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प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

प्राकृतिक सौन्दर्य का पर्व वसन्तोत्सव

माघ शुक्ल पञ्चमी अर्थात वसन्त पञ्चमी का वासन्ती पर्वजब माघ मास लगभग समाप्त होने को होता है तब ठण्ड की विदाई के साथ वसन्त ऋतु का आगमन होता है | फाल्गुन और चैत्र मास वसन्त ऋतु के मास माने जाते हैं | चैत्र वर्ष का प्रथम मास है और फाल्गुन अन्तिमकितना अद्भुत संयोग है कि वैदिक पञ्चांग के अनुसार वर्ष का आरम्भ और अन्त दोनों वसन्त की मादकता के साथ ही होते हैं | उस समय मानों ऋतुराज के स्वागत हेतु समस्त धरा अपने हरे घाघरे के साथ सरसों का पीला उत्तरीय और पलाश के पीत पुष्पों की चूनर ओढ़ लेती है | पलाश, जिसे टेसू भी कहा जाता है | और वृक्षों की टहनियों रूपी अपने हाथों में ढाक के श्वेत पुष्पों के चन्दन से ऋतुराज के माथे पर तिलक लगाकर लाल पुष्पों के दीपों से कामदेव के प्रिय मित्र का आरता उतारती है | वास्तव में अत्यन्त मनोहारी दृश्य होता है यह |

इस वर्ष माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि 2 फरवरी को प्रातः सवा नौ के लगभग बव करण और सिद्ध योग में आरम्भ हो रही है, जो तीन फरवरी को सूर्योदय से पूर्व 6:52 तक रहेगी | अतः रविवार दो फरवरी को यानी कल सरस्वती और रतिकामदेव की पूजा के साथ वसन्त का उल्लास मनाया जाएगा |

कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् और ऋतुसंहार तथा बाणभट्ट के कादम्बरी और हर्ष चरित जैसे अमर ग्रन्थों में वसन्त ऋतु का तथा प्रेम के इस मधुर पर्व का इतना सुरुचिपूर्ण वर्णन उपलब्ध होता है कि जहाँ या तो प्रेमीजन जीवन भर साथ रहने का संकल्प लेते दिखाई देते हैं या फिर बिरहीजन अपने प्रिय के शीघ्र मिलन की कामना करते दिखाई देते हैंसंस्कृत ग्रन्थों में तो वसन्तोत्सव को मदनोत्सव ही कहा गया है जबकि वसन्त के श्रृंगार टेसू के पुष्पों से सजे वसन्त की मादकता देखकर तथा होली की मस्ती और फाग के गीतों की धुन पर हर मन मचल उठता थाइस मदनोत्सव में नर नारी एकत्र होकर चुन चुन कर पीले पुष्पों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते और एक दूसरे पर अबीर कुमकुम की बौछार करते हुए वसन्त की मादकता में डूबकर कामदेव और उनकी पत्नी रति की पूजा करते थेयह पर्व Valentine’s Day की तरह केवल एक दिन के लिए ही प्रेमीजनों के दिलों की धड़कने बढ़ाकर शान्त नहीं हो जाता था, अपितु वसन्त पञ्चमी से लेकर होली तक सारा समय प्रेम के लिए समर्पित होता था

कालिदास को तो वसन्त ऋतु में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की टहनियाँ वन में धधक उठी दावानल की लपटों जैसी प्रतीत होती हैं और इनसे घिरी हुई धरा ऐसी प्रतीत होती है मानो रक्तिम वस्त्रों में लिपटी कोई वधूटी हो | साथ ही उन्हें वसन्त ऋतु सबसे अधिक चारुतर प्रतीत होती है, तभी तो ऋतुसंहार में बोल उठते हैं

द्रुमा सपुष्पा: सलिलं सपदम स्त्रिय: सकामा: पवन: सुगन्धि: |

सुखा: प्रदोषा: दिवसाश्च रम्या:, सर्व प्रिये चारुतरं वसन्ते ||

वापीजलानां मणिमेखलानां शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम् |चूतद्रुमाणां कुसुमान्वितानां ददाति सौभाग्यमयं वसंत: ||

ऐसी मनभावन ऋतु आई

वृक्षों की हर डाली डाली पुष्पित है / प्रमुदित है मन में

प्रफुल्लित हैं पद्म हर एक जलाशय में

और प्रवाहित है सुगन्धित पवन हर दिशा दिशा में

दिवस सुरम्य / सुखकर सन्ध्या

ऐसा चारुतर है वसन्त / तभी तो प्रिय है सभी को

हर ओर एक आकर्षण / एक सम्मोहन

पहले से भी कहीं अधिक

जलाशयों के ठहरे हुए जल को / मणिखचित मेखलाओं को / कंगनों को

चन्द्रमा की चन्द्रिका को / सुकुमारियों की सुकुमारता को

और पुष्पाभूषणों से आभूषित आम्रवृक्षों को

दिया है दान सौन्दर्य का / सौभाग्य का

इसी वसन्त ने तो

तभी तो है इतना मोहक और आकर्षक

यही कालिदास विक्रमोर्वशीयं में दक्षिण दिशा से प्रवाहित होती पवन को वसन्त का सबसे प्रिय मित्र बताते हुए कहते हैं

वासार्थं हर संभृतं सुरभिणा पौष्पं रजो वीरुधांकिं कार्यं भवतो हृतेन दयितास्नेहस्वहस्तेन में |जानीते हि मनोविनोदनशतैरेवंविधैर्धारितंकामार्तं जनमज्जनां प्रति भवानालक्षितप्रार्थनः ||

स्वयं को करना चाहते हो सुवासित सुगन्धि से

तो क्यों नहीं उठा ले जाते वसन्त ऋतु में

वृक्षों की डालियों पर प्रफुल्लित पुष्पों का पराग…?

मेरी प्रियतमा के हाथ का लिखा हुआ ये पत्र

भला किस काम का तुम्हारे…?

तुम तो स्वयं प्रेम कर चुके हो अंजना से

तुम्हें क्या पता नहीं…?

मन के भावों को आनन्दित करते हैं यही प्रेम पत्र तो

देते हैं जीवनदान प्रेमियों को

ऐसी राग रंग रचाती ऋतु को ऋतुओं का राजा भला क्यों न कहा जाएगा…? वसन्तजिस ऋतु में चिर सुषमा की वंशी सदा गुंजायमान रहती होअपार यौवनअपार सुखअपार विलास के देवता कामदेव का पुत्रतभी तो आधार है नव सृजन काशस्य श्यामला वसुन्धरा में स्वर्णिम सौन्दर्यजहाँ भगवान भास्कर की रश्मियाँ पञ्चम का सुर आलापती कोयल तथा घनी अमराइयों में मँडराते भ्रमरों के गान पर थिरक उठती होंसंस्कृत साहित्य ही नहीं वरन रीतिकालीन हिन्दी काव्य से लेकर आज तक के सभी रचनाकारों को वसन्त प्रभावित किये बिना नहीं रहताकिसी को वसन्त के आते ही पुष्पों का खिल जानाभ्रमरों का गानकोयल की कुहुक सब कुछ प्राणिमात्र के लिए सुख तथा स्वास्थ्यकर लगता हैतो किसी को वसन्त की वासन्ती आभा विरह वेदना को और अधिक बढ़ाती जान पड़ती हैतभी तो कहते हैं इसे ऋतुओं का राजाआज भी बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और उत्तराँचल सहित देश के अनेक अंचलों में पीतवस्त्रों और पीतपुष्पों में सजे नरनारी बालवृद्ध एक साथ मिलकर माँ वाणी के वन्दन के साथ साथ प्रेम के इस देवता की भी उल्लासपूर्वक अर्चना करते हैं

इस पर्व के दौरान पीले वस्त्र धारण करने के एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि पीत वर्ण का सम्बन्ध जहाँ एक ओर सूर्य से माना जाता है, वहीं भगवान् विष्णु और माँ वाणी से सम्बद्ध माना जाता है | साथ ही पीला रंग सौभाग्य का प्रतीक भी माना जाता है तथा मन को स्थिरता प्रदान करने वाला, शान्ति प्रदान करने वाला माना जाता है | पीला रंग विचारों में सकारात्मकता, आशा तथा ताज़गी का प्रतीक माना जाने के कारण व्यक्ति को उसके व्यवसाय में उन्नति का सूचक भी माना जाता है | इन्हीं कारणों से भगवान् विष्णु और भगवती सरस्वती को पीले पुष्प अर्पित किये जाते हैं |

साथ ही यह तिथि प्रत्येक कार्य के लिए शुभ मानी जाती है इसलिए इसे अबूझ मुहूर्त भी कहा जाता हैअर्थात जब कोई भी शुभ मुहूर्त न मिल रहा हो तो इसके लिए मुहूर्त निकालने की आवश्यकता नहींबिना मुहूर्त देखे ही इस दिन समस्त शुभ तथा मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं | कितना विचित्र संयोग है कि इस दिन एक ओर जहाँ ज्ञान विज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती को श्रद्धा सुमन समर्पित किये जाते हैं वहीं दूसरी ओर प्रेम के देवता कामदेव और उनकी पत्नी रति को भी स्नेह सुमनों के हार से आभूषित किया जाता है

सर्दियों की विदाई के साथ ही प्रकृति स्वयं अपने समस्त बन्धन खोलकरअपनी समस्त सीमाएँ तोड़करप्रेम के मद में ऐसी मस्त हो जाती है कि मानो ऋतुराज को रिझाने के लिए ही वासन्ती परिधान धारण कर नव प्रस्फुटित कलिकाओं से स्वयं को सुसज्जित कर लेती हैजिनका अनछुआ नवयौवन लख चारों ओर मंडराते भँवरे गुन गुन करते वसन्त का राग आलापने लगते हैंआम बौरा जाते हैंवसन्त के परम मित्र कामदेव अपने धनुष पर स्नेह प्रेम के पुष्पों का बाण चढ़ा देते हैंऔर प्रकृति की इस रंग बिरंगी छटा को देखकर मगन हुई कोयल भी कुहू कुहू का गान सुनाती हर जड़ चेतन को प्रेम का नृत्य रचाने को विवश कर देती हैइसीलिए तो वसन्त को ऋतुओं का राजा कहा जाता हैवास्तव में बड़ी मदमस्त कर देने वाली होती है ये रुतवृक्षों की शाख़ों पर चहचहाते पक्षियों का कलरव ऐसा लगता है मानों पर्वतराज की सभा में मुख्य नर्तकी के आने से पूर्व उसके सम्मान में वृन्दगान चल रहा हो

वसन्त को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अपना ही एक रूप बताया है

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् |मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ||

गीता अध्याय 10 श्लोक 35||

सारी श्रुतियों में मूर्धन्य

वह बृहत्साम मैं ही तो हूं 

वैदिक छन्दों का महच्छंद

गायत्री भी मैं ही तो हूं

द्वादश मासों में मार्गशीर्ष का

का अद्भुत मास भी मैं ही हूं

और षड ऋतुओं का राजा

सबका प्रिय वसन्त मैं ही तो हूं

हमें अक्सर याद आ जाता है कोटद्वार में अपने कार्यकाल के दौरान सिद्धबली मन्दिर के बाहर मुंडेर पर बैठ जाया करते थे अकेलेअपने आपमें खोए सेनीचे कल कल छल छल बहती खोह का मधुर संगीत मन को मोह लिया करता थामन्दिर के चारों ओर ऊपर नीचे देखते तो हरियाली की चादर ताने और रंग बिरंगे पुष्पों से ढकी ऊँची नीची पर्वत श्रृंखलाएँ ऐसी जान पड़तीं मानों अपने तने हुए उभरे कुचों पर बहुरंगी कंचुकियाँ कसेहरितवर्णी उत्तरीयों से अपनी कदलीजँघाओं को हल्के से आवृत कियेकोई काममुग्धा नर्तकी नायिकाप्रियतम को मौन निमन्त्रण दे रही होउसे अभी कहाँ होश पर्वतराज की सभा में जा नृत्य करने काअभी तो कामक्रीड़ा के पश्चात् कुछ अलसाना हैऔर उसके पश्चात्और अधिक पुष्पों की जननी बनना हैवसन्त के आगमन पर उसे स्वयं को पुष्पहारों से और भी अलंकृत करना हैताकि पिछली रात के सारे चिह्न विलुप्त हो जाएँऔर ऋतुराज वसन्त के लिये वो पुनः अनछुई कली जैसी बन जाएऐसा मदमस्त होता है वसन्त का मौसमऋतुओं का राजा

वसन्त की उत्पत्ति के विषय में भी एक रोचक कथा है | तारकासुर नामक राक्षस का वध केवल शिवपार्वती के पुत्र द्वारा ही सम्भव था | भोलेनाथ तो तपस्या में लीन बैठे थे तो उनका पुत्र कैसे उत्पन्न हो सकता था ? तब देवताओं ने कामदेव से उनकी तपस्या भंग करने के लिए सहायता माँगी | कामदेव जानते थे कि शंकर की तपस्या भंग करने का अर्थ है उनके कोप का भाजन बनना | किन्तु देवताओं का कार्य भी आवश्यक था | तब उन्होंने वसन्त को उत्पन्न किया और वसन्त ऋतु तथा कामदेव के बाणों से भगवान शिव की तपस्या भंग हो गई | कामदेव को दण्ड स्वरूप भगवान शंकर ने भस्म कर दिया किन्तु फिर कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्हें छाया रूप में जीवित रहने का वरदान दे दिया | इसीलिए वसन्त को कामदेव का पुत्र भी कहा जाता है और मित्र भीयह कथा वास्तव में प्रतीक है इस तथ्य का कि वसन्त के आगमन पर जब भगवान भास्कर मुस्कुराते हुए रश्मिरथ पर सवार हो प्रकट होते हैं तो शीत का अन्धकार नष्ट हो जाता है | साथ ही पतझड़ के कारण जो प्रकृति का विकास एक प्रकार से बाधित सा हो जाता है वह पुनः आरम्भ हो जाता है | ऐसा प्रतीत होता है मानों रूप व सौन्दर्य के देवता कामदेव के घर में सन्तानोत्पत्ति का समाचार प्राप्त होते ही समूची प्रकृति आनन्द में झूम उठती है, वृक्ष उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, रंग बिरंगे पुष्प उसे वस्त्र पहनाते हैं, पवन झूला झुलाती है और कोयल पंचम की तान सुना उसका मन बहलाती है |साथ ही इस सत्य का प्रतीक भी है कि जिस प्रेम में लोक मंगल की भावना न होकर केवल काम वासना प्रमुख होती है वह प्रेम सम्बन्ध या तो स्वयं के ही प्रमाद के कारण अथवा ऋषि श्राप से भस्म हो जाता हैशिव पार्वती का विवाह किसी काम की भावनाके कारण नहीं हुआ था अपितु लोक मंगल की कामना से हुआ था

और संयोग देखिए कि वसन्त ही के दिन नूतन काव्य वधू का अपने गीतों के माध्यम से नूतन श्रृंगार रचने वाले प्रकृति नटी के चतुर चितेरे महाप्राण निराला का जन्मदिवस भी धूम धाम से मनाया जाता है | यों निराला जी का जन्म 21 फरवरी 1899 यानी माघ शुक्ल एकादशी को हुआ था, किन्तु प्रकृति का यथार्थ और सुकुमार चित्र प्रस्तुत करने के कारण 1930 में वसन्त पंचमी के दिन उनका जन्मदिन मनाने की प्रथा उनके प्रशंसकों ने आरम्भ कर दी ।

वास्तव में वसन्त प्रकृति कापीत वर्ण कापर्व हैजब समस्त प्रकृति में नव जीवन का संचार होने लगता हैफसलें पकने लगती हैंसरसों के खेत समूची धरा को पीली चादर से ढक देते हैं | कडाके की ठण्ड के बाद प्रकृति एक बार पुनः अपने मूल रूप में आ जाती है | इसी सबका स्वागत करने के लिए मन्दिरों कोघरों को पीत पुष्पों से आभूषित किया जाता है और पीली मिठाइयाँ बनाकर उनका प्रसाद ग्रहण किया जाता है | पीले वस्त्र धारण किये जाते हैंअर्थात कण कण में प्रेम और समृद्धि का प्रतीक वासन्ती रंग घुला होता है |

धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व इस पर्व का यही है कि ज्ञान विज्ञान की देवी भगवती सरस्वती के साथ ही सूर्य, गंगा मैया तथा भू देवी की पूजा अर्चना के माध्यम से जन जन को सन्देश प्राप्त होता है कि जिस प्रकृति ने हमारे जीवन में इतने सारे रंग भरे हैं, हमें वृक्षों, वनस्पतियों, स्वच्छ वायु, जल, पशु पक्षियों आदि के रूप में जीवित रहने के समस्त साधन प्रदान किये हैंउस पञ्चभूतात्मिका प्रकृति को धन्यवाद दें और उसका सम्मान करना सीखें |

तो, वसन्त के मनमोहक संगीत के साथ सभी मित्रों को सरस्वती पूजन, निराला जयन्ती तथा प्रेम के मधुमय वासन्ती पर्व वसन्त पञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाएँइस आशा और विश्वास के साथ कि हम सब ज्ञान प्राप्त करके समस्त भयों तथा सन्देहों से मोक्ष प्राप्त कर अपना लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ सकेंताकि अपने लक्ष्य को प्राप्त करके उन्मुक्त भाव से प्रेम का राग आलाप सकें

—–कात्यायनी

माघ गुप्त नवरात्रि

माघ गुप्त नवरात्रि

गुरुवार तीस जनवरी, माघ शुक्ल प्रतिपदा से माघ नवरात्र आरम्भ हो रहे हैंजो सात फरवरी को माघ शुक्ल नवमी को सम्पन्न होंगे और जिन्हें गुप्त नवरात्र के नाम से जाना जाता है | गुप्त नवरात्र आषाढ़ और माघ दो मासों में आते हैं | इन्हें तन्त्र साधना के लिए उत्तम माना जाता है और दश महाविद्याओं की उपासना की जाती है | इस वर्ष माघ शुक्ल प्रतिपदा का आरम्भ 29 जनवरी को सायं छह बजकर छह मिनट के लगभग किंस्तुघ्न करण और सिद्धि योग में हो रहा है | तीस जनवरी को सूर्योदय सात बजकर दस मिनट पर होगा इसलिए इसी दिन से नवरात्रों का आरम्भ होगा तथा सात फ़रवरी को इनका समापन होगा | घट स्थापना का मुहूर्त मीन लग्न में प्रातः 9:27 से 10:50 तक बव करण और व्यतिपत योग में रहेगा | इसके अतिरिक्त दिन में 12:13 से 12:56 तक अभिजित मुहूर्त में भी घट स्थापना की जा सकती है |

शाक्त सम्प्रदाय ने इस विश्वास को पोषित किया कि सर्वशक्तिमान केवल एक नारी ही है | वास्तव में शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही सत्य है तथा शक्ति सर्वत्र व्याप्त भी है | फिर चाहे वह नवदुर्गा के नौ रूपों में प्रतिबिम्बित होती हो अथवा दशमहाविद्याओं के रूप में | दशमहाविद्याओं की साधना यद्यपि तान्त्रिक साधना है, किन्तु यदि साधारण साधक भी इनकी सामान्य रूप से उपासना करें तो उनके लिए भी ये शुभ फलदायी होती हैं |

हिन्दू धर्म की तीन अन्तःप्रवाहित तथा परस्पर विरोधी धाराएँ हैंजिनमें वैष्णव भगवान् विष्णु की उपासना करते हैं, शैव भगवान् शिव की पूजा अर्चना करते हैं तथा शाक्त माँ भगवती के शक्ति रूप की उपासना करते हैंजो भगवान् विष्णु और शिव दोनों की ही अन्तःकरण की शक्ति हैं तथा वे ही प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय की कारणभूता भी हैं | शिव यदि शिव अर्थात मंगल हैं तो शक्ति स्वयं प्रकाश है, और शिव तथा शक्ति के सम्मिलन से ही संसार की रचना होती है तथा रचना करना शक्ति का मूलभूत धर्म है | वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सत्य प्रतीत होता है |

शाक्त विचारधारा के अनुसार भगवती दुर्गा ही पराशक्ति हैं | यही कारण है कि श्री दुर्गा भागवत पुराणजिसका एक अंग श्री दुर्गा सप्तशती भी हैको शाक्त पुराण भी कहा जाता है | अन्य सभी सम्प्रदायों के ही सामान शाक्त सम्प्रदाय का भी उद्देश्य मोक्ष प्राप्तिपरमतत्व की प्राप्तिपरम ज्ञान की प्राप्ति ही है | इसके लिए एकनिष्ठ साधना द्वारा उपलब्ध एक विशेष प्रकार की शक्ति की आवश्यकता होती है | अतः शाक्त सम्प्रदाय के लोग सशक्त बनने अर्थात सिद्धियाँ प्राप्त के लिए अनेक प्रकार से योग साधना तथा तन्त्र साधना करते हैं | इस क्रम में वे दश महाविद्याओं की उपासना करते हैं | इनके अनुसार शक्ति के इस दश रूपों में एक सत्य समाहित हैमहाविद्यामहान ज्ञानजिसके अन्तर्गत माँ भगवती के दश लौकिक व्यक्तित्वों की व्याख्या होती है | शक्ति के ये दश व्यक्तित्व हैं :-

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी |

भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ||

बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका |

एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्रकीर्तिता ||

काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला ये दश महाविद्याएँ साधक को सिद्धि प्रदान करने वाली कही गई हैं |

देवी भागवत के अनुसार शिव और सती के विवाह से सती के पिता दक्ष अप्रसन्न थे | उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया और शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से उन्हें आमन्त्रित नहीं किया | किन्तु सती अपने पिता के घर यज्ञ में जाना चाहती थीं | शिव ने उन्हें रोकना चाहा तब सती ने स्वयं को महाकाली के भयानक रूप में परिवर्तित कर लिया | शिव घबराकर वहाँ से भागने लगे तो वे जिस भी दिशा में जाते उसी दिशा में उन्हें सती किसी न किसी रूप में मार्ग रोके खड़ी मिलतीं | अन्त में शिव ने उन्हें जाने दिया जहाँ दक्ष के द्वारा शिव की निन्दा किये जाने पर सती ने यज्ञ कुण्ड में अपने प्राणों की आहुति देकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया | इस प्रकार दशों दिशाओं में जो उनके दश रूप प्रकट हुए वे ही दश महाविद्या के नाम से जाने जाते हैं |

शिव पुराण के अनुसार माँ दुर्गा ने दश रूप धारण करके उनकी सहायता से दुर्गम दैत्य का वध किया थाये ही देवी के दश रूप दश महाविद्या कहलाए | दश महाविद्याओं का यह समन्वित रूप इस तथ्य को भी सिद्ध करता है कि नारी वास्तव में सर्वशक्तिमान है | शाक्त दर्शन इन दश महाविद्याओं को भगवान विष्णु के दश अवतारों से भी सम्बद्ध करता है और साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि महाविद्याओं के ये दशों रूप चाहे भयानक हों अथवा सौम्यजगज्जननी जगदम्बिका के रूप में पूज्यमान हैं |

इनके विषय में विस्तार से भविष्य में कभी

ये दशों महाविद्याएँ समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाने वाली तथा सर्वार्थ का साधन करने वाली हैं, किन्तु इनकी उपासना की विधियाँ प्रायः तान्त्रिक हैं तथा बहुत कठिन हैं | और हमारा ऐसा मानना है कि गृहस्थी लोगों को इस प्रकार की तान्त्रिक उपासनाओं से प्रायः बचना चाहिए | यदि उपासना में थोड़ी सी भी चूक हो जाए तो न केवल साधक पर बल्कि उसके परिवार के लिए भी घातक सिद्ध हो सकती है |

देवी के सभी रूप समस्त संसार का कल्याण करें यही कामना है

——-कात्यायनी

कुम्भ पर्व का माहात्म्य 

कुम्भ पर्व का माहात्म्य 

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च | 

लक्षप्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत् फलम् ||

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |

चतुःस्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले ||

विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे |

सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम् ||

कुम्भ पर्व चल रहा हैऔर इस वर्ष तो महाकुम्भ है | दो शाही स्नानप्रथम स्नान पौष पूर्णिमा को और दूसरा मकर संक्रान्ति परहो चुके हैं | शाही स्नान की तिथियों और कुम्भ कितने प्रकार के होते हैं इस विषय में हम पूर्व में लिख चुके हैं, आज बात करते हैं कुम्भ के ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व की |

कुभि पूरणेधातु से निष्पन्न कुम्भ शब्द का तात्पर्य– ‘कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत् पिपासादि द्वन्द्वजालम् निर्वंतयति इति कुम्भःअर्थात् जो पर्व अमृतमय जल से पूर्ण होकर हमें क्षुत् पिपासादि अनेक द्वन्द्वों से निवृत्त करता है, उसे कुम्भ कहते हैं | इसी कारण से कुम्भ का शाब्दिक अर्थ भी घट ही हैघट के जल से जीव मात्र की तृषा शान्त होती है | साथ ही घट ईशोपनिषद कीॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते | |” की भावना का भी पोषक है कि घट स्वयं में पूर्ण है | सागर का जल घट में डालें अथवा घट को सागर में डालेंहर स्थिति में वह पूर्ण ही होता है | यह समस्त ब्रह्माण्ड भी घट स्वरूप है और इसका कारक तथा नियन्ता सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है | यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है | इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है | यही कारण है कि भारतीय वैदिक परम्परा के अनुसार किसी भी धार्मिक अनुष्ठान को करते समय सर्वप्रथम कलश स्थापित करके वरुण देवता का आह्वाहन किया जाता है कि वे समस्त तीर्थों के सहित, समस्त नदियों के सहित तथा समस्त देवों के सहित आकार घट में निवास करें |

कुम्भ पर्व की यदि बात करें तो इसका पौराणिक, आध्यात्मिक और धार्मिक महत्त्व होने के साथ ही सामाजिक और ऐतिहासिक महत्त्व भी है | कुम्भ के विषय में प्रचलित पौराणिक आख्यान तो सभी को विदित हैं जिनके अनुसार समुद्र मन्थन के समय जब भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो देवताओं और दानवों के मध्य अमृत पान करने के लिए संघर्ष आरम्भ हो गया था | देवराज इन्द्र के पुत्र जयन्त ने जब अमृत कुम्भ को लेकर भागने की चेष्टा की और दैत्यों ने उनसे वह घट छीनने का प्रयत्न किया और उस आपा धापी में उस अमृत घट से चार स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं | यह स्थान पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक हैं | उसी घटना की स्मृति में प्रत्येक 12 वर्ष में कुम्भ का आयोजन इन चारों स्थानों में होता है | माना जाता है कि इन प्रत्येक 12 वर्ष बाद इन विशेष नदियों का जल अमृत के समान हो जाता है | कुम्भ मेले के स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | यों ऋग्वेद ऋग्वेद में कुम्भ शब्द उपलब्ध होता है किन्तु वह इन्द्र के अर्थ में है – “जघानं वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पूरो अरदत्र सिन्धून् | विभेद गिरं नवमित्र कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुतस्व युग्भि: | |” (ऋग्वेद 10/89/7) इसके अतिरिक्त ऋग्वेद के ही दशम मण्डल के 75 वें सूक्त में गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम का भी उल्लेख है जो प्रयागराज के संगम की ओर इंगित करता है | किन्तु कुम्भ मेले का उल्लेख नहीं है | उसके परवर्ती वेद अथर्ववेद के चतुर्थ मण्डल के चौंतीसवें में पूर्ण कुम्भ का उल्लेख है और उसे समय का प्रतीक माना गया है | प्रयागराज का उल्लेख महाभारत तथा अन्य पुराणों में भी उपलब्ध होता है जहाँ माघ मास में संगम में स्नान को पुण्य कारक बताया गया है | साथ ही माघ मेले के विवरण प्राप्त होते हैं, किन्तु आज की भाँति सुव्यवस्थित रूप से मेला उस समय नहीं था | कुछ विद्वान गुप्तकाल से इसका संगठित स्वरूप मानते हैं तो कुछ शिलादित्य हर्षवर्धन के समय से |

किन्तु कुम्भ पर्व का महत्त्व केवल इन आख्यानों के कारण ही नहीं है, अपितु वास्तव में कुम्भ पर्व का महत्त्व देवगुरु बृहस्पति के विशेष राशियों में सूर्य और चन्द्र के साथ युति के कारण है | अमृत कलश के संरक्षण में सूर्य, चन्द्र और देवगुरु बृहस्पति का विशेष योगदान रहा और इन तीनों ग्रहों के उन्हीं विशिष्ट योगों में आने से, जिन योगों में अमृत संरक्षित हुआ था, कुम्भ पर्व का योग बनता है | मान्यता है कि, 

 सूर्येन्दुगुरु संयोगस्तद्राशौ यत्र वत्सरे |

सुधा कुंभ प्लवे भूमो कुंभो भवतिनान्यथा ||

 इस प्रमाण के अनुसार अमृत बिंदु पतन के समय जिन राशियों में सूर्यचन्द्रगुरु की स्थिति थी उन्हीं राशियों में इन तीनों ग्रहों का संयोग जब जब होता है तब तब कुम्भ पर्व का आयोजन किया जाता है | ‘कुंभोभवति नान्यथाकहकर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इन योगों के अभाव में कुम्भ पर्व नहीं मनाया जा सकता है | सूर्य हर महीने अपनी राशि बदलता है और चन्द्रमा लगभग सवा दो दिन एक राशि में रहता है | किन्तु देवगुरु बृहस्पति को एक राशि से दूसरी राशि पर जाने में लगभग बारह वर्षों का समय लग जाता है इसीलिए पूर्ण कुम्भ लगभग प्रत्येक बारह वर्षों के अन्तराल पर आता है |

देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यै द्वादश वत्सरे: |

जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया | |

 तत्राध्रुतात्तयेनूपांचत्वरों भुवि भारते |

अष्टौलोकान्तरे प्रोक्तादेवैर्गम्यानचेतरै: | |

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते |

विष्णु द्वारे तीर्थराजेवन्त्यां गोदावरी तटे,

सुधा बिंदु विनिक्षेपात् कुम्भपर्वेति विश्रुत: | |

 अर्थात देवताओं के 12 दिन और मनुष्यों के 12 वर्ष में कुल 12 कुम्भ पर्व आते हैं | पृथ्वी पर मनुष्यों के चार कुम्भ तथा शेष आठ कुम्भ पर्व देवताओं के होते हैं | क्योंकि ये आठ कुम्भ पृथिवी पर नहीं होते अतः इनका भान भी नहीं होता | जब गुरु और सूर्य चन्द्र सिंह राशि में होते हैं तब कुम्भ मेला नासिक में आयोजित होता है | गुरु के सिंह राशि और सूर्य के मेष राशि में होने पर कुम्भ मेला उज्जैन में आयोजित किया जाता है | गुरु के सिंह राशि में होने के कारण इन कुम्भ मेलों को सिंहस्थ भी कहा जाता है | सूर्य मेष राशि और गुरु कुम्भ  राशि में होते हैं तब उत्तराखण्ड के चार धामों – बद्रीनाथकेदारनाथगंगोत्रीयमुनोत्री – के प्रवेश द्वार के रूप में प्रसिद्ध हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन होता है | माना जाता है कि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने कुम्भ मेले का आयोजन आरम्भ कराया था | वैसे तो हर 12 वर्ष में कुम्भ का मेला लगता हैकिन्तु छह वर्षों की अवधि में भी कुम्भ का आयोजन किया जाता है जो प्रयागराज और हरिद्वार में दो पूर्ण कुम्भ मेलों के मध्य की अवधि में होता है |

किन्तु पूरे बारह वर्षों के बाद कुम्भ मेले का आयोजन होता है ऐसा भी नहीं है | ज्योतिषीय परिभाषाओं के अनुसार बारह मास के एक वर्ष और तीस दिन का एक मास होता है | किन्तु साथ ही दो पूर्णिमा के मध्य कभी 29, तो कभी 30 और कभी 31 दिन तक की अवधि लग जाती है | सूर्य तथा चन्द्र के इस अन्तर को पूर्ण करने के लिए क्षय तथा अधिक मास का विधान भी किया गया है उसी प्रकार जैसे अँग्रेज़ी कैलेण्डर में हर चौथे वर्ष लीप ईयर माना गया है और फरवरी को 28 के स्थान पर 29 दिन का कर दिया गया है | अतः इस क्षय तथा अधिक मास के कारण बृहस्पति कभी कभीवैदिक गणितज्ञों के अनुसार लगभग ग्यारह वर्ष ग्यारह महीने और 27 दिनों मेंबारह राशियों में भ्रमण करके पुनः उसी राशि पर आ जाता है | और यही कारण है कि लगभग हर सप्तम और अष्टम कुम्भ के मध्य बारह वर्षों के स्थान पर ग्यारह वर्षों का भी अन्तराल आ जाता है | उदाहरण के लिए प्रयागराज के 2010 के कुम्भ के ग्यारह महीनों के बाद 2021 में हरिद्वार में कुम्भ मेले का आयोजन हुआ था |  

 कुम्भ मेले के आधुनिक स्वरूप का प्रवर्तक जगद्गुरु आड़ शंकराचार्य को माना जाता है जिन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक सौहार्द और एकता को बढ़ाने के उद्देश्य से दशनामी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की थी और कुम्भ मेले को संगठित स्वरूप प्रदान किया था | उन्होंने ही नागा साधुओं को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देकर उनके अखाड़ों की स्थापना की तथा इन नागा साधुओं को धार्मिक स्थलों, धार्मिक ग्रन्थों और आध्यात्मिक ज्ञान की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा | 1857 की क्रान्ति के समय तो क्रान्तिकारी साधु सन्तों के वेष में कुम्भ मेले में प्रयागराज पहुँचे हुए थे जिससे अँग्रेज़ भयभीत हो गाए थे और उन्होंने उस वर्ष मेले में जन साधारण के जाने पर रोक लगा दी थी | 1915 के हरिद्वार के कुम्भ में महामना मदन मोहन मालवीय जी और गाँधी जी भी पहुँचे थे ऐसे उल्लेख बहुत स्थानों पर उपलब्ध होते हैं | मदन मोहन मालवीय जी ने इसी कुम्भ में अखिल भारतीय हिन्दू सभा की नींव रखी थी | और गाँधी जी दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद दो दिनों तक स्वामी श्रद्धानन्द जी के साथ कैम्प में रहे थे और वहाँ उपस्थित जन साधारण को आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास किया था |

बहुत सी कथाएँ कुम्भ मेले के विषय में हैंपौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक | किन्तु वास्तव में कुम्भ का मेला एक ऐसा आयोजन होता है जो खगोल विज्ञानज्योतिषआध्यात्मअनुष्ठान तथा कर्मकाण्ड की परम्पराओं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक रीति रिवाज़ों और प्रथाओं को स्वयं में समाहित किए होने के कारण अत्यन्त समृद्ध होता है | इनमें सभी धर्मों के लोग आते हैं | आध्यात्मिक अनुशासन के कठोर मार्ग की साधना करने वाले साधु तथा नागा साधु भी इनमें सम्मिलित होते हैं, नागा साधुओं ने ही महारानी लक्ष्मीबाई की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी | सन्यासी अपना एकान्तवास छोड़कर जान साधारण के मध्य इस अवधि में पहुँच जाते हैं | साथ ही धार्मिक भावनाओं से ओत प्रोत जन साधारण तो इस अवसर पर पवित्र नदियों में स्नान कर तथा इन साधु सन्तों के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करते ही हैं | इस सबके अतिरिक्त अन्य भी अनेक प्रकार के आयोजन इन मेलों में होते हैं जैसे – हाथी घोड़ों और रथों पर पारम्परिक अखाड़ों के जुलूस जिन्हें “पेशवाई” कहा जाता हैशाही स्नान के समय नागा साधुओं की रस्में तथा अन्य अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम सदा से इन कुम्भ मेलों का आकर्षण सदा से रहे हैं, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे | हमारे देश की महान संस्कृति और धार्मिक तथा आध्यात्मिक आस्थाओं और विचारों को देखने सुनने तथा उनसे कुछ सीखने के लिए और पवित्र नदियों में विशिष्ट ग्रह योगों में स्नान करके पुण्य लाभ के लिए लाखों करोड़ों की संख्या में लोग न केवल भारत के विभिन्न शहरों क़स्बों से इस कुम्भ मेले में आते हैं बल्कि संसार के बहुत से देशों से भी श्रद्धालु इस अमृत पर्व में उमड़े पड़ते हैं, और यही है महानता इस पर्व की

हम सब भी यदि कुम्भ मेले में नहीं भी जा सकते हैं तो भी अपने हृदय रूपी घट में कुछ पलों के लिए पैठकर आत्मावलोकन का प्रयास अवश्य करें इसी कामना के साथ कुम्भ पर्व की शुभकामनाएँ

माघ कृष्ण चतुर्थी

माघ कृष्ण चतुर्थी

संकष्टी चतुर्थी 

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रविनायकम् |

भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये ||

हिन्दू मान्यता के अनुसार ऋद्धि सिद्धिदायक भगवन गणेश किसी भी शुभ कार्य में सर्वप्रथम पूजनीय माने जाते हैं | गणेश जी को विघ्नहर्ता माना जाता है, यही कारण है कि कोई भी शुभ कार्य आरम्भ करने से पूर्व गणपति का आह्वाहन और स्थापन हिन्दू मान्यता के अनुसार आवश्यक माना जाता है | चतुर्थी तिथि भगवान गणेश को समर्पित मानी जाती है और इस दिन गणपति की उपासना बहुत फलदायी मानी जाती है |

माह के दोनों पक्षों में दो बार चतुर्थी आती है | इनमें पूर्णिमा के बाद आने वाली कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है और अमावस्या के बाद आने वाली शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को विनायक चतुर्थी कहा जाता है | इस प्रकार यद्यपि संकष्टी चतुर्थी का व्रत हर माह में होता है, किन्तु माघ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का विशेष महत्त्व माना जाता है | 

इस वर्ष शुक्रवार 17 जनवरी को माघ कृष्ण चतुर्थी को संकष्टी चतुर्थी का व्रत किया जाएगाजिसे विघ्न विनाशक गणपति की पूजा अर्चना के कारण लम्बोदर संकष्टी चतुर्थीआँचलिक बोली में संकट चतुर्थीवक्रतुंडी चतुर्थीतिलकुटा चौथसकट चौथ के नाम से भी जाना जाता है | इस व्रत को माघ मास में होने के कारण माघी भी कहा जाता है तथा इसमें तिल के सेवन का विधान होने के कारण तिलकुट चतुर्थी भी कहा जाता है | उत्तर भारत में तथा मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में इस व्रत की विशेष मान्यता है और विशेष रूप से माताएँ अपनी सन्तान की मंगल कामना से इस व्रत को करती हैं | हमने सुना है अलवर से लगभग 60 किलोमीटर की दूर पर सकट माता का मन्दिर भी है जिसकी दूर दूर तक मान्यता है और अपनी मनोकामना सिद्धि के लिए जैन साधारण वहाँ पहुँचता भी है | इस वर्ष संकष्टी चतुर्थी के दिन यानी 17 जनवरी को सूर्योदय से पूर्व चार बजकर छह मिनट पर वृश्चिक लग्न, धनु राशि, बव करण और सौभाग्य योग में चतुर्थी तिथि का आरम्भ हो रहा है जो दूसरे दिन यानी 18 जनवरी को प्रातः 8:30 तक रहेगी | भगवान भास्कर मकर राशि में विचरण कर रहे हैं तथा शनि देव स्वराशिगत हैं शुक्र के साथ | इन ग्रह स्थितियों के कारण बहुत शुभ योग भी इस दिन बन रहे हैं |  सकट चौथ के पूजन के लिए मुहूर्त धनु लग्न में प्रातः पाँच बजकर पाँच मिनट से लग्न की समाप्ति तक यानी सात बजकर सात मिनट तक रहेगा | किन्तु सामाजिक पर्व होने के कारण अपने परिवार की मान्यताओं के अनुसार किसी भी समय गणपति और सकट माता की पूजा इस दिन की जा सकती है | चन्द्र दर्शन रात्रि नौ बजकर नौ मिनट पर होना है अतः चन्द्रमा को अर्घ्य देने का समय रात्रि में नौ बजकर नौ मिनट से आरम्भ हो रहा है | सभी को संकष्टी चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ

गणपति की पूजा अर्चना के साथ ही संकष्टी माता या सकट माता की उदारता से सम्बन्धित कथा का भी पठन और श्रवण इस दिन किया जाता है | कथा अनेक रूपों में हैअपने अपने परिवार और समाज की प्रथा के अनुसार कहीं भगवान शंकर और गणेश जी की कथा का श्रवण किया जाता है कि किन परिस्थितियों में गणेश जी को हाथी का सर लगाया गया था | कहीं कुम्हार की कहानी भी कही सुनी जाती है | तो कहीं कहीं गणेश जी और बूढ़ी माई की कहानी तो कहीं साहूकारनी की कहानी कही सुनी जाती है | कहीं जेठानी और देवरानी की कहानी कही सुनी जाती है | कुछ अन्य मान्यताएँ भी हैं, जैसे मान्यता है कि इसी दिन भगवान् शंकर ने अपने पुत्र गणेश के शरीर पर हाथी का सिर लगाया था और माता पार्वती अपने पुत्र को इसी रूप में पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो गई थीं | एक और कथा कही सुनी जाती है कि भगवान विष्णु जब माता लक्ष्मी से विवाह करने जा रहे थे तब उन्होंने गणेश जी के भारी भरकम शरीर और बहुत अधिक भोजन करने के कारण उनका अपमान किया जिसके कारण बारातियों को बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ा और अन्त में गणेश जी को मनाया गया तब कहीं जाकर विवाह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुआ |

किन्तु, जैसी कि अन्य हिन्दू व्रतोत्सवों की इन समस्त लोक कथाओं का कोई पौराणिक अथवा वैज्ञानिक महत्त्व नहीं है, किन्तु इन सब के साथ कोई न कोई नैतिक सन्देश अवश्य जुड़ा होता है | इन संकष्टी चतुर्थी की कथाओं में भी कुछ इसी प्रकार के सन्देश निहित हैं कि कष्ट के समय घबराना नहीं चाहिए अपितु साहस से बुद्धि पूर्वक कार्य करना चाहिए, माता पिता की सेवा परम धर्म है, लालच और ईर्ष्या अन्ततः कष्टप्रद ही होती है, किसी भी व्यक्ति का आकलन उसके रूप रंग तथा धनी निर्धन आदि होने के आधार पर नहीं करना चाहिए, समस्त प्राणिमात्र में अपनी आत्मा का निवास मानते हुए सबके साथ सम्मान दया तथा करना का व्यवहार करना चाहिए तथा मन में लिए संकल्प को अवश्य पूर्ण करना चाहिए | 

साथ ही, पूजा में जो तिलकुट का प्रयोग किया जाता है वह भी ऋतु के अनुसार ही हैतिल और गुड़ का कूट बनाकर भोग लगाया जाता है जो कडकडाती ठण्ड में कुछ शान्ति प्राप्त करने का अच्छा उपाय है | ऐसा भी माना जाता है कि तिल में फाइबर और एंटीऑक्सीडेंट की मात्रा अधिक होने के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है | ऐसा भी ज्ञात हुआ है कि तिल में जो एंटीऑक्सीडेंट होता है वह अनेक प्रकार के कैंसर की सम्भावनाओं को क्षीण करता है | तिलों के सर्दियों में सेवन से जोड़ों में दर्द नहीं होता, स्निग्ध बनी रहती है | बालों के लिए भी तिल उपयोग लाभकारी माना जाता है | वैसे ये सब दादी नानी के नुस्ख़े हैं, मूल रूप से तो ये सब डॉक्टर्स के विषय हैंवही इस दिशा में जानकारी दें तो अच्छा होगा |

अस्तु ! हम सभी परस्पर प्रेम और सौहार्द की भावना के साथ ऋद्धि सिद्धिदायक विघ्नहर्ता भगवान गणेश का आह्वाहन करें और प्रार्थना करें कि गणपति सभी को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त रखेंइसी कामना के साथ सभी को संकष्टी चतुर्थी के व्रत की हार्दिक शुभकामनाएँ

करवाचौथ व्रत 2024

करवाचौथ व्रत 2024

हम सभी परिचित हैं कि भारत के उत्तरी और पश्चिमी अंचलों में कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को करवाचौथ व्रत अथवा करक चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है | करक का अर्थ होता है मिट्टी का पात्र और इसीलिए इस दिन मिट्टी के पात्र से चन्द्रमा को अर्घ्य देने की प्रथा है | इस वर्ष रविवार बीस अक्तूबर को पति, सन्तान तथा परिवार के सभी सदस्यों की दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य की कामना से महिलाएँ करवाचौथ के व्रत का पालन करेंगी | करवाचौथ के व्रत का पारायण उस समय किया जाता है जब चन्द्र दर्शन के समय चतुर्थी तिथि रहे | इसीलिए यदि प्रातःकाल से चतुर्थी तिथि नहीं भी हो तो प्रायः तृतीया में व्रत रखकर तृतीयाचतुर्थी के सन्धिकालप्रदोष कालमें पूजा अर्चना का विधान है | कुछ स्थानों पर निशीथ कालमध्य रात्रिमें भी करवा चौथ की पूजा अर्चना की जाती है |

इस अवसर पर अन्य देवी देवताओं के साथ शिव परिवार की पूजा अर्चना की जाती है | सबसे पहले अखण्ड सौभाग्यवती माता पार्वती की पूजा की जाती है और फिर उनके पश्चात् श्री गणेश तथा शेष शिव परिवार की अर्चना की जाती है | चतुर्थी तिथि वैसे भी विघ्नहर्ता गणपति के लिए समर्पित होती है | करक चतुर्थी को प्रातःकाल सरगी लेने से पूर्व स्नानादि से निवृत्त होकर महिलाएँ संकल्प लेती हैंमम सुखसौभाग्यपुत्रपौत्रादि सुस्थिरश्रीप्राप्तये करकचतुर्थीव्रतमहं करिष्ये…” अर्थात अपने पति पुत्र पौत्रादि के सुख सौभाग्य की कामना से तथा स्थिर लक्ष्मी प्राप्त करने के उद्देश्य से मैं ये करक चतुर्थी का व्रत कर रही हूँ | इसके पश्चात माता पार्वती की पूजानमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं सन्ततिशुभाम्‌प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे ||” मन्त्र से की जाती है | तत्पश्चात गणेश, शंकर, कार्तिकेय आदि की पूजा करने के बाद दुग्ध अथवा जल से पूर्ण करक यानी करवे में कुछ दक्षिणा डालकर परिवार की बुज़ुर्ग महिलाओं अथवा अन्य किसी भी सम्माननीय महिला को दान किया जाता है | करवा दान करते समयकरकं क्षीरसम्पूर्णं तोयपूर्णमथापि वाददामि रत्नसंयुक्तं चिरञ्जीवतु मे पतिः ||” जिसका अर्थ है कि हे शंकरप्रिया, मैं अपने पति की दीर्घायु की कामना से रत्न (अथवा दक्षिणा) सहित दुग्ध अथवा जल से परिपूर्ण करवा यानी मिट्टी का पात्र दान कर रही हूँऔर फिर अन्त में चन्द्र दर्शन करके व्रत का पारायण किया जाता है |

इस वर्ष करवाचौथ के मुहूर्त:

चतुर्थी तिथि का आरम्भरविवार 20 अक्तूबर प्रातः 6:46 पर

चतुर्थी तिथि समाप्त सोमवार 21 अक्तूबर सूर्योदय से पूर्व 4:16 पर

20 अक्तूबर को सूर्योदय – 6:25 पर, सरगी – 6:25 तकबवकरणऔरव्यातिपतयोगमें

सायंकालीन पूजा का मुहूर्तसायं 5:46 से 7:02 तक मेष लग्न, बालवकरणऔरवरीयानयोगमें

अभिजित मुहूर्त मेंप्रातः 11:43 से 12:28 तक

चन्द्र दर्शन दिल्ली और उत्तराखण्ड तथा उसके आस पास के क्षेत्रों में रात्रि 7:54 के लगभग सम्भव है | शेष शहरों में वहाँ के पञ्चांग के अनुसार देखा जाएगा | चन्द्र दर्शन के समय वृषभ लग्न में चन्द्रमा भी अपनी उच्च राशि में रोहिणी नक्षत्र पर विचरण करेगा, साथ ही गुरुदेव के साथ मिलकर गज केसरी योग भी बना रहा है |

सरगी की प्रथा आरम्भ होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि पहले छोटी आयु की बच्चियों के विवाह हो जाया करते थे | ऐसे में परिवार के लोगों को लगता था कि सारा दिन इतनी छोटी बच्ची के लिए भूखा प्यासा रहना कठिन होगाजिस कारण से एक ऐसा नियम ही बना दिया गया कि बच्चियाँ सूर्योदय से पूर्व कुछ हल्का भोजन जैसे फल इत्यादि ग्रहण कर लें ताकि सारा दिन उन्हें इस भोजन का पोषण उपलब्ध होता रहे | आज की भाँति अन्न से बने किसी खाद्य पदार्थ का भोजन नहीं किया जाता था क्योंकि ऐसा भोजन इस समय करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, साथ ही अन्न आलस्य का कारण भी होता है और व्रत उपवास में आलस्य के लिए कोई स्थान नहीं होता |

ऐसी मान्यता है कि सती ने अपने पति शिव के अपमान का बदला लेने के लिए अपने पिता दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने हेतु उनके यज्ञ की अग्नि में आत्मदाह कर लिया था | उसके बाद वे महाराज हिमालय की पुत्री के रूप में उनकी पत्नी मैना के गर्भ से पार्वती के रूप में उत्पन्न हुईं | उस समय भगवान शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए बहुत से अन्य उपवासों के साथ इस व्रत का भी पालन किया था | अतः यह व्रत और इसकी पूजा शिवपार्वती को समर्पित होती है |

करवाचौथ एक आँचलिक पर्व है और उन अंचलों में इसके सम्बन्ध में बहुत सी कथाएँ प्रचलित हैं, व्रत के दौरान जिनका श्रवण सौभाग्यवती महिलाएँ करती हैं | उन सबमें महाभारत की एक कथा हमें विशेष रूप से आकर्षित करती है | इसके अनुसार अर्जुन शक्तिशाली अस्त्र प्राप्त करने के उद्देश्य से पर्वतों में तपस्या करने चले गए और बहुत समय तक वापस नहीं लौटे | द्रौपदी इस बात से बहुत चिन्तित थीं | तब भगवान कृष्ण ने उन्हें पार्वती के व्रत की कथा सुनाकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थी का व्रत करने की सलाह दी थी |

करवाचौथ का पालन उत्तर भारत में प्रायः सभी विवाहित हिन्दू महिलाएँ चिर सौभाग्य की कामना से करती हैं | कुछ स्थानों पर उन लड़कियों से भी यह व्रत कराया जाता है जो विवाह योग्य होती हैं अथवा जिनका विवाह तय हो चुका है | यह व्रत पारिवारिक परम्पराओं तथा स्थानीय रीति रिवाज़ के अनुसार किया जाता है | व्रत की कहानियाँ भी पारिवारिक मान्यताओं के ही अनुसार अलग अलग हैं | लेकिन कहानी कोई भी हो, एक बात हर कहानी में समान है कि बहन को व्रत में भूखा प्यासा देख भाइयों ने नकली चाँद दिखाकर बहन को व्रत का पारायण करा दिया, जिसके फलस्वरूप उसके पति के साथ अशुभ घटना घट गई |

कथा एक लोक कथा ही है | किन्तु इस लोक कथा में इस विशेष दुर्घटना का चित्र खींचकर एक बात पर विशेष रूप से बल दिया गया है कि जिस दिन व्यक्ति नियम संयम और धैर्य का पालन करना छोड़ देगा उसी दिन से उसके कार्यों में बाधा पड़नी आरम्भ हो जाएगी | नियमों का धैर्य के साथ पालन करते हुए यदि कार्यरत रहे तो समय अनुकूल बना रह सकता है | वैसे भी यदि व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तोसौभाग्यशब्द से तात्पर्य केवलअखण्ड सुहागसे ही नहीं है, अपितु सौभाग्य का अर्थ है अच्छा भाग्य. .. जो प्राप्त होता है अच्छे तथा पूर्ण संकल्प से किये गए कर्मों सेअतः हम सभी नियम संयम की डोर को मज़बूती से थामे हुए सोच विचार कर हर कार्य करते हुए आगे बढ़ते रहें, इसी कामना के साथ सभी महिलाओं को करवाचौथ की हार्दिक शुभकामनाएँ

——-कात्यायनी

अष्ट वसु

अष्ट वसु

हमारी एक मित्र ने हमसे वसुओं के विषय में प्रश्न किया था । व्यस्तताओं के कारण समय पर इस विषय में कुछ नहीं लिख सके । अष्ट वसुओं के विषय में कुछ लिख पाना इतना सरल भी नहीं है, क्योंकि अनेकों पौराणिक सन्दर्भ और मान्यताएं इस विषय में हैं और इनके पृथक पृथक नाम पृथक पृथक पुराणों में उपलब्ध होते हैं । बहरहाल, विषय पर आगे बढ़ते हैं ।

वसु – जिनके कारण पृथिवी वसुधा, वसुन्धरा, वसुमती इत्यादि नामों से पुकारी जाती है । तो सबसे पहले हमें वसु शब्द की निष्पत्ति और उसके भाव को समझने की आवश्यकता है । सामान्यतः वसु का अर्थ धन सम्पदा आदि से किया जाता है – जो बहुत सीमा तक उचित भी है । धरती माता की कोख में अमूल्य निधियाँ भरी हैं, जिनके कारण वह वसुन्धरा कहलाती है । लाखो, करोड़ों वर्षो से अनेक प्रकार की धातुओं को, रत्नादिकों को पृथ्वी के गर्भ में पोषण मिला है । और सबसे महान तथा जीवनदायी रत्न तो वसुधा से प्राप्त अन्न, जल, वनस्पतियां ही हैं – जिनके अभाव में जीवन का कोई अस्तित्व ही नहीं । यहां जिन वसुओं के विषय में प्रश्न है वे आठ मौलिक देवता हैं जिन्हें “अष्ट-वसु” कहा जाता है और ये आठों वसु प्रकृति के आठ तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं – ब्रह्माण्डीय प्राकृतिक घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और तैंतीस देवी देवताओं में गिने जाते हैं । वसु का अर्थ है निवास करने वाला और यह शब्द वस धातु में उप प्रत्यय लगाकर बना है । इस प्रकार रत्नगर्भा के हृदय में निवास करने वाली रत्नराशि वसु कहलाई ।

ये वसु तैंतीस देवताओं में से आठ हैं । वेदों में तैंतीस कोटि अर्थात तैंतीस प्रकार के देवी देवता उनके रूप गुण धर्मादि के आधार पर बताए गए हैं, जिन्हें हमारे विद्वानों ने तैंतीस करोड़ बना दिया है । ये तैंतीस देवी देवता हैं – 12 आदित्य, 11 रुद्र, 8 वसु, इन्द्र और प्रजापति । कुछ स्थानों पर प्रजापति के स्थान पर अश्विनी कुमारों का उल्लेख भी मिलता है । प्रजापति ब्रह्मा के लिए कहा गया है । 12 आदित्यों में एक विष्णु स्वयं हैं और 11 रुद्रों में एक शिव भी हैं । इन सभी को उस परम सत्ता ने ब्रह्माण्ड के सुचारू रूप से संचालन के लिए अलग अलग कार्य सौंपे हुए हैं ।

यहां हम बात कर रहे हैं अष्ट वसुओं की । आठ पदार्थों की ही भांति इन आठ वसुओं को भी समझा जाना चाहिए । इन सभी का जन्म दक्ष की पुत्री तथा धर्म की पत्नी अदिति के गर्भ से हुआ था जो भगवान शिव की पत्नी सती की बहिन थीं । जैसा कि ऊपर लिखा है, इन आठों वसुओं के अलग अलग पौराणिक ग्रन्थों में अलग अलग नाम उपलब्ध होते हैं । उदाहरण के लिए स्कन्द, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में आठ वसुओं के नाम हैं:- आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष । भागवत पुराण के अनुसार द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, द्यौ, वसु और विभावसु नाम हैं । महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है । ऋग्वेद के अनुसार ये पृथ्वीवासी देवता हैं और अग्नि इनके नायक हैं ।

इनके मानव रूप में जन्म के विषय में भी पृथक पृथक पौराणिक ग्रन्थों में पृथक पृथक कथाएँ उपलब्ध होती हैं । जिनमें प्रसिद्ध कथा है कि पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदा नदी के तट पर बारह वर्षों तक घोर तपस्या की । तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया । तत्पश्चात वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । एक अन्य कथा के अनुसार वसुओं में सबसे छोटे वसु द्यौ ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था । वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया । वसुओं के क्षमा मांगने पर महर्षि ने सात वसुओं के तो श्राप की अवधि केवल एक वर्ष कर दी, किन्तु द्यौ नाम के वसु ने क्योंकि उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में निसंतान रहने के साथ ही महान विद्वान और वीर होने के साथ साथ स्त्री के भोग का त्याग करने का भी श्राप दिया । इसी श्राप के कारण इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ । सात पुत्रों को गंगा ने जल में फेंक दिया था, किन्तु आठवें भीष्म को बचा लिया गया था ।

नाम चाहे जो भी हों और मान्यताएँ तथा कथाएँ चाहे जितनी भी प्रचलित हों, इतना अवश्य माना जाता है कि इन सबका प्रकृति और पञ्च महाभूतों से सम्बन्ध है – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र । जैसे :

धर अर्थात धारण करने के गुण धर्म के कारण अर्थात पृथिवी । उनकी पत्नी द्यौ हैं जिनका सम्बन्ध आकाश से है । धरा है तब ही प्राणी मात्र का अस्तित्व और आश्रय है । जो धारण करती है । कुछ भी धारण करने की सामर्थ्य – वह कोई वस्तु भी हो सकती है और विचार भी हो सकता है ।

आप अर्थात जल की वर्षा अन्तरिक्ष से होती है जो नदियों से होता हुआ समुद्र में पहुँचता है और पुनः वाष्पीकृत होकर बरसने के लिए तत्पर हो जाता है । जीवन के लिए अमृत यह जल ही है । जल न हो तो जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसी के कारण मानव शरीर के सारे रस बनते हैं और यही समूची प्रकृति को – समूची धरा को – समस्त वसुओं की जननी बनाता है ।

अनल का अर्थ ही है अग्नि – ऊर्जा । जब हम अग्नि में आहुति देते हैं तो यह माना जाता है कि यह अग्नि के माध्यम से भगवान तक पहुंचता है और बुराई को अच्छाई में बदल देता है और उदारतापूर्वक आशीर्वाद भी देता है । जीवन का आधार यही ऊर्जा है । अग्नि तत्व थोड़ा भी बिगड़ जाए तो शरीर के अंग समुचित रूप से कार्य नहीं कर सकते ।

अनिल का अर्थ भी सर्व विदित है – वायु और अन्तरिक्ष के देव हैं । इन्हें दिशाओं का रक्षक माना जाता है । इसी से हमें जीवित रहने के लिए प्राणवायु प्राप्त होती है । क्योंकि यह तत्व हमारी चेतना को – हमारी विचार शक्ति को प्रभावित करता है इसी कारण से यह हमारी स्मरण शक्ति को भी प्रभावित करता है | यदि यह तत्व विकृत हो जाए तो भ्रम और द्विविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है व्यक्ति के लिए |

द्यौ का अर्थ भी सर्व विदित है – आकाश और इनका एक नाम प्रभाष भी है । अन्तरिक्ष की दिव्य उपस्थिति सर्वव्यापी है और वह सुनिश्चित करती है कि मन की शान्ति, आनन्द और समृद्धि बनी रहे । ये आकाश के पिता और देवी पृथ्वी की पत्नी माने गए हैं और इसीलिए इन्हें सम्मिलित रूप से द्यावापृथ्वी कहा जाता है । वह वर्षा के देवता इन्द्र के भी पिता माने जाते हैं ।

सोम अपने नाम के अनुरूप ही अपनी किरणों से अमृत की वर्षा करने वाले चन्द्र देव हैं । ये सभी प्रकार की भावनाओं अर्थात मन को नियंत्रित करते हैं तथा व्यक्तित्व निर्मित करते हैं । जिस प्रकार चन्द्र सूर्य के प्रकाश से भासित होता है उसी प्रकार मन भी चेतना के प्रकाश से ही प्रकाशित अर्थात् एकाग्र होता है ।

ध्रुव अटल होने के कारण नक्षत्रों के देव हैं । किसी भी विचार को केन्द्रित करने के लिए इसी अटल भाव की आवश्यकता होती है । किसी भी ऊर्जा के प्रवाह का केन्द्र बिन्दु ।

प्रत्यूष अथवा आदित्य सूर्य देव हैं जो प्रकाश तथा ऊर्जा और प्राण अर्थात जीवनी शक्ति के दाता हैं । यह वसु नेतृत्व के गुण प्रदान करते हैं, एक उज्ज्वल भविष्य और अचल सम्पत्ति प्रदान करने वाले माने जाते हैं ।

मान्यताएं और कथाएं चाहे जितनी भी हों, इतना सत्य है कि प्रकृति की ये शक्तियां मनुष्य के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये ऐसी ऊर्जाएं हैं जो हमारे जीवन को सुचारू और संतुलित रूप से सञ्चालन में और हमारे जीवन तथा विचारों को सकारात्मकता प्रदान करने के लिए हमारे साथ निरन्तर “वास” करती हैं ।
—– कात्यायनी

 

गुरु का वृषभ में गोचर

गुरु का वृषभ में गोचर

बुधवार एक मई, वैशाख कृष्ण अष्टमी को दिन में एक बजे के लगभग शुभ योग और बालव करण में देवगुरु बृहस्पति अपने मित्र मंगल की मेष राशि से निकाल कर शत्रु ग्रह शुक्र की वृषभ राशि में प्रस्थान कर जाएँगे, जहाँ 14 मई 2025 तक विश्राम करने का पश्चात एक अन्य शत्रु ग्रह बुध की मिथुन राशि में पहुँच जाएँगे | गुरुदेव इस समय कृत्तिका नक्षत्र पर विचरण कर रहे हैं | वृषभ राशि में भ्रमण करते हुए गुरुदेव 3 मई से 3 जून तक अस्त भी रहेंगे – जिसे सामान्य भाषा में तारा डूबना कहा जाता है और इस समय विवाह जैसे मांगलिक कार्यों की मनाही होती है | इसके अतिरिक्त नौ अक्टूबर 2024 से वक्री होते हुए 28 नवम्बर को रोहिणी नक्षत्र पर वापस आ जाएँगे | यहाँ से 4 फरवरी 2025 से मार्गी होते हुए पुनः दस अप्रैल 2025 को मृगशिर नक्षत्र पर आकर दस मई 2025 को रात्रि में 10:36 के लगभग मिथुन राशि में प्रविष्ट हो जाएँगे | कृत्तिका नक्षत्र के स्वामी सूर्य से गुरु की मित्रता है, रोहिणी नक्षत्र के स्वामी शुक्र और गुरु की परस्पर शत्रुता है तथा मृगशिर नक्षत्र के स्वामी मंगल के साथ गुरुदेव की मित्रता है | इस प्रकार इतना तो स्पष्ट है कि शत्रु ग्रह की राशि में गोचर करते हुए भी गुरुदेव अधिकाँश समय अपने मित्र ग्रहों के नक्षत्रों पर आरूढ़ रहेंगे | साथ ही यह भी सत्य है कि देवगुरु बृहस्पति तथा दैत्यगुरु भार्गव शुक्र दोनों ही ग्रह शुभ ग्रह माने जाते हैं | गुरु जहाँ ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, धर्म और आध्यात्म, राजनीति, कूटनीति के साथ-साथ भाग्य वृद्धि, विवाह तथा सन्तान और पिता के सुख के कारक हैं, तो वहीं शुक्र भौतिक सुख और ऐश्वर्य, भोग विलास, रोमांस, विवाह, सौन्दर्य तथा समस्त प्रकार की कलाओं के स्वामी हैं | अतः व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो ये दोनों ग्रह जब किसी न किसी रूप में परस्पर मिल जाएँ अथवा एक दूसरे के प्रभाव में आ जाएँ तो निश्चित रूप से कुछ चमत्कार की सम्भावना तो की ही जा सकती है |

राशियों की यदि बात करें तो, गुरु की एक राशि धनु के लिए वृषभ छठा भाव तथा दूसरी राशि मीन के लिए तीसरा भाव हो जाता है | वृषभ राशि के लिए गुरु अष्टमेश और एकादशेश हो जाता है | यहाँ उपस्थित होने पर गुरु की दृष्टियाँ कन्या, वृश्चिक तथा मकर राशियों पर रहेंगी, इस प्रकार धनु, मीन और वृषभ के साथ साथ ये तीनों राशियाँ भी इस गोचर से प्रभावित होंगी | इन्हीं समस्त तथ्यों के आधार जानने का प्रयास करते हैं कि सभी बारह राशियों के जातकों के लिए गुरु के वृषभ में गोचर के क्या सम्भावित परिणाम रह सकते हैं | “सम्भावित” इसलिए, क्योंकि ये सभी परिणाम चन्द्र राशि पर आधारित हैं, और चन्द्रमा एक राशि में लहभाग सवा दो दिन रहता है और इस अवधि में अनगिनत बच्चों का जन्म हो जाता है – और सबही के लिए तो कोई ग्रह एक समान नहीं हुआ करता | साथ ही, सबसे प्रमुख तो व्यक्ति अपना कर्म होता है जो किसी भी ग्रह दशा को अपने अनुकूल बनाने की सामर्थ्य रखता है…

प्रस्तुत है सभी बारह राशियों के जातकों के लिए गुरु के वृषभ में गोचर के सम्भावित परिणाम…

मेष : आपके लिए गुरु नवमेश तथा द्वादशेश है और आपके दूसरे भाव में गोचर कर रहा है, जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपकी राशि से छठे, आठवें और दशम भावों पर आ रही हैं | आपके लिए यह गोचर भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | कार्यक्षेत्र में प्रगति के संकेत प्रतीत होते हैं | किसी जॉब में हैं तो वहाँ कोई प्रमोशन भी सम्भव है | अपने स्वयं का कार्य है तो आपको कुछ नवीन प्रोजेक्ट्स का लाभ हो सकता है जिनके कारण आप वर्ष भर व्यस्त रहते हुए धनोपार्जन कर सकते हैं | बहुत समय से यदि कुछ कार्य रुके हुए हैं अथवा उनमें किन्हीं कारणों से व्यवधान की स्थिति चल रही है तो वे कार्य भी पुनः आरम्भ होकर पूर्णता को प्राप्त हो सकते हैं | यदि कहीं से ऋण लिया हुआ है तो इस अवधि में उससे भी मुक्ति सम्भव है | किसी पुराने रोग से मुक्ति भी इस अवधि में सम्भव है | पैतृक सम्पत्ति का लाभ सम्भव है | कार्य के सिलसिले में दूर पास की यात्राओं के योग भी प्रतीत होते हैं | कलाकारों के लिए, अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र से सम्बद्ध व्यक्तियों के लिए तथा राजनीति से सम्बन्ध रखने वाले जातकों के लिए यह गोचर बहुत अनुकूल प्रतीत होता है | माँ सम्मान में वृद्धि के साथ हाई आपको किसी पुरस्कार आदि से भी सम्मानित किया जा सकता है | धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि के संकेत प्रतीत होते हैं |

वृषभ: आपके लिए आपके अष्टमेश और एकादशेश का गोचर आपकी लग्न में ही हो रहा है जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपके पँचम, सप्तम और नवम भावों पर रहेंगी | आपकी सोच इस अवधि में सकारात्मक बनी रहेगी जिसका लाभ आपको पारिवारिक और व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों में दिखाई देगा | परिवार में प्रसन्नता का वातावरण बना रहेगा | सुख और भोग विलास के साधनों में वृद्धि की भी सम्भावना है | आप किसी नौकरी में हैं तो आपकी पदोन्नति के साथ हाई अर्थ लाभ और किसी पुरस्कार आदि की प्राप्ति की भी सम्भावना है | आपके साहस और निर्णायक क्षमता में वृद्धि के कारण आप न केवल अपने कार्य समय पर पूर्ण करने में सक्षम होंगे, अपितु अपनें अधीनस्थ कर्मचारियों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बन सकते हैं दूर पास की यात्राओं के भी योग प्रतीत होते हैं जो आपके लिए कार्य की दृष्टि से लाभदायक रहेंगी | नौकरी में अच्छा इंक्रीमेंट और बोनस प्राप्त हो सकता है जिसके कारण आप अपने ऋणों का समय पर भुगतान करके उनसे मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं | साथ ही आप अपनी फ़िज़ूलख़र्ची बन्द करके पैसा कहीं इन्वेस्ट भी कर सकते हैं ताकि भविष्य में उसका लाभ प्राप्त हो सके | दाम्पत्य जीवन में भी प्रगाढ़ता और आनन्द के संकेत प्रतीत होते हैं | धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि के संकेत हैं | शारीरिक और मानसिक समस्याओं से मुक्ति के संकेत हैं |

मिथुन : आपके लिए गुरु आपका सप्तमेश और दशमेश होकर योगकारक हो जाता है और इस समय आपके बारहवें भाव में गोचर करेगा | यहाँ से गुरु की दृष्टियाँ आपके चतुर्थ भाव, छठे भाव तथा आठवें भाव पर होंगी | आपके लिए यह गोचर बहुत अधिक अनुकूल नहीं प्रतीत होता | कार्य स्थल पर कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है | अचानक हाई विरोध के सवार मुखर हो सकते हैं | अच्छा यही रहेगा कि अपने आँख कान खुले रखकर शान्ति के साथ अपने कार्य करते रहें | पिता अथवा जीवन साथी के साथ किसी प्रकार का माँ मटाव भी सम्भव है | इस अवधि में आपको कार्य के सिलसिले में यात्राएँ करनी पड़ सकती हैं जिनमें थकान बहुत अधिक होगी | यात्राओं के दौरान आपको अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान रखने की आवश्यकता होगी | स्वास्थ्य अथवा कोर्ट कचहरी के चक्कर में धन भी बहुत अधिक ख़र्च हो सकता है जिसके कारण आपका बजट गड़बड़ा सकता है अतः इस ओर से सावधान रहने की आवश्यकता है | आपको लीवर तथा पेट से सम्बन्धित कोई बीमारी गम्भीर रूप धारण कर सकती है अतः अपने खान पर नियंत्रण रखने तथा समय पर डॉक्टर को दिखाने की आवश्यकता है | गर्भवती महिलाओं को भी विशेष रूप से सावधान रहने की आवश्यकता है | यदि कोई प्रेम प्रसंग चल रहा है तो उसे अभी विवाह की स्थिति तक न ले जाना ही आपके हित में रहेगा |

कर्क : आपके लिए गुरु आपका षष्ठेश तथा भाग्येश होकर आपके लाभ स्थान में गोचर कर रहा है, जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपके तृतीय भाव, पँचम भाव तथा सप्तम भावों पर हैं | आपके लिए या गोचर अनुकूल तथा भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | जीवन में किसी क्षेत्र में यदि बहुत समय से कुछ बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है तो अब उन बाधाओं से मुक्ति का समय प्रतीत होता है | उच्च शिक्षा प्राप्त के रहे छात्रों को अनुकूल परिणाम प्राप्त हो सकते हैं | किसी नौकरी में हैं तो पदोन्नति सम्भव है | अपना स्वयं का व्यवसाय है तो उसमें भी प्रगति और धनलाभ की सम्भावनाएँ हैं | पार्टनरशिप में जिन लोगों का व्यवसाय है उनके लिए विशेष रूप से यह गोचर भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | कोई नवीन प्रोजेक्ट भी इस अवधि में आप आरम्भ कर सकते हैं | कार्य से सम्बन्धित यात्राओं में वृद्धि की सम्भावना है | आय के नवीन स्रोत आपके समक्ष उपस्थित हो सकते हैं | सन्तान के जन्म के कारण उत्सव का वातावरण बनेगा | आपको अपने जीवन साथी के माध्यम से भी अर्थ लाभ की सम्भावना है | आपकी सन्तान की ओर से कोई शुभ समाचार इस अवधि में आपको प्राप्त हो सकता है | आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि की सम्भावना है |

सिंह : आपके लिए आपके पंचमेश और अष्टमेश का गोचर आपके दशम भाव में हो रहा है, जहाँ से आपके द्वितीय भाव, चतुर्थ भाव तथा छठे भाव पर उसकी दृष्टियाँ हैं | कार्य क्षेत्र में आपको सफलता प्राप्त होने के योग प्रतीत होते हैं | यदि आप एक वक़ील हैं, डॉक्टर हैं अथवा इन दोनों क्षेत्रों में से किसी क्षेत्र में अध्ययनरत हैं तो आपके लिए यह गोचर अत्यन्त भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | पोलिटिक्स से सम्बद्ध जातकों के लिए भी यह गोचर अनुकूल फल देने वाला प्रतीत होता है | आपको कुछ विशेष ज़िम्मेदारियाँ आपकी पार्टी की ओर से दी जा सकती हैं जिनके कारण आपकी व्यसत्ताएँ भी बढ़ सकती हैं | जिन लोगों का पैतृक व्यवसाय है अथवा जो लोग प्रॉपर्टी से सम्बद्ध व्यवसाय में हैं उनके लिए भी यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है | आप अपने निवास को Renovate भी करा सकते हैं | सुख सुविधाओं के साधनों में भी रुचि बढ़ सकती है | कोई नवीन प्रॉपर्टी भी आप इस अवधि में ख़रीद सकते हैं | आपकी वाणी प्रभावशाली रहेगी जिसका लाभ आपको अपने कार्य में निश्चित रूप से प्राप्त होगा | किन्तु इसके साथ ही स्वास्थ्य का भी ध्यान रखने की आवश्यकता है | विशेष रूप से पेट और लीवर से सम्बन्धित समस्याएँ गम्भीर रूप धारण कर सकती है, अतः अपने खान पान पर नियंत्रण रखने की विशेष रूप से आवश्यकता है |

कन्या : आपके लिए चतुर्थेश तथा सप्तमेश होकर गुरु योगकारक हो जाता है और इस समय आपके भाग्य स्थान में गोचर करेगा जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपकी लग्न पर, तृतीय भाव पर तथा पँचम भावों पर रहेंगी | आपके लिए, आपकी सन्तान के लिए तथा छोटे भाई बहनों के लिए यह गोचर अत्यन्त भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | एक ओर जहाँ आर्थिक स्थिति में सुधार और दृढ़ता की सम्भावना है वहीं प्रॉपर्टी से सम्बन्धित मामलों में भी लाभ की सम्भावना प्रतीत होती है | भौतिक सुख सुविधाओं में वृद्धि के साथ हाई आप कोई नवीन प्रॉपर्टी भी इस अवधि में ख़रीद सकते हैं | नौकरी में हैं तो पदोन्नति की सम्भावना है | अपने स्वयं का व्यवसाय है, अथवा पार्टनरशिप में कोई व्यवसाय कर रहे हैं तो उसमें भी उन्नति और अर्थ लाभ की सम्भावना है | परिवार में आनन्द का वातावरण बना रहेगा | समाज में मान सम्मान तथा प्रतिष्ठा में वृद्धि की सम्भावना है | उच्च शिक्षा के लिए विदेश जा सकते हैं अथवा अपनी सन्तान को भेज सकते हैं | छात्रों को अनुकूल परिणाम की सम्भावना की जा सकती है | आपके जीवन साथी के माध्यम से भी अर्थ लाभ की सम्भावना है | कार्य के सिलसिले में दूर पास की यात्राओं के योग भी प्रतीत होते हैं | नौकरी में हैं तो अधिकारी वर्ग का सहयोग आपको उपलब्ध रहेगा | धार्मिक तथा आध्यात्मिक गतिविधियों में वृद्धि हो सकती है | छोटे भाई बहनों के साथ यदि कुछ समय से मतभेद चल रहा है तो वह भी इस अवधि में दूर हो सकता है |

तुला : आपके लिए गुरु आपका तृतीयेश तथा षष्ठेश है और आपके अष्टम भाव में गोचर कर रहा है, जहाँ से इसकी दृष्टियाँ आपके द्वादश भाव, द्वितीय भाव तथा चतुर्थ भाव पर आ रही हैं | अष्टम भाव से जीवन में आकस्मिक घटनाओं का विचार किया जाता है | आपके लिए यह गोचर कुछ अधिक अनुकूल नहीं प्रतीत होता | सर्वप्रथम तो अचानक ही ऐसी यात्राएँ करनी पड़ सकती हैं जिनके कारण धन की हानि होने के साथ ही कष्ट भी प्राप्त हो सकता है | यदि यात्रा करनी पड़ जाए तो अपने महत्त्वपूर्ण काग़ज़ों को सम्हाल कर रखने की आवश्यकता है | परिवारजनो के साथ सम्पत्ति को लेकर भी किसी प्रकार का वैमनस्य भी सम्भव है | इससे पूर्व कि विवाद कोर्ट तक पहुँचे, बात को सम्हालने का प्रयास आपके हित में होगा, अन्यथा धन और सम्मान दोनों की हानि सम्भव है | नौकरी और व्यवसाय में भी कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है | यदि कहीं पैसा इन्वेस्ट किया हुआ तो उसकी वापसी में सन्देह है | कार्य स्थल पर कुछ गुप्त शत्रु आपकी छवि धूमिल करने का प्रयास कर सकते हैं, अतः अपने आँख और कान खुले रखने की आवश्यकता है | यदि आपने अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं रखा तो आपको उसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है | साथ ही खान पान पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है | आपके लिए यह समय आत्म मन्थन का समय है, अतः हर ओर से ध्यान हटाकर बृहस्पति के मन्त्र का जाप करें तथा भविष्य के लिए योजनाएँ तैयार करें |

वृश्चिक : आपके लिए आपके द्वितीयेश तथा पंचमेश का गोचर आपके सप्तम भाव में हो रहा है, जहाँ से आपके लाभ स्थान, लग्न तथा तृतीय भाव पर उसकी दृष्टियाँ हैं | आपके लिए यह गोचर भाग्यवर्धक रहने की सम्भावना है | यदि विवाह की योजना है तो वह इस अवधि में सम्भव है | विवाहित हैं तो दाम्पत्य जीवन में आनन्द रहेगा तथा आप सन्तान के लिए भी प्रयास कर सकते हैं | आपके वर्तमान व्यवसाय में लाभ की आशा की जा सकती है | कोई नवीन कार्य भी आप इस अवधि में आरम्भ कर सकते हैं | आपको अपने कार्य में मित्रों का तथा परिवार जनों का पूर्ण सहयोग प्राप्त रहेगा | बहन भाइयों के साथ सम्बन्धों में मधुरता में वृद्धि होगी | समाज में माँ सम्मान में वृद्धि के योग हैं | आपको तथा आपके जीवन साथी के लिए अर्थलभ सम्भव है | यदि कहीं पैसा इन्वेस्ट किया हुआ तो उसकी वापसी भी इस अवधि में सम्भव है | अध्ययन अध्यापन से सम्बन्धित जिनका कार्य है उनके लिए भी समय अनुकूल प्रतीत होता है | आपकी वाणी इस समय अत्यन्त प्रभावशाली है जिसका लाभ आपको अपने कार्य में निश्चित रूप से प्राप्त होगा | आपका कोई शोध प्रबन्ध इस अवधि में पूर्ण होकर प्रकाशित हो सकता है और उसके कारण आपको कोई पुरस्कार भी प्राप्त हो सकता है | कार्य से सम्बन्धित यात्राएँ सुखकर तथा लाभदायक रहेंगी | सन्तान की ओर से कोई शुभ समाचार प्राप्त हो सकता है | छात्रों के लिए अनुकूल परिणाम की आशा की जा सकती है |

धनु : आपके लिए आपका लग्नेश और चतुर्थेश होकर योगकारक हो जाता है तथा इस समय आपके छठे भाव में गोचर करेगा, जहाँ से इसकी दृष्टियाँ आपके दशम, द्वादश तथा द्वितीय भाव पर रहेंगी | छठे भाव से क़ानूनी समस्याओं, स्वास्थ्य तथा प्रतियोगिता इत्यादि का विचार किया जाता है | आपके लिए यह गोचर मिश्रित फल देने वाला प्रतीत होता है | आपको अपने प्रयासों में सफलता तो प्राप्त होगी, किन्तु उसके लिए आपको अधिक प्रयास करने की आवश्यकता होगी | आपको अपने स्वयं के अथवा परिवार में किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है तथा उनके कारण पैसा भी अधिक खर्च हो सकता है | आपको स्वयं को अथवा परिवार में किसी अन्य व्यक्ति को अस्पताल में भी भर्ती होना पड़ सकता है | जिन परिवारजनों के लिए आप पूर्ण रूप से समर्पित हैं उन्हीं के साथ मन मुटाव के चलते आपको मानसिक कष्ट का भी आपको अनुभव हो सकता है | यदि किसी नौकरी में हैं तो अपने अधिकारी वर्ग को प्रसन्न रखने के लिए भी आपको बहुत अधिक प्रयास करना पड़ सकता है | विवाहित हैं तो ससुराल पक्ष की ओर से भी किसी प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है | आय से अधिक ख़र्च होने के कारण आपका बजट भी गड़बड़ा सकता है | आपके लिए आवश्यक है कि कार्य से सम्बन्धित अपनी योजनाओं के विषय में अपने मित्रों से कुछ विचार विमर्श न करें | साथ ही बृहस्पति के मन्त्र का जाप आपके लिए विपरीत प्रभाव को कम करेगा |

मकर : आपके लिए गुरु आपके तृतीय और द्वादश भावों का स्वामी है तथा आपके योगकारक शुक्र की राशि में पँचम भाव में गोचर करेगा, जहाँ से उसकी दृष्टियाँ आपके भाग्य स्थान, लाभ स्थान तथा लग्न पर रहेंगी | परिवार में किसी बच्चे के जन्म के कारण आनन्द और उत्सव का वातावरण बनेगा | यदि जीवन साथी की तलाश है तो वह इस अवधि में पूर्ण हो सकती है | आपकी सन्तान उच्च शिक्षा के लिए कहीं विदेश जा सकती है | आप यदि किसी नौकरी में हैं तो पदोन्नति के साथ ही किसी अन्य स्थान पर ट्रांसफ़र की भी सम्भावना है | आर्थिक दृष्टि से यह ट्रांसफ़र आपके हित में रहेगा | हाथ के कारीगरों के लिए विशेष रूप से यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है | आपकी कलाकृतियों की एग्जीविशन लग सकती हैं जिनमें आपके कार्य की प्रशंसा होगी | इन प्रदर्शनियों के लिए आपको दूर पास की यात्राओं के अवसर भी उपलब्ध हो सकते हैं | आपका अपना स्वयं का व्यवसाय है अथवा आप अपने पैतृक व्यवसाय में हैं या उनके साथ पार्टनरशिप में कोई कार्य कर रहे हैं तो आपके लिए व्यापार में उन्नति और अर्थलाभ की सम्भावना प्रबल है | पिता, बड़े भाई, मित्रों तथा अधिकारी वर्ग का सहयोग आपको उपलब्ध रहेगा | परिवार में माँगलिक कार्यों का आयोजन हो सकता है | आपकी रुचि धार्मिक गतिविधियों में बढ़ सकती है | स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है |

कुम्भ : गुरु आपके द्वितीय और एकादश भावों का स्वामी है तथा इस समय आपके लिए योगकारक ग्रह शुक्र की राशि में आपके चतुर्थ भाव में गोचर करेगा | यहाँ से गुरु की दृष्टियाँ आपके अष्टम भाव, दशम भाव तथा बारहवें भाव पर रहेंगी | चतुर्थ भाव से मुख्य रूप से मानसिक शक्ति, भौतिक सुख सुविधाओं, परिवार तथा माता का विचार किया जाता है | एक ओर जहाँ किन्हीं कारणों से आप मानसिक अशान्ति का अनुभव कर सकते हैं, वहीं दूसरी ओर आपकी आर्थिक स्थिति में सुधार तथा दृढ़ता आने की भी सम्भावना है | हाँ इतना अवश्य है कि आपको बजट बनाकर चलना होगा ताकि अनावश्यक ख़र्चों से बचा जा सके | जो लोग अध्ययन अध्यापन के क्षेत्र में कार्यरत हैं, मैनेजमेंट जैसे किसी व्यवसाय में हैं अथवा कम्प्यूटर आदि से सम्बन्धित कोई कार्य है तो उनके लिए यह गोचर बहुत अनुकूल रह सकता है | कार्य स्थल पर चली आ रही समस्याओं से मुक्ति की आशा इस अवधि में की जा सकती है | आपकी अपने कार्य से सम्बन्धित कोई पुस्तक इस अवधि में प्रकाशित हो सकती है जिसके कारण आपको कोई पुरस्कार आदि भी प्राप्त हो सकता है | आपका स्वयं का व्यवसाय है तो आप उसका भी विस्तार इस अवधि में कर सकते हैं | यदि आपका कार्य विदेश से सम्बन्धित है तो आपके लिए यह गोचर अत्यन्त अनुकूल फल दे सकता है | साथ ही पोलिटिक्स से सम्बन्ध रखने वाले जातकों के लिए भी यह गोचर अनुकूल प्रतीत होता है | किन्तु जैसा कि पूर्व में लिखा है, सम्भवतः कार्य की अधिकता के कारण अथवा सन्तुष्ट न होने के अपने स्वभाव के कारण आपको मानसिक अशान्ति अथवा तनाव का अनुभव हो सकता है | इसके लिए यदि आप ध्यान और प्राणायाम के अभ्यास करते हैं तो ये आपके लिए उचित रहेंगे |

मीन : आपके लिए गुरु आपका लग्नेश और दशमेश होकर आपके लिए योगकारक हो जाता है और इस समय आपके तृतीय भाव में गोचर करने जा रहा है, जहाँ से इसकी दृष्टियाँ आपके सप्तम भाव, भाग्य स्थान तथा लाभ स्थान पर रहेंगी | आपके तथा आपके जीवन साथी के लिए पराक्रम और उत्साह में वृद्धि के संकेत हैं | यह गोचर आपके लिए भाग्यवर्धक प्रतीत होता है | हाथ के कारीगरों, कलाकारों, मीडिया आदि से सम्बन्ध रखने वाले जातकों तथा लेखन आदि से जुड़े जातकों के लिए तो यह गोचर निश्चित रूप से अत्यन्त अनुकूल प्रतीत होता है | आपके कार्य की प्रशंसा के साथ ही आपकी आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ होने की सम्भावना है | अपना स्वयं का व्यवसाय है और उसमें यदि कुछ समय से समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था तो अब उन समस्याओं से मुक्ति का समय प्रतीत होता है | आपको अधिकारी वर्ग का, पिता का, भाई बहनों, जीवन साथी तथा मित्रों का समुचित सहयोग इस अवधि में उपलब्ध रहेगा | परिवार में आनन्द का वातावरण बना रहेगा जिसके कारण आपक पूर्ण मनोयोग से अपने कार्य पूर्ण करने में सक्षम होंगे | कुछ नवीन प्रोजेक्ट्स भी आपको प्राप्त हो सकते हैं जिनके कारण आप दीर्घ समय तक व्यस्त रहते हुए अर्थ लाभ कर सकते हैं | धार्मिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में आपकी रुचि में वृद्धि की सम्भावना है | आप तीर्थाटन के लिए भी जा सकते हैं | किन्तु इतना ध्यान रहे कि पोंग पण्डितों के झाँसे में न आने पाएँ |

अन्त में, सबसे प्रमुख व्यक्ति का अपना कर्म होता है | यदि हम कर्मशील रहते हुए अपने लक्ष्य की ओर हम सभी अग्रसर रहे तो निश्चित रूप से गुरुदेव हमारी सहायता अवश्य करेंगे |

 

 

माँ दुर्गा के पूजन की विधि और सामग्री 

माँ दुर्गा के पूजन की विधि और सामग्री 

नौ अप्रैल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के साथ ही नव संवत्सर का आरम्भ हो जाएगा और माँ भगवती की उपासना का पर्व नवरात्र आरम्भ हो जाएँगे | सभी को हिन्दू नव वर्ष, साम्वत्सरिक नवरात्र, गुड़ी पड़वा तथा उगडी की हार्दिक शुभकामनाएँ…

मित्रों का आग्रह होता है कि नवरात्रों में माँ भगवती की उपासना की विधि तथा उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री के विषय में कुछ लिखें और सामग्री के महत्त्व के विषय में भी जानकारी दें | तो सबसे पहले तो, इस लेख की लेखिका यानी कि हम इस विषय के कोई बहुत बड़े ज्ञाता तो नहीं हैं, फिर भी जैसा माता पिता तथा गुरुजनों और पुस्तकों तथा अनुभवों से जाना वही सब आपके साथ साँझा कर रहे हैं |

सर्वप्रथम तो हमारा सबसे यही आग्रह है कि साधारण रीति से की गई ईशोपासना भी उतनी ही सार्थक होती है जितनी कि बहुत अधिक सामग्री आदि के द्वारा की गई पूजा अर्चना | साथ ही जिसकी जैसी सुविधा हो, जितना समय उपलब्ध हो, जितनी सामर्थ्य हो उसी के अनुसार हर किसी को माँ भगवती अथवा किसी भी देवी देवता की पूजा अर्चना उपासना करनी चाहिए, वास्तविक बात तो भावना की है | भावना के साथ यदि अपने पलंग पर बैठकर भी ईश्वर की उपासना कर ली गई तो वही सार्थक हो जाएगी | भगवान श्री राम ने प्रेम और श्रद्धा की भावना के ही वशीभूत होकर शबरी के झूठे बेर खाए थे और उसे “भामिनी” कहा था – जिसका अर्थ होता है ऐसी महिला जो भासती हो – अर्थात गरिमामयी नारी | भगवान श्री कृष्ण ने विदुर के घर भोजन किया था और सखा सुदामा के लाए तन्दुल पेट भर ग्रहण किये थे | रही बात पूजन की सामग्री की, तो धार्मिक रीति रिवाज़ों के व्यावसायीकरण के चलते न केवल नवरात्र आरम्भ होने पर, बल्कि किसी भी पर्व के अवसर पर बाज़ार हाट पूजा की सामग्रियों से सजकर ग्राहकों का मन लुभाते रहते हैं | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि जितनी भी सामग्री पूजन में काम में लाई जाती है वो तो सब भौतिक वस्तुएँ हैं, भगवान कभी ये नहीं कहते कि उन्हें कितनी सामग्री से अपनी पूजा करानी है – वे तो बस भावों के भूखे हैं – प्रेम के भूखे हैं | फिर भी, क्योंकि हमसे कुछ लोगों ने जानना चाहा है, तो सामान्य रूप से पूजा की विधि और सामग्री के विषय में लिख रहे हैं…

घट स्थापना के साथ माँ भगवती के नौ रूपों के आह्वाहन स्थापन के साथ अनुष्ठान का आरम्भ किया जाता है | इसके लिए एक मिट्टी का कलश घट के रूप में स्थापित करने के लिए चाहिए होता है | यदि आप जौ बोते हैं तो उसके लिए भी एक मिट्टी का पात्र मिट्टी और जौ के साथ | जल, मौली जिसे हम कलावा भी कहते हैं, इत्र, सुपारी, पान के पत्ते, आम की टहनी, कच्चे लेकिन साबुत चावल यानी अक्षत, नारियल, पुष्प और पुष्पमाला, माँ भगवती का चित्र अथवा मूर्ति, गणपति का चित्र अथवा मूर्ति, गाय का दूध, दही और घी, नैवेद्य अर्थात मिठाई, फल, सिन्दूर, रोली, धूप दीप इत्यादि, पञ्चामृत, वस्त्र, यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ, हल्दी, – इन वस्तुओं की आवश्यकता होती है | इसके अतिरिक्त विसर्जन के दिन यदि हवन करना है तो उसके लिए हविष्य अर्थात सामग्री जिसमें धूप, जौ, नारियल, गुग्गुल, मखाना, काजू, किशमिश, छुहारा, शहद, घी तथा अक्षत आदि तथा समिधा अर्थात लकड़ी की आवश्यकता होती है | किन्तु सामान्य तौर पर केवल घट स्थापना करके पाठ ही किया जाता है |

दुर्गा पूजा के लिए सर्वप्रथम एक लकड़ी की चौकी पर वेदी बनाई जाती है | इसके लिए चौकी पर श्वेत वस्त्र बिछा दिया जाता है और उस पर गौरी और गणपति की प्रतिमा अथवा चित्र के समक्ष ॐकार, श्री, नवग्रह, षोडश मातृका, नव कन्या तथा सप्तघृतमातृका बनाई जाती हैं | ध्यान रहे पूजा करते समय आपका मुँह उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व में हो तो अधिक अच्छा है | वेदी के दाहिनी ओर ईशान कोण में घट स्थापना के लिए अष्टदल कमल बनाकर उस पर घट स्थापित किया जाता है और बाँई ओर दीपक रखा जाता है | साथ ही, यदि जौ बोए जा रहे हैं तो उनका पात्र भी कलश के पास ही होना चाहिए |

अब मन्त्रोच्चारपूर्वक वेदी की पूजा करके अखण्ड दीप प्रज्वलित किया जाता है और फिर कलश को विधिवत स्थापित किया जाता है | इसके बाद ॐकार, श्री, गौरी गणपति आदि की पूजा के बाद नवग्रहों का आह्वाहन स्थापन, षोडश मातृकाओं का, नव कन्याओं का, सप्तघृतमातृकाओं का आह्वाहन स्थापन करके पाठ आरम्भ किया जाता है |

कुछ लोग केवल कवच, अर्गला और कीलक का पाठ करके भी आरम्भ कर देते हैं, कुछ पहले सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ, श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं आदि का पाठ करके वैदिक विधि से अंगन्यास, मौली बन्धन, पुण्याहवाचन, मंगल पाठ, आसन शुद्धि, भूत शुद्धि, प्राण प्रतिष्ठा, कर न्यास, हृदयादि न्यास, शापोद्धार आदि अनेक अंग होते हैं जिनके साथ संकल्प लेकर रात्रि सूक्त और देव्यथर्वशीर्ष आदि का पाठ करके पाठ आरम्भ करते हैं | अन्त में यही समस्त प्रक्रियाएँ पुनः दोहराई जाती हैं और फिर ऋग्वेदोक्त देवी सूक्त, तीनों रहस्य तथा मानस पूजा आदि के द्वारा पाठ सम्पन्न किया जाता है | और भी जो लोग कोई बहुत बड़ा अनुष्ठान करते हैं अथवा किसी कामना की सिद्धि के लिए पाठ करते हैं तो बहुत सारे और भी अंग होते हैं पाठ के समय | लेकिन सामान्य रूप से कवच अर्गला कीलक का पाठ करके पाठ आरम्भ कर दिया जाता है |

हमारा मानना है कि यदि किसी कारणवश पूजन सामग्री न भी उपलब्ध हो तो केवल एक दीप प्रज्वलित करके शुद्ध हृदय से बैठ जाइए श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ आरम्भ कर दीजिये | उसका भी वही फल प्राप्त होगा तो इतने सारे कर्मकाण्ड की विधि से षोडशोपचार विधि से पूजा अर्चना के बाद प्राप्त होता है |

कहने का तात्पर्य है कि ऐसा कोई विशेष बन्धन इस सबमें नहीं है | आप हर दिन सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का पाठ भी कर सकते हैं, या उसमें कहे गए तीनों चरित्रों – मधु कैटभ वध, महिषासुर वध और शुम्भ निशुम्भ वध – को एक एक दिन में कर सकते हैं, अथवा केवल प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम तथा एकादश अध्याय की स्तुतियों का पाठ कर सकते हैं, अथवा – समय का अभाव है और पूरी सप्तशती करना चाहते हैं तो हर दिन उतना ही पाठ कीजिए जितना समय उपलब्ध है और इस प्रकार से पूरे नौ दिनों में सप्तशती सम्पन्न कर लीजिये | और यदि संस्कृत नहीं पढ़ सकते हैं तो उनके हिन्दी अनुवाद को ही पढ़ सकते हैं | और सप्तशती यदि नहीं भी पढ़ सकते हैं तो माँ भगवती तो अपने नाम स्मरण मात्र से प्रसन्न हो जाती हैं – यदि सच्ची भावना से उनका स्मरण किया जाए… माँ हैं न, इसलिए… माँ को सन्तान से यदि कुछ चाहिए तो वो है सम्मान और प्रेम की भावना…

यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता – जहाँ नारी का सम्मान होता है वहाँ देवताओं का निवास होता है – की मान्यता का पोषक है भारतीय दर्शन – इस कारण भी माँ भगवती की उपासना का विशेष महत्त्व हो जाता है | भारत में सदा से नारी को शक्तिरूपा माना जाता रहा है | उसे न केवल पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का अधिकार है, न केवल पुरुष की हर गतिविधि में सम्मिलित होने का अधिकार है, वरन् पुरुष के समान ही स्वतन्त्रता पर भी उसका उतना ही अधिकार है | नारी वे समस्त कार्य कर सकती है जिन पर पुरुष अपना एकाधिकार समझता है | माँ भगवती द्वारा महिषासुर, शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज इत्यादि दानवों का संहार इसी बात का प्रमाण हैं | यहाँ तक कि मधु कैटभ का वध भी भगवान विष्णु ने शक्ति के ही आश्रय से किया था |

वास्तव में तो समस्त प्रकृति ही नारीरूपा है और अपने रहस्यमय तथा विस्मित करते रहने वाले अस्तित्व से पल पल इसी बात का अहसास कराती रहती है कि नारी शक्तिरूपा है, स्नेहरूपा है, ज्ञानरूपा है तथा लक्ष्मीरूपा है – उसकी इन समस्त शक्तियों को नकारने की नहीं – अपितु उनके सामने श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होने की तथा प्रेमपूर्वक अपने हृदय में स्थान देने की आवश्यकता है |

नवरात्रों में होने वाली माँ भवानी की उपासना इसी बात का प्रमाण है कि नारी के साथ – शक्ति के साथ – प्रकृति के साथ – सम्मान और प्रेम का व्यवहार किया जाएगा तथा उन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं पहुँचाया जाएगा तो उसी में सबका कल्याण निहित है… इसी भावना से कलश स्थापना करते हुए हम सभी माँ भगवती की अर्चना करें… बिना ये सोचे विचारे कि हमारे पास पूजन की क्या सामग्री है क्या नहीं – बस हृदय से माँ भगवती का स्मरण कीजिए, इस भावना के साथ कि संसार में सभी स्वस्थ रहें… प्राणियों में सद्भावना हो… और सब परस्पर हिल मिल कर जीवन व्यतीत करें… इसी भावना से सभी को साम्वत्सरिक नवरात्र या वासन्तिक नवरात्र और हिन्दू नव वर्ष की अग्रिम रूप से हार्दिक शुभकामनाएँ… माँ दुर्गा सभी की मनोकामनाएँ पूर्ण करें…

 

 

शीतला सप्तमी और अष्टमी 2024

शीतला सप्तमी और अष्टमी 2024

चैत्र कृष्ण सप्तमी और अष्टमी को उत्तर भारत में – विशेष रूप से राजस्थान और उत्तर प्रदेश में – शीतला माता की पूजा की जाती है | कुछ स्थानों पर यह पूजा सप्तमी को होती है और कुछ स्थानों पर अष्टमी को | वैसे शीतला देवी की पूजा अलग अलग स्थानों पर अलग अलग समय की जाती है | उदाहरण के लिए बंगाली समाज में माघ शुक्ल पँचमी को सरस्वती पूजा के बाद दूसरे दिन यानी माघ शुक्ल षष्ठी को शीतला षष्ठी मनाई जाती है | इस दिन 6 प्रकार की सब्जियों को एक साथ उबालकर खाने का नियम है | शीतला षष्ठी के नाम से सरस्वती पूजा के दिन इस खाने को पकाया जाता है और अगले दिन ठण्डा करके खाया जाता है | आप इसे बासी भोजन कह सकते हैं | अधिकतर बंगाली पर‍िवारों में उस दिन चूल्‍हा नहीं जलता | यहां तक क‍ि‍ सिलबट्टा पर भी कोई चीज पीसी नहीं जा सकती | इस दिन प्रातःकाल विधि-विधान के साथ घरों में सील लोढ़ा (सिलबट्टे) और चूल्हे की भी पूजा की जाती है | ऐसी मान्यता है कि क्योंकि यह यह शीतल षष्ठी होती है, इसलिए गर्म भोजन नहीं, बल्‍क‍ि एक दिन पहले पका हुआ शीतल भोजन ग्रहण करना चाहिए | कहीं वैशाख कृष्ण अष्टमी को तो कहीं चैत्र कृष्ण सप्तमी-अष्टमी को इस पर्व को मनाया जाता है | कुछ स्थानों पर होली के बाद प्रथम सोमवार अथवा बुधवार को शीतला माता की पूजा का विधान है | गुजरात में श्री कृष्ण जन्माष्टमी से एक दिन पूर्व “शीतला सतम” नाम से इस पर्व को मनाया जाता है | किन्तु चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को शीतला पूजा का विशेष महत्त्व है |

इस वर्ष रविवार 31 मार्च को रात्रि 9:31 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और व्यातिपत योग में सप्तमी तिथि का आगमन हो रहा है जो सोमवार पहली अप्रैल को रात्रि नौ बजकर नौ मिनट तक रहेगी और उसके बाद अष्टमी तिथि लग जाएगी जो मंगलवार रात्रि आठ बजकर आठ मिनट तक रहेगी | गुरूवार को सूर्योदय 6:20 पर तथा सूर्यास्त 6:34 पर हो रहा है | अतः इस मध्य किसी भी समय शीतला सप्तमी की पूजा की जा सकती है | जो लोग अष्टमी को शीतला देवी की पूजा करते हैं वे भी शुक्रवार को प्रातः 6:20 से 6:34 के मध्य किसी भी समय शीतला अष्टमी की पूजा कर सकते हैं | इस प्रकार उदया तिथि होने के कारण सप्तमी को शीतला माता की पूजा सोमवार पहली अप्रैल को की जाएगी और अष्टमी को जो लोग शीतला माता की पूजा करते हैं वे मंगलवार को करेंगे |

हमें स्मरण है कि हमारे श्वसुरालय ऋषिकेश और पैतृक नगर नजीबाबाद में शीतला माता के मन्दिर हैं | जब वहाँ होली के बाद आने वाली शीतलाष्टमी को शीतला माता के मन्दिर पर मेला भरा करता था तथा वहाँ मन्दिर में जो कुछ भी माता को अर्पित किया जाता था वह सफ़ाई कर्मचारी को सम्मानपूर्वक दिया जाता था तथा उनका आशीर्वाद भी लिया जाता था | ये सब एक सामाजिक समभाव की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया तो थी ही, साथ ही यह मेला बड़ों के लिए एक ओर जहाँ शीतला माता की पूजा अर्चना का स्थान होता था वहीं हम बच्चों के लिए मनोरंजन का माध्यम होता था |

शीतला माता का उल्लेख स्कन्द पुराण में उपलब्ध होता है | इसके लिए पहले दिन सायंकाल के समय भोजन बनाकर रख दिया जाता है और अगले दिन उस बासी भोजन का ही देवी को भोग लगाया जाता है और उसी को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है | इसका कारण सम्भवतः यही रहा होगा कि इसके बाद ऐसा मौसम आ जाता है जब भोजन बासी बचने पर खराब हो जाता है और उसे फिर से उपयोग में नहीं लाया जा सकता | और इसी कारण से कुछ स्थानों पर इसे “बासडा” अथवा “बसौड़ा” भी कहा जाता है | इस दिन लोग लाल वस्त्र, कुमकुम, दही, गंगाजल, कच्चे अनाज, लाल धागे तथा बासी भोजन से माता की पूजा करते हैं | शीतला देवी की पूजा मुख्य रूप से ऐसे समय में होती है जब वसन्त के साथ साथ ग्रीष्म का आगमन हो रहा होता है | चेचक आदि के संक्रमण का भी मुख्य रूप से ऋतु परिवर्तन का यही समय होता है |

शीतला माता का वाहन गर्दभ को माना जाता है तथा इनके हाथों में कलश, सूप, झाड़ू और नीम के पत्ते रहते हैं | इन सबका भी सम्भवतः यही प्रतीकात्मक महत्त्व रहा होगा कि इस ऋतु में प्रायः व्यक्तियों को चेचक खसरा जैसी व्याधियाँ हो जाती थीं | रोगी तीव्र ज्वर से पीड़ित रहता था और उस समय रोगी की हवा करने के लिए सूप ही उपलब्ध रहा होगा | नीम के पत्तों के औषधीय गुण तो सभी जानते हैं – उनके कारण रोगी के छालों को शीतलता प्राप्त होती होगी तथा उनमें किसी प्रकार के इन्फेक्शन से भी बचाव हो जाता होगा | स्कन्द पुराण में शीतला माता की पूजा के लिए शीतलाष्टक भी उपलब्ध होता है | वैसे शीतला देवी की पूजा करते समय निम्न मन्त्र का जाप किया जाता है:

वन्देsहम् शीतलां देवीं रासभस्थान्दिगम्बराम् |

मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम् ||

अर्थात गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाड़ू तथा कलश और मस्तक पर सूप का मुकुट धारण करने वाली भगवती शीतला की हम वन्दना करते हैं | इस मन्त्र से यह भी प्रतिध्वनित होता है कि शीतला देवी स्वच्छता की प्रतीक हैं – हाथ में झाडू तथा सफ़ाई कर्मचारियों का सम्मान और उन्हें मन्दिर के पुजारी के समान पूजा की वस्तुएँ समर्पित करना इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि एक ओर तो हम सबको स्वच्छता के प्रति जागरूक और कटिबद्ध होना चाहिए, क्योंकि चेचक, खसरा तथा अन्य भी सभी प्रकार के संक्रमणों का मुख्य कारण तो गन्दगी ही है, तो वहीं दूसरी ओर पुरुष सूक्त की इस भावना की भी पुष्टि करता है कि सभी मनुष्य ईश्वर का अंश हैं, उनकी सामर्थ्य के अनुसार वे संसार के सकुशल संचालन में अपना अपना योगदान देते हैं अतः सभी एक समान सम्मान के अधिकारी हैं | साथ ही, समुद्रमन्थन से उद्भूत हाथों में कलश लिए आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरी की ही भाँति शीतला माता के हाथों में भी कलश होता है, सम्भवतः इस सबका अभिप्राय यही रहा होगा कि स्वच्छता और स्वास्थ्य के प्रति जन साधारण को जागरूक किया जाए, क्योंकि जहाँ स्वच्छता होगी वहाँ स्वास्थ्य उत्तम रहेगा, और स्वास्थ्य उत्तम रहेगा तो समृद्धि भी बनी रहेगी | सूप का भी यही तात्पर्य है कि परिवार धन धान्य से परिपूर्ण रहे |

देवी का नाम भी सम्भवतः इसी लोकमान्यता के कारण शीतला पड़ा होगा कि शीतला देवी की उपासना से दाहज्वर, पीतज्वर, फोड़े फुन्सी तथा चेचक और खसरा जैसे रक्त और त्वचा सम्बन्धी विकारों तथा नेत्रों के इन्फेक्शन जैसी व्याधियों में शीतलता प्राप्त होती है और ये व्याधियाँ निकट भी नहीं आने पातीं | आज के युग में भी शीतला देवी की उपासना स्वच्छता की प्रेरणा तथा उत्तम स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और सामाजिक समभाव के दृष्टिकोण से सर्वथा प्रासंगिक प्रतीत होती है… अतः हम सभी अपने चारों ओर स्वच्छता का ध्यान रखें, स्वस्थ रहें तथा सभी प्रकार के ऊँच नीच के भेद को दूर कर सबको एक समान समझें… यही कामना है…

 

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

होलाष्टक 2024 और होलिका दहन का मुहूर्त

शनिवार 16 मार्च को रात्रि 9:39 के लगभग विष्टि करण (भद्रा) और आयुष्मान योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ हो रहा है जो 17 मार्च को रात्रि 9:53 तक रहेगी | अतः 17 मार्च से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे जो रविवार 24 मार्च को होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाएँगे | पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 24 मार्च को प्रातः 9:55 पर विष्टि करण और गण्ड योग में होगा और 25 मार्च दिन में 12:29 पर समाप्त हो जाएगी और फिर रंगों की बरसात करती होली – धुलहाँडी – आ जाएगी | 24 मार्च को पूर्णिमा के उदय के साथ ही विष्टि करण यानी भद्रा का भी उदय हो रहा है जो रात्रि 11:13 तक रहेगी |

देखा जाए तो प्रत्येक वर्ष या दो वर्ष के अन्तराल में भद्रा होलिका दहन की अवधि में आती ही है | प्रश्न यह है कि भद्रा को कितना महत्त्व दिया जाना चाहिए | विद्वानों का मानना है कि भद्रा काल में यद्यपि होलिका दहन निषिद्ध माना जाता है, किन्तु फिर भी यदि अर्द्ध रात्रि के बाद भी भद्रा रहे और दूसरे दिन दोपहर तक ही प्रतिपदा तिथि आ जाए तो पूर्णिमा तिथि रहते हुए भद्रा पुच्छ काल में ही होलिका दहन कर दिया जाता है – भद्रा मुख में नहीं किया जाता – निशीथोत्तरं भद्रासमाप्तौ भद्रामुखं त्यक्त्वा भद्रायामेव | भद्रा को भगवान सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहन माना गया तथा अत्यन्त उग्र स्वभाव माना गया है | साथ ही यह भी विचार करना आवश्यक है कि चन्द्रमा उस समय किस राशि में विचरण कर रहा है | यदि चन्द्रमा का संचरण कन्या, तुला अथवा धनु राशि में हो रहा हो तो वह भद्रा पाताल में वास करती है तथा धन धान्य और प्रगति प्रदान करती है, अर्थात् मंगलकारी होती है | 24 मार्च को सूर्यास्त 6:34 पर है अतः उससे 45 मिनट पूर्व से 45 मिनट बाद का समय प्रदोष काल है – अर्थात् सायं 5:49 से 6:45 तक का समय प्रदोष काल है और भद्रा का पुच्छ काल है | साथ ही दोपहर 2:21 से चन्द्रमा का संचार भी कन्या राशि में हो जाएगा | इसके अतिरिक्त 25 मार्च को दिन में 12:29 पर प्रतिपदा तिथि आएगी | अतः प्रदोष काल में भद्रा पुच्छ के साथ होलिका दहन किया जाएगा | और यदि भद्रा मुक्त काल में होलिका दहन करना है तो भद्रा की समाप्ति पर रात्रि ग्यारह बजकर तेरह मिनट से लेकर वृश्चिक लग्न की समाप्ति – अर्ध रात्रि में बारह बजकर 39 मिनट तक – रहेगा |

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक आरम्भ होने के साथ ही होली के पर्व का भी आरम्भ हो जाता है | इसे “होलाष्टक दोष” की संज्ञा भी दी जाती है और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत से शुभ कार्यों की मनाही होती है | विद्वान् पण्डितों की मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, भवन निर्माण आदि नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |

फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को होलिका दहन के स्थान को गंगाजल से पवित्र करके होलिका दहन के लिए दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं, जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों की कटाई न करनी पड़े | इस प्रकार देखा जाए तो होलाष्टक होली के रंग पर्व के आगमन के सूचक भी होते हैं |

पौराणिक मान्यता ऐसी भी है कि तारकासुर नामक असुर ने जब देवताओं पर अत्याचार बढ़ा दिए तब उसके वध का एक ही उपाय ब्रह्मा जी ने बताया, और वो ये था कि भगवान शिव और पार्वती की सन्तान ही उसका वध करने में समर्थ हो सकती है | तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए घोर तप का आरम्भ कर दिया | किन्तु शिव तो दक्ष के यज्ञ में सती के आत्मदाह के पश्चात ध्यान में लीन हो गए थे | पार्वती से उनकी भेंट कराने के लिए उनका उस ध्यान की अवस्था से बाहर आना आवश्यक था | समस्या यह थी कि जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का दुस्साहस किया | कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थी – भगवान शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया | अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक उनकी प्रार्थना की थी | इसी के प्रतीक स्वरूप होलाष्टक के दिनों में कोई शुभ कार्य करने की मनाही होती है |

वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |

अतः, मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | प्रकृति के कण कण में वसन्त की छटा तो व्याप्त होती ही है | कोई विरक्त ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में चारों ओर से पड़ रही रंगों की बौछारों को भूलकर ब्याह शादी, भवन निर्माण या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा…

इन सभी मान्यताओं का कोई वैदिक, ज्योतिषीय अथवा आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है, केवल धार्मिक आस्थाएँ और लौकिक मान्यताएँ ही इस सबका आधार हैं – और इनका पालन करना सामाजिक जीवन के लिए – सामाजिक सम्बन्धों के लिए – अनुकूल होता ही है | तो क्यों न होलाष्टक की इन आठ दिनों की अवधि में स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों के बन्धन से मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ व्यतीत किया जाए…

रंगों के पर्व की अभी से रंग और उल्लास से भरी हार्दिक शुभकामनाएँ…