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अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस

नमस्कार ! हम सभी जानते हैं कि हमारे माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयासों के फलस्वरूप हर वर्ष 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस का आयोजन किया जाता है समस्त विश्व में | तो सबसे पहले बात करते हैं योग शब्द की | ‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी धातु में घञ् प्रत्यय लगाकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है समाधि अर्थात चित्त वृत्तियों का निरोध | इसके अतिरिक्त “युजिर योग” तथा “युज संयमने” रूप में भी इसका प्रयोग होता है जिसका अर्थ होता है क्रमशः योगफल अर्थात गुणन अथवा जोड़ तथा नियमन | श्रीमद्भगवद्गीता में कथन है “योगः कर्मसु कौशलम्” अर्थात कर्म में कुशलता ही योग है | इसके अतिरिक्त विविध दर्शनों में दार्शनिक – आध्यात्मिक आदि पृथक पृथक अर्थों में योग शब्द का प्रयोग हुआ है | पतञ्जलि योगसूत्र में, कहा गया है “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है |

किन्तु चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम तो चित्त है | पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का निःशेष हो जाना | उस स्थिति में भगवान श्रीकृष्ण के कथन “योगस्थः कुरु कर्माणि” अर्थात योग में स्थित होकर कर्म करो – इस वाक्य का क्या अर्थ रह जाएगा | इस प्रकार विविध दर्शनों के आधार पर – अध्यात्मिक दृष्टिकोण से – योग की अनेकानेक परिभाषाएँ उपलब्ध होती हैं – जो सब एक विशद विवेचना का विषय है | यहाँ हम आधुनिक सन्दर्भों योग के विषय में बात कर रहे हैं |

योग के प्रामाणिक ग्रन्थों में चार प्रकार के योगों का वर्णन उपलब्ध होता है : मन्त्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः | चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता 5/11) अर्थात मन्त्र योग,, हठ योग, लय योग और राजयोग | महर्षि पतंजलि ने पातंजल योग दर्शन, “अथयोग अनुषासनम्” शब्द से प्रारम्भ किया है इससे स्पष्ट है कि उन्होंने जीवन के आदर्शों में अनुशासन को महत्व दिया है | पतंजलि योग का विकास, आठ क्रमों में होता है इसलिए इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है – जिसके अष्ट अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि | और इन आठों अंगों का अभ्यास करने से पूर्व साधक के लिए षट्कर्म करना अतिआवश्यक होता है – जो हैं – नेति, नौलि, धौति, वस्ति, कपाल भाति और त्राटक |

महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में जिस योग की व्याख्या की है वह है राजयोग | इसमें समस्त मार्गों की शिक्षाएँ समाविष्ट हैं और यही कारण है कि किसी भी स्वभाव और किसी भी परिवेश के व्यक्ति इनका अभ्यास कर सकते हैं | यह तीन दिशाओं में कार्य करता है – शारीरिक आध्यात्मिक और मानसिक और इस प्रकार साधक पूर्ण आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता जाता है | यह एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक अनुशासन है जो मनुष्य को चरम सत्य की ओर ले जाता है | यही कारण है कि राजयोग उस आधुनिक समाज के लिए भी पूर्ण रूप से अनुकूल है जिसका धर्म ही हर बात में सन्देह करना बन गया है | इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है क्योंकि इसके आठ चरण अनुशासन के व्यवस्थित मार्ग की खोज करते हैं | ये आठ चरण हैं – यम और नियम  – जो कायिक वाचिक तथा मानसिक संयम के लिए योग के नैतिक नियमों का निर्माण करते हैं तथा व्यक्ति के मानसिक व्यवहार को उचित रूप प्रदान करने में सहायक होते हैं | आसनों का उद्देश्य है शारीरिक स्वास्थ्य तथा शरीर को स्थिरता प्रदान करना | प्राणायाम प्राण अर्थात जीवनी शक्ति को नियन्त्रित करने की प्रक्रिया है और यह नियन्त्रण प्राण के सर्वाधिक स्थूल स्वरूप श्वास पर नियन्त्रण के द्वारा प्राप्त होता है | मन को नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक है सर्वप्रथम श्वास को नियन्त्रित किया जाए | प्रत्याहार का अर्थ है इन्द्रिय निग्रह – जो मानसिक शान्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है | ये पाँचों अंग बाह्य अंग कहलाते हैं |

राजयोग के आन्तरिक अंगों का लक्ष्य है मन को अनुशासित करना | धारणा का अर्थ है ध्यान और एकाग्रता – धारण करना – मन को एक केन्द्र पर एकाग्र करना – धारण करना | दीर्घ अवधि तक धारणा का अभ्यास ध्यान की स्थिति को ले जाता है जिसे मन की एकाग्रता भी कह सकते हैं | जबकि दीर्घकालिक ध्यान समाधि अर्थात आत्मज्ञान की स्थिति को ले जाता है | यहाँ मन ऊपर उठ जाता है और साधक आत्मा के विषय में जागरूक होकर स्वयं को उससे युत (युज) कर लेता है | इसी स्थिति को सत्-चित्-आनन्द की स्थिति कहा जाता है | व्यक्ति अपनी चेतना का प्रसार करता है और अन्तिम सत्य के साथ एकाकार हो जाता है – तादात्म्य स्थापित कर लेता है | ये तीनों राजयोग के आन्तरिक अंग हैं |

स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि देखें तो सामान्यतः रोग किसी भी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक तथा आध्यात्मिक कारणों से तथा असन्तुलित जीवन शैली के कारण उत्पन्न होते हैं | योगाभ्यास से उत्पन्न ऊर्जा मन में प्रविष्ट होकर सशक्त विचार बन जाती है जिसके कारण बहुत सी व्याधियों से हम स्वयं अभ्यास के द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं | योग द्वारा चेतना का विकास ही स्वास्थ्य का मूल मन्त्र है | प्राण ऊर्जा जब अपने उच्चतर स्तर को प्राप्त हो जाती है और श्वास का आवागमन उचित रीति से हो रहा होता है तो किसी भी रोग को आरम्भ होने से पूर्व हो रोका जा सकता है | महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में यही परिभाषित किया है कि योग का लक्ष्य है किसी भी दुःख के उत्पन्न होने से पूर्व ही उसे रोक देना – कष्ट अथवा व्याधि के उस बीज को अंकुरित होने से पूर्व ही भस्म कर देना |

इनके अतिरिक्त बन्ध और मुद्राएँ प्राणायाम से सम्बद्ध साधनाएँ हैं | इनको योग की उच्चतर साधना के रूप में देखा जाता है क्योंकि इनमें मुख्य रूप से श्वसन पर नियन्त्रण के साथ कतिपय शारीरिक और मानसिक पद्धतियों को अंगीकार किया जाता है | योगाभ्यासों में जो श्वास प्रश्वास को नियन्त्रित करके तथा बन्ध आदि लगाकर जो विभिन्न प्रकार की आसन आदि लगाने की क्रियाएँ की जाती हैं वे योग मुद्राएँ कहलाती हैं | आसन से शरीर की हड्डियाँ लचीली और मजबूत होती हैं, जबकि मुद्राओं के द्वारा शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है | जितने भी योग से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं सभी में हस्त मुद्राओं सहित कुल मिलाकर पचास से साठ मुद्राओं का उल्लेख प्राप्त होता है |

भारत में सहस्रों वर्षों से पूजा अर्चना और सन्ध्या वन्दन के समय मुद्राओं का उपयोग होता रहा है | मनुष्य केवल शरीर और मन का मेल ही नहीं है, अपितु भावनाएँ और इच्छाएँ भी मनुष्य की मनुष्यता का एक अंग हैं | हमारे ऋषि मुनियों ने इस तथ्य को समझा और कुछ नैतिक मूल्यों के साथ धर्म की सत्ता प्रकाश में आई | जिसमें ऋषि मुनियों ने धार्मिक क्रियाओं एक साथ मुद्राओं को जोड़ दिया |

वास्तव में शरीर की अपनी एक भाषा होती है | एक मूक और बधिर व्यक्ति भी शरीर तथा हाथों की मुद्राओं के माध्यम से सामान्य व्यक्तियों के समान बात कर सकता है | और नृत्यों में तो सारी बातें – समस्त अभिनय – मुद्राओं के माध्यम से ही होता है | हम कह सकते हैं कि नृत्य यदि एक भाषा है तो मुद्राएँ उसके शब्द हैं – नृत्य और अभिनय के भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम हैं | इस प्रकार अनादि काल से मुद्राओं का मानव के जीवन में महत्त्व रहा है | हमारे मनीषियों ने इन मुद्राओं अनेक वर्षों तक कठिन साधना करके शोध कार्य किये और मानव जीवन में मुद्राओं के महत्त्व को समझने समझाने का प्रयास किया | संस्कृत में तो मुद्राओं का अर्थ ही है शरीर के हाव भाव (अंग विन्यास) अथवा प्रवृत्ति | व्यक्ति के बैठने से अथवा खड़े होने से अनुमान हो जाता है कि उस व्यक्ति के मन में क्या चल रहा होगा | व्यक्ति का अंग विन्यास बहुत सीमा तक बता देता है कि वह व्यक्ति किसी प्रकार के अवसाद से ग्रस्त है अथवा किसी प्रकार के अत्यन्त आनन्द का अनुभव कर रहा है अथवा क्रोध में है इत्यादि इत्यादि |

हमारा शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है – जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथिवी | इनमें से प्रत्येक तत्व का शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों तथा समस्त विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण कार्यों से सम्बन्ध होता है | हमारे हाथों की पाँचों अँगुलियाँ इन्हीं पाँच तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं | हमारे हाथ के अँगूठे अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, तर्जनी अँगुली वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करती है, मध्यमा को आकाश तत्व का प्रतिनिधि माना जाता है, अनामिका प्रतिनिधित्व करती है पृथिवी तत्व का तथा कनिष्ठिका को जल तत्व का प्रतिनिधित्व प्राप्त है | अँगुलियों के इन पाँचों वर्गों से अलग अलग शक्ति धाराएँ प्रवाहित होती हैं जो किसी कारणवश असन्तुलित हो जाती हैं | अँगुलियों को विभिन्न प्रकार से आपस में मिलाकर जो मुद्राएँ बनाते हैं उनसे उन विविध तत्वों के सम्मिश्रण के कारण ये असन्तुलित शक्तियाँ सन्तुलित होने लग जाती हैं और शरीर में उन तत्वों असन्तुलन से उत्पन्न दोष दूर होने लगते हैं | अर्थात हमारे हाथों की दसों अँगुलियों से निर्मित मुद्राएँ शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को नियन्त्रित कर स्वास्थ्य लाभ का मार्ग प्रशस्त करती हैं |

कुछ हस्त मुद्राओं का उपयोग कुण्डलिनी अथवा ऊर्जा के स्रोत को जागृत करने के लिए किया जाता है, कुछ का अभ्यास आरोग्य प्राप्ति तथा दीर्घायु की कामना से किया जाता है, तो कुछ का प्रयोग अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति के लिए भी किया जाता है |

षट्कर्म विषाक्तता दूर करने की प्रक्रियाएँ हैं तथा शरीर में संचित विष को निकालने में सहायक होते हैं |

इस प्रकार वास्तव में योग बहुत सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित एक आध्यात्मिक विषय है जो मन एवं शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करने पर ध्यान देता है | साथ ही, यह स्वस्थ जीवन – यापन की कला एवं विज्ञान है | योग से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार योगाभ्यास से व्यक्ति की चेतना ब्रह्माण्डीय चेतना से युत हो जाती है जो मन एवं शरीर, मानव एवं प्रकृति के बीच परिपूर्ण सामंजस्य का द्योतक है |

अस्तु, योग दिवस के अवसर पर आइये संकल्प लें कि शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन नियत समय पर योगाभ्यास अवश्य करेंगे | हम सभी स्वस्थ रहते हुए सुख के भागी बनें यही कामना है…

प्रार्थना क्या किस हेतु और कब

प्रार्थना क्या, किस हेतु और कब

हमारी एक मित्र ने कुछ दिन पूर्व हमसे एक प्रश्न किया था कि प्रार्थना क्या, किस हेतु और कब की चाहिये | हम सम्भवतः इसका उत्तर देने के लिए योग्य पात्र तो नहीं हैं, किन्तु फिर भी – हमें जो समझ आता है वो लिख रहे हैं…

हमारे विचार से परमात्मा से अथवा किसी भी व्यक्ति या प्राणी से अपने मन की बात “निवेदन” करना ही प्रार्थना कहलाता है | और जब हम “परमात्मा” की बात करते हैं तो जैसे कि इसके अर्थ से ही ध्वनित होता है – परम + आत्मा – अर्थात अपनी अन्तरात्मा – जो हमारे सहित सभी जीवों में एक समान है और वह अनादि अनन्त है – न कभी वह जन्मा था न कभी उसका अन्त होगा – न कभी उसे किसी प्रकार की कोई हानि ही पहुँचाई जा सकती है – वह इस सबसे परे है – वह तो क्षीण हो चुके शरीर रूपी अपने पुराने वस्त्रों को उतार नवीन कलेवर धारण कर पुनः पुनः आता रहता है | और यही परमात्मतत्व ईश्वर कहलाता है |

प्रार्थना शब्द की उत्पत्ति प्र उपसर्गपूर्वक अर्थ में शब्द से हुई है | प्र का अर्थ है प्रकर्षेण अर्थात तीव्र उत्कंठा के साथ – तथा अर्थना का अर्थ है इच्छा करना – निवेदन करना | इस प्रकार प्रार्थना का शाब्दिक अर्थ हुआ अपने से विशिष्ट से दीनता पूर्वक पूर्ण उत्कंठा के साथ कुछ इच्छा रखना अथवा याचना करना | विचार पूर्वक देखें तो इच्छा करना और याचना दोनों ही प्रार्थना का प्रयोजन हैं – किन्तु याचना में संकल्प का बल नहीं होता जबकि इच्छा करने में संकल्प शक्ति दृढ़ होती है | याचक को केवल अपनी बात निवेदन करने के अतिरिक्त और कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती – जबकि इच्छा करने में आत्म गौरव, आत्म सन्तुष्टि तथा आत्म विश्वास जैसी भावनाएँ भी जागृत होने लगती हैं | किन्तु यदि सामान्य रूप से देखा जाए तो प्रार्थना ही याचना भी है और प्रार्थना ही इच्छा भी है | अपने से विशिष्ट के समक्ष प्रार्थना करते समय व्यक्ति के मन का अहंकार आदि भाव नष्ट हो जाते हैं तथा व्यक्ति के मन तथा स्वभाव में विनम्रता तथा निरभिमानता जैसे गुण विकसित हो जाते हैं | लौकिक स्तर पर अपने से अधिक सामर्थ्य वाले व्यक्ति के समक्ष प्रार्थना की जाती है, वहीं आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा के समक्ष निवेदन किया जाता है | और परमात्मा – जैसा कि ऊपर लिखा – अपना आत्मा ही निरन्तर अभ्यास के द्वारा परमात्मतत्व के स्तर पर पहुँच जाता है और जब हम ईश्वर अथवा किसी भी विशिष्ट के समक्ष किसी प्रकार की प्रार्थना कर रहे होते हैं तो वास्तव में हम अपनी आत्मा को ही इतना दृढ़संकल्पशाली बना रहे होते हैं कि उसकी प्रार्थना स्वीकार करके वह विशिष्ट उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्ध हो जाए | ये विशिष्ट कोई भी हो सकता है – माता पिता, अन्य गुरुजनों और प्रियजनों के समक्ष भी विनम्रता पूर्वक जो बातें रखी जाती हैं वे भी प्रार्थना ही कहलाती हैं | यहाँ तक कि प्रस्तर प्रतिमा, पशु पक्षी, चित्र – अर्थात कोई भी वह वस्तु जिसे हम प्राणवान मानते हैं तथा कोई भी जीव – जब हम विनम्रता पूर्वक उसके समक्ष समर्पण भाव से अपने हृदय की बात रखते हैं तो उसे ही प्रार्थना कहा जाता है |

प्रार्थना के माध्यम से हम अपनी अथवा दूसरों की इच्छाओं को पूर्ण करने का प्रयास करते हैं | ये जितने भी तन्त्र मन्त्र यज्ञ यागादि हैं सब प्रार्थना के ही अलग अलग रूप हैं | प्रार्थना सूक्ष्म स्तर पर कार्य करती है | जब कोई व्यक्ति पूर्ण मनोयोग से प्रार्थना कर रहा होता है तब उसके चारों ओर इस प्रकार की आभा प्रसारित हो जाती है जो दीख तो नहीं पड़ती किन्तु प्रार्थना करने वाले व्यक्ति के हृदय को – उसके आस पास के वातावरण को – प्रकृति को – इतना सशक्त बना देती है कि वह व्यक्ति या तो अपनी समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो जाता है – अथवा स्वयं को सहर्ष समस्याओं के अनुरूप ढाल लेता है |

प्रार्थना व्यक्तिगत स्तर भी की जा सकती है और सामूहिक स्तर पर भी | किन्तु इतना निश्चित है कि जिस भी स्तर पर की जाए – प्रकृति में अनुकूल परिवर्तन आरम्भ हो जाते हैं |

प्रार्थना करने के लिए न तो कोई समय निश्चित होता है न ही किसी प्रकार का कोई नियम है | नियम है तो मात्र इतना कि पूर्ण मनोयोग से समर्पण भाव से विनम्रता पूर्वक अपनी बात उस तत्व के समक्ष प्रस्तुत की जाए जिसकी हम प्रार्थना कर रहे हैं | इतना अवश्य है कि प्रार्थना करते समय मन तथा वातावरण शान्त और अनुकूल स्थिति में होना चाहिए |

प्रार्थना सदैव एकान्त में की जानी चाहिए | हेतु का जहाँ तक प्रश्न है – तो ये व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह किस हेतु प्रार्थना कर रहा है – किन्तु किसी अन्य को कष्ट पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं की जानी चाहिए | साथ ही यदि किसी प्राणी – अर्थात मनुष्य गुरु आदि – के समक्ष कोई प्रार्थना निवेदित कर रहे हैं तो उसके समय तथा मनोभावों का ध्यान रखना भी आवश्यक है |

आशा है हमारी मित्र हमारे इस उत्तर से सन्तुष्ट हुई होंगी…

महामन्त्र प्रणव और अध्यात्म चिकित्सा

महामन्त्र प्रणव और अध्यात्म चिकित्सा

आज का लेख आरम्भ करें उससे पूर्व सभी को पर्यूषण पर्व – दशलाक्षण पर्व – साम्वत्सरिक पर्वों की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ…

कल कहीं प्राणिक हीलिंग विषय पर एक व्याख्यान में उपस्थित होने का अवसर प्राप्त हुआ | व्याख्यान बहुत अच्छा था | व्याख्यानकर्ता ने बहुत ही सरल और सहज रीति से अपने विषय की जानकारी श्रोताओं को दी | वापस आने के बाद बहुत कुछ मन में घुमड़ता रहा | उसी कारण से आज यह लेख लिखने के लिए प्रवृत्त हुए | यहाँ एक बात स्पष्ट कर दें कि इस लेख की लेखिका कोई प्राणिक हीलर अर्थात अध्यात्म चिकित्सक नहीं है, किन्तु बचपन से ही पारिवारिक पृष्ठभूमी के कारण वेद वेदांगों, पुराण उपनिषद तथा अन्य अध्यात्मपरक साहित्य में रूचि के कारण जो कुछ पढ़ा समझा और गुना और जो कुछ विद्वज्जनों की संगति में सीखा तथा अनुभव किया उसी सबके आधार पर कुछ लिखने का प्रयास किया है…

सम्भवतः बहुत से लोग इस तथ्य से परिचित होंगे कि न केवल प्राचीन भारत में बल्कि विश्व की तमाम सभ्यताओं में किसी भी रोग को दूर करने के लिए इस प्रकार की चिकित्सा पद्धतियाँ विकसित थीं जो बिना किसी औषधि के रोगी को ठीक कर देती थीं | इन पद्धतियों को आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति तथा पूरक चिकित्सा पद्धति कहा जाता था | इन चिकित्सा पद्धतियों के अन्तर्गत नाड़ी उपचार, स्पर्श चिकित्सा, प्राण चिकित्सा आदि आते थे | इन सभी चिकित्सा पद्धतियों के मूल में चक्र चिकित्सा निहित थी | यही चक्र चिकित्सा आज की तथाकथित प्राणिक हीलिंग का ही आधार है | मानव शरीर चक्रों से संचालित होता है | और ये चक्र क्या हैं ? तीव्र गति से घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र हैं जो प्राण शक्ति को समाहित करके उसे शरीर के अन्य भागों तक पहुँचाने का कार्य करते हैं | यदि चक्र अपना कार्य समुचित रूप से न करें तो शरीर में अनेक प्रकार के रोगों की सम्भावना बन जाती है |

व्यक्ति का ऊर्जा शरीर अथवा आभा अथवा सूक्ष्म शरीर – जो हमें दिखाई नहीं देता – और जो स्थूल अथवा दृश्यमान शरीर हमें दिखाई देता है उनमें से यदि एक भी प्रभावित हो जाता है तो दूसरा स्वयमेव प्रभावित हो जाता है | क्योंकि प्राण शक्ति को एक प्रकार की सजीव ऊर्जा शक्ति कहा गया है | जिन पाँच तत्वों से समस्त प्रकृति का और उसी प्रकृति के एक छोटे से अवयव मानव शरीर का निर्माण हुआ है उन सभी में यह प्राण ऊर्जा समाहित होती है | प्रकृति में व्याप्त किसी भी ऊर्जा अथवा तत्व में – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इनमें से किसी में भी कुछ विकृति आ जाए, अथवा असन्तुलन हो जाए तो इसका दुष्प्रभाव व्यक्ति के स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक ही है | क्योंकि इन्हीं सबसे मिलकर निर्माण होता है प्राण शक्ति का – प्राण ऊर्जा का – जिस व्यक्ति की प्राण ऊर्जा सन्तुलित होगी – दीप्त होगी – वही व्यक्ति उतना ही स्वस्थ रहेगा |

आपमें से कुछ लोगों को सम्भवतः स्मरण हो इस तथ्य का कि पहले जब वैद्यों से इलाज़ कराया जाता था तो वे नाड़ी अथवा नब्ज़ टटोलकर रोग के विषय में बता दिया करते थे | किन्तु उससे भी पूर्व व्यक्ति का चेहरा देखकर ही बता देते थे कि उसे क्या बीमारी है और उसके ठीक होने की कितनी प्रतिशत सम्भावना है | वे लोग कोई जादूगर नहीं होते थे कि चेहरा देखकर ही बता दें | आप कह सकते हैं कि वे फेस रीडिंग करते थे | आप ऐसा कह सकते हैं | लेकिन इसका कारण होता था उनका अनुभव और ज्ञान | और इस अनुभव तथा ज्ञान के पीछे का कारण वही होता था – प्राण ऊर्जा |

आपने अनुभव किया होगा कि प्रत्येक व्यक्ति के मुखमण्डल के चारों ओर एक विशेष प्रकार की आभा व्याप्त होती है | अक्सर हम पुराने देवी देवताओं के चित्रों में उनके मुखमण्डल के चारों ओर एक श्वेत पीत अथवा चमकीला घेरा बना देखते हैं | ये घेरा वास्तव में उनके मुखमण्डल के चारों ओर व्याप्त उसी आभा का प्रतिनिधित्व करता है | ठीक यही बात समस्त मनुष्यों पर भी लागू होती है | स्वस्थ मनुष्य के चेहरे के चारों ओर व्याप्त आभा में और अस्वस्थ मनुष्य के चेहरे की आभा में अन्तर होता है | सामान्य जन भी प्रायः किसी व्यक्ति को देखकर कह देते हैं कि इस व्यक्ति का चेहरा कैसा मरीज़ों वाला लग रहा है | क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति के चेहरे की आभा – जो वास्तव में उसके चारों ओर व्याप्त प्राण ऊर्जा ही होती है – बिना किसी मेकअप के ही अत्यन्त खिली खिली होती है | वहीं अस्वस्थ व्यक्ति के मुख की आभा मुरझाई हुई होती है | जब हम और आप जैसे साधारण जन ऐसा अनुभव कर सकते हैं तो फिर जो लोग इस विद्या का अभ्यास करते हैं – जिन्होंने इसे अनुभव किया है – उनके लिए तो यह बता पाना अत्यन्त ही सरल है | इसी मुरझाई हुई आभा को देखकर एक अनुभवी प्राण चिकित्सक इस बात का पता लगाता है कि उस रोगी की प्राण ऊर्जा शरीर के किस चक्र पर अथवा किस स्थान पर असन्तुलित हुई है अथवा दुष्प्रभाव में आई है | और अपनी स्वयं की ऊर्जा के माध्यम से व्यक्ति के सूक्ष्म शरीर की ऊर्जा तक सकारात्मक सन्देश पहुँचाता है और इस प्रकार रोग का निदान करता है | क्योंकि यही आभा प्राण ऊर्जा कहलाती है और इसका व्यक्ति को रोगों से बचाने में तथा उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है |

इसे और अधिक सरलता से इस प्रकार समझा जा सकता है कि इस दृश्यमान स्थूल शरीर की ही भाँति एक सूक्ष्म शरीर भी होता है | उसके भी अपने गुण धर्म होते हैं | स्थूल शरीर से भी अधिक शक्तिशाली ये सूक्ष्म शरीर होता है | सूक्ष्म शरीर यदि स्वस्थ है तो स्थूल शरीर भी स्वस्थ रहेगा, और यदि सूक्ष्म शरीर पर किसी प्रकार का कोई दुष्प्रभाव है तो स्थूल शरीर का स्वस्थ रहना असम्भव है | अनेक बार ये दुष्प्रभाव इतने अधिक बली हो जाते हैं कि किसी प्रकार की औषधि से कोई लाभ नहीं होता और पीढ़ी दर पीढ़ी ये रोग दूर नहीं होते | इस स्तर पर आध्यात्मिक अथवा पूरक चिकित्सा पद्धतियों का सहारा लिया जाता है | ऐसे में प्राण चिकित्सक मनुष्य के सूक्ष्म शरीर तक जाकर उसकी प्राण ऊर्जा को स्वस्थ करने का प्रयास करता है जिसे प्राणिक हीलिंग के नाम से जाना जाता है |

सहस्रों वर्ष पूर्व वेदों में अध्यात्म चिकित्सा के अन्तर्गत प्राण चिकित्सा का वर्णन

प्राणिक हीलिंग
प्राणिक हीलिंग

उपलब्ध होता है | प्राण चिकित्सा इसलिए क्योंकि प्राणों के नियमानुसार चलने से ही जीवन में गति रहती है | शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद में इस प्रकार की समस्त पूरक अथवा आध्यात्मिक चिकित्साओं को आंगिरस विद्या का नाम दिया गया है | साथ ही इन चिकित्साओं का अभ्यास करने वाले चिकित्सकों के लिए भी कुछ नियम बताए गए हैं – जैसे उनके लिए अन्तः और बाह्य शुद्धि की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है | अन्तः शुद्धि के लिए प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास, अन्तः और बाह्य शुद्धि के लिए योग का अभ्यास, यम नियम का पालन करना, सात्विक भाव से जीवन व्यतीत करना, बाह्य शुद्धि के लिए नित्य नैमित्तिक क्रियाएँ एक आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं, अन्यथा इन आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धतियों से रोगी को लाभ होना तो दूर की बात है – स्वयं चिकित्सक पर इनका दुष्प्रभाव हो सकता है |

दुर्भाग्य अथवा विडम्बना कहेंगे कि कुछ योग संस्थानों को छोड़कर इन आध्यात्मिक चिकित्साओं के प्रचार प्रसार की दिशा में किसी ने ठोस प्रयास नहीं किया | प्रयास हुआ तो विदेशों में – हमारी ही विद्या विदेशी ठप्पा लगकर हम तक पहुँचाई गई और हम लोगों ने बड़े गर्व के साथ उसे स्वीकार किया | और अध्यात्म चिकित्सा ही नहीं, और भी अनेकों पारम्परिक विधाओं का यही हाल हुआ है | खैर, हमें इस बहस में पड़ने का अब कोई लाभ नहीं | लेकिन कल के व्याख्यान में कुछ बातें हमें समझ नहीं आईं – सम्भवतः हमारी मूढ़मति के कारण |

जो “ध्यान” कल कराया गया वह वास्तव में वैदिक ध्यान पद्धतियों तथा जापान और चीन की ध्यान की पद्धतियों का एक मिश्रण था | साथ में ईसाई समुदाय की प्रार्थना पद्धति भी उसमें समाहित की गई थी | इस प्रकार से एक बहुत ही अच्छा सा “पैकेज” बनाकर प्रस्तुत किया गया था | इस पैकेज से वास्तव में लाभ होना चाहिए जन साधारण को – क्योंकि एक बहुमुखी ध्यान की पद्धति हमें प्राप्त हो रही है |

लेकिन इसके अनुचित रूप से व्यावसायीकरण के साथ ही एक सबसे अहम बात जो हमारी समझ में नहीं आई वो ये थी कि गर्भवती महिलाएँ इस ध्यान का अभ्यास तथा ॐकार का जाप न करें | ऐसा कहने का कारण उन्होंने बताया कि ध्यान के इस अभ्यास और ॐकार के जाप के बाद जिस ऊर्जा का अनुभव होगा उसे गर्भवती महिलाएँ सम्हाल नहीं पाएँगी | तथ्य की बात ये है कि सर्वप्रथम तो, एक दिन के ध्यान के अभ्यास से कोई सिद्धहस्त नहीं हो जाता | मन के अश्व दौड़ते ही रहते हैं | यदि उन पर लगाम कसी गई तो वे और छटपटाएँगे | इसलिए वे जितना दौड़ते हैं उन्हें दौड़ने देना चाहिए ताकि वे दिन प्रतिदिन के ध्यान के अभ्यास से थक कर स्वयं ही शान्त हो जाएँ | इसलिए गर्भवती महिला हो या कोई भी हो – किसी के लिए भी ध्यान के अभ्यास में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए | साथ ही, गर्भवती महिलाओं के लिए तो ध्यान का अभ्यास और ॐकार का जाप अत्यन्त लाभदायक माना गया है | ध्यान के अभ्यास से मन शनै: शनै: शान्त होना आरम्भ हो जाता है, और जब मन बिल्कुल शान्त हो जाता है तब गर्भवती महिला गर्भस्थ शिशु से सकारात्मक सम्वाद करके तादात्म्य स्थापित कर सकती है | गर्भस्थ शिशु के समक्ष जो भी कहा जाए अथवा किया जाए उसका पूर्ण प्रभाव उस पर पड़ता है और वह आश्वस्त हो जाता है कि अब यदि वह बाहर के संसार में आता है तो वहाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगा | साथ ही, ॐ अर्थात प्रणव के जाप से उत्पन्न ऊर्जा उस तक पहुँचती है तो उसे भी उसका बल प्राप्त होता है और वह एक सुदृढ़ शरीर और सुदृढ़ मानसिकता के साथ इस दृश्य संसार में अपने नेत्र खोलता है | महाभारत की अभिमन्यु की कथा केवल कपोल कल्पना ही नहीं है, आज विज्ञान इस तथ्य को सत्यापित कर चुका है गर्भ के समय जिस प्रकार का वार्तालाप गर्भस्थ के साथ किया जाएगा और जिस प्रकार का वातावरण गर्भिणी के आस पास का होगा उसका प्रभाव निश्चित रूप से शिशु पर पड़ता है |

अस्तु, सर्वप्रथम तो ध्यान और योग की क्रियाओं पर किसी का एकाधिकार नहीं है, कोई भी इन प्रक्रियाओं का अभ्यास कर सकता है | दूसरे, हमें ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये समस्त प्रक्रियाएँ वैदिक प्रक्रियाएँ हैं – देश और काल के अनुसार इनमें परिवर्तन परिवर्धन आवश्यक है – जो हो भी रहा है – और इस प्रकार सभी देशों के सम्मिलित अभ्यासों के रूप में ये प्रक्रियाएँ और अधिक समृद्ध रूप में हमें उपलब्ध हो रही हैं | तीसरे, कोई भी व्यक्ति इनका अभ्यास कर सकता है – हर अवस्था में इनका लाभ ही होगा – चाहे वह कोई रोगी हो अथवा गर्भवती महिला हो | गर्भवती महिला के लिए तो और भी अधिक आवश्यक है तन और मन की शान्ति के लिए तथा गर्भस्थ शिशु को उसकी सुरक्षा की ओर से आश्वस्त करने के लिए ताकि एक स्वस्थ शिशु स्वस्थ संसार में अपने नेत्र खोल सके | भारत जैसे देश में, जहाँ जन्म से पूर्व से लेकर जीवन के अन्तिम पड़ाव तक प्रकृति के कण कण में प्रणव का अनहद नाद गूँजता हो वहाँ किसी भी व्यक्ति के लिए यह कहना कि इसके जाप से उत्पन्न ऊर्जा को वह झेल नहीं पाएगा – इससे अधिक हास्यास्पद भला और क्या हो सकता है…

और सबसे अन्तिम तथा आवश्यक तथ्य ये कि कोई भी रोग अथवा किसी भी प्रकार का असन्तुलन का अनुभव हो तो एक बार तो अपने चिकित्सक से अवश्य परामर्श करें, उसके बाद ही इन पूरक चिकित्साओं की ओर बढें | हाँ, यदि नियमित रूप से इनका अभ्यास करते रहे तो आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी प्रबल हो जाएगी कि आसानी से रोग आपको घेर नहीं सकेंगे, और इन अभ्यासों के कोई “साइड इफेक्ट्स” भी नहीं होते |

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः |

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दु:खभागभवेत् ||

इसी कामना के साथ एक बार पुनः सभी को दशलाक्षण पर्वों की अनेकानेक हार्दिक शुभकामनाएँ…

Meditation and it’s practices

Meditation and it’s practices

ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के अभ्यास पर वार्ता करते हुए ध्यान के अभ्यास में भोजन की भूमिका पर हम चर्चा कर रहे हैं | इसी क्रम में आगे…

भोजन भली भाँति चबाकर करना चाहिये | अच्छा होगा यदि भोजन धीरे धीरे और स्वाद का अनुभव करते हुए ग्रहण किया जाए | पाचनतंत्र को और अधिक उत्तम बनाने के लिए भोजन में तरल पदार्थों की मात्रा अधिक होनी चाहिए | ताज़े फल और सलाद भी आपके भोजन का आवश्यक अंग होने चाहियें | भूख से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि इसके कारण बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं | भोजन के बाद मुँह और दाँतों की सफाई करें और पाचनतंत्र को विश्राम दें | दो भोजन के बीच में कुछ नाश्ता आदि न लें | वास्तव में भोजन ध्यान के अभ्यास, सम्भोग तथा नींद से कम से कम चार घंटे पूर्व कर लेना चाहिए | अर्थात ध्यान के अभ्यास और भोजन में, सम्भोग और भोजन में अथवा निद्रा और भोजन में कम से कम चार घंटे का अंतराल रखेंगे तो आपके लिए श्रेष्ठ रहेगा | भोजन के तुरन्त सोने के लिए चले जाना स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं होता |

पाचन क्रिया और भोजन के प्रति आपके शरीर की प्रतिक्रिया का आपके ध्यान एक अभ्यास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है | क्योंकि भोजन करने के तीन चार घंटे बाद तक ध्यान का अभ्यास नहीं किया जा सकता इसीलिए प्रातः जल्दी उठकर ध्यान का अभ्यास करना सबसे अधिक उपयुक्त रहेगा | उस समय आपका शरीर पिछले दिन के भोजन को पचा चुका होता है और हल्का तथा चुस्त अनुभव कर रहा होता है | शाम को यदि आपने देर से भोजन किया है अथवा भरपेट भारी भोजन किया है तो आपको देर रात तक प्रतीक्षा करनी होगी इस बात के लिए कि आपका भोजन पच जाए और तब आप ध्यान का अभ्यास आरम्भ करके ध्यान केन्द्रित कर सकें |

क्रमशः…

Spirituality and Psychiatry




 

अध्यात्म और मनश्चिकित्सा 

मनःचिकित्सक अनेक बार अपने रोगियों के साथ सम्मोहन आदि की क्रिया करते हैं | भगवान को भी अपने एक मरीज़ अर्जुन के मन का विभ्रम दूर करके उन्हें युद्ध के लिये प्रेरित करना था | अतः जब जब अर्जुन भ्रमित होते – उनके मन में कोई शंका उत्पन्न होती – भगवान कोई न कोई झटका उन्हें दे देते | यही कारण था की महाभारत के युद्ध में प्रायः अधिकाँश नियमों को उठाकर ताक पर रख दिया गया था | क्योंकि उस समय की परिस्थितियों के अनुसार किसी प्रकार भी उस धर्मयुद्ध में विजय प्राप्त करके समस्त व्यवस्था को सुनियोजित रूप देना ही अर्जुन का लक्ष्य था | उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अर्जुन को समत्व बुद्धि अपनानी थी | उसे शत्रु मित्र छोटे बड़े सबके लिये समान भाव रखते हुए युद्ध में प्रवृत्त होना था | तभी एक ओर जहाँ वह दुर्योधन तथा दु:शासन आदि कौरवों से युद्ध कर सकता था वहीं भीष्म और द्रोण जैसे गुरुजनों के साथ युद्ध करने में भी उसका संकोच समाप्त हो सकता था | इसीलिये कृष्ण ने उसे योग का उपदेश दिया | यही थी अन्तर्मुखी होने की प्रक्रिया – सूक्ष्म मनोविज्ञान, और इसी से समझ में आ सकता था जीवन का मूल्य |

“नेहाभिक्रमनाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते | स्वल्पम्प्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् || गीता – – 2/40

मनश्चिकित्सक का प्रथम कर्तव्य है रोगी को यथार्थ का ज्ञान कराना | आरम्भ ही अभिक्रम है – इस कर्मयोग रूप मोक्ष मार्ग में अभिक्रम का नाश नहीं होता तथा चिकित्सा आदि की भाँति इसमें प्रत्यवाय अर्थात् विपरीत फल नहीं है | इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मरण रूप महान संसार भय से रक्षा करता है |

ध्यान योग का बहिरंग साधन कर्म है | अतः जब तक ध्यान योग पर आरूढ़ होने में समर्थ नहीं तब तक कर्तव्य कर्म अवश्य करते रहना चाहिये | जैसे जैसे ध्यान योग के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती जाती है – मनुष्य के समस्त कर्म स्वतः ही समाप्त होते जाते हैं | यद्यपि कर्म कूप तालाब आदि छोटे जलाशयों की भाँति अल्प फल देने वाले होते हैं – तो भी ज्ञान निष्ठा का अधिकार मिलने से पूर्व कर्म ही करते रहना चाहिये | साथ ही, न तो कर्मफल में तृष्णा होनी चाहिये और न ही “यदि कर्मफलं न इष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेण |” भाव से कर्म में अनासक्ति ही होनी चाहिये | फलतृष्णा रहित पुरुषार्थ द्वारा कार्य किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि होकर ज्ञान की प्राप्ति होती है | अतः सिद्धि असिद्धि में समत्व भाव से कर्म करना चाहिये – समत्वं योग उच्यते | सकाम कर्म करने वाले तो कृपण होते हैं | इसी कृपणता के कारण मनुष्य विक्षिप्त होता है, भयभीत होता है – यह सोचकर कि उसके किये गए कर्म का फल उसे मिलेगा भी अथवा नहीं, और मिलेगा तो कितने समय में मिलेगा, कैसा मिलेगा – आदि आदि… अर्थात् उसमें वणिकबुद्धि आ जाती है | जब बुद्धि इस मोहात्मक अविवेक का उल्लंघन कर जाती है तब वह बिल्कुल शुद्ध हो जाती है | समाधि में अर्थात् चित्त के समाधान द्वारा विक्षिप्त हुई बुद्धि अचल और दृढ़ हो जाती है – स्थिर हो जाती है | अतः यथार्थ ज्ञानरूप बुद्धि की स्थिरता चाहने वाले को इन्द्रियों को वश में करना अत्यन्त आवश्यक है | यही है अध्यात्मयुत मनोविज्ञान |

भारतीय जीवन दर्शन – भारतीय मनोविज्ञान – अध्यात्म पर ही आधारित है | भारतीय जन मानस में एक ही आस्था है “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः” और इस प्रकार अन्तःकरण की शुद्धि द्वारा अन्ततः मोक्षरूप परम पद को प्राप्त करना | इस लक्ष्य से थोड़ा सा भी च्युत होते ही मति विभ्रम हो जाता है | यही कारण था कि भगवान का विराट रूप देखकर जब अर्जुन भयभीत और भ्रमित हो गए तब भगवान ने उनसे यही कहा कि तू युद्ध करे या न करे, इन सबका अन्त तो अवश्यम्भावी है | फिर क्यों नहीं तू निमित्त मात्र होकर युद्ध करता ? मनःचिकित्सक का वास्तविक कार्य यही है – यथार्थ का ज्ञान कराना – मनुष्य को उसकी ज़मीन से जोड़ना |

इस प्रकार अर्जुन को यह जो अन्तर्मुखी बनाने की प्रक्रिया हुई यही है सूक्ष्म मनोविज्ञान | तदुपरान्त भगवान ने अर्जुन को आत्मस्वरूप के दर्शन कराए और धीरे धीरे ज्ञान का बीजारोपण किया | इस प्रकार उनके मन को परिवर्तित करके उन्हें त्याग और वैराग्य का मार्ग बताया | जिससे उनके मन के विभ्रम का, मोह का नाश हुआ और वे कर्तव्य कर्म में प्रस्तुत हुए | यह थी अध्यात्म के द्वारा अर्जुन की मनश्चिकित्सा | युद्ध के लिये कटिबद्ध अर्जुन ने स्वयं कहा “नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || गीता – 18/73 हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हुई | इसलिये मैं संशयरहित होकर स्थिरबुद्धि वाला हो गया हूँ और अब आपकी आज्ञा का पालन करूँगा |

सम्भवतः कुछ लोगों का विचार हो कि निष्काम कर्मयोग तो सन्यासियों के लिये होता है, गृहस्थ जीवन जीने वालों के लिये, सामाजिक जीवन जीने वालों के लिये तो यह निष्काम कर्मयोग सम्भवतः उन्हें कर्म ही न करने दे | किन्तु यदि ऐसा होता तब तो अर्जुन – जो कि मोहवश क्षात्रधर्म से विमुख होकर गाण्डीव छोड़कर बैठ गए थे – गीता का उपदेश सुनकर सब कुछ छोड़ छाड़ कर सन्यासी हो जाते | किन्तु ऐसा नहीं हुआ | अपितु इस उपदेश को सुनकर ही उन्होंने आजीवन गृहस्थ रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया |

जब इस प्रकार अध्यात्म मार्ग से मन का विभ्रम दूर करके, उसे स्थिर करके कर्तव्य कर्म में प्रवृत्त किया जा सकता है, तो भला क्यों नहीं किसी भी बड़े से बड़े अपराधी का भी हृदय परिवर्तन नहीं किया जा सकता इस प्रकार अध्यात्म परक मन:चिकित्सा के द्वारा ? यहाँ तक कि सम्पूर्ण समाज का हृदय परिवर्तन किया जा सकता है | और फिर तब किसी भी प्रकार के सामाजिक भय से, धर्म के भय से, लोक मर्यादा के भय से, जाति के भय से, मान प्रतिष्ठा के भय से, अथवा अन्य किसी भी प्रकार के मानसिक विकार से व्यक्ति को, समाज को मुक्ति प्राप्त हो सकती है और अनेक प्रकार के अपराधों को होने से रोका जा सकता है | इस प्रकार की अध्यात्मपरक मन:चिकित्सा का मार्ग कठिन अवश्य है, लम्बा भी है, किन्तु इसके परिणाम भी उतने ही दूरगामी हैं…

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान की तैयारी की बात कर रहे हैं तो आगे बढ़ने से पूर्व ध्यान की तैयारी से सम्बद्ध कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्यों को भी समझ लेना आवश्यक होगा |

ध्यान के समय भोजन का प्रभाव :

योग का मनोविज्ञान चार प्राथमिक स्रोतों का वर्णन करता है – चार प्राथमिक इच्छाएँ जो हम सभी को प्रेरित करती हैं, और ये हैं – भोजन, सम्भोग, निद्रा और आत्मरक्षण की अभिलाषा | इन चारों इच्छाओं में असन्तुलन से शारीरिक और भावनात्मक दुष्परिणाम होते हैं, जिनके कारण ध्यान केन्द्रित करने की सामर्थ्य में व्यवधान उत्पन्न होता है |

ध्यान के दृष्टिकोण से ताज़ा और सादा भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक होता है, न कि अधिक पका हुआ, अधिक चिकनाई से युक्त अथवा अधिक तला भुना | असन्तुलित आहार से पाचन सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जिनसे ध्यान की प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है | ताज़ा, सादा और प्राकृतिक आहार पोषक होता है, सुपाच्य होता है और इसीलिए लाभदायक होता है |

जिस वातावरण में भोजन किया जाए वह आनन्ददायक और सकारात्मक होना चाहिए | अज के दिनों में जहाँ पति पत्नी और बच्चे अपनी अपनी व्यस्तताओं के चलते सारा दिन घर से बाहर रहने को विवश होते हैं, वहाँ साथ बैठने और दिन भर के घटनाक्रम पर चर्चा करने का सौभाग्य उन्हें बस भोजन के समय ही मिलता है | परिवार के लोगों में इतनी समझ होनी चाहिए कि भोजन करते समय किसी भी प्रकार की अप्रिय अथवा नकारात्मक चर्चा न करें | प्रसन्नचित्त रहना उत्तम स्वास्थ्य की कुँजी है | जो लोग अच्छे स्वास्थ्य के इस महत्त्वपूर्ण रहस्य के प्रति जागरूक हैं वे जानते हैं कि भोजन करते समय उन्हें प्रसन्नचित्त रहना है | मन की प्रसन्न और आह्लादक स्थिति का हमारे पाचन तन्त्र और अन्तर्ग्रन्थियों से मल आदि के निष्कासन आदि पर व्यापक प्रभाव पड़ता है |

यदि हम अपने शरीर की कार्यप्रणाली और भाषा को समझ जाते हैं तो बहुत से रोगों और शारीरिक समस्याओं से बचा जा सकता है | जब सुस्वादु और पौष्टिक भोजन आनन्ददायक वातावरण में प्रसन्नचित्त से ग्रहण किया जाता है तो हमारा शरीर लार और आमाशय का रस पैदा करता है | जिससे भोजन को पचाने में सहायता मिलती है | उदासीनता अथवा क्रोध की स्थिति में अथवा नकारात्मक चर्चाओं के साथ किया गया भोजन पाचन सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करता है |

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

हम बात कर रहे हैं कि ध्यान के अभ्यास के लिए स्वयं को किस प्रकार तैयार करना चाहिए | इसी क्रम में आगे :

पञ्चम चरण : ध्यान में बैठना :

श्वास के अभ्यासों के महत्त्व के विषय में पिछले अध्याय में चर्चा की थी | श्वास के उन विशिष्ट अभ्यासों को करने के बाद आप अब ध्यान के लिए तैयार हैं | ध्यान के आसन में बैठ जाइए (आगे ध्यान के लिए कुछ आसनों का भी वर्णन करेंगे) और बस अपने मन्त्र के प्रति अथवा सार्वभौम मन्त्र “सोSहम्” के प्रति मन को सावधान कीजिए | ‘सोSहम्” की ध्वनि का श्वास के साथ विशेष रूप से सम्बन्ध होता है | श्वास भीतर लेते समय मन ही मन में “सो” की ध्वनि को सुनने का प्रयास करें और श्वास बाहर निकालते समय “हम्” की ध्वनि को सुनें |

श्वास को लम्बी और मृदुल होने दें | स्थिरचित्त बैठकर मन को अपने मन्त्र में केन्द्रित करें | सुविधाजनक स्थिति में ध्यान के आसन में बैठे हुए मन को स्थिर और केन्द्रित होने दें | जितनी देर तक आप सुविधापूर्वक बैठ सकते हैं अथवा उस समय जितना समय आपके पास है उसके अनुसार जितनी देर आप चाहें बैठ सकते हैं | जब आप ध्यान से बाहर आना चाहें तो सबसे पहले श्वास प्रक्रिया पर ध्यान दें और फिर शरीर पर | अन्तःचेतना से बाह्य चेतना में धीरे धीरे क्रम से आएँ | हाथों की हथेलियों को आधा मोड़कर आँखों को ढाँप लें | फिर आँखों को खोलकर पहले हथेलियों को देखें फिर हाथों को | ध्यान की अवस्था में आपके मन के साथ क्या होता है और आप मन के साथ किस प्रकार कार्य करते हैं इस विषय पर आगे चर्चा की जाएगी |

तो इस प्रकार ध्यान के अभ्यास का क्रम हुआ – सबसे पहले नहा धोकर अथवा केवल हाथ मुँह धोकर तैयार हो जाएँ, फिर शरीर को खींचने के और कुछ योग के आसन करें, उसके बाद विश्राम के अभ्यास, फिर श्वास के अभ्यास और अन्त में ध्यान का अभ्यास |

अगले अध्याय में ध्यान पर भोजन के प्रभाव के विषय में बात की जाएगी…

क्रमशः…

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के लिए स्वयं को तैयार करना :

हम बात कर रहे हैं कि ध्यान के अभ्यास के लिए स्वयं को किस प्रकार तैयार करना चाहिए | इसी क्रम में आगे : तृतीय चरण…

ध्यान की तैयारी के लिए विश्राम के अभ्यास (Relaxation Exercises) :

शरीर को खींचने के अभ्यास (Stretch Exercises) के बाद कुछ देर का विश्राम का अभ्यास लाभदायक होगा | सुविधाजनक स्थिति में भूमि पर अथवा किसी गद्दे पर कमर के सहारे बिल्कुल सीधे लेट जाइए | सर के नीचे एक पतला तकिया लगा लीजिये | शरीर को चादर अथवा पतले तौलिये से ढक लीजिये | आपके हाथ शरीर से कुछ दूरी पर और हथेलियाँ ऊपर की ओर होनी चाहियें | दोनों पैर सुविधानुसार एक दूसरे से कुछ दूरी पर हों |

निश्चित कर लीजिये कि शरीर का भार सब अंगों में बराबर बंटा हुआ है और आपका शरीर इधर उधर झूल नहीं रहा है – अर्थात स्थिर है | सर बिल्कुल बीच में है – इधर उधर को लुढ़का हुआ नहीं है – अन्यथा गर्दन में खिंचाव आ सकता है | विश्राम के ये आसन “शवासन” कहलाता है, क्योंकि आप पूरी तरह से स्थिर और शान्त स्थिति में लेटे होते हैं | धीरे से अपनी आँखें बन्द कीजिए और कुछ देर के लिए अपनी श्वासों के आवागमन पर ध्यान दीजिये | नाक के छिद्रों में बिना किसी झटके अथवा रुकावट के श्वास के आवागमन (Inhale and Exhale) को अनुभव कीजिए |

इस आसन में लेटे हुए आप विश्राम के कुछ अभ्यास कर सकते हैं – जैसे क्रम से अपने शरीर की माँसपेशियों पर ध्यान दीजिये और ऊपर से नीचे तक सम्पूर्ण शरीर पर भ्रमण कीजिए | इस पर विस्तार से चर्चा आगे करेंगे |

विश्राम के अभ्यास छोटे होने चाहियें और दस मिनट से अधिक समय के नहीं होने चाहियें | इस अभ्यास की अवधि में आपको अपने मन को सावधान रहने का आदेश देना होगा, क्योंकि बहुत से लोगों की प्रवृत्ति होती है कि इस अभ्यास के दौरान वे निद्रादेवी की गोद में पहुँच जाते हैं |

चतुर्थ चरण : श्वास के अभ्यासों के द्वारा मन और स्नायुमण्डल को शान्त करना :

आपकी श्वास प्रक्रिया प्रभावशाली रूप से परिवर्तित होती रहती है – जिसका व्यापक प्रभाव आपके शारीरिक तनाव पर और मन की शान्ति तथा स्पष्टता पर पड़ता है | ध्यान के अभ्यास से पहले ध्यान के आसन में बैठकर कुछ विशेष यौगिक विधि से श्वास के अभ्यास करने चाहियें | इनसे शान्तिपूर्ण मानसिक स्थिति प्राप्त करने में, भीतर ध्यान केन्द्रित करने में तथा स्थिरता प्राप्त करने में सहायता प्राप्त होगी | सम्भव है आरम्भ में कुछ अभ्यासी इन अभ्यासों में समय नष्ट करना उचित न समझें, लेकिन यदि आपने एक बार ये अभ्यास करने आरम्भ कर दिए तो आप आश्चर्यजनक रूप से अपने ध्यान में दृढ़ता और गहनता का अनुभव करेंगे | भावनात्मक सन्तुलन और मन की स्पष्टता (Clarity of Mind) में श्वास के इन अभ्यासों का अद्भुत योगदान होता है | अगले अध्यायों में श्वास के कुछ ऐसे विशेष अभ्यासों का वर्णन किया जाएगा जिनका ध्यान की प्रक्रिया में विशाल और लाभदायक प्रभाव होता है |

क्रमशः….

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के लिए स्वयं को तैयार करना :

ध्यान के अभ्यास के लिए आपने अपने लिए उचित स्थान और अनुकूल समय का निर्धारण कर लिया तो समय की नियमितता भी हो जाएगी | अब आपको स्वयं को तैयार करना है ध्यान के अभ्यास के लिए | इस विषय में क्रमबद्ध रूप से तैयारी करनी होगी | इसी क्रम में…

प्रथम चरण – ध्यान के अभ्यास के लिए शरीर को तैयार करना :

सबसे पहले शरीर को बाह्य स्तर पर तैयार करने की आवश्यकता है | आपका शरीर यदि ऊर्जावान, सुखी, तनावरहित और स्वच्छ होगा तो ध्यान का अभ्यास भी सरल हो जाएगा | स्नान करके अथवा केवल हाथ मुँह और पैर धो लेने से भी आप स्वयं को चुस्त अनुभव करने लगेंगे | साथ ही प्रातःकाल उठने के बाद नित्य कर्म – मल मूत्र त्याग – करने के बाद स्वयं को ध्यान के लिए तैयार करते हैं तो आपका शरीर ध्यान में सुविधा का अनुभव करेगा |

द्वितीय चरण – शरीर को ढीला छोड़ना और खींचना  (Relaxation and Stretch Exercises) :

कुछ लोग सारी रात सोने के बाद जब प्रातःकाल नींद से जागते हैं तो उन्हें शरीर में अकड़ाहट और कुछ दर्द का अनुभव होता है | इस स्थिति में गर्म जल से स्नान और शरीर को धीरे धीरे खींचने के अभ्यास (stretch exercises) आपके शरीर के लिए ध्यान में बैठने में सहायक होंगे |

हठयोग के आसन विशेष रूप से शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए और उसे इतना दृढ़ और लचीला बनाने के लिए ही विकसित किये गए हैं कि ध्यान के लिए आराम से बैठा जा सके | ये आसन शरीर को कोमल बनाते हैं | किसी योग्य प्रशिक्षक से इन अभ्यासों को व्यक्तिगत रूप से सीखना चाहिए |

कमर और टाँगों को कसने और ढीला छोड़ने के अभ्यासों से ध्यान में सुविधा होगी | कुछ मिनट के लिए शरीर को कसने जैसे योगासन आपके ध्यान की गुणवत्ता में वृद्धि करेंगे | तनावपूर्ण aerobic exercises के विपरीत हठयोग के आसन न तो आप थकाते ही हैं और न ही आपके शरीर को आवश्यकता से अधिक फुर्तीला बना देते हैं | अपितु आपको धीरे धीरे  चुस्त बनाते हैं, माँसपेशियों को आराम पहुँचाते हैं, मानसिक तनाव को दूर करने में सहायक होते हैं और आपके ध्यान को केन्द्रित करने में सहायता पहुँचाते हैं |

आरम्भ में ध्यान से पहले पाँच से दस मिनट शरीर को कसने और विश्रान्त करने के अभ्यास कीजिए ताकि आपका शरीर ध्यान के लिए तैयार हो जाए |

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के लिए समय निकालना और उसकी नियमितता बनाए रखना

ध्यान के लिए समय निकालना 

ध्यान का अभ्यास रात को अथवा दिन में किसी भी समय किया जा सकता है | किन्तु प्रातःकाल अथवा सायंकाल का समय ध्यान के लिए आदर्श समय होता है – क्योंकि इस समय का वातावरण ध्यान में सहायक होता है | आपके चारों ओर का संसार शान्त होता है और कोई आपके ध्यान में बाधा नहीं डाल सकता | सुबह सुबह और प्रातःकाल के समय आप तारो ताज़ा और अपेक्षाकृत अधिक चुस्त भी होते हैं | इसीलिए ऐसे ही समय ध्यान करना चाहिए | फिर भी आपकी दिनचर्या और आपके व्यक्तिगत उत्तरदायित्व आपके ध्यान के समय का निर्धारण करेंगे |

अगर आपके छोटे छोटे बच्चे हैं तो आपके लिए रात का समय उचित रहेगा जबकि बच्चे सोने के लिए चले जाएँगे | आरम्भ में आप पाँच से पन्द्रह मिनट तक की दो समयावधियाँ चुनिए जबकि आप दूसरों को कष्ट पहुँचाए बिना, दूसरों को असुविधा पहुँचाए बिना, अपने उत्तरदायित्वों की उपेक्षा किये बिना, बिना किसी शीघ्रता अथवा जल्दबाज़ी के और दूसरी बातों में स्वयं को व्यस्त रखे बिना ध्यान का अभ्यास कर सकें | इसके लिए अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करने का सबसे उपयुक्त समय होगा प्रातः जल्दी उठकर अथवा बिस्तर में जाने से ठीक पहले ध्यान करना |

कुछ लोग प्रातःकाल और कुछ सायंकाल स्वयं को प्राकृतिक रूप से ऊर्जावान और चेतन अनुभव करते हैं | यही समय आपके लिए ध्यान का उपयुक्त समय हो सकता है | फिर भी जैसा अभी ऊपर लिखा, आपकी दिनचर्या और आपके व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों पर अधिक निर्भर करता है कि ध्यान के लिए कौन सा समय आपके लिए अधिक उपयुक्त और सुविधाजनक रहेगा |

समय की नियमितता को बनाए रखना :

यदि आप प्रतिदिन नियमित समय पर ध्यान का अभ्यास करेंगे तो निश्चित रूप से प्रगति ही होगी | इसको अपना स्वभाव बनाना और पूर्ण निष्ठा से उसका निर्वाह करना तथा अपनी दिनचर्या का पूर्व निर्धारित आवश्यक अंग बनाना ध्यान के अभ्यास में गहराई लाने के लिए सहायक होगा | यहाँ तक कि यदि आपकी दिनचर्या ऐसी है जो कि हर दिन बदलती रहती है तब भी ध्यान के लिए एक निश्चित समय निर्धारित करके प्रतिदिन उसी समय पर अभ्यास करने का प्रयास कीजिए | इससे आपके आलस्य तथा विलम्ब से कार्य करने की आपकी प्रवृत्ति के कारण जो व्यवधान उपस्थित होते हैं उनमें भी कमी आएगी |

क्रमश:…………….