त्वमेव केवलं कर्तासि | त्वमेव केवलं धर्तासि | त्वमेव केवलं हर्तासि | त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि | त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ||1||

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि ||2||

अव त्वं माम् | अव वक्तारम् | अव श्रोतारम् | अव दातारम् | अव धातारम् | अव अनूचानम् | अव शिष्यम् | अव पश्चातात् | अव पुरस्तात् | अव वोत्तरात्तात् | अव दक्षिणात्तात् | अव चोर्ध्वात्तात् || अवाधरात्तात् | सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ||3|| इत्यादि इत्यादि…

पद्यभावानुवाद…

अष्टाक्षर है मन्त्र तुम्हारा, गं गणपतये नमो नम:

दूर्वांकुर अर्पित करते हैं, नमन गणपति नमो नमः…

तुम ही प्रणवाक्षर हो, तत्व रूप में भी तो तुम ही हो

तुम्हीं जगत के कर्ता धर्ता, संहर्ता भी तुम ही हो

विश्वरूप तुम, नित्य आत्मा, नमन गणपति नमो नमः…

रक्षा करो जगत की भगवन, श्रोता के रक्षक तुम हो

धाता दाता और उपदेशक, शिष्यों के रक्षक तुम हो

हरेक दिशा में अभयदान दो, नमन गणपति नमो नमः…

तुम्हीं वाङ्‍मय, तुम ही चिन्मय, तुम्हीं ब्रह्म आनन्दधन हो

त्रिगुणातीत तुम्हीं हो, कालत्रयातीत भी तुम ही हो

मूलाधारस्थित शक्ति तुम, नमन गणपति नमो नमः…

तीन देह से ऊपर हो तुम, ध्यान योगियों का तुम हो

तुम्हीं ज्ञान विज्ञान शिरोमणि, हर पुरुषार्थ के दाता हो

ज्ञान ज्योति जग में फैला दो, नमन गणपति नमो नमः…

पञ्चतत्व में रूप तुम्हारा, वाणी चारों तुम ही हो

जागृति स्वप्न सुषुप्ति ये चारों अवस्थाएँ भी तुम ही हो

लक्ष्य ध्यान का भी तुम ही हो, नमन गणपति नमो नमः…

सारे देव समाए तुममें, भूर्भुवः स्वः तुम ही हो

वर्णाक्षर तुम, और सकल ये अलंकार स्वर तुम ही हो

तुम्हीं नाद सन्धान संहिता, नमन गणपति नमो नमः…

एकदन्त तुम, वक्रतुण्ड तुम, लम्बोदर, मूषकध्वज हो

चतुर्हस्त पाशांकुशधारी, शूपकर्ण भी तुम ही हो

भक्तों का परित्राण करो तुम, नमन गणपति नमो नमः…

तुम्हीं व्रातपति, प्रमथपति तुम, विघ्न विनाशक तुम ही हो

साधक योगी को वर देते, वरदमूर्ति भी तुम ही हो

ऋद्धि सिद्धि बुद्धि के दाता, नमन गणपति नमो नमः…

रक्षा बन्धन 2023 का मुहूर्त

रक्षा बन्धन 2023 का मुहूर्त

भारत में पर्व-त्यौहारों का विशेष महत्व है । कोई न कोई त्यौहार साल भर लगा ही रहता है | किन्तु श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला रक्षा बन्धन का पर्व एक ऐसा पर्व है जिसकी प्रतीक्षा हर कोई बड़ी उत्कण्ठा के साथ करता है | श्रावण मास की पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर बहनें भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधती हैं और भाई बहन एक दूसरे को मिठाई खिलते हैं | पारम्परिक रूप से अपराह्न में रक्षा सूत्र निबद्ध किया जाता है, और यदि अपराह्न में सम्भव न हो सके तो फिर प्रदोषकाल में रक्षा सूत्र निबद्ध किया जाता है | किन्तु सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है भद्रा काल में रक्षा बन्धन नहीं किया जाना चाहिए – इस समय को शास्त्रों में अशुभ माना गया है |

इस वर्ष रक्षाबन्धन 30 अगस्त बुधवार को प्रातः 10:59 के लगभग अतिगण्ड योग और विष्टि करण (भद्रा) में पूर्णिमा तिथि का आगमन होगा जो 31 तारीख को प्रातः 7:05 तक रहेगी | साथ ही 30 तारीख को रात्रि नौ बजकर एक मिनट तक भद्रा

रक्षा बन्धन
रक्षा बन्धन

रहेगी – जिसका वास पृथिवी पर है, अतः उसके बाद ही रक्षा बन्धन का मुहूर्त आरम्भ होगा | 30 अगस्त और 31 अगस्त दोनों दिन भाइयों की कलाई पर रक्षा सूत्र निबद्ध किया जा सकता है, किन्तु 30 अगस्त को भद्रा की समाप्ति यानी नौ बजकर एक मिनट के बाद ही रक्षा सूत्र निबद्ध किया जा सकेगा | कुछ लोगों का यह प्रश्न भी है कि 31अगस्त को तो प्रातः सात बजकर पाँच मिनट तक ही पूर्णिमा तिथि है तो उस दिन कैसे राखी बाँधी जा सकती है | तो उन लोगों के लिए यही उत्तर है कि पूर्णिमा के व्रत का पारायण तो रात्रि में पूर्णिमा तिथि होने पर ही किया जाता है और इसीलिए चतुर्दशी तिथि में प्रायः यह व्रत किया जाता है | किन्तु, अन्य पर्वों के लिए उदया तिथि भी उतनी ही मान्य होती है | अतः तीस अगस्त की रात को नौ बजकर एक मिनट से लेकर 31 अगस्त को दिन में कभी भी राखी बाँधी जा सकती है | रक्षा सूत्र जहाँ निबद्ध हो गया वहाँ फिर किसी भी प्रकार के अपशकुन के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं रह जाता | सभी को रक्षा बन्धन की अग्रिम रूप से अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ…

हमारा तो मानना है कि जहाँ रक्षा सूत्र निबद्ध हो गया वहाँ फिर किसी भी तरह के अपशकुन का प्रश्न ही कहाँ रह गया… क्योंकि जो रक्षा सूत्र बाँधता है और जिसकी कलाई पर यह सूत्र निबद्ध किया जाता है – दोनों की ही रक्षा का भाव और संकल्प इस पर्व में निहित होता है | रक्षा सूत्र निबद्ध करने के लिए हमारे विचार से किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए |

रक्षा बन्धन – जिसे लोकभाषाओं में सलूनो, राखी और श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने के कारण श्रावणी भी कहा जाता है – हिन्दुओं का एक लोकप्रिय त्यौहार है | इस दिन बहनें अपने भाई के दाहिने हाथ पर रक्षा सूत्र बाँधकर उसकी दीर्घायु की कामना करती हैं | जिसके बदले में भाई उनकी रक्षा का वचन देता है | सगे भाई बहन के अतिरिक्त अन्य भी अनेक सम्बन्ध इस भावनात्मक सूत्र के साथ बंधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से भी ऊपर होते हैं | कहने का अभिप्राय यह है की यह पर्व केवल भाई बहन के ही रिश्तों को मज़बूती नहीं प्रदान करता वरन जिसकी कलाई पर भी यह सूत्र बाँध दिया जाता है उसी के साथ सम्बन्धों में माधुर्य और प्रगाढ़ता घुल जाती है | यही कारण है कि इस अवसर पर केवल भाई बहनों के मध्य ही यह त्यौहार नहीं मनाया जाता अपितु गुरु भी शिष्य को रक्षा सूत्र बाँधता है, मित्र भी एक दूसरे को रक्षा सूत्र बांधते हैं | भारत में जिस समय गुरुकुल प्रणाली थी और शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे उस समय अध्ययन के सम्पन्न हो जाने पर शिष्य गुरु से आशीर्वाद लेने के लिये उनके हाथ पर रक्षा सूत्र बाँधते थे तो गुरु इस आशय से शिष्य के हाथ में इस सूत्र को बाँधते थे कि उन्होंने गुरु से जो ज्ञान प्राप्त किया है सामाजिक जीवन में उस ज्ञान का वे सदुपयोग करें ताकि गुरुओं का मस्तक गर्व से ऊँचा रहे | आज भी इस परम्परा का निर्वाह धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है | पुत्री भी पिता को राखी बांधती है कई जगहों पर पिता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये | वन संरक्षण के लिये वृक्षों को भी राखी बाँधी जाती है |

इस दिन यजुर्वेदीय द्विजों का उपाकर्म होता है | उत्सर्जन, स्नान विधि, ऋषि तर्पण आदि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | प्राचीन काल में इसी दिन से वेदों का अध्ययन आरम्भ करने की प्रथा थी | विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया

उपाकर्म और अवनि अवित्तम
उपाकर्म और अवनि अवित्तम

है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था | हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है | ऋग्वेदीय उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा से एक दिन पहले सम्पन्न किया जाता है | जबकि सामवेदीय उपाकर्म श्रावण अमावस्या के दूसरे दिन प्रतिपदा तिथि में किया जाता है | इस वर्ष ऋग्वेदीय उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा से पहले दिन अर्थात 29 अगस्त को होगा तथा यजुर्वेदीय उपाकर्म 30 अगस्त को होगा | उपाकर्म का शाब्दिक अर्थ है “नवीन आरम्भ” | इस दिन ब्राह्मण लोग पवित्र नदी में स्नान करके नवीन आरम्भ अथवा नई शुरुआत के प्रतीक के रूप में नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं | इसी दिन अमरनाथ यात्रा भी सम्पन्न होती है | कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग पूरा होता है |

अलग राज्यों में इस पर्व को अलग अलग नामों से जाना जाता है – जैसे उड़ीसा में यह पर्व घाम पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है, तो उत्तराँचल में जन्यो पुन्यु (जनेऊ पुण्य) के नाम से, तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा बिहार में कजरी पूर्णिमा के नाम से इस पर्व को मनाते हैं | वहाँ तो श्रावण अमावस्या के बाद से ही यह पर्व आरम्भ हो जाता है और नौवें दिन कजरी नवमी को पुत्रवती महिलाओं द्वारा कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है तथा अनेक प्रकार से पूजा अर्चना की जाती है जो कजरी पूर्णिमा तक चलती है | उत्तरांचल के चम्पावत जिले के देवीधूरा में इस दिन बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय

बग्वाल
बग्वाल

भाषा में बग्वाल कहते हैं | इस युद्ध में घायल होने वाला योद्धा भाग्यवान माना जाता है और युद्ध के इस आयोजन की समाप्ति पर पुरोहित पीले वस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में आकर योद्धाओं पर पुष्प व अक्षत् की वर्षा कर उन्हें आशीर्वाद देते हैं | इसके बाद योद्धाओं का मिलन समारोह होता है | गुजरात में इस दिन शंकर भगवान की पूजा की जाती है |

महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा और श्रावणी दोनों कहा जाता है तथा समुद्र के तट पर जाकर स्नानादि के पश्चात् वरुण देव की पूजा करके नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधा जाता है | रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है | इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और यह राखी केवल भगवान को बांधी जाती है | चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है | इस दिन राजस्थान में कई स्थानों पर दोपहर में गोबर मिट्टी और भस्म से स्नान करके शरीर को शुद्ध किया जाता है और फिर अरुंधती, गणपति तथा सप्तर्षियों की पूजा के लिये वेदी बनाकर मंत्रोच्चार के साथ इनकी पूजा

नारिकेल पूर्णिमा
नारिकेल पूर्णिमा

की जाति है | पितरों का तर्पण किया जाता है | उसके बाद घर आकर यज्ञ आदि के बाद राखी बाँधी जाती है | तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा तथा अन्य दक्षिण भारतीय प्रदेशों में यह पर्व “अवनि अवित्तम” के नाम से जाना जाता है तथा वहाँ भी नदी अथवा समुद्र के तट पर जाकर स्नानादि के पश्चात् ऋषियों का तर्पण करके नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | कहने का तात्पर्य यह है की रक्षा बन्धन के साथ साथ इस दिन देश के लगभग सभी प्रान्तों में यज्ञोपवीत धारण करने वाले द्विज लगभग एक ही रूप में उपाकर्म भी करते हैं |

अतः, एक बार पुनः रक्षा बन्धन के इस प्रेम और उल्लास से पूर्ण पर्व की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ… इस आशा और विश्वास के साथ समाज में – देश में – संसार में – परस्पर ईर्ष्या और द्वेष को भुलाकर हर कोई पारस्परिक सद्भावना और भाईचारे के मार्ग को अपनाएँगे… साथ ही पौराणिक काल की भाँति वृक्षों को भी रक्षा सूत्र बाँधकर उनकी सुरक्षा का संकल्प लेंगे… ताकि हमारा पर्यावरण स्वस्थ बना रहे…

 

श्रावण शुक्ल पञ्चमी और षष्ठी

श्रावण शुक्ल पञ्चमी और षष्ठी

नाग और गरुड़ पञ्चमी तथा कल्कि जयन्ती

श्रावण शुक्ल पञ्चमी नाग पञ्चमी और गरुड़ पञ्चमी के नाम से जानी जाती है | सर्प और गरुड़ दोनों ही महर्षि कश्यप की दो पत्नियों कद्रू और विनता की सन्तानें थीं जो दोनों ही दक्ष प्रजापति की पुत्रियाँ थीं | अब आप लोग सोचेंगे कि नाग और गरुड़ तो परस्पर शत्रु हैं फिर एक ही तिथि दोनों के लिए समर्पित कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर है कि आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र में कई स्थानों पर इस दिन गरुड़ देव की पूजा की जाती है और अन्य स्थानों पर नाग देवता की पूजा का चलन है | भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ हर जड़ चेतन में आत्मा के दर्शन किये जाते हैं और उनको किसी प्रकार की कोई हानि न पहुँचे इस भावना के साथ उनकी पूजा अर्चना की जाती है |

सबसे पहले उत्तर भारत में सर्वाधिक प्रचलित नाग पञ्चमी – इस दिन भगवान शिव के साथ साथ उनके कण्ठहार नागों की भी पूजा की जाती है | है न कितनी विचित्र बात कि जिन सर्पों को देखते ही लोग भयभीत हो जाते हैं उन्हीं की पूजा अर्चना भी की जाती है | एक कहावत है – भय बिन होत न प्रीत | तो यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो सर्पों के भय के कारण ही नाग देवता की पूजा आरम्भ हुई होगी | पौराणिक दृष्टि से – भविष्य पुराण और दूसरे अन्य पुराणों में एक ओर नाग को देव माना गया है तो दूसरी ओर भगवान शंकर के गले का हार होने के साथ ही भगवान विष्णु की शैया भी हैं और समुद्र मन्थन के समय मथानी बने मन्दराचल पर्वत को खींचने के लिए वासुकि नाग रज्जु भी बन गए थे | कहने का अभिप्राय है कैसी भी परिस्थिति हो – नाग सदा भला ही करते हैं | पुराणों में तो नाग लोक की चर्चा भी आती है |

भविष्य पुराण में एक कथा आती है कि राजा परीक्षित तक्षक नाग के डसने पर स्वर्गवासी हुए थे इस कारण उनके पुत्र जनमेजय नागों से क्रोधित थे और समूचे नाग

नाग पञ्चमी
नाग पञ्चमी

वंश को ही नष्ट कर देना चाहते थे | इसके लिए उन्होंने असाध्य तप और यज्ञ आरम्भ कर दिया | तक्षक को जब ये पता चला तो वो अपने वंश के साथ पाताल में जा छिपा | लेकिन जनमेजय का यज्ञ इतना शक्तिशाली था कि नाग स्वयं ही उस ओर खिंचे चले आ रहे थे अपने प्राणों की आहुति देने के लिए | तब तक्षक ने सभी देवताओं से प्रार्थना की कि किसी तरह उन्हें बचा लिया जाए | तब ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान दिया कि ऋषि जरत्कारू और नाग देवी मनसा के यहाँ उत्पन्न पुत्र आस्तिक तक्षक के प्राणों की रक्षा करेगा | ऐसा ही हुआ | आस्तिक ने किसी प्रकार जनमेजय का यज्ञ समाप्त कराके नाग वंश और तक्षक के प्राण बचाए |

ऐसी मान्यता है कि जिस दिन ब्रह्मा जी ने तक्षक को वरदान दिया था उस दिन भी पञ्चमी तिथि थी और जिस दिन तक्षक की रक्षा हुई उस दिन भी पञ्चमी तिथि ही थी | यही कारण है कि पञ्चमी तिथि नाग देवता के लिए समर्पित होती है | श्रावण माह की पञ्चमी का विशेष महत्त्व इसलिए भी हो जाता है कि वर्षा के कारण साँप अधिक निकलते हैं – तो यदि उनकी पूजा करेंगे तो उनका वध करने की भावना ही मन में नहीं आएगी | क्योंकि साँपों के काटने से अधिक लोग नहीं मरते जितना उनके भय से मृत्यु होती है | इस प्रकार से देखा जाए तो यह पर्व प्रकृति के एक विशेष प्राणी की रक्षा भी करता है और इस प्रकार से प्रकृति की ही रक्षा करने का प्रयास किया जाता है |

अब गरुड़ पञ्चमी – गरुड़ को भगवान विष्णु का वाहन माना जाता है और नाग पञ्चमी की ही भाँति इस व्रत को भी महिलाएँ अपनी सन्तान की मंगल कामना तथा सुखद वैवाहिक जीवन के लिए ही करती हैं | गरुड़ के हृदय में अपनी माँ विनिता के लिए जो प्रेम स्नेह और समर्पण की भावना थी और जिस प्रकार उन्होंने अपनी माता का श्राप से उद्धार कराया उसी के कारण उन्हें मान दिया जाता है और उनकी पूजा अर्चना की जाती है | गरुड़ की इसी मातृ भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उन्हें अपना वाहन बनाया था | गरुड़ को पक्षिराज भी कहा गया है | गरुड़ को अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त हैं और उनकी पूजा करने वालों को उनकी प्राप्ति भी हो सकती है ऐसी भी मान्यता है | साथ ही, जिन लोगों की कुण्डली में काल सर्प दोष होता है उनके लिए भी गरुड़ की

गरुड़ पञ्चमी
गरुड़ पञ्चमी

उपासना का सुझाव दिया जाता है |

गरुड़ को भगवन विष्णु का वाहन मानने के पीछे एक बहुत ही अच्छा आध्यात्मिक तर्क भी है | ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति सदाचार और धर्म के मार्ग से नहीं डिगता भक्ति और ज्ञान उसके दो पंखों के समान हो जाते हैं, और गरुड़ की जो पुच्छ होती है वह ऐसी शक्ति है जो व्यक्ति को कर्म योग की ओर अग्रसर करती है | और उस सबसे भी ऊपर गरुड़ पर विराजमान भगवान विष्णु – व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य – परमात्मा से साक्षात्कार | इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि मनुष्य बुद्धि के द्वारा ज्ञानार्जन करता है, उसी ज्ञान के माध्यम से शरीर के द्वारा समस्त सांसारिक सुखों की प्राप्ति का उपाय करता है तथा मन के द्वारा उन समस्त सांसारिक सुखों का उपभोग करता है | इस प्रकार बुद्धि और कर्म तथा उनके द्वारा उपलब्ध सांसारिक सुख सब एक दूसरे का परिणाम ही होते हैं | इस प्रकार मन और बुद्धि व्यक्ति के दो पंख हो गए जो उसे कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं | यदि व्यक्ति साधना करे तो अपने कर्म करने वाली शरीर रूपी पुच्छ से बुद्धि और मन अर्थात ज्ञान और भौतिक सुखों में सन्तुलन स्थापित करके सबसे ऊपर विराजमान ईश्वर प्राप्ति की दिशा में प्रयासरत हो सकता है |

इस वर्ष सोमवार 21 अगस्त को नाग और गरुड़ पञ्चमी के पर्व होंगे और उसके दूसरे दिन यानी 22 अगस्त को कल्कि जयन्ती है |

कल्कि अवतार की बात करें तो पुराणों के अनुसार जब कलियुग अपने चरम पर होगा तब श्रावण शुक्ल षष्ठी को कलियुग का विनाश करके सृष्टि की एक अन्य नवीन रचना रचने के लिए – अर्थात कलियुग और सतयुग के सन्धिकाल में कल्कि भगवान के रूप में भगवान विष्णु अवतरित होंगे और इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण के प्रस्थान

कल्कि जयन्ती
कल्कि जयन्ती

के बाद आरम्भ हुए कलियुग का अन्त होगा | यहाँ एक विशेष रूप से ध्यान देने की बात ये है कि हिन्दू धर्म में उन अवतारों के जन्मदिन मनाए जाते हैं जो पूर्व में अवतरित हो चुके हैं, किन्तु भगवान विष्णु का कल्कि के रूप में अवतार ऐसा प्रथम अवतार है जिसकी जयन्ती अवतार से पूर्व ही प्रत्येक वर्ष मनाई जाती है | श्रीमद्भागवत महापुराण के बारहवें स्कन्द के द्वितीय अध्याय के सोलहवें श्लोक से लेकर अध्याय के अन्त तक कल्कि अवतार तथा उसके शुभ परिणामों के विषय में ही शुकदेव ने परीक्षित को बताया है… जिसमें कल्कि अवतार कहाँ तथा किस दम्पति के घर में होगा इसके विषय में भी बताया गया है…

इत्थं कलौ गतप्राये जने तु खरधर्मिणि |
धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवान् अवतरिष्यति |||
चराचर गुरोर्विष्णोः ईश्वरस्याखिलात्मनः ।
धर्मत्राणाय साधूनां जन्म कर्मापनुत्तये ||
संभलग्राम मुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः |
भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति ||

यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती |
एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम् ||

इन श्लोकों का अभिप्राय यही है कि कलियुग जब अपने चरम पर होगा तब धर्म की रक्षा के लिए सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु कल्कि के रूप में अवतरित होंगे | उस समय गुरु, सूर्य और चन्द्रमा तीनों एक साथ पुष्य नक्षत्र पर भ्रमण कर रहे होंगे | इस समस्त व्याख्या का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति का सबसे बड़ा धर्म होता है उसके कर्तव्य कर्मों का पूर्ण निष्ठा से निर्वाह करना | जब हम अपने उत्तरदायित्वों के पूर्ण निष्ठा से निर्वाह नहीं कर पाते और अपने मार्ग से भटक जाते हैं वही समय कलियुग कहलाता है और उसी का अन्त करने के लिए भगवान को कल्कि के रूप में अवतरित होना पड़ता है |

अस्तु, हम सभी अपने अपने कर्तव्य कर्मों का निर्वाह करते हुए धर्म के मार्ग पर अग्रसर रहें… समस्त जीवों में अपनी ही आत्मा के दर्शन करते हुए किसी को भी किसी प्रकार की हानि पहुँचाए बिना तथा किसी भी प्रकार के भय से मुक्त रहते हुए अपने लक्ष्य के प्रति अग्रसर रहें… इसी भावना से सभी को नाग और गरुड़ पञ्चमी तथा कल्कि जयन्ती की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ…