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शनि का मीन में गोचर

शनि का मीन में गोचर

मेष तथा वृषभ राशियों के लिए

शनि का मीन में गोचर

इस वर्ष शनिवार 29 मार्च, चैत्र अमावस्या को रात्रि 9:46 के लगभग किंस्तुघ्न करण और ब्रह्म योग में शनि का गोचर मीन राशि में हो जाएगा, जहाँ 3 जून 2027 तक भ्रमण करने के बाद मंगल की राशि मेष में पहुँच जाएँगे | यद्यपि मेष में वक्री होकर 20 अक्टूबर 2027 को एक बार फिर से रेवती नक्षत्र और मीन राशि में आएँगे और चार दिन बाद 24 दिसम्बर 2027 से मार्गी होते हुए 23 फरवरी 2028 को मेष राशि और अश्वनी नक्षत्र पर वापस पहुँच जाएँगे | धीमी गति के कारण लम्बी यात्रा है शनि की अतः इस बीच शनि कई बार अस्त भी रहेगा और कई बार वक्री चाल भी चलेगा | इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए जानने का प्रयास करेंगे शनि के मीन राशि में गोचर के मेष तथा वृषभ राशि के जातकों पर क्या सम्भावित प्रभाव हो सकते हैं…

किन्तु ध्यान रहे, ये सभी परिणाम सामान्य हैं | किसी कुण्डली के विस्तृत फलादेश के लिए केवल एक ही ग्रह के गोचर को नहीं देखा जाता अपितु उस कुण्डली का विभिन्न सूत्रों के आधार पर विस्तृत अध्ययन आवश्यक है | क्योंकि शनि का जहाँ तक प्रश्न है तो “शं करोति शनैश्चरतीति च शनि:” अर्थात, जो शान्ति और कल्याण प्रदान करे और धीरे चले वह शनि… अतः शनिदेव का गोचर कहीं भी हो, घबराने की या भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है… अपने कर्म की दिशा सुनिश्चित करके आगे बढ़ेंगे तो कल्याण ही होगा… अतः धैर्यपूर्वक शनि की चाल पर दृष्टि रखते हुए कर्मरत रहिये… निश्चित रूप से गुरुदेव की कृपा से शनि के इस गोचर में भी कुछ तो अमृत प्राप्त होगा, क्योंकि गुरु की राशियों में स्थित शनि शुभ फल देने में समर्थ होता है… अस्तु,

मेष राशि – आपके लिए शनि आपके कर्म स्थान तथा लाभ स्थान का स्वामी है और आपके बारहवें भाव में गोचर करने जा रहा है, जहाँ से इसकी दृष्टियाँ आपके दूसरे भाव पर, छठे भाव पर तथा नवम भाव पर रहेंगी | आपकी राशि से दूसरा भाव वृषभ शनि के मित्र ग्रह शुक्र की राशि है  छठा भाव कन्या भी शनि के मित्र बुध की राशि है, तथा नवम भाव अर्थात् भाग्य स्थान का धनु का अधिपति गुरु है | साथ ही आपके लिए साढ़ेसाती का प्रथम चरण भी आरम्भ हो रहा है | आपके लिए एक ओर तो लम्बी विदेश यात्राओं के योग बन रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इन यात्राओं में आय से अधिक व्यय भी सम्भव है और स्वास्थ्य के लिए भी ये यात्राएँ सम्भव है अनुकूल न रहें | अतः यदि इन यात्राओं से बचा जा सकता है तो उसके विषय में विचार अवश्य करें |

कार्य की दृष्टि से यह गोचर अनुकूल रहने वाला प्रतीत होता है | यदि आपका कार्य विदेश से सम्बन्ध रखता है तो आपके लिए विशेष रूप से कार्य में प्रगति की सम्भावना की जा सकती है | इसके अतिरिक्त कलाकारों, फैशन इण्डस्ट्री से जुड़े व्यक्तियों, Cosmetic इत्यादि का कार्य कर रहे व्यक्तियों के लिए भी कार्य इन प्रगति की सम्भावना की जा सकती है | आप जितना अधिक श्रम करेंगे उतना ही आपके भविष्य का मार्ग प्रशस्त होगा | पराक्रम में वृद्धि की सम्भावना भी की जा सकती है | किन्तु यदि आपने बिना सोचे विचारे कोई भी कार्य किया तो अकारण ही धनहानि भी सम्भव है | धार्मिक गतिविधियों में वृद्धि की सम्भावना है |

अपनी वाणी तथा खान पान पर नियन्त्रण रखने की आवश्यकता है | स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो इस अवधि में आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ सकती है और बहुत सी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से प्रभावित हो सकते हैं | आँखों से सम्बन्धित समस्या अथवा खान पान से सम्बन्धित समस्या सम्भव है | विशेष रूप से जुलाई से नवम्बर तक तथा जुलाई 2026 से फरवरी 2027 जब वक्री अवस्था में रहेगा शनि उस समय विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है अन्यथा बहुत अधिक पैसा भी खर्च हो सकता है | इसके अतिरिक्त आपके घर अथवा कार्यालय में कार्य आर रहे कर्मचारियों के लिए भी स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं | शनि स्तोत्र का जाप अथवा शनि के मन्त्र का जाप साढ़ेसाती के प्रभाव को कम कर सकता है | साथ ही मन को शान्त रखने तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए योग ध्यान आदि के सहारा लें |

वृषभ राशि – आपके लिए नवम और दशम भाव का स्वामी होकर शनि योगकारक बन जाता है और इस समय आपके एकादश भाव यानी लाभ स्थान में गोचर करेगा | शनि को कर्म का कारक भी कहा जाता है | यहाँ से आपकी लग्न – जिसका अधिपति शुक्र शनि का मित्र ग्रह है, पञ्चम भाव – जिसका अधिपति भी शनि का मित्र है तथा अष्टम भाव पर शनि की दृष्टियाँ रहेंगी | आपके लिए कार्य की दृष्टि से यह गोचर भाग्यवर्द्धक माना जा सकता है | यदि किसी नई नौकरी की तलाश में हैं तो वह भी आपको प्राप्त हो सकती है, लेकिन उसके लिए भाग दौड़ अधिक करनी पड़ेगी | कार्य में पदोन्नति तथा आय में वृद्धि की भी सम्भावना है | आवश्यकता है आलस्य को दूर करके कर्मरत रहने की | कोई रुका हुआ कार्य पूर्ण होने की भी सम्भावना है | यदि आप अनुकूल दिशा में प्रयास करते रहे तो आपके रुके हुए कार्य भी इस अवधि में पूर्ण होने की सम्भावना है |

सहकर्मियों का सहयोग आपको उपलब्ध रहेगा | कार्यस्थल पर सौहार्द का वातावरण बने रहने की सम्भावना है जिसके कारण आप अपने कार्य समय पर पूर्ण करने में सक्षम होंगे | आप अचानक ही अपना कार्य क्षेत्र बदलने की अथवा जिस जॉब में अभी हैं उसे बदलने की योजना बना सकते हैं – जो आपके हित में रह सकती है | वरिष्ठ अधिकारियों के साथ आपके सम्बन्धों में दृढ़ता की सम्भावना की जा सकती है जिसके कारण कार्य स्थल पर चाल रहा गतिरोध समाप्त हो सकता है | नौकरी में पदोन्नति और व्यापार में सफलता के भी योग हैं | आर्थिक स्थिति में सुधार और दृढ़ता के संकेत भी प्रतीत होते हैं |

आप इस अवधि में सन्तान के विषय में अधिक विचार करेंगे और उसकी सुख सुविधाओं के प्रबन्ध में व्यस्त रह सकते हैं | वक्री शनि की अवधि यानी जुलाई से नवम्बर के मध्य तथा जुलाई 2026 से फरवरी 2027 के मध्य सन्तान के स्वास्थ्य की ओर से सावधान रहने की आवश्यकता है |

स्वास्थ्य का जहाँ तक प्रश्न है तो यदि अपना Temperament सही नहीं रखा तो तनाव के कारण नींद में कमी तथा उससे जुड़ी अन्य समस्याएँ भी हो सकती हैं | आलस्य का त्याग कर योग और प्राणायाम पर ध्यान दें |

अन्त में बस इतना ही कि यदि कर्म करते हुए भी सफलता नहीं प्राप्त हो रही हो तो किसी अच्छे ज्योतिषी के पास दिशानिर्देश के लिए अवश्य जाइए, किन्तु अपने कर्म और प्रयासों के प्रति निष्ठावान रहिये – क्योंकि ग्रहों के गोचर तो अपने नियत समय पर होते ही रहते हैं, केवल आपके कर्म और उचित प्रयास ही आपको जीवन में सफल बना सकते हैं… अगले लेख में मिथुन और कर्क राशि पर शनि के मीन राशि में गोचर पर वार्ता होगी…

महाशिवरात्रि महापर्व 2025

महाशिवरात्रि महापर्व 2025

त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्तीयमामृतात् ||

प्रतिवर्ष फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि के व्रत का पालन किया जाता है, जिसे शिव पार्वती के विवाह का अवसर माना जाता हैअर्थात मंगल के साथ शक्ति का मिलन | किन्तु यह भी जान लेना अत्यन्त आवश्यक है कि शिवपार्वती का यह मिलन किसी भौतिक अथवा सांसारिक अथवा दैहिक सुख की प्राप्ति के लिए नहीं था, अपितु तारकासुर के आतंक से समस्त ब्रह्माण्ड को मुक्त कराने के निमित्त कार्तिकेय के रूप में सन्तान की प्राप्ति के लिए थाअतः पूर्ण रूपेण आध्यात्मिक थाऔर इसीलिए इस विवाहोत्सव में किसी प्रकार के सांसारिक रीति रिवाज़ों के लिए स्थान नहीं था |  अध्यात्म में किसी भी संस्कार के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता, वह इस सबसे बहुत ऊपर का विषय होता है | यही कारण है कि इस दिन पूर्ण भक्ति भाव से शिव और शक्ति की आराधना की जाती है ताकि हम सभी के मनों में जो भी कालुष्य अथवा अज्ञान रूपी असुर विद्यमान है उसे समाप्त किया जा सके |

कुछ पौराणिक मान्यताएँ इस प्रकार की भी हैं कि इसी दिन महादेव के विशालकाय स्वरूप अग्निलिंग से सृष्टि का आरम्भ हुआ था | जो भी मान्यताएँ हों, महाशिवरात्रि का पर्व समस्त हिन्दू समाज में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है | इसी दिन ऋषि बोधोत्सव भी है, जिस दिन आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द को सच्चे शिवभक्त का ज्ञान प्राप्त हुआ था और उनके हृदय से उदगार फूटे थे कि सच्चा शिव किसी मन्दिर या स्थान विशेष में विराजमान मूर्ति में निवास नहीं करता, अपितु वह इस सृष्टि के प्राणिमात्र में विराजमान है, और इसलिए प्राणिमात्र की सेवा ही सच्ची ईश्वरभक्ति है |

इस वर्ष बुधवार 26 फरवरी को प्रातः ग्यारह बजकर आठ मिनट के लगभग चतुर्दशी तिथि का आरम्भ होगा, जो 27 फरवरी को प्रातः 8:54 तक रहेगी | इस प्रकार 26 फरवरी को महा शिवरात्रि के व्रत का पालन किया जाएगा | सामान्य रूप से निशीथ काल की पूजा इसी दिन मध्य रात्रि में होगी, क्योंकि रात्रि का मध्य भाग निशीथ काल कहलाता हैअर्थात 26 फ़रवरी को मध्यरात्रि में बारह बजकर आठ मिनट से एक बजे तक की अवधि में निशीथ काल का अभिषेक होगा | 27 को सूर्योदय काल में 6:48 से 8:54 तक व्रत का पारायण का समय है | जिन लोगों को रात्रि में अभिषेक नहीं करना है और दिन में ही व्रत रखकर रात्रि में उसका पारायण करना चाहते हैं वे लोग भी इसी दिन व्रत रख सकते हैं | विशेष रूप से पूजा अर्चना करने वाले भक्त गण भी सारा दिन उपवास रखकर रात्रि में चार प्रहर में चार अभिषेक करते हैं और दूसरे दिन व्रत का पारायण करते हैंउनके लिए मुहूर्त इस प्रकार हैं

रात्रि प्रथम प्रहर का अभिषेक – 26 फरवरी को सायं 6:19 से रात्रि 9:26 तक

रात्रि द्वितीय प्रहर का अभिषेक – 26 फरवरी को ही रात्रि 9:26 से अर्द्ध रात्रि में 12:34 तक

रात्रि तृतीय प्रहर का अभिषेक – 26 फरवरी को अर्द्ध रात्रि में 12:34 से 27 फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 3:41 तक

रात्रि चतुर्थ प्रहर का अभिषेक – 27 फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 3:41 से सूर्योदय के समय 6:48 तक, इसी समय व्रत का पारायण भी

कुछ मित्रों की जिज्ञासा है कि रात्रि में चार प्रहर की पूजा किसलिए की जाती है | तो पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शंकर भगवान निशीथ काल में ही शिवलिंग के रूप में प्रकट हुए थेयही कारण है कि मन्दिरों में निशीथ काल में ही लिंगोद्भव पूजा का विधान है | इसके अतिरिक्त, दश के यज्ञ में अपने पति का अपमान हुआ देखकर सती ने आत्मदाह कर लिया था और फिर पर्वतराज हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से उमा के रूप में जन्म लिया और पर्वतसुता होने के कारण पार्वती कहलाईं | शिव पत्नी सती के आत्मदाह के पश्चात तपस्या में लीन हो गए थे | इसी मध्य तारकासुर का आतंक बढ़ा तो ब्रह्मा जी ने बताया कि शिव और पार्वती की सन्तान ही इस असुर का वध करने में समर्थ है | तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को पुनः पति के रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या आरम्भ कर दी | उधर तपस्यारत शंकर को तपस्या से बाहर लाना असम्भव था | तब कामदेव का सहारा लेकर येन केन प्रकारेण शिव को तपस्या से बाहर लाया गया और उन्हें पार्वती के साथ विवाह के लिए प्रेरित किया गया | मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवपार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ था | इसलिए भी रात्रि भर जागरण करके शिव पार्वती की पूजा अर्चना की जाती है |

पारम्परिक रूप से इस दिन शिवलिंग पर  दधिघृतमधुशर्करागंगाजल मिश्रित जलजिसे पञ्चामृत कहा जाता हैका अर्घ्य देकर समस्त शिव परिवार पर चन्दन, अक्षत, बिल्व पत्र और धतूरा अर्पित करने का विधान है | जिनमें प्रमुख वस्तुओं के नाम तथा उनकी उपादेयता निम्नवत है

सुगन्धित जल : भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धि के लिए जल में चन्दन आदि की सुगन्धि मिलाकर उस जल से शिवलिंग को अभिषिक्त किया जाता है |

मधु अर्थात शहद : अच्छे स्वास्थ्य तथा जीवन साथी की मंगलकामना के लिए मधु से शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है |

गंगाजल : समस्त प्रकार के तनावों से मुक्तिदाता माना जाता है गंगाजल को | इसी भावना से गंगाजल द्वारा शिवलिंग को अभिसिंचित करने की प्रथा है | पौराणिक मान्यता के अनुसार जब भगवान शिव ने समुद्र मन्थन के समय हलाहल पान कर लिया तो इसी गंगाजल को कलश में भर भर कर देवताओं के प्रवेश द्वार माया नगरीआज का हरिद्वारसे देवगण ले गए थे और उससे भगवान शिव का अभिषेक करके उनके हलाहल के ताप को शान्त किया गया था |

गौ दुग्ध तथा गौ धृत : गाय का दूध और घी पौष्टिकता प्रदान करने के साथ ताप को भी शान्त करता है | हृष्ट पुष्ट रहने के लिए गाय के दूध और घी से शिवलिंग को स्नान कराया जाता है |

बिल्व पत्र और धतूरा : सांसारिक तापों से मुक्ति के लिए बिल्व पत्रों तथा धतूरे से शिवलिंग का श्रृंगार किया जाता है | ऐसी मान्यता है कि धतूरा भगवान शंकर का सबसे अधिक प्रिय पदार्थ है और बिल्व को अमर वृक्ष तथा बिल्व पत्र को अमर पत्र और बिल्व फल को अमर फल की संज्ञा दी जाती है |

किन्तु हमारी मान्यता है कि केवल जल तथा बिल्व पत्र के साथ श्रद्धा, भक्ति और पूर्ण आस्था तथा विश्वास का गंगाजल एक साथ मिलाकर उस जल से यदि शिवलिंग को अभिषिक्त किया जाए तो भोले शंकर को उससे बढ़कर और कुछ प्रिय हो ही नहीं हो सकताऔर यदि कुछ भी उपलब्ध न हो, शिवालय भी कहीं बहुत दूरी पर हो, तो अपने मन से बड़ा और कौन सा शिवालय होगा और मन की श्रद्धा भक्ति तथा विश्वास से बढ़कर और कौन सा गंगाजल या अभिषेक की सामग्री होगी जो भोला भण्डारी को प्रिय होगीइसी श्रद्धा, भक्ति और पूर्ण आस्था तथा विश्वास के गंगाजल के साथ अपने मन के शिवालय में विराजमान भगवान शंकर के अभिषेक करें तथा मानव सेवा करते हुए शिव को प्रसन्न करेंश्रद्धा भक्तिपूर्वक पूर्ण मनोयोग से भगवान शंकर के मन्त्रों का जाप करेंऔघड़दानी इतने भर से ही प्रसन्न हो जाते हैंइसीलिए तो इन्हें औघड़दानी कहा जाता है | भगवान शिव की पूजा अर्चना जहाँ होगी वहाँ आनन्द और आशीर्वाद की वर्षा तो निश्चित रूप से होगी ही | शिवरात्रि के पर्व के साथ बहुत सी कथाएँ भी जुड़ी हुई हैं और उन सभी कथाओं में कुछ न कुछ प्रेरणादायक उपदेश भी निहित हैं | किन्तु हमारे विचार से जो शं यानी शान्ति प्रदान करे वह शंकरकिन्तु शंकर भी तभी जन जन को शान्ति और कल्याण प्रदान करेंगे जब हम प्रकृति के कण कण मेंप्रत्येक जन मानस मेंशंकर का अनुभव करेंगे

अस्तु, हम सभी प्रकृति के कण कण में शंकर का वास मानकर सभी के प्रति सद्भावना रखें तथा समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की कुरीतियों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करेंइसी कामना के साथ सभी को महाशिवरात्रि पर्व की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँभगवान शंकर सभी के जीवन में शान्ति और कल्याण की पावन गंगा प्रवाहित करें

  

श्रावण में अधिक मास

श्रावण में अधिक मास  

यस्मिन् चन्द्रे न संक्रान्ति: सो अधिमासो निगह्यते

तत्र मंगलकार्याणि नैव कुर्याद् कदाचन |

यस्मिन् मासे द्विसंक्रान्ति: क्षय: मास: स कथ्यते

तस्मिन् शुभाणि कार्याणि यत्नतः परिवर्जयेत ||

भारतीय धर्मशास्त्रों तथा श्रीमद्भागवत तथा देवी भागवत महापुराण आदि अनेक पुराणों के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष वैदिक महीनों में एक महीना अधिक हो जाता है जिसे अधिक मास, मल मास अथवा पुरुषोत्तम मास कहा जाता है | यह महीना क्योंकि बारह महीनों के अतिरिक्त होता है इसलिए इसका कोई नाम भी नहीं है | पुराणों के अनुसार अधिक मास को भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होने के कारण इस माह को पुरुषोत्तम मास कहा जाता है | इस वर्ष 18 जुलाई श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से 16 अगस्त तक अधिक मास रहेगा | अर्थात प्रथम श्रावण मास का शुक्ल पक्ष और द्वितीय श्रावण का कृष्ण पक्ष अधिक मास होंगे |

अधिक मास के विषय में विशेष रूप से भारतीय ज्योतिषियों की मान्यता है कि इस अवधि में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान यदि किया जाए तो वह कई गुणा अधिक फल देता है | साथ ही इस अवधि में मांगलिक कार्य जैसे विवाह, नूतन गृह प्रवेश आदि वर्जित माने जाते हैं | किन्तु यह अधिक मास होता किसलिए है ? यदि 30-31 दिनों का एक माह होता है तो फिर 364-365 दिनों के एक वर्ष में ये एक मास अधिक कैसे हो जाता है ?

यह सौर वर्ष और चन्द्र वर्ष में सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक गणितीय प्रक्रिया है | सौर वर्ष का मान लगभग 365-366 दिन (365 दिन, 15 घड़ी, 22 पल और 57 विपल) माना जाता है | जबकि चान्द्र वर्ष का मान लगभग 354-355 दिन (354 दिन, 22 घड़ी, एक पल और 23 विपल माना गया है | इस प्रकार प्रत्येक वर्ष में तिथियों का क्षय होते होते लगभग दस से ग्यारह दिन का अन्तर पड़ जाता है जो तीन वर्षों में तीस दिन का होकर पूरा एक माह बन जाता है | इस प्रकार प्रत्येक तीसरे वर्ष चन्द्र वर्ष बारह माह के स्थान पर तेरह मास का हो जाता है | किन्तु असम, बंगाल, केरल और तमिलनाडु में अधिक मास नहीं होता क्योंकि वहाँ सौर वर्ष माना जाता है |

इसको इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जब दो अमावस्या के मध्य अर्थात पूरे एक माह में सूर्य की कोई संक्रान्ति नहीं आती तो वह मास अधिकमास कहलाता है | इसी प्रकार यदि एक चान्द्रमास के मध्य दो सूर्य संक्रान्ति आ जाएँ तो वह क्षय मास हो जाता है – क्योंकि इसमें चान्द्रमास की अवधि घट जाती है | क्षय मास केवल कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष मास में होता है |

इस वर्ष दो श्रावण होंगे | श्रावण मास का आरम्भ मंगलवार चार जुलाई को प्रातः 5:32 पर प्रथम श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के साथ हो चुका है | सूर्य इस समय मिथुन राशि में है | सोमवार 17 जुलाई प्रथम श्रावण अमावस्या को प्रातः पाँच बजकर सात मिनट के लगभग भगवान भास्कर कर्क राशि में प्रस्थान कर जाएँगे | भगवान भास्कर अपनी स्वयं की राशि सिंह में प्रस्थान करेंगे गुरुवार 17 अगस्त को दिन में एक बजकर बत्तीस मिनट के लगभग श्रावण शुक्ल प्रतिपदा को | अर्थात 17 जुलाई से 17 अगस्त के मध्य में एक पूर्णिमा और एक अमावस्या पड़ेंगी किन्तु सूर्य का राशि परिवर्तन नहीं होगा | सूर्य का राशि परिवर्तन होगा 17 अगस्त को | अतः 18 जुलाई से 16 अगस्त तक श्रावण अधिक मास रहेगा और 17 अगस्त श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से शुद्ध श्रावण मास का दूसरा पक्ष माना जाएगा | अर्थात दो अमावस्या के मध्य कोई संक्रान्ति न होकर अमावस्या के एक दिन बाद शुक्ल प्रतिपदा को दूसरी संक्रान्ति हो रही है |

इस प्रकार प्रथम श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से लेकर द्वितीय श्रावण अमावस्या तक की अवधि अधिक मास कहलाएगी | और ये समस्त गणितीय प्रक्रिया सौर तथा चान्द्र मासों की अवधि के अन्तर को दूर करने के लिए की जाती है तथा भारतीय वैदिक ज्योतिष का एक विशिष्ट अंग है |

जैसा कि ऊपर लिखा, अधिक मास को स्वयं भगवान् विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त है इसीलिए इस पुरुषोत्तम मास में भगवान् विष्णु की पूजा अर्चना का विधान है | किन्तु सबसे उत्तम ईश सेवा मानव सेवा होती है – मानव सेवा माधव सेवा… हम सभी प्राणियों तथा समस्त प्रकृति के साथ समभाव और सेवाभाव रखते हुए आगे बढ़ते रहें, पुरुषोत्तम मास में इससे अच्छी ईशोपासना हमारे विचार से और कुछ नहीं हो सकती…

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय…

——–कात्यायनी

Nava Durga – Second day of Navraatri

Nava Durga – Second day of Navraatri

नवदुर्गा – द्वितीय नवरात्र – देवी के शैलपुत्री रूप की उपासना

चैत्र शुक्ल द्वितीया – दूसरा नवरात्र – माँ भगवती के दूसरे रूप की उपासना का दिन | देवी का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी का है – ब्रह्म चारयितुं शीलं यस्याः सा ब्रह्मचारिणी – अर्थात् ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति करना जिसका स्वभाव हो वह ब्रह्मचारिणी | यह देवी समस्त प्राणियों में विद्या के रूप में स्थित है…

या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता,

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः |

इस रूप में भी देवी के दो हाथ हैं और एक हाथ में जपमाला तथा दूसरे में कमण्डल दिखाई देता है | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है, ब्रह्मचारिणी का रूप है इसलिये निश्चित रूप से अत्यन्त शान्त और पवित्र स्वरूप है तथा ध्यान में मग्न है | यह रूप देवी के पूर्व जन्मों में सती और पार्वती के रूप में शिव को प्राप्त करने के लिये की गई तपस्या को भी दर्शाता है | पार्वती के रूप में शिव को पुनः प्राप्त करने के लिए तपस्या करते समय ऐसा समय भी आया जब उन्होंने समस्त प्रकार के भोज्य पदार्थों के साथ ही बिल्व पत्रों तक का भी सेवन बन्द कर दिया और तब उन्हें अपर्णा कहा जाने लगा | इतनी कठोर तपश्चर्या के कारण देवी के इस रूप को तपश्चारिणी भी कहा जाता है…

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलौ,

देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा

जो लोग भगवती के नौ रूपों को नवग्रह से सम्बद्ध करते हैं उनकी मान्यता है कि यह

द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी

रूप मंगल का प्रतिनिधित्व करता है तथा मंगल ग्रह की शान्ति के लिए माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा अर्चना करनी चाहिए | किसी व्यक्ति की कुण्डली में प्रथम और अष्टम भाव से सम्बन्धित कोई समस्या हो तो उसके समाधान के लिए भी इनकी उपासना का विधान है | जो लोग ध्यान का अभ्यास करते हैं उनके लिए भी इस रूप की उपासना अत्यन्त फलदायक मानी जाती है | ऐसा भी माना जाता है कि अगर आप प्रतियोगिता तथा परीक्षा में सफलता चाहते हैं –  विशेष रूप से छात्रों को – माँ ब्रह्मचारिणी की आराधना अवश्य करनी चाहिये । इनकी कृपा से बुद्धि का विकास होता है और प्रतियोगिता आदि में सफलता प्राप्त होती है | इसके लिए निम्न मन्त्र के जाप का विधान है:

विद्याः समस्तास्तव देवि भेदास्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु |

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ||

इसके अतिरिक्त ऐं ह्रीं श्रीं अम्बिकायै नमः” माँ ब्रह्मचारिणी के इस बीज मन्त्र के साथ भी देवी की उपासना की जा सकती है | कुछ स्थानों पर इस दिन तारा देवी और चामुण्डा देवी की उपासना भी की जाती है |

माँ भगवती का ब्रह्मचारिणी रूप हम सबकी रक्षा करते हुए सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण करे और सभी के ज्ञान विज्ञान में वृद्धि करे…

Kalash Sthaapna

कलश स्थापना और नवरात्र

भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है | घट स्थापना का एक पूरा विधान है | घट स्थापना करते समय मन्त्र बोले जाते हैं:

कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रो समाहिताः |

मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणा: स्मृता: ||

कुक्षौ तु सागरा: सर्वे, सप्तद्वीपा वसुन्धरा |

ऋग्वेदोSथ यजुर्वेदः सामवेदो ही अथर्वण: ||

अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिता: |

अत्र गायत्री सावित्री शान्ति: पुष्टिकरी तथा ||

सर्वे समुद्रा: सरित: जलदा नदा:, आयान्तु देवपूजार्थं दुरितक्षयकारका: |

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती,

नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरुम् ||

अर्थात कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रूद्र, मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में समस्त षोडश मातृकाएँ स्थित हैं | कुक्षि में समस्त सागर, सप्तद्वीपों वाली वसुन्धरा स्थित है | साथ ही सारे वेड वेदांग भी कलश में ही समाहित हैं | सारी शक्तियाँ कलश में समाहित हैं | समस्त पापों का नाश करने के लिए जल के समस्त स्रोत इस कलश में निवास करें |

इस प्रकार घट में समस्त ज्ञान विज्ञान का, समस्त ऐश्वर्य का तथा समस्त ब्रह्माण्डों का समन्वित स्वरूप विद्यमान माना जाता है | किसी भी अनुष्ठान के समय ब्रहमाण्ड में उपस्थित शक्तियों का आह्वाहन करके उन्हें जागृत किया जाता है ताकि साधक को अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त हो और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण हों | साथ ही घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें या घट को सागर में डालें – हर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है तथा ईशोपनिषद की पूर्णता की धारणा का अनुमोदन करता प्रतीत होता है “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते” | इसी भावना को जीवित रखने के लिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के समय घटस्थापना का विधान सम्भवतः रहा होगा |

नवरात्रों में भी इसी प्रकार घट स्थापना का विधान है | इस वर्ष 18 मार्च से “विलम्बी” नामक सम्वत्सर का आरम्भ होने जा रहा है – जिसके लिए माना जाता है कि जन साधारण में धन धान्य और सुख समृद्धि की प्रचुरता रहने की सम्भावना है | इस सम्वत्सर का देवता “विश्वेदेव” को माना जाता है | जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है “विश्वेदेव” से तात्पर्य सभी देवताओं से है | ऋग्वेद में विश्वेदेव की स्तुति के अनेक मन्त्र उपलब्ध होते हैं | इन्हें मानवों का रक्षक तथा सत्कर्मों का सुफल प्रदान करने वाला माना जाता है | ऐसा विश्व का देव जिस सम्वत्सर का देवता हो वह सम्वत्सर भी निश्चित रूप से जन साधारण के लिए शुभ ही होना चाहिये…

माँ भगवती सबकी मनोकामना पूर्ण करें, इसी भावना से घटस्थापना के साथ कल से आरम्भ हो रहे नवरात्रों की तथा “विलम्बी” नामक नवसम्वत्सर की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…

यम द्वितीया और चित्रगुप्त जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ

आज भाई दूज है – जिसे यम द्वितीया के नाम से भी जाना जाता है | नेपाल में इसे भाई टीका कहते हैं | यम द्वितीया नाम के पीछे भी एक कथा है कि समस्त चराचर को सत्य नियमों में आबद्ध करने वाले धर्मराज यम बहुत समय पश्चात अपनी बहन यमी से मिलने के लिए आज ही के दिन गए थे | यमी अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई और उनकी ख़ूब आवभगत की | बहन के स्नेह से प्रसन्न यमराज ने बहन से वर माँगने के लिए कहा तो यमी ने दो वरदान माँगे – एक तो यह कि आज का दिन भाई बहन के प्रेम के लिए विख्यात हो और दूसरा यह कि इस दिन जो भाई बहन यमुना के जल में स्नान करें वे आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाएँ | कहते हैं तभी से ये प्रथा चली कि आज के दिन सभी भाई अपनी बहनों के घर जाकर टीका कराते हैं और अपनी दीर्घायु तथा सुख समृद्धि के लिए उनका आशीर्वाद लेते हैं |

एक कथा एक वर्ग विशेष के साथ जुड़ी हुई है | आज के ही दिन धर्मराज यम के लेखाकार चित्रगुप्त का जन्मदिवस भी कायस्थ समुदाय के लोग प्रायः मनाते हैं | भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के लेखाकार माने जाते हैं । कहते हैं सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल का प्रादुर्भाव हुआ जिस पर एक पुरूष आसीन था | क्योंकि इसकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुई थी अत: इन्हें “ब्रह्मा” नाम दिया गया | इन्हीं से सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गन्धर्व, किन्नर, अप्सराएँ, स्त्री-पुरूष, पशु-पक्षी और समस्त प्रकृति का प्रादुत्भाव हुआ | बाद में इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को दण्ड देने का कार्य सौंपा गया था | अब धर्मराज को अपने लिए एक लेखाकार सहयोगी की आवश्यकता हुई | धर्मराज की इस माँग पर ब्रह्मा जी समाधिस्थ हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद जब वे समाधि से बाहर आए तो उन्होंने अपने समक्ष एक तेजस्वी पुरुष को खड़े पाया जिसने उन्हें बताया कि उन्हीं के शरीर से उसका जन्म हुआ है | तब ब्रह्मा जी ने उसे नाम दिया “चित्रगुप्त” | क्योंकि इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये | कायस्थ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता अपने शरीर में स्थित | अपनी इन्द्रियों पर जिसका पूर्ण नियन्त्रण हो गया हो वह भी कायस्थ कहलाता है |

भगवान चित्रगुप्त एक कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय प्राप्त होता है । आज के दिन धर्मराज यम और चित्रगुप्त की पूजा अर्चना करके उनसे अपने दुष्कर्मों के लिए क्षमा याचना का भी विधान है |

जो भी मान्यताएँ हों, जो भी किम्वदन्तियाँ हों, यम द्वितीया यानी भाई दूज भाई बहन का एक स्नेह तथा उल्लासमय पर्व है | इस उल्लास तथा स्नेहमय पर्व की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ…