यौगिक चक्र और नवरात्र उपासना
चक्र साधना योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । चक्रों को समझकर उन्हें सन्तुलित करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है, और जब शारीरिक तथा मानसिक स्तर पर मनुष्य स्वस्थ रहेगा तो अपने सांसारिक कर्तव्य कर्मों का पूर्ण निष्ठा के साथ निर्वहन करते हुए भी आध्यात्म की दिशा में भी अग्रसर होने में उसे सरलता का अनुभव होगा । चक्र ऊर्जा के केन्द्र माने जाते हैं, और ऊर्जा के सुचारू रूप से प्रवाहित होने के लिए चक्रों का सन्तुलित होना अत्यन्त आवश्यक है । साथ ही चक्रों को यदि समझ लिया जाए तो स्वयं के प्रति जागरूकता में वृद्धि होती है और व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति और सामर्थ्य को पहचानना आरम्भ कर देता है । मुख्य रूप से सात चक्र होते हैं –
- मूलाधार चक्र – नाम से ही स्पष्ट है मूल आधार – मेरुदण्ड के सबसे नीचे के भाग में गूदा तथा जननेन्द्रिय के मध्य इसकी स्थिति मानी गई है यह पृथ्वी तत्व से सम्बद्ध होता है तथा यह स्थिरता, सुरक्षा और आधार प्रदान करता है । इसी से स्पष्ट होता है कि ध्यान अथवा अन्य किसी भी कार्य में प्रगति के लिए आधार को स्थिर करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है ।
- स्वाधिष्ठान चक्र – स्व अर्थात् स्वयं का अधिष्ठान – मूलाधार के ऊपर तथा जननेन्द्रिय के पीछे इसकी स्थिति मानी गई है । इसका सम्बन्ध जल तत्व से होता है तथा सम्भवतः इसी कारण से कहा जाता है कि इसके सन्तुलन से रचनात्मकता, भावनात्मकता तथा आनन्द में वृद्धि होती है ।
- मणिपूर चक्र – यह चक्र नाभि के पीछे मेरुदण्ड पर होता है । अग्नि तत्व से इसका सम्बन्ध होने के कारण ही इसके सन्तुलन से व्यक्तिगत शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है । साथ ही आत्म शक्ति, इच्छा शक्ति तथा पाचन तन्त्र से भी इसका सम्बन्ध माना जाता है ।
- अनाहत चक्र – हृदय के बीच में वक्ष के मध्य भाग में इसकी स्थिति होती है । यह चक्र वायु तत्व से सम्बन्ध रखता है तथा इसके सन्तुलन से प्रेम, करुणा तथा भावनात्मक सन्तुलन स्थापित होता है ।
- विशुद्ध चक्र – यह चक्र कण्ठ के केन्द्र में स्थित होता है । आकाश तत्व से इसका सम्बन्ध होने के कारण ही संचार, अभिव्यक्ति तथा सत्य से इसका सम्बन्ध होता है ।
- आज्ञा चक्र – दोनों भवों के मध्य मस्तक के केन्द्र में इसकी स्थिति मानी गई है । सभी पाँच तत्वों से ऊपर जो ज्ञान की अवस्था है – जिसे तृतीय नेत्र भी कहा जाता है – उस तत्व से इसका सम्बन्ध होता है तथा ज्ञान, अन्तर्ज्ञान, ध्यान और धारणा शक्ति से इसका सम्बन्ध होता है ।
- सहस्रार चक्र – सिर के सबसे ऊपरी भाग में अर्थात् मूर्धन्य में इसकी स्थिति होती है । सहस्र दल पद्म खिलने जैसा अनुभव योगियों को इसके जागरण से होता है और इसीलिए इस चक्र का सम्बन्ध चेतना, ज्ञान तथा आध्यात्मिक जागृति से होता है ।
यहाँ ध्यान देने की बात है कि ये जो चक्रों की शरीर में स्थिति बताई जाती है यह शरीर के अंगों के रूप में नहीं होते हैं – अर्थात् इन्हें देखा अथवा इनका स्पर्श नहीं किया जा सकता है शरीर एक अन्य अवयवों की भाँति, किन्तु इनमें से जो भी चक्र जागृत हो जाते हैं उनके अनुभव साधक को होते हैं । नवरात्रों में भगवती के नौ रूपों की यदि पूर्ण श्रद्धा भक्ति और पूर्ण ध्यान के अभ्यास के साथ उपासना की जाए तो इन चक्रों को जागृत किया जा सकता है ऐसा हमारे मनीषियों का मानना है – क्योंकि नवरात्र के पूरे नौ दिनों में साधक का मन अलग अलग चक्रों में क्रमशः अवस्थित होता जाता है । किन्तु इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए गहन साधना की आवश्यकता होती है – और यही सबसे कठिन कार्य है सांसारिक बन्धनों में बद्ध व्यक्ति के लिए – क्योंकि हम लोग तो “व्रत और उपवास” के दिन भी साधना के स्थान पर उत्तम प्रकार के “फलाहार” बनाने और उनके सेवन में व्यतीत कर देते हैं । फिर भी, अपनी अल्प बुद्धि से और ग्रन्थों के अध्ययन से जैसा समझ आया वैसा ही यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं कि नवरात्रों के नौ दिन साधक का मन किस किस चक्र पर अवस्थित होता है ।
- नवरात्रों के प्रथम दिन भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना की जाती है । नवरात्रों से पूर्व योग ध्यान आदि के गहन अभ्यास के द्वारा साधक अनुभव अथवा भावनाओं के उस शिखर तक पहुँच जाता है जहाँ उसे दिव्य चेतना का अनुभव होता है तथा उसका मन हिमालय की भाँति स्थित हो जाता है । यही है शैलपुत्री का वास्तविक अर्थ । और यह स्थिरता तभी सम्भव है जब मूलाधार चक्र को जागृत कर लिया जाए । भगवती के शैलपुत्री रूप की उपासना के माध्यम से हम वास्तव में इस मूलाधार चक्र को ही जागृत करने का प्रयास करते हैं ताकि हमारी व्यक्तिगत क्षमताओं में वृद्धि हो सके और हमारा मन स्थिर होकर हमारी सुरक्षा की भावना भी प्रबल हो सके ।
- द्वितीय नवरात्र समर्पित होता है भगवती के ब्रह्मचारिणी रूप को । ब्रह्मचारिणी का अर्थ ही है वह जो ब्रह्माण्ड अर्थात् असीम में – अनन्त में विद्यमान हो – गतिमान है । एक ऐसी ऊर्जा हो जो जड़ न होकर अनन्त में विचरण करती हो । यही कारण है कि इनकी आराधना से सम्भावनाओं के अनन्त आकाश समक्ष उपस्थित हो सकते हैं । माता का यह स्वरूप ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक तापसी का रूप है – ब्रह्म अर्थात तप और चारिणी अर्थात् आचरण करने वाली । हम सभी अपने जीवन में किसी ना किसी तप का पालन करते हैं – अपने कार्यक्षेत्र की कठिनाइयाँ हों, कार्य में सफलता प्राप्त करनी हो, दिन प्रतिदिन की जीवन की चुनौतियाँ हों – हर संघर्ष एक तपस्या ही है । ऐसे में यदि स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हो जाए तो व्यक्ति की रचनात्मकता और भावनात्मकता में वृद्धि होगी और उसे अपनी समस्याओं का निर्भीकता से सामना करते हुए उनके निराकरण का उपाय खोजने में दिशा प्राप्त होगी । इसीलिए ब्रह्मचारिणी रूप की उपासना से हम अपना स्वाधिष्ठान चक्र जागृत कर सकते हैं ।
- चन्द्रघण्टा अर्थात् चन्द्रमा के समान दैदीप्यमान और आकर्षक – तथा, चन्द्र हो घण्टा में जिसके – चन्द्रमा जिसे अत्यन्त निर्मल और धवल माना जाता है । शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता है । आज जीवन जिस तेज़ गति से भाग रहा है उस स्थिति में मन को शान्त, स्थिर और शीतल रखना अत्यन्त आवश्यक है । मन जब शान्त और स्थिर रहेगा तभी नकारात्मक विचार नष्ट होकर व्यक्ति की आत्म शक्ति और इच्छा शक्ति को बल मिलेगा, और इसी के लिए मणिपुर चक्र को जागृत किया जाता है । भगवती के चन्द्रघण्टा रूप की उपासना के द्वारा इसी मणिपुर चक्र को जागृत किया जाता है । जिससे व्यक्ति को सन्तोष की अनुभूति होती है और उसकी नेतृत्व शक्ति में विकास होता है ।
- चतुर्थ नवरात्र को भगवती के कूष्माण्डा रूप की उपासना की जाती है । माँ कूष्माण्डा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का स्रोत हैं ।इस दिन साधक का मन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है तथा इसके सन्तुलन से प्रेम, करुणा और भावनात्मक सन्तुलन स्थापित होता है । इस सन्तुलन से जीवमात्र के प्रति हमारा समभाव स्थापित होने के कारण हमारा मिलन अपनी स्वयं की आत्मा से होता है । क्योंकि व्यक्ति को समझ आ जाता है कि पिण्डे सो ब्रह्माण्डे अर्थात् जो ब्रह्माण्ड में है वही हमारे शरीर में भी है और इस प्रकार ब्रह्माण्ड के सभी जीवों में एक ही आत्मा का वास है ।
- पञ्चम नवरात्र समर्पित है भगवती के स्कन्द माता रूप को – जिन्हें कार्तिकेय अर्थात् स्कन्द की जननी होने के कारण जनन की देवी भी कहा जाता है – फिर चाहे वह प्रकृति हो, मनुष्य हो अथवा अन्य कोई भी प्राणी हो । जन्म ज्ञान शक्ति और कर्म शक्ति के मिलन का परिणाम होता है अतः स्कन्दमाता इन दोनों शक्तियों के मिलन स्वरूप ऐसी दिव्य शक्ति हो जाती हैं जो ज्ञान से – सत्य सत्य से दर्शन कराती हैं – क्योंकि यह समस्त दृश्य प्रपञ्च मिथ्या होते हुए भी प्रत्यक्ष होने के कारण सत्य ही प्रतीत होता है । पञ्चम नवरात्र को साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित हो जाता है – जिसके जागृत होने से ईश्वर की सत्ता का अनुभव होने लगता है तथा इस चक्र के आकाश तत्व होने के कारण साधक उस सत्य की अभिव्यक्ति भी कुशलता से कर सकता है ।
- छठा नवरात्र समर्पित होता है भगवती के कात्यायनी रूप को । इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में अवस्थित हो जात है जिसके कारण साधक को तत्व का बोध होता है, आत्मज्ञान प्राप्त होता है और इसी कारण अज्ञात भय से मुक्ति प्राप्त होती है तथा ध्यान और धारणा शक्ति के प्रबल हो जाने के कारण व्यक्ति में क्षमा भावना का विकास हो जाता है । आज्ञा चक्र सत् चित् और आनन्द के केन्द्र होता है और इसके जागृत हो जाने से नैतिक तर्क शक्ति तथा विवेक में वृद्धि के साथ ही वाक्सिद्धि भी सम्भव हो जाती है ।
- सप्तमनवरात्रकोभगवतीकेकालरात्रिरूपकीउपासनाकीजातीहैतथाअष्टमनवरात्रकोमहागौरीरूपकी।इनदोनोंरूपोंकीउपासनासेसहस्रारचक्रजागृतहोताहै।प्रथमनवरात्रसेमूलाधारकोजागृतकरतेहुएसाधकऊर्ध्वकीओरअग्रसरहोताहुआआध्यात्मऔरयोगकेअत्यन्तमहत्त्वपूर्णचक्रसहस्रारचक्रकेअधोभागपरपहुँचजाताहैजहाँसेसहस्रदलकमलप्रस्फुटितहोनेजैसाअनुभवहोनेलगताहै।इसेआज्ञाचक्रकाउच्चतमबलभीकहाजाताहै।यहीकारणहैकिअष्टमनवरात्रकोजबभगवतीकेमहागौरीरूपकीउपासनासाधककरताहैतोउसकीएकाग्रताअपनेचरमपरहोतीहैतथाउसेआलस्यसेमुक्तिप्राप्तहोतीहै।
- नवम दिन भगवती के सिद्धिदात्री रूप की उपासना की जाती है । नाम से ही स्पष्ट है – सिद्धि प्रदान करने वाला – मोक्ष प्रदान करने वाला रूप है यह । अथक साधना के फलस्वरूप इस दिन साधक का सहस्रार चक्र जागृत हो जाता है जो अन्तिम चक्र है तथा आत्मज्ञान और परम शान्ति का अनुभव कराता है । इसका सम्बन्ध चेतना, ज्ञान तथा आध्यात्मिक जागृति से होता है । यही कारण है इसके जागृत हो जाने से साधक योगी को अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्वऔरवशित्वआदिवेसमस्तसिद्धियाँप्राप्तहोजातीहैंजोदेवाधिदेवभगवानशिवकोइसउपासनासेप्राप्तहुईथीं।
किन्तु ध्यान रहे, ये सभी हमारे योगीजनों के अनुभवों के सत्य हैं – समय समय पर जिनका अध्ययन करने का सौभाग्य प्रायः हम सभी को प्राप्त होता रहता है । योग की विविध प्रक्रियाओं में निष्णात होने का बाद ही साधक में ऐसी सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि वह नवरात्रों के नौ दिनों तक मूलाधार चक्र से आरम्भ करके निरन्तर ऊर्ध्व की ओर अग्रसर होते हुए सहस्रार चक्र को जागृत करके सभी सिद्धियाँ प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है – और योगीजनों के लिए मोक्ष से अभिप्राय शरीर से मोक्ष नहीं है, अपितु परम ज्ञान की प्राप्ति होता है ।