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महिला सशक्तीकरण और योग

महिला सशक्तीकरण और योग

हम सभी जानते हैं कि हमारे माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयासों के फलस्वरूप हर वर्ष 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस का आयोजन किया जाता है समस्त विश्व में | हर वर्ष कोई किसी नवीन विषय के साथ इस दिवस का आयोजन किया जाता है | इस वर्ष की थीम है “महिला सशक्तीकरण के लिए योग” | किन्तु हम विषय पर आएँ, उससे पूर्व कुछ बात कर ली जाए कि योग कहते किसे हैं | क्योंकि योग का नियमित अभ्यास महिलाओं के लिए भी उसी प्रकार लाभदायक है जिस प्रकार पुरुषों के लिए |

“योग” शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी धातु में घञ् प्रत्यय लगाकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है समाधि अर्थात चित्त वृत्तियों का निरोध | इसके अतिरिक्त “युजिर योग” तथा “युज संयमने” रूप में भी इसका प्रयोग होता है जिसका अर्थ होता है क्रमशः योगफल अर्थात गुणन अथवा जोड़ तथा नियमन | श्रीमद्भगवद्गीता में कथन है “योगः कर्मसु कौशलम्” अर्थात कर्म में कुशलता ही योग है | इसके अतिरिक्त विविध दर्शनों में दार्शनिक – आध्यात्मिक आदि पृथक पृथक अर्थों में योग शब्द का प्रयोग हुआ है | पतञ्जलि योगसूत्र में, कहा गया है “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है | किन्तु चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम तो चित्त है | पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का निःशेष हो जाना | उस स्थिति में भगवान श्रीकृष्ण के कथन “योगस्थः कुरु कर्माणि” अर्थात योग में स्थित होकर कर्म करो – इस वाक्य का क्या अर्थ रह जाएगा | इस प्रकार विविध दर्शनों के आधार पर – अध्यात्मिक दृष्टिकोण से – योग की अनेकानेक परिभाषाएँ उपलब्ध होती हैं – जो सब एक विशद विवेचना का विषय है | यहाँ हम आधुनिक सन्दर्भों में योग के विषय में बात कर रहे हैं |

योग के प्रामाणिक ग्रन्थों में चार प्रकार के योगों का वर्णन उपलब्ध होता है : मन्त्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः | चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता 5/11) अर्थात मन्त्र योग, हठ योग, लय योग और राजयोग | महर्षि पतंजलि ने पातंजल योग दर्शन “अथयोग अनुशासनम्” शब्द से प्रारम्भ किया है इससे स्पष्ट है कि उन्होंने जीवन के आदर्शों में अनुशासन को महत्व दिया है | पतंजलि योग का विकास आठ क्रमों में होता है इसलिए इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है और इन आठों अंगों का अभ्यास करने से पूर्व साधक के लिए षट्कर्म करना अति आवश्यक होता है – जो हैं – नेति, नौलि, धौति, वस्ति, कपाल भाति और त्राटक |

योग के आठ चरण अनुशासन के व्यवस्थित मार्ग की खोज करते हैं | ये आठ चरण हैं – यम और नियम – जो कायिक वाचिक तथा मानसिक संयम के लिए योग के नैतिक नियमों का निर्माण करते हैं तथा व्यक्ति के मानसिक व्यवहार को उचित रूप प्रदान करने में सहायक होते हैं | आसनों का उद्देश्य है शारीरिक स्वास्थ्य तथा शरीर को स्थिरता प्रदान करना | प्राणायाम प्राण अर्थात जीवनी शक्ति को नियन्त्रित करने की प्रक्रिया है और यह नियन्त्रण प्राण के सर्वाधिक स्थूल स्वरूप श्वास पर नियन्त्रण के द्वारा प्राप्त होता है | मन को नियन्त्रित करने के लिए आवश्यक है सर्वप्रथम श्वास को नियन्त्रित किया जाए | प्रत्याहार का अर्थ है इन्द्रिय निग्रह – जो मानसिक शान्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है | ये पाँचों अंग बाह्य अंग कहलाते हैं |

राजयोग के आन्तरिक अंगों का लक्ष्य है मन को अनुशासित करना | धारणा का अर्थ है ध्यान और एकाग्रता – धारण करना – मन को एक केन्द्र पर एकाग्र करना – धारण करना | दीर्घ अवधि तक धारणा का अभ्यास ध्यान की स्थिति को ले जाता है जिसे मन की एकाग्रता भी कह सकते हैं | जबकि दीर्घकालिक ध्यान समाधि अर्थात आत्मज्ञान की स्थिति को ले जाता है | यहाँ मन ऊपर उठ जाता है और साधक आत्मा के विषय में जागरूक होकर स्वयं को उससे युत (युज) कर लेता है | इसी स्थिति को सत्-चित्-आनन्द की स्थिति कहा जाता है | व्यक्ति अपनी चेतना का प्रसार करता है और अन्तिम सत्य के साथ एकाकार हो जाता है – तादात्म्य स्थापित कर लेता है | ये तीनों राजयोग के आन्तरिक अंग हैं | स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि देखें तो सामान्यतः रोग किसी भी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक तथा आध्यात्मिक कारणों से तथा असन्तुलित जीवन शैली के कारण उत्पन्न होते हैं |

इनके अतिरिक्त बन्ध और मुद्राएँ प्राणायाम से सम्बद्ध साधनाएँ हैं | इनको योग की उच्चतर साधना के रूप में देखा जाता है क्योंकि इनमें मुख्य रूप से श्वसन पर नियन्त्रण के साथ कतिपय शारीरिक और मानसिक पद्धतियों को अंगीकार किया जाता है | योगाभ्यासों में जो श्वास प्रश्वास को नियन्त्रित करके तथा बन्ध आदि लगाकर जो विभिन्न प्रकार की आसन आदि लगाने की क्रियाएँ की जाती हैं वे योग मुद्राएँ कहलाती हैं | आसन से शरीर की हड्डियाँ लचीली और मजबूत होती हैं, जबकि मुद्राओं के द्वारा शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है | जितने भी योग से सम्बन्धित प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं सभी में हस्त मुद्राओं सहित कुल मिलाकर पचास से साठ मुद्राओं का उल्लेख प्राप्त होता है |

भारत में सहस्रों वर्षों से पूजा अर्चना और सन्ध्या वन्दन के समय मुद्राओं का उपयोग होता रहा है | मनुष्य केवल शरीर और मन का मेल ही नहीं है, अपितु भावनाएँ और इच्छाएँ भी मनुष्य की मनुष्यता का एक अंग हैं | हमारे ऋषि मुनियों ने इस तथ्य को समझा और कुछ नैतिक मूल्यों के साथ धर्म की सत्ता प्रकाश में आई | जिसमें ऋषि मुनियों ने धार्मिक क्रियाओं के साथ मुद्राओं को जोड़ दिया |

वास्तव में शरीर की अपनी एक भाषा होती है | एक मूक और बधिर व्यक्ति भी शरीर तथा हाथों की मुद्राओं के माध्यम से सामान्य व्यक्तियों के समान बात कर सकता है | और नृत्यों में तो सारी बातें – समस्त अभिनय – मुद्राओं के माध्यम से ही होता है | हम कह सकते हैं कि नृत्य यदि एक भाषा है तो मुद्राएँ उसके शब्द हैं – नृत्य और अभिनय के भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम हैं | इस प्रकार अनादि काल से मुद्राओं का मानव के जीवन में महत्त्व रहा है | हमारे मनीषियों ने इन मुद्राओं अनेक वर्षों तक कठिन साधना करके शोध कार्य किये और मानव जीवन में मुद्राओं के महत्त्व को समझने समझाने का प्रयास किया | संस्कृत में तो मुद्राओं का अर्थ ही है शरीर के हाव भाव (अंग विन्यास) अथवा प्रवृत्ति | व्यक्ति के बैठने से अथवा खड़े होने से अनुमान हो जाता है कि उस व्यक्ति के मन में क्या चल रहा होगा | व्यक्ति का अंग विन्यास बहुत सीमा तक बता देता है कि वह व्यक्ति किसी प्रकार के अवसाद से ग्रस्त है अथवा किसी प्रकार के अत्यन्त आनन्द का अनुभव कर रहा है अथवा क्रोध में है इत्यादि इत्यादि |

हमारा शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है – जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथिवी | इनमें से प्रत्येक तत्व का शरीर के विभिन्न क्रिया कलापों तथा समस्त विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण कार्यों से सम्बन्ध होता है | हमारे हाथों की पाँचों अँगुलियाँ इन्हीं पाँच तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं | हमारे हाथ के अँगूठे अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, तर्जनी अँगुली वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करती है, मध्यमा को आकाश तत्व का प्रतिनिधि माना जाता है, अनामिका प्रतिनिधित्व करती है पृथिवी तत्व का तथा कनिष्ठिका को जल तत्व का प्रतिनिधित्व प्राप्त है | अँगुलियों के इन पाँचों वर्गों से अलग अलग शक्ति धाराएँ प्रवाहित होती हैं जो किसी कारणवश असन्तुलित हो जाती हैं | अँगुलियों को विभिन्न प्रकार से आपस में मिलाकर जो मुद्राएँ बनाते हैं उनसे उन विविध तत्वों के सम्मिश्रण के कारण ये असन्तुलित शक्तियाँ सन्तुलित होने लग जाती हैं और शरीर में उन तत्वों असन्तुलन से उत्पन्न दोष दूर होने लगते हैं | अर्थात हमारे हाथों की दसों अँगुलियों से निर्मित मुद्राएँ शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को नियन्त्रित कर स्वास्थ्य लाभ का मार्ग प्रशस्त करती हैं |

कुछ हस्त मुद्राओं का उपयोग कुण्डलिनी अथवा ऊर्जा के स्रोत को जागृत करने के लिए किया जाता है, कुछ का अभ्यास आरोग्य प्राप्ति तथा दीर्घायु की कामना से किया जाता है, तो कुछ का प्रयोग अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति के लिए भी किया जाता है |

षट्कर्म विषाक्तता दूर करने की प्रक्रियाएँ हैं तथा शरीर में संचित विष को निकालने में सहायक होते हैं |

इस प्रकार वास्तव में योग बहुत सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित एक आध्यात्मिक विषय है जो मन एवं शरीर के बीच सामंजस्य स्थापित करने पर ध्यान देता है | साथ ही, यह स्वस्थ जीवन – यापन की कला एवं विज्ञान है | योग से सम्बन्धित ग्रन्थों के अनुसार योगाभ्यास से व्यक्ति की चेतना ब्रह्माण्डीय चेतना से युत हो जाती है जो मन एवं शरीर, मानव एवं प्रकृति के बीच परिपूर्ण सामंजस्य का द्योतक है |

इस वर्ष योग दिवस की थीम है नारी सशक्तिकरण में योग की भूमिका | तो यहाँ कहना चाहेंगे कि नियमित योगाभ्यास करने वाली महिलाओं में अपनी आन्तरिक प्रतिभा, कौशल तथा शक्तियों के प्रति जागरूकता उत्पन्न हो जाती है | उनकेआत्मविश्वास में वृद्धि होती है जिसके कारण उनकी निर्णायक क्षमता में भी वृद्धि होती है और वे स्वयं अपने तथा परिवार के लिए निर्णय ले सकती हैं | किसी भी प्रकार की चुनौती का साहस के साथ सामना करने में सक्षम हो जाती हैं क्योंकि उनकी मानसिक और शारीरिक शक्ति में वृद्धि के साथ ही मन और शरीर में सन्तुलन बना रहता है | प्रसव काल की उस सुखद पीड़ा को सरलता से सहन करने की सामर्थ्य तथा उस समय के लिए आवश्यक शक्ति उन्हें योग के माध्यम से प्राप्त होती है | योग इनकी मांसपेशियों को बलिष्ठ बनाने के साथ ही उनके भावनात्मक तनाव को कम करके में सहायता कर सकता है |

महर्षि पतंजलि के राजयोग में  इसमें मार्गों की शिक्षाएँ समाविष्ट हैं और यही कारण है कि किसी भी स्वभाव और किसी भी परिवेश के व्यक्ति इनका अभ्यास कर सकते हैं | यह तीन दिशाओं में कार्य करता है – शारीरिक, आध्यात्मिक और मानसिक और इस प्रकार साधक पूर्ण आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता जाता है | यह एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक अनुशासन है जो मनुष्य को चरम सत्य की ओर ले जाता है | यही कारण है कि राजयोग उस आधुनिक समाज के लिए भी पूर्ण रूप से अनुकूल है जिसका धर्म ही हर बात में सन्देह करना बन गया है |

अस्तु, अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर आइये संकल्प लें कि शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन नियत समय पर योगाभ्यास अवश्य करेंगे | हम सभी स्वस्थ रहते हुए सुख के भागी बनें यही कामना है…
—–कात्यायनी

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के अभ्यास पर वार्ता करते हुए ध्यान के अभ्यास में भोजन की भूमिका पर हम चर्चा कर रहे हैं | इसी क्रम में आगे…

भोजन भली भाँति चबाकर करना चाहिये | अच्छा होगा यदि भोजन धीरे धीरे और स्वाद का अनुभव करते हुए ग्रहण किया जाए | पाचनतंत्र को और अधिक उत्तम बनाने के लिए भोजन में तरल पदार्थों की मात्रा अधिक होनी चाहिए | ताज़े फल और सलाद भी आपके भोजन का आवश्यक अंग होने चाहियें | भूख से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि इसके कारण बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं | भोजन के बाद मुँह और दाँतों की सफाई करें और पाचनतंत्र को विश्राम दें | दो भोजन के बीच में कुछ नाश्ता आदि न लें | वास्तव में भोजन ध्यान के अभ्यास, सम्भोग तथा नींद से कम से कम चार घंटे पूर्व कर लेना चाहिए | अर्थात ध्यान के अभ्यास और भोजन में, सम्भोग और भोजन में अथवा निद्रा और भोजन में कम से कम चार घंटे का अंतराल रखेंगे तो आपके लिए श्रेष्ठ रहेगा | भोजन के तुरन्त सोने के लिए चले जाना स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं होता |

पाचन क्रिया और भोजन के प्रति आपके शरीर की प्रतिक्रिया का आपके ध्यान एक अभ्यास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है | क्योंकि भोजन करने के तीन चार घंटे बाद तक ध्यान का अभ्यास नहीं किया जा सकता इसीलिए प्रातः जल्दी उठकर ध्यान का अभ्यास करना सबसे अधिक उपयुक्त रहेगा | उस समय आपका शरीर पिछले दिन के भोजन को पचा चुका होता है और हल्का तथा चुस्त अनुभव कर रहा होता है | शाम को यदि आपने देर से भोजन किया है अथवा भरपेट भारी भोजन किया है तो आपको देर रात तक प्रतीक्षा करनी होगी इस बात के लिए कि आपका भोजन पच जाए और तब आप ध्यान का अभ्यास आरम्भ करके ध्यान केन्द्रित कर सकें |

क्रमशः…

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान की तैयारी की बात कर रहे हैं तो आगे बढ़ने से पूर्व ध्यान की तैयारी से सम्बद्ध कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्यों को भी समझ लेना आवश्यक होगा |

ध्यान के समय भोजन का प्रभाव :

योग का मनोविज्ञान चार प्राथमिक स्रोतों का वर्णन करता है – चार प्राथमिक इच्छाएँ जो हम सभी को प्रेरित करती हैं, और ये हैं – भोजन, सम्भोग, निद्रा और आत्मरक्षण की अभिलाषा | इन चारों इच्छाओं में असन्तुलन से शारीरिक और भावनात्मक दुष्परिणाम होते हैं, जिनके कारण ध्यान केन्द्रित करने की सामर्थ्य में व्यवधान उत्पन्न होता है |

ध्यान के दृष्टिकोण से ताज़ा और सादा भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक होता है, न कि अधिक पका हुआ, अधिक चिकनाई से युक्त अथवा अधिक तला भुना | असन्तुलित आहार से पाचन सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जिनसे ध्यान की प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है | ताज़ा, सादा और प्राकृतिक आहार पोषक होता है, सुपाच्य होता है और इसीलिए लाभदायक होता है |

जिस वातावरण में भोजन किया जाए वह आनन्ददायक और सकारात्मक होना चाहिए | अज के दिनों में जहाँ पति पत्नी और बच्चे अपनी अपनी व्यस्तताओं के चलते सारा दिन घर से बाहर रहने को विवश होते हैं, वहाँ साथ बैठने और दिन भर के घटनाक्रम पर चर्चा करने का सौभाग्य उन्हें बस भोजन के समय ही मिलता है | परिवार के लोगों में इतनी समझ होनी चाहिए कि भोजन करते समय किसी भी प्रकार की अप्रिय अथवा नकारात्मक चर्चा न करें | प्रसन्नचित्त रहना उत्तम स्वास्थ्य की कुँजी है | जो लोग अच्छे स्वास्थ्य के इस महत्त्वपूर्ण रहस्य के प्रति जागरूक हैं वे जानते हैं कि भोजन करते समय उन्हें प्रसन्नचित्त रहना है | मन की प्रसन्न और आह्लादक स्थिति का हमारे पाचन तन्त्र और अन्तर्ग्रन्थियों से मल आदि के निष्कासन आदि पर व्यापक प्रभाव पड़ता है |

यदि हम अपने शरीर की कार्यप्रणाली और भाषा को समझ जाते हैं तो बहुत से रोगों और शारीरिक समस्याओं से बचा जा सकता है | जब सुस्वादु और पौष्टिक भोजन आनन्ददायक वातावरण में प्रसन्नचित्त से ग्रहण किया जाता है तो हमारा शरीर लार और आमाशय का रस पैदा करता है | जिससे भोजन को पचाने में सहायता मिलती है | उदासीनता अथवा क्रोध की स्थिति में अथवा नकारात्मक चर्चाओं के साथ किया गया भोजन पाचन सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करता है |

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

हम बात कर रहे हैं कि ध्यान के अभ्यास के लिए स्वयं को किस प्रकार तैयार करना चाहिए | इसी क्रम में आगे :

पञ्चम चरण : ध्यान में बैठना :

श्वास के अभ्यासों के महत्त्व के विषय में पिछले अध्याय में चर्चा की थी | श्वास के उन विशिष्ट अभ्यासों को करने के बाद आप अब ध्यान के लिए तैयार हैं | ध्यान के आसन में बैठ जाइए (आगे ध्यान के लिए कुछ आसनों का भी वर्णन करेंगे) और बस अपने मन्त्र के प्रति अथवा सार्वभौम मन्त्र “सोSहम्” के प्रति मन को सावधान कीजिए | ‘सोSहम्” की ध्वनि का श्वास के साथ विशेष रूप से सम्बन्ध होता है | श्वास भीतर लेते समय मन ही मन में “सो” की ध्वनि को सुनने का प्रयास करें और श्वास बाहर निकालते समय “हम्” की ध्वनि को सुनें |

श्वास को लम्बी और मृदुल होने दें | स्थिरचित्त बैठकर मन को अपने मन्त्र में केन्द्रित करें | सुविधाजनक स्थिति में ध्यान के आसन में बैठे हुए मन को स्थिर और केन्द्रित होने दें | जितनी देर तक आप सुविधापूर्वक बैठ सकते हैं अथवा उस समय जितना समय आपके पास है उसके अनुसार जितनी देर आप चाहें बैठ सकते हैं | जब आप ध्यान से बाहर आना चाहें तो सबसे पहले श्वास प्रक्रिया पर ध्यान दें और फिर शरीर पर | अन्तःचेतना से बाह्य चेतना में धीरे धीरे क्रम से आएँ | हाथों की हथेलियों को आधा मोड़कर आँखों को ढाँप लें | फिर आँखों को खोलकर पहले हथेलियों को देखें फिर हाथों को | ध्यान की अवस्था में आपके मन के साथ क्या होता है और आप मन के साथ किस प्रकार कार्य करते हैं इस विषय पर आगे चर्चा की जाएगी |

तो इस प्रकार ध्यान के अभ्यास का क्रम हुआ – सबसे पहले नहा धोकर अथवा केवल हाथ मुँह धोकर तैयार हो जाएँ, फिर शरीर को खींचने के और कुछ योग के आसन करें, उसके बाद विश्राम के अभ्यास, फिर श्वास के अभ्यास और अन्त में ध्यान का अभ्यास |

अगले अध्याय में ध्यान पर भोजन के प्रभाव के विषय में बात की जाएगी…

क्रमशः…

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के लिए स्वयं को तैयार करना :

ध्यान के अभ्यास के लिए आपने अपने लिए उचित स्थान और अनुकूल समय का निर्धारण कर लिया तो समय की नियमितता भी हो जाएगी | अब आपको स्वयं को तैयार करना है ध्यान के अभ्यास के लिए | इस विषय में क्रमबद्ध रूप से तैयारी करनी होगी | इसी क्रम में…

प्रथम चरण – ध्यान के अभ्यास के लिए शरीर को तैयार करना :

सबसे पहले शरीर को बाह्य स्तर पर तैयार करने की आवश्यकता है | आपका शरीर यदि ऊर्जावान, सुखी, तनावरहित और स्वच्छ होगा तो ध्यान का अभ्यास भी सरल हो जाएगा | स्नान करके अथवा केवल हाथ मुँह और पैर धो लेने से भी आप स्वयं को चुस्त अनुभव करने लगेंगे | साथ ही प्रातःकाल उठने के बाद नित्य कर्म – मल मूत्र त्याग – करने के बाद स्वयं को ध्यान के लिए तैयार करते हैं तो आपका शरीर ध्यान में सुविधा का अनुभव करेगा |

द्वितीय चरण – शरीर को ढीला छोड़ना और खींचना  (Relaxation and Stretch Exercises) :

कुछ लोग सारी रात सोने के बाद जब प्रातःकाल नींद से जागते हैं तो उन्हें शरीर में अकड़ाहट और कुछ दर्द का अनुभव होता है | इस स्थिति में गर्म जल से स्नान और शरीर को धीरे धीरे खींचने के अभ्यास (stretch exercises) आपके शरीर के लिए ध्यान में बैठने में सहायक होंगे |

हठयोग के आसन विशेष रूप से शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए और उसे इतना दृढ़ और लचीला बनाने के लिए ही विकसित किये गए हैं कि ध्यान के लिए आराम से बैठा जा सके | ये आसन शरीर को कोमल बनाते हैं | किसी योग्य प्रशिक्षक से इन अभ्यासों को व्यक्तिगत रूप से सीखना चाहिए |

कमर और टाँगों को कसने और ढीला छोड़ने के अभ्यासों से ध्यान में सुविधा होगी | कुछ मिनट के लिए शरीर को कसने जैसे योगासन आपके ध्यान की गुणवत्ता में वृद्धि करेंगे | तनावपूर्ण aerobic exercises के विपरीत हठयोग के आसन न तो आप थकाते ही हैं और न ही आपके शरीर को आवश्यकता से अधिक फुर्तीला बना देते हैं | अपितु आपको धीरे धीरे  चुस्त बनाते हैं, माँसपेशियों को आराम पहुँचाते हैं, मानसिक तनाव को दूर करने में सहायक होते हैं और आपके ध्यान को केन्द्रित करने में सहायता पहुँचाते हैं |

आरम्भ में ध्यान से पहले पाँच से दस मिनट शरीर को कसने और विश्रान्त करने के अभ्यास कीजिए ताकि आपका शरीर ध्यान के लिए तैयार हो जाए |

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के लिए समय निकालना और उसकी नियमितता बनाए रखना

ध्यान के लिए समय निकालना 

ध्यान का अभ्यास रात को अथवा दिन में किसी भी समय किया जा सकता है | किन्तु प्रातःकाल अथवा सायंकाल का समय ध्यान के लिए आदर्श समय होता है – क्योंकि इस समय का वातावरण ध्यान में सहायक होता है | आपके चारों ओर का संसार शान्त होता है और कोई आपके ध्यान में बाधा नहीं डाल सकता | सुबह सुबह और प्रातःकाल के समय आप तारो ताज़ा और अपेक्षाकृत अधिक चुस्त भी होते हैं | इसीलिए ऐसे ही समय ध्यान करना चाहिए | फिर भी आपकी दिनचर्या और आपके व्यक्तिगत उत्तरदायित्व आपके ध्यान के समय का निर्धारण करेंगे |

अगर आपके छोटे छोटे बच्चे हैं तो आपके लिए रात का समय उचित रहेगा जबकि बच्चे सोने के लिए चले जाएँगे | आरम्भ में आप पाँच से पन्द्रह मिनट तक की दो समयावधियाँ चुनिए जबकि आप दूसरों को कष्ट पहुँचाए बिना, दूसरों को असुविधा पहुँचाए बिना, अपने उत्तरदायित्वों की उपेक्षा किये बिना, बिना किसी शीघ्रता अथवा जल्दबाज़ी के और दूसरी बातों में स्वयं को व्यस्त रखे बिना ध्यान का अभ्यास कर सकें | इसके लिए अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करने का सबसे उपयुक्त समय होगा प्रातः जल्दी उठकर अथवा बिस्तर में जाने से ठीक पहले ध्यान करना |

कुछ लोग प्रातःकाल और कुछ सायंकाल स्वयं को प्राकृतिक रूप से ऊर्जावान और चेतन अनुभव करते हैं | यही समय आपके लिए ध्यान का उपयुक्त समय हो सकता है | फिर भी जैसा अभी ऊपर लिखा, आपकी दिनचर्या और आपके व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों पर अधिक निर्भर करता है कि ध्यान के लिए कौन सा समय आपके लिए अधिक उपयुक्त और सुविधाजनक रहेगा |

समय की नियमितता को बनाए रखना :

यदि आप प्रतिदिन नियमित समय पर ध्यान का अभ्यास करेंगे तो निश्चित रूप से प्रगति ही होगी | इसको अपना स्वभाव बनाना और पूर्ण निष्ठा से उसका निर्वाह करना तथा अपनी दिनचर्या का पूर्व निर्धारित आवश्यक अंग बनाना ध्यान के अभ्यास में गहराई लाने के लिए सहायक होगा | यहाँ तक कि यदि आपकी दिनचर्या ऐसी है जो कि हर दिन बदलती रहती है तब भी ध्यान के लिए एक निश्चित समय निर्धारित करके प्रतिदिन उसी समय पर अभ्यास करने का प्रयास कीजिए | इससे आपके आलस्य तथा विलम्ब से कार्य करने की आपकी प्रवृत्ति के कारण जो व्यवधान उपस्थित होते हैं उनमें भी कमी आएगी |

क्रमश:…………….

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान के लिए तैयारियाँ :

अब तक बात चल रही थी कि ध्यान कहते किसे हैं तथा ध्यान के सम्बन्ध में किस किस प्रकार के भ्रम साधकों को हो सकते हैं | अब बात करते हैं ध्यान के लिए स्वयं को तैयार करने की |

ध्यान के अभ्यास में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक चरण है ध्यान के अभ्यास के लिए स्वयं को उचित रूप से तैयार करना – जिसकी हम प्रायः उपेक्षा कर देते हैं | उचित तैयारी के अभाव में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक हर तरह की उलझनें उत्पन्न होंगी जो ध्यान को गहन और स्थिर नहीं होने देंगी | आपका शरीर जब तक स्वयं ध्यान की स्थिति में नहीं पहुँच जाता अथवा ध्यान में आपको सहयोग नहीं देता तब तक शारीरिक समस्याएँ और असुविधाएँ निश्चित रूप से आपको ध्यान का अभ्यास करने से रोकेंगी |

सामान्य शारीरिक समस्याएँ जो प्रायः हर किसी के साथ हो सकती हैं वे हैं :

  • किसी प्रकार की बीमारी |
  • किसी तनाव अथवा विश्राम के अभाव में सुविधाजनक स्थिति में बैठने में असमर्थता |
  • थकान अथवा आलस्य |
  • दिन भर की तनावपूर्ण घटनाओं के कारण शरीर में बेचैनी और घबराहट |
  • भोजन से सम्बन्धित समस्याएँ – या तो भूखे हैं अथवा आवश्यकता से अधिक भोजन किया हुआ है |

इनमें से बहुत सी समस्याएँ तो ऐसी हैं जिनका समाधान अपनी जीवन शैली में सुधार अथवा परिवर्तन करके किया जा सकता है | वास्तव में सत्य तो यही है कि रोग के निदान की अपेक्षा रोग से बचने का प्रयास कहीं अधिक श्रेयस्कर होता है | यद्यपि ठण्ड लग जाना अथवा ऐसी ही कुछ अन्य छोटी छोटी शारीरिक समस्याएँ तो ऐसी होती हैं कि इनके चलते हुए भी आप ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं | ध्यान में वास्तविक शारीरिक व्यवधान है किसी गम्भीर रोग के कारण शरीर में बेचैनी, दर्द अथवा ध्यान केन्द्रित करने में असमर्थता | सौभाग्य से ध्यान आपको बहुत सी शारीरिक समस्याओं के प्रति सम्वेदनशील बना देता है और आप समझ जाते हैं कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आपके शरीर की क्या आवश्यकताएँ हैं और इस प्रकार आप सावधान रहकर बीमारी से भी बच सकते हैं |

इन शारीरिक समस्याओं से कैसे बचा जाए इस विषय में आगे बात करेंगे | शारीरिक तनाव और थकान को दूर करने के लिए कुछ विशेष अभ्यास भी बताए जाएँगे | साथ ही भोजन तथा शान्तिपूर्ण और गहरी नींद के विषय में भी चर्चा की जाएगी और यह भी जानकारी देने का प्रयास किया जागा कि इन बातों से आपके द्वारा किये जा रहे ध्यान के अभ्यास पर क्या प्रभाव पड़ता है |

क्रमशः……..

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान धर्म नहीं है :

पिछले अध्याय में हम चर्चा कर रहे थे कि भ्रमवश कुछ अन्य स्थितियों को भी ध्यान समझ लिया जाता है | जैसे चिन्तन मनन अथवा सम्मोहन आदि की स्थिति को भी ध्यान समझ लिया जाता है |

किन्तु हम आपको बता दें कि ध्यान न तो चिन्तन मनन है और न ही किसी प्रकार की सम्मोहन अथवा आत्म विमोहन की स्थिति है | ध्यान कोई ऐसा अपरिचित अभ्यास भी नहीं है जिसके कारण आपको अपनी मान्यताओं और संस्कृति को त्यागना पड़े अथवा धर्म परिवर्तन करना पड़े | बल्कि ध्यान स्वयं को प्रत्येक स्तर पर जानने की एक व्यावहारिक, वैज्ञानिक और क्रमबद्ध पद्धति है | ध्यान का सम्बन्ध संसार की किसी संस्कृति अथवा धर्म से नहीं है, बल्कि यह एक शुद्ध और सरल पद्धति है जीवन को गहराई से जानने की और अन्त में प्रकृतिस्थ हो जाने की |

कुछ लोग अपने स्वयं के प्रचार प्रसार के लिए किसी व्यक्तिगत अभ्यास की प्रक्रिया को “ध्यान” बताकर साधक को दिग्भ्रमित कर देते हैं | किन्तु वास्तव में वे लोग ध्यान का धर्म और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ मिश्रण कर देते हैं | जिसका परिणाम ये होता है कि साधक चिन्ता में पड़ जाता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि ध्यान के अभ्यास से उसके धार्मिक विश्वासों में बाधा उत्पन्न हो जाएगी अथवा किसी अन्य संस्कृति या धर्म को अपनाना पड़ेगा | ऐसा कुछ भी नहीं है |

धर्म जहाँ सिखाता है कि आपकी धारणाएँ और विश्वास क्या होने चाहियें, वहीं ध्यान सीधा स्वयं को अनुभव करना सिखाता है | धर्म और ध्यान इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच किसी प्रकार का संघर्ष है ही नहीं | पूजा अर्चना धर्म के अंग हैं, जिनके द्वारा दिव्य शक्ति से सम्पर्क साधने का प्रयास किया जाता है | आप एक साथ दोनों ही हो सकते हैं – पूजा अर्चना करने वाले धार्मिक व्यक्ति भी और ध्यान का अभ्यास करने वाले साधक भी | लेकिन ध्यान के अभ्यास के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं कि आप जिस धर्म का पालन कर रहे हैं वही करते रहे अथवा उसे छोड़ दें और कोई नया धर्म अपना लें |

ध्यान का अभ्यास शुद्ध सरल भाव से व्यवस्थित और क्रमबद्ध रीति से करने की आवश्यकता होती है | ध्यान के क्रम में जिन प्रमुख बातों को सीखने की आवश्यकता होती है वे हैं:

  • शरीर को किस प्रकार विश्राम कराया जाए |
  • ध्यान के लिए किस प्रकार सुविधापूर्ण और स्थिर आसन में बैठना है |
  • श्वास की प्रक्रिया को किस प्रकार लयबद्ध और स्थिर करना है |
  • मन की गाड़ी में चल रहे विचारों को किस प्रकार शान्तिपूर्वक देखना है |
  • अपने विचारों का किस प्रकार निरीक्षण करना है और उनमें से उन विचारों को किस प्रकार उन्नत करना है जो सकारात्मक हैं और आपकी उन्नति में सहायक हैं |
  • अच्छी बुरी जैसी भी परिस्थिति है उसमें किस प्रकार केन्द्रस्थ और अविचल रहा जाए |

आगे इन्हीं सब बातों पर विचार किया जाएगा ताकि आपका ध्यान अधिक आनन्ददायक, गहन और प्रभावशाली हो सके | यदि आप ध्यान की समझ, उचित प्रक्रिया और व्यवहार के साथ ध्यान का अभ्यास करते हैं तो आप स्वयं को चुस्त और ऊर्जा से भरा हुआ अनुभव करेंगे |

क्रमशः………

Meditation and it’s practices

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ध्यान और इसका अभ्यास

किसी विषय पर मनन करना अथवा सोचना ध्यान नहीं है :

चिन्तन, मनन – विशेष रूप से कुछ प्रेरणादायक विषयों जैसे सत्य, शान्ति और प्रेम आदि के विषय में सोचना विचारना अर्थात मनन करना – चिन्तन करना – सहायक हो सकता है, किन्तु यह ध्यान की प्रक्रिया से भिन्न प्रक्रिया है | मनन करने में आप अपने मन को एक विशेष विषय की जानकारी प्राप्त करने में, उसके अर्थ और मूल्य को समझने में लगा देते हैं | ध्यान की प्रक्रिया में चिन्तन और मनन को एक अलग अभ्यास के रूप में जाना जाता है, हाँ कभी किसी स्तर पर यह सहायक हो सकती है | जब आप ध्यान में होते हैं तो मन को किसी विषय पर सोचने का सुझाव नहीं देते हैं, बल्कि इस मानसिक प्रक्रिया से बहुत ऊपर उठ जाते हैं |

ध्यान सम्मोहन अथवा आत्म विमोहन की स्थिति भी नहीं है :

सम्मोहन में या तो किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा अथवा स्वयं अपने ही द्वारा मन को एक सुझाव दिया जाता है | यह सुझाव कुछ इस प्रकार का हो एकता है – “आप सो रहे हैं अथवा विश्राम कर रहे हैं |” अर्थात सम्मोहन में मन की धारणाओं को जागृत करके उनमें किसी प्रकार के परिवर्तन अथवा उन्हें नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है | इस प्रक्रिया के द्वारा मन को इस बात का विश्वास दिलाने का प्रयास किया जाता है कि यह क्रिया उसके लिए लाभदायक है और उसे दिए गए आदेशों एक अनुसार विचार करना चाहिए – सोचना चाहिए | कई बार इस प्रकार के सुझाव वास्तव में बहुत अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं – क्योंकि सुझावों में प्रभाव छोड़ने की प्रबल शक्ति होती है | दुर्भाग्य से नकारात्मक सुझाव भी हम पर उतना ही गहरा प्रभाव डालते हैं और निश्चित रूप से वह नकारात्मक ही होता है |

ध्यान की अवस्था ऐसी अवस्था होती है जिसमें न तो आप मस्तिष्क को किसी प्रकार का सुझाव देते हैं और न ही उसे किसी प्रकार नियन्त्रित करने का प्रयास करते हैं | आप केवल मस्तिष्क को देखते रहते हैं और उसे शान्त एवं स्थिर होने देते हैं | अपने मन्त्र को अनुमति देते हैं कि वह आपको आपके भीतर ले जाए और आपकी आत्मा के गहनतम स्तर को जानने और अनुभव करने में आपकी सहायता करे | ध्यान में सम्मोहन जैसी प्रक्रियाओं पर एक सीमा तक रोक होती है, क्योंकि इसके अन्तर्गत दिए गए सुझावों में जिन शक्तिशाली और प्रभावशाली बाह्य अनुभवों का उपयोग किया जाता है उनके कारण मस्तिष्क में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है | सम्मोहन अथवा आत्मनिर्देश जैसे अभ्यासों से कुछ रोगों के निदान में सहायता मिल सकती है – क्योंकि इनका चिकित्सकीय प्रभाव हो सकता है, किन्तु ध्यान के साथ इन्हें मिलाने का प्रयास नहीं करना चाहिए | हमारे ऋषि मुनियों ने कहा है कि ध्यान की प्रक्रिया सम्मोहन से पूर्ण रूप से भिन्न प्रक्रिया है | ध्यान मन को किसी प्रकार के भ्रम से रहित और पूर्ण रूप से स्पष्ट स्थिति में ले जाता है और किसी भी प्रकार के सुझाव अथवा बाह्य प्रभाव से मुक्ति दिलाता है |

क्रमशः……..

Meditation and it’s practices

Meditation and it’s practices

ध्यान और इसका अभ्यास

ध्यान कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं :

जिस प्रकार पर्वतारोहण के समय पर्वत के उच्च शिखर तक पहुँचने के लिए सम्भव है कई मार्ग मिल जाएँ, किन्तु लक्ष्य सबका एक ही होता है – पर्वत के शिखर तक पहुँचना | उसी प्रकार ध्यान की भी अनेकों पद्धतियाँ हो सकती हैं जो देखने में परस्पर भिन्न प्रतीत हों, किन्तु लक्ष्य सबका एक ही होता है – अपने भीतर ध्यान एकाग्र करने की स्थिति को प्राप्त करना, स्थिरता और शान्ति प्राप्त करना | जिस अभ्यास से भी इस स्थिति को प्राप्त करने में सहायता मिले वही अभ्यास करना चाहिए | बहुत सी प्रामाणिक पद्धतियाँ हैं, और यदि उनसे आन्तरिक स्थिरता तथा ध्यान केन्द्रित करने में सहायता प्राप्त होती है तो उनकी प्रामाणिकता के विषय में कोई विवाद ही नहीं है | ध्यान आत्मा और जीवन के भीतरी स्तर तक पहुँच कर उन्हें समझने का एक व्यवस्थित, लाभदायक और सफलता प्रदान करने वाला मार्ग है | अतः जब तक गुरु में अहंकार नहीं आता वह ध्यान की किसी पद्धति को “अपनी स्वयं की” पद्धति कहने का प्रयास नहीं करता और न ही अन्य पद्धतियों को कम करके आँकने का प्रयास करता है तब तक वह पद्धति सकारात्मक और मूल्यवान है |

आरम्भ में साधक के मस्तिष्क में इतनी स्पष्टता नहीं होती कि वह अपने लिए उपयुक्त ध्यान की पद्धति का चयन कर सके अथवा उसे समझ सके | साथ ही बहुत से व्यक्ति ध्यान की प्रामाणिक पद्धति की खोज में एक गुरु से दूसरे गुरु के पास भटकते रहते हैं और अपना बहुमूल्य समय, ऊर्जा और धन गँवा कर बैठ जाते हैं और अन्त में निराश और कुण्ठित होकर ध्यान का अभ्यास ही बन्द कर देते हैं |

यहाँ एक बात भी अवश्य समझ लेनी आवश्यक है कि ध्यान कोई धार्मिक अनुष्ठान भी नहीं है, न ही किसी धर्म का अंग है | अपितु अपने भीतर के विविध आयामों को खोजने की और अन्त में व्यक्ति को उसकी प्राकृतिक अवस्था में स्थित करने की एक शुद्ध और सरल प्रक्रिया है | ध्यान की कुछ परम्पराएँ इस स्थिति को समाधि कहती हैं, कुछ निर्वाण, कुछ सम्बोधि और कुछ मोक्ष | किन्तु ध्यान की प्रक्रिया में इन समस्त शब्दों और उपाधियों का कोई महत्त्व ही नहीं है | ध्यान की प्रक्रिया आन्तरिक आध्यात्मिकता सिखाती है न कि किसी धर्म विशेष में दीक्षित करती है |