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श्रावण में अधिक मास

श्रावण में अधिक मास  

यस्मिन् चन्द्रे न संक्रान्ति: सो अधिमासो निगह्यते

तत्र मंगलकार्याणि नैव कुर्याद् कदाचन |

यस्मिन् मासे द्विसंक्रान्ति: क्षय: मास: स कथ्यते

तस्मिन् शुभाणि कार्याणि यत्नतः परिवर्जयेत ||

भारतीय धर्मशास्त्रों तथा श्रीमद्भागवत तथा देवी भागवत महापुराण आदि अनेक पुराणों के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष वैदिक महीनों में एक महीना अधिक हो जाता है जिसे अधिक मास, मल मास अथवा पुरुषोत्तम मास कहा जाता है | यह महीना क्योंकि बारह महीनों के अतिरिक्त होता है इसलिए इसका कोई नाम भी नहीं है | पुराणों के अनुसार अधिक मास को भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होने के कारण इस माह को पुरुषोत्तम मास कहा जाता है | इस वर्ष 18 जुलाई श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से 16 अगस्त तक अधिक मास रहेगा | अर्थात प्रथम श्रावण मास का शुक्ल पक्ष और द्वितीय श्रावण का कृष्ण पक्ष अधिक मास होंगे |

अधिक मास के विषय में विशेष रूप से भारतीय ज्योतिषियों की मान्यता है कि इस अवधि में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान यदि किया जाए तो वह कई गुणा अधिक फल देता है | साथ ही इस अवधि में मांगलिक कार्य जैसे विवाह, नूतन गृह प्रवेश आदि वर्जित माने जाते हैं | किन्तु यह अधिक मास होता किसलिए है ? यदि 30-31 दिनों का एक माह होता है तो फिर 364-365 दिनों के एक वर्ष में ये एक मास अधिक कैसे हो जाता है ?

यह सौर वर्ष और चन्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक गणितीय प्रक्रिया है | सौर वर्ष का मान लगभग 365-366 दिन (365 दिन, 15 घड़ी, 22 पल और 57 विपल) माना जाता है | जबकि चान्द्र वर्ष का मान लगभग 354-355 दिन (354 दिन, 22 घड़ी, एक पल और 23 विपल माना गया है | इस प्रकार प्रत्येक वर्ष में तिथियों का क्षय होते होते लगभग दस से ग्यारह दिन का अन्तर पड़ जाता है जो तीन वर्षों में तीस दिन का होकर पूरा एक माह बन जाता है | इस प्रकार प्रत्येक तीसरे वर्ष चन्द्र वर्ष बारह माह के स्थान पर तेरह मास का हो जाता है | किन्तु असम, बंगाल, केरल और तमिलनाडु में अधिक मास नहीं होता क्योंकि वहाँ सौर वर्ष माना जाता है |

इसको इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जब दो अमावस्या के मध्य अर्थात पूरे एक माह में सूर्य की कोई संक्रान्ति नहीं आती तो वह मास अधिकमास कहलाता है | इसी प्रकार यदि एक चान्द्रमास के मध्य दो सूर्य संक्रान्ति आ जाएँ तो वह क्षय मास हो जाता है – क्योंकि इसमें चान्द्रमास की अवधि घट जाती है | क्षय मास केवल कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष मास में होता है |

इस वर्ष दो श्रावण होंगे | श्रावण मास का आरम्भ मंगलवार चार जुलाई को प्रातः 5:32 पर प्रथम श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के साथ हो चुका है | सूर्य इस समय मिथुन राशि में है | सोमवार 17 जुलाई प्रथम श्रावण अमावस्या को प्रातः पाँच बजकर सात मिनट के लगभग भगवान भास्कर कर्क राशि में प्रस्थान कर जाएँगे | भगवान भास्कर अपनी स्वयं की राशि सिंह में प्रस्थान करेंगे गुरुवार 17 अगस्त को दिन में एक बजकर बत्तीस मिनट के लगभग श्रावण शुक्ल प्रतिपदा को | अर्थात 17 जुलाई से 17 अगस्त के मध्य में एक पूर्णिमा और एक अमावस्या पड़ेंगी किन्तु सूर्य का राशि परिवर्तन नहीं होगा | सूर्य का राशि परिवर्तन होगा 17 अगस्त को | अतः 18 जुलाई से 16 अगस्त तक श्रावण अधिक मास रहेगा और 17 अगस्त श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से शुद्ध श्रावण मास का दूसरा पक्ष माना जाएगा | अर्थात दो अमावस्या के मध्य कोई संक्रान्ति न होकर अमावस्या के एक दिन बाद शुक्ल प्रतिपदा को दूसरी संक्रान्ति हो रही है |

इस प्रकार प्रथम श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से लेकर द्वितीय श्रावण अमावस्या तक की अवधि अधिक मास कहलाएगी | और ये समस्त गणितीय प्रक्रिया सौर तथा चान्द्र मासों की अवधि के अन्तर को दूर करने के लिए की जाती है तथा भारतीय वैदिक ज्योतिष का एक विशिष्ट अंग है |

जैसा कि ऊपर लिखा, अधिक मास को स्वयं भगवान् विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त है इसीलिए इस पुरुषोत्तम मास में भगवान् विष्णु की पूजा अर्चना का विधान है | किन्तु सबसे उत्तम ईश सेवा मानव सेवा होती है – मानव सेवा माधव सेवा… हम सभी प्राणियों तथा समस्त प्रकृति के साथ समभाव और सेवाभाव रखते हुए आगे बढ़ते रहें, पुरुषोत्तम मास में इससे अच्छी ईशोपासना हमारे विचार से और कुछ नहीं हो सकती…

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…

——–कात्यायनी

Nava Durga – Second day of Navraatri

Nava Durga – Second day of Navraatri

नवदुर्गा – द्वितीय नवरात्र – देवी के शैलपुत्री रूप की उपासना

चैत्र शुक्ल द्वितीया – दूसरा नवरात्र – माँ भगवती के दूसरे रूप की उपासना का दिन | देवी का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी का है – ब्रह्म चारयितुं शीलं यस्याः सा ब्रह्मचारिणी – अर्थात् ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति करना जिसका स्वभाव हो वह ब्रह्मचारिणी | यह देवी समस्त प्राणियों में विद्या के रूप में स्थित है…

या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता,

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः |

इस रूप में भी देवी के दो हाथ हैं और एक हाथ में जपमाला तथा दूसरे में कमण्डल दिखाई देता है | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है, ब्रह्मचारिणी का रूप है इसलिये निश्चित रूप से अत्यन्त शान्त और पवित्र स्वरूप है तथा ध्यान में मग्न है | यह रूप देवी के पूर्व जन्मों में सती और पार्वती के रूप में शिव को प्राप्त करने के लिये की गई तपस्या को भी दर्शाता है | पार्वती के रूप में शिव को पुनः प्राप्त करने के लिए तपस्या करते समय ऐसा समय भी आया जब उन्होंने समस्त प्रकार के भोज्य पदार्थों के साथ ही बिल्व पत्रों तक का भी सेवन बन्द कर दिया और तब उन्हें अपर्णा कहा जाने लगा | इतनी कठोर तपश्चर्या के कारण देवी के इस रूप को तपश्चारिणी भी कहा जाता है…

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलौ,

देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा

जो लोग भगवती के नौ रूपों को नवग्रह से सम्बद्ध करते हैं उनकी मान्यता है कि यह

द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी

रूप मंगल का प्रतिनिधित्व करता है तथा मंगल ग्रह की शान्ति के लिए माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा अर्चना करनी चाहिए | किसी व्यक्ति की कुण्डली में प्रथम और अष्टम भाव से सम्बन्धित कोई समस्या हो तो उसके समाधान के लिए भी इनकी उपासना का विधान है | जो लोग ध्यान का अभ्यास करते हैं उनके लिए भी इस रूप की उपासना अत्यन्त फलदायक मानी जाती है | ऐसा भी माना जाता है कि अगर आप प्रतियोगिता तथा परीक्षा में सफलता चाहते हैं –  विशेष रूप से छात्रों को – माँ ब्रह्मचारिणी की आराधना अवश्य करनी चाहिये । इनकी कृपा से बुद्धि का विकास होता है और प्रतियोगिता आदि में सफलता प्राप्त होती है | इसके लिए निम्न मन्त्र के जाप का विधान है:

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदास्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु |

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ||

इसके अतिरिक्त ऐं ह्रीं श्रीं अम्बिकायै नमः” माँ ब्रह्मचारिणी के इस बीज मन्त्र के साथ भी देवी की उपासना की जा सकती है | कुछ स्थानों पर इस दिन तारा देवी और चामुण्डा देवी की उपासना भी की जाती है |

माँ भगवती का ब्रह्मचारिणी रूप हम सबकी रक्षा करते हुए सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण करे और सभी के ज्ञान विज्ञान में वृद्धि करे…

Kalash Sthaapna

कलश स्थापना और नवरात्र

भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है | घट स्थापना का एक पूरा विधान है | घट स्थापना करते समय मन्त्र बोले जाते हैं:

कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रो समाहिताः |

मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणा: स्मृता: ||

कुक्षौ तु सागरा: सर्वे, सप्तद्वीपा वसुन्धरा |

ऋग्वेदोSथ यजुर्वेदः सामवेदो ही अथर्वण: ||

अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिता: |

अत्र गायत्री सावित्री शान्ति: पुष्टिकरी तथा ||

सर्वे समुद्रा: सरित: जलदा नदा:, आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारका: |

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती,

नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरुम् ||

अर्थात कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रूद्र, मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में समस्त षोडश मातृकाएँ स्थित हैं | कुक्षि में समस्त सागर, सप्तद्वीपों वाली वसुन्धरा स्थित है | साथ ही सारे वेड वेदांग भी कलश में ही समाहित हैं | सारी शक्तियाँ कलश में समाहित हैं | समस्त पापों का नाश करने के लिए जल के समस्त स्रोत इस कलश में निवास करें |

इस प्रकार घट में समस्त ज्ञान विज्ञान का, समस्त ऐश्वर्य का तथा समस्त ब्रह्माण्डों का समन्वित स्वरूप विद्यमान माना जाता है | किसी भी अनुष्ठान के समय ब्रहमाण्ड में उपस्थित शक्तियों का आह्वाहन करके उन्हें जागृत किया जाता है ताकि साधक को अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त हो और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण हों | साथ ही घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें या घट को सागर में डालें – हर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है तथा ईशोपनिषद की पूर्णता की धारणा का अनुमोदन करता प्रतीत होता है “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते” | इसी भावना को जीवित रखने के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के समय घटस्थापना का विधान सम्भवतः रहा होगा |

नवरात्रों में भी इसी प्रकार घट स्थापना का विधान है | इस वर्ष 18 मार्च से “विलम्बी” नामक सम्वत्सर का आरम्भ होने जा रहा है – जिसके लिए माना जाता है कि जन साधारण में धन धान्य और सुख समृद्धि की प्रचुरता रहने की सम्भावना है | इस सम्वत्सर का देवता “विश्वेदेव” को माना जाता है | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है “विश्वेदेव” से तात्पर्य सभी देवताओं से है | ऋग्वेद में विश्वेदेव की स्तुति के अनेक मन्त्र उपलब्ध होते हैं | इन्हें मानवों का रक्षक तथा सत्कर्मों का सुफल प्रदान करने वाला माना जाता है | ऐसा विश्व का देव जिस सम्वत्सर का देवता हो वह सम्वत्सर भी निश्चित रूप से जन साधारण के लिए शुभ ही होना चाहिये…

माँ भगवती सबकी मनोकामना पूर्ण करें, इसी भावना से घटस्थापना के साथ कल से आरम्भ हो रहे नवरात्रों की तथा “विलम्बी” नामक नवसम्वत्सर की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…

यम द्वितीया और चित्रगुप्त जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ

आज भाई दूज है – जिसे यम द्वितीया के नाम से भी जाना जाता है | नेपाल में इसे भाई टीका कहते हैं | यम द्वितीया नाम के पीछे भी एक कथा है कि समस्त चराचर को सत्य नियमों में आबद्ध करने वाले धर्मराज यम बहुत समय पश्चात अपनी बहन यमी से मिलने के लिए आज ही के दिन गए थे | यमी अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई और उनकी ख़ूब आवभगत की | बहन के स्नेह से प्रसन्न यमराज ने बहन से वर माँगने के लिए कहा तो यमी ने दो वरदान माँगे – एक तो यह कि आज का दिन भाई बहन के प्रेम के लिए विख्यात हो और दूसरा यह कि इस दिन जो भाई बहन यमुना के जल में स्नान करें वे आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाएँ | कहते हैं तभी से ये प्रथा चली कि आज के दिन सभी भाई अपनी बहनों के घर जाकर टीका कराते हैं और अपनी दीर्घायु तथा सुख समृद्धि के लिए उनका आशीर्वाद लेते हैं |

एक कथा एक वर्ग विशेष के साथ जुड़ी हुई है | आज के ही दिन धर्मराज यम के लेखाकार चित्रगुप्त का जन्मदिवस भी कायस्थ समुदाय के लोग प्रायः मनाते हैं | भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के लेखाकार माने जाते हैं । कहते हैं सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल का प्रादुर्भाव हुआ जिस पर एक पुरूष आसीन था | क्योंकि इसकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुई थी अत: इन्हें “ब्रह्मा” नाम दिया गया | इन्हीं से सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गन्धर्व, किन्नर, अप्सराएँ, स्त्री-पुरूष, पशु-पक्षी और समस्त प्रकृति का प्रादुत्भाव हुआ | बाद में इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को दण्ड देने का कार्य सौंपा गया था | अब धर्मराज को अपने लिए एक लेखाकार सहयोगी की आवश्यकता हुई | धर्मराज की इस माँग पर ब्रह्मा जी समाधिस्थ हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद जब वे समाधि से बाहर आए तो उन्होंने अपने समक्ष एक तेजस्वी पुरुष को खड़े पाया जिसने उन्हें बताया कि उन्हीं के शरीर से उसका जन्म हुआ है | तब ब्रह्मा जी ने उसे नाम दिया “चित्रगुप्त” | क्योंकि इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये | कायस्थ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता अपने शरीर में स्थित | अपनी इन्द्रियों पर जिसका पूर्ण नियन्त्रण हो गया हो वह भी कायस्थ कहलाता है |

भगवान चित्रगुप्त एक कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय प्राप्त होता है । आज के दिन धर्मराज यम और चित्रगुप्त की पूजा अर्चना करके उनसे अपने दुष्कर्मों के लिए क्षमा याचना का भी विधान है |

जो भी मान्यताएँ हों, जो भी किम्वदन्तियाँ हों, यम द्वितीया यानी भाई दूज भाई बहन का एक स्नेह तथा उल्लासमय पर्व है | इस उल्लास तथा स्नेहमय पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…